किसी भी देश को आगे ले जाने के लिए कृषि के योगदान को नकारा नहीं जा सकता।क्योंकि कृषि का योगदान प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से देश की अर्थव्यवस्था को बढ़ाने में सहायक होता है जबकि ऐसे समय में जब जनसंख्या लगातार बढ़ रही है और उस जनसंख्या की खाद्य पूर्ति एवं अर्थव्यवस्था को मजबूत बनाने के लिए हमें और अधिक उत्पादन की जरूरत पड़ेगी, पर इस बढते हुए जनसंख्या को खिलाने के लिए हमारे पास जो उपलब्ध संसाधन है उसमे पूरा करना मुश्किल हो रहा है। जिस तरह से हमारे देश में शहरीकरण और औद्योगिकीकरण हो रहा है उससे कृषि योग्य भूमि और भी कम होती जा रही हैं। इन सब समस्याओं को देखते हुए हमारे पास केवल दो उपाय है जिससे हम अधिक उत्पादन प्राप्त कर सकते हैं, पहला या तो जो खराब भूमि है उनको कृषि योग्य बनाया जाये और दूसरा जो भी हमारे पास कृषि योग्य भूमि है उसको और उपजाऊ बनाया जाये। भारत देश में 142 मिलियन हे0 कृषि योग्य भूमि है जिसमें से केवल 48 प्रतिशत भूमि में ही संस्थागत सिंचाई के साधन उपलब्ध है बाकी बची जमीन सिंचाई के लिए बरसात पर निर्भर है। यदि बारिश में बरसात कम आती है या असमय से आती हैं तो किसानों के लिए समस्या उत्पन्न हो जाती है। इन परिस्थितियों में या तो फसल की बुवाई नहीं हो पाती है अथवा फसल बर्बाद हो जाती है फलस्वरूपः किसानों को आर्थिक क्षति का सामना करना पड़ता है। कभी कभी किसान भाई इन विषम परिस्थितियों में आत्महत्या भी कर लेते हैं। विगत कई वर्षो से पर्यावरण असन्तुलन के कारण वर्षा जल में गिरावट एवं असन्तुलित वितरण पाया गया है। साथ ही साथ वर्षा जल के संरक्षण में कनी एवं अन्धाधुन्ध दोहन के कारण भूगर्भ जल के स्तर में दिनोंदिन गिरावट आती जा रही है जो कि गम्भीर चिन्ता का विषय हैं। ऐसा नहीं है कि हमारे पास पानी की बहुत कमी है पर जिस तरह से इसका इस्तेमाल हो रहा है उससे और अधिक कृषि योग्य भूमि को सिंचित करना मुश्किल है। इसलिए हमें किसी और तकनीक को अपनाना होगा। जिससे और अधिक भूमि को सिंचित किया जा सकें और कृषि पैदावार बढाया जा सके।
अतः आज की आवश्यकता हैं कि पर्यावरण सन्तुलन के लिए यथोचित कदम उठाये जाये साथ ही साथ वर्षा जल का सही तरीके से सरक्षण करते हुए "जल सिंचन" के माध्यम से सूक्ष्म स्तर पर जल दोहन करके संरक्षित सिंचाई सृजित की जाये सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली आज की आवश्यकतानुसार एक बेहतर विकल्प है जिसके नध्यम से प्रति बूँद अधिक फसल उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। अतः हमे आधुनिक सिंचाई प्रणाली को बढावा देना होगा। सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली एक ऐसी सिंचाई पद्धति है जो न केवल पानी को बचाती है बल्कि पैदावार को भी बढाती है। इस पद्धित में जितना पानी पौधों को खाना बनाने के लिए जरूरी होता है, उतना ही पानी इस विधि द्वारा दिया जाता है। इससे पानी की खपत कम होती है और बचे हुये पानी का उपयोग अधिक भूमि को सिंचित करने में इस्तेमाल किया जा सकता है। इस प्रणाली से कम लागत तथा कम जल दोहन करके फसलों की उचित समय पर सिंचाई सुनिश्चित की जा सकती है साथ ही साथ कम लागत में पौधों को उपयुक्त समय व मात्रा में पोषक तत्व भी उपलब्ध कराया जा सकता है। इस प्रणाली के माध्यम से सही समय मात्रा एवं स्थान पर सही तरीके से पानी, पोषक तत्व आदि पौधों को उपलब्ध कराने के कारण फसलों के गुणवत्तायुक्त उत्पादन में भारी वृद्धि होती है। साथ ही साथ उत्पादन लागत में कमी आने के कारण शुद्ध लाभ में भारी वृद्धि पायी जाती है।
सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली :- सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली को दो भागों में वर्गीकृत किया गया है।
(क ) बौछारी (स्प्रिंकलर) सिंचाई प्रणाली:
बौछारी सिचाई प्रणाली बरसात की बौछार का अहसास देने वाली सिंचाई पद्धति है। इस पद्धति में पानी को दाब के साथ पाईप के जाल द्वारा वितरित कर स्प्रिंकलर के नोजल तक पहुँचाया जाता है। जहाँ से यह एक समान वर्षा की बौछारों के रुप मे जमीन में फैलता है। स्प्रिंकलर से प्रभावी सिंचाई छोटे और बड़े क्षेत्रफल में एक समान होती है और हर प्रकार की स्थिति के लिये उपयुक्त है। यह पद्धति सिंचाई की जा सकने वाली हर प्रकार की मृदा में अपनायी जा सकती है। तथा विभिन्न उत्सर्जन क्षमता वाले स्प्रिंकलर की वृहद श्रृंखला उपलब्ध है।इसका उपयोग लगभग सभी प्रकार की फसलों जैसे गेहूँ, दालें, सब्जियाँ, कपास, सोयाबीन, चाय, कॉफी आदि के लिये उपयुक्त है। इसका उपयोग निवासीय औद्योगिक, होटल, रिसार्ट, सार्वजनिक और शासकीय संस्थान, गोल्फ लिंक रेसकोर्स आदि में भी सिंचाई के लिये उपयुक्त है।
(ख) टपक (ड्रिप) सिंचाई प्रणाली
टपक सिंचाई प्रणाली सिचाई की वह विधि है जिसमें जल को मद गति से बूंद-बूंद के रूप में फसलों के जड़ क्षेत्र में एक छोटी व्यास की प्लास्टिक पाइप से प्रदान किया जाता है। इस सिंचाई विधि का आविष्कार सर्वप्रथम इजराइल में हुआ था जिसका प्रयोग आज दुनिया के अनेक देशों में हो रहा है। इस विधि में जल का उपयोग अल्पव्ययी
तरीके से होता है जिससे सतह वाष्पन एवं भूमि रिसाव से जल की हानि कम से कम होती है। सिंचाई की यह विधि शुष्क एवं अर्ध-शुष्क क्षेत्रों के लिए अत्यन्त ही उपयुक्त होती हैं जहाँ इसका उपयोग बागों / फसलों हेतु किया जाता है। टपक सिंचाई ने लवणीय भूमि पर फल बगीचों को सफलतापूर्वक उगाने को संभव कर दिखाया है। इस सिंचाई विधि में उर्वरकों को घोल के रूप में भी प्रदान किया जाता है। टपक सिंचाई उन क्षेत्रों के लिए अत्यन्त ही उपयुक्त है जहाँ जल की कमी होती है खेती की जमीन असमतल होती है और सिचाई प्रक्रिया खर्चीली होती है।
टपक सिंचाई प्रणाली फसल को मुख्यतः पंक्ति, उप पक्ति तथा पार्श्व पंक्ति के तंत्र के उनकी लंबाईयों के अंतराल के साथ उत्सर्जन बिंदु का उपयोग करके पानी वितरित करती हैं। प्रत्येक ड्रिपर / उत्सार्जक मुहाना संयंत्र, पानी व पोषक तत्वों तथा अन्य वृद्धि के लिये आवश्यक पदार्थों को विधि पूर्वक नियंत्रित कर एक समान निर्धारित मात्रा, सीधे पौधे की जड़ों में आपूर्ति करता है पानी और पोषक तत्व उत्सार्जक से, पौधों की जड़ क्षेत्र में से चलते हुए गुरुत्वाकर्षण और केशिका के संयुक्त बलों के माध्यम से मिट्टी में जाते हैं। इस प्रकार पौधे पानी और पोषक तत्वों की कमी को तुरंत ही पुनः प्राप्त कर सकते हैं। पौधे मे पानी की कमी नहीं होगी।
टपक सिंचाई प्रणाली के प्रकार :- टपक सिंचाई प्रणाली को दो भागों में वर्गीकृत किया गया है।
1. ड्रिपर्स की बनावट के आधार पर :
(क) इन लाइन इस विधि में ड्रिपर्स को लैटरल पाइप को निर्माण करते समय अन्दर डाल दिया जाता है। लैटरल पाइप में ड्रिपर्स पास-पास एक निश्चित दूरी पर लगे होते हैं।
(ख) आन लाइन - इस विधि में ड्रिपर्स को लैटरल पाइप के ऊपर लगाते हैं।
2. टपक (ड्रिप) लैटरल के आधार पर -
(क) सतही टपक सिंचाई प्रणाली- इसमें लैटरल पाइपों को जमीन पर बिछाते है और ड्रिपरों को लैटरल पाइप से जोड़ दिया जाता है।
(ख) उप सतही टपक सिचाई प्रणाली इस विधि में लैटरल पाइपों को पौधों की जड़ क्षेत्र में जमीन की सतह के नीचे बिछाते हैं।
टपक (ड्रिप) सिंचाई पद्धति के मुख्य घटक :-
- पम्प और मोटर जल स्रोत से जल उठाने के लिए मोटर और पम्प का प्रयोग किया जाता है।
- फिल्टर्स ( छन्नक) छन्नक, ड्रिप सिंचाई प्रणाली का एक अति आवश्यक घटक है। फिल्टर का मुख्य कार्य जल स्रोत से आने वाले पानी को मेन पाइप लाइन में भेजने से पूर्व साफ करना होता है।
- फ्लश वाल्व :- इसका मुख्य कार्य मुख्य और उप मुख्य पाइपों में जल के साथ आकर जमीं हुई गन्दगी को साफ करना होता है।
- बाईपास इकाई :- यदि जल स्रोत से आवश्यकता से अधिक जल प्राप्त हो रहा है तो बाई पास इकाई के माध्यम से अतिरिक्त जल का अन्यत्र प्रयोग किया जा सकता है।
- उर्वरक मिश्रण इकाई इस इकाई के द्वारा जल के साथ उर्वरकों को भी सीधे पौधों की जड़ के पास तक पहुँचाया जाता है।
- मुख्य पाइप लाइन :- मुख्य पाइप लाइन जो कि पी०वी०सी० या एच०डी०पी०ई० से बनी होती है जो जमीन से सामान्यतः दो फीट की गहराई में रहती है। इसका कार्य पानी के मुख्य स्रोत को प्रक्षेत्र तक लाने का होता है।
- उप मुख्य पाइप लाइन :- यह पी०वी०सी० या एच०डी०पी०ई० से बनी होती है जो मुख्य पाइप लाइन के तरह ही दो फीट की गहराई में रखी जाती है। उप मुख्य पाइप लाइन का मुख्य कार्य मुख्य पाइप से पानी को लैटरल पाइप तक पहुँचाना होता है।
- लैटरल पाइप:- लैटरल पाइप उन्हें कहते है जो उप मुख्य पाइप से पतले काले प्लास्टिक के पाइप पौधों की कतारों के साथ साथ डाले जाते हैं।
- ड्रिपर्स :- यह पाली प्रोपीलीन प्लास्टिक से बने होते है जिसको लैटरल पाइप से जोड़ दिया जाता है इसके माध्यम से पौधों की जड़ में सीधे पानी पहुँच जाता है। सिंचाई हेतु विभिन्न प्रकार के ड्रिपर्स का प्रयोग किया जाता है।
टपक (ड्रिप) सिंचाई प्रणाली की स्थापना के समय ध्यान मे रखने योग्य बातें:- टपक (ड्रिप) सिंचाई प्रणाली के सफलतापूर्वक कार्यान्वयन के लिए इसको लगाते समय निम्नलिखित बातों को ध्यान मे रखना आवश्यक है:-
- बलुई / जाली फिल्टर को ड्रिप सिंचाई इकाई के मुख्य पाइप से सीधे जोडना चाहिए।
- बलुई फिल्टर को सीमेंट के फर्श पर लगाना चाहिए जिससे कि युनिट के चलने पर इसमें कम्पन न हो ।
- फिल्टर के दोनो ओर दबाव मापी यन्त्र अवश्य लगाना चाहिए।
- पम्प से निकले हुए आवश्यकता से अधिक जल को निकालने के लिए बाईपास यूनिट की व्यवस्था करना चाहिए।
- मुख्य पाइप और उप मुख्य पाइप को जमीन के अन्दर 2 फीट की गहराई पर बिछाना चाहिए।
- कम से कम फिटिंग्स जैसे एलबो और बेन्डस आदि का प्रयोग करना चाहिए।
- ड्रिपरों को लैटरल पाइप के ऊपर हुए छिद्रों पर रखकर दबाना चाहिए।
- ऐंड कैंप लैटरल पाइप के अन्तिम सिरों पर लगाकर लैटरल पाइपों को बन्द करना चाहिए।
सिंचाई अन्तराल :- कृषकों को दो टपक (ड्रिप) सिचांईयों के बीच अन्तराल ऐसा रखना चाहिए, जिससे कि मृदा में आवश्यक नमी बनी रहे और पौधों को जल की कमी महसूस न हो। साधारणतः दो सिंचाईयों में अन्तर को 3 दिन से अधिक नहीं रखा जाता है। सिंचाईयों के बीच का अन्तराल, जलवायु और मृदा के ऊपर निर्भर करता है।
सिस्टम के रख रखाव के लिए सुझाव :- लम्बे समय तक बिना किसी बाधा के कार्य लेने के लिए ड्रिप सिस्टम को नियमित रूप से देखभाल करना अति आवश्यक है। सिस्टम के रख रखाव के लिए निम्नलिखित बातों को ध्यान में रखना लाभकारी रहता हैं। उप मुख्य पाइप के सिरों पर प्रचालन वाल्व और लैटरल पाइपों के खुले सिरों को ऐंड कैंप से बन्द रखना चाहिए। यदि इन्हें खुला रखा जाए तो इन बिन्दुओं पर दबाव में कमी के साथ-साथ जल की हानि भी हो सकती है।
- उप मुख्य पाइप में दवाब 1 कि०ग्र0 प्रति वर्ग से से०मी० रखना चाहिए।
- प्रति सप्ताह एक बार बलुई फिल्टर के भीतर की रेत को हाथ से मसलकर कूड़ा-कचरा बाहर निकाल देना चाहिए।
- जालीदार फिल्टर का ढक्कन खोलकर अन्दर का (छन्नक) फिल्टर - बेलन साफ करना चाहिए।
- फिल्टर्स की रबड़, वाल्ब और विभिन्न फिटिंग्स की जाँच नियमित रूप से करते रहना चाहिए। यदि उनमें किसी भी प्रकार का रिसाव हो तो उसको तुरन्त ठीक करना चाहिए।
- लैटरल पाइपों के अवांछित छेदों को गूफ प्लग के द्वारा बन्द करना चाहिए। यदि लैटरल पाइप कटा हुआ है तो सीधे जोड़क द्वारा जोड़ देना चाहिए।
- ड्रिपरों द्वारा नम किये जाने वाले क्षेत्रफल का लगातार निरीक्षण करते रहना चाहिए और असमानता होने पर तुरन्त आवश्यक कार्रवाई करना चाहिए।
- यदि कुछ ड्रिपरों से जल की फुहार निकल रही है तो इसका कारण चकती या दाब अतिपूरक ड्रिपर्स से रबर का डायाफ्राम गिर जाना हो सकता है जिसे तुरन्त लगाना चाहिए।
- यदि ड्रिपर कुछ दिनों के लिए बन्द रहे तो सम्भव है कि मकड़ी या अन्य कीट अपना जाले बना ले जिससे जल का प्रवाह कम हो जाता है। इसलिए नियमित रूप से ड्रिपर्स को खोल कर साफ करना चाहिए।
- कटाई के समय, ट्रैक्टर या बैलगाडी खेत में नहीं लाना चाहिए, यह पाइपों को नुकसान पहुँचा सकते हैं।
- बरसात के मौसम में खेत में बिछे सभी लेटरल पाइप को हटा देना चाहिये, हटाते समय सही तरीके से मोड़ा जाना चाहिये ताकि पाइप गलत जगह से मुड़ न जाय।
- लैटरल पाइपों को खेत से हटाते समय बड़े गोले के आकार में मोड़ना चाहिए।
सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली से लाभ
- पारम्परिक सिंचाई की तुलना में सूक्ष्म सिंचाई से अनेको लाभ हैं जो निम्नलिखित है
- इस पद्धति से सिंचाई में जल उपयोग दक्षता 95 प्रतिशत तक होती है जबकि पारम्परिक सिंचाई प्रणाली में जल उपयोग दक्षता लगभग 50 प्रतिशत तक ही होती है। अतः इस सिंचाई प्रणाली में अनुपजाऊ भूमि को उपजाऊ भूमि में परिवर्तित करने की क्षमता होती है।
- इसमें किसी भी प्रकार के मेढ़ बनाने की जरूरत नहीं पड़ती जिससे और अधिक भूमि पौध रोपण के लिए मिल जाती है।
- इस पद्धति में उतने ही जल एवं उर्वरक की आपूर्ति की जाती है जितनी फसल के लिए आवश्यक होती है। अतः इस सिंचाई विधि में जल के साथ-साथ उर्वरकों को अनावश्यक बर्बादी से रोका जा सकता है।
- इस पद्धति से सिंचित फसल की तीव्र वृद्धि होती है फलस्वरूप फसल शीघ्र परिपक्व होती हैं।
- टपक सिंचाई प्रणाली खर-पतवार नियंत्रण में अत्यन्त ही सहायक होती है क्योंकि सीमित सतह ननी के कारण खर-पतवार कम उगते हैं।
- जल की कमी वाले क्षेत्रों के लिए यह सिंचाई पद्धति अत्यन्त ही लाभकारी होती है।
- इस पद्धति में अन्य विधियों की तुलना में जल अमल दक्षता अधिक होती है।
- इस पद्धति से जल के भूतिगत रिसाव एवं सतह बहाव से हानि नहीं होती है।
- इस पद्धति को रात्रि पहर में भी उपयोग में लाया जा सकता है।
- यह पद्धति अच्छी फसल विकास हेतु आदर्श मृदा नमी स्तर प्रदान करती है।
- इस पद्धति में रासायनिक उर्वरकों को घोल रूप में जल के साथ प्रदान किया जा सकता है।
- इस पद्धति में जल से फैलने वाली पादप रोगों के फैलने की सम्भावना कम होती हैं।
- इस पद्धति में कीटनाशकों एवं कवकनाशकों के धुलने की संभावना कम होती है।
- लवणीय जल को इस पद्धति से सिंचाई हेतु उपयोग में लाया जा सकता है।
- इस पद्धति में फसलों की पैदावार 150 प्रतिशत तक बढ़ जाती है।
- पारम्परिक सिंचाई की तुलना में इस पद्धति में 30 से 70 प्रतिशत तक जल की बचत की जा सकती है।
- इस पद्धति में अन्य सिंचाई विधियों की तुलना में मजदूरी की कीमत कम होती है।
- इस पद्धति के माध्यम से लवणीय, बलुई एवं पहाड़ी भूमियों को भी सफलतापूर्वक खेती के काम में लाया जा सकता है।
- इस पद्धति में मृदा अपरदन की संभावना नहीं के बराबर होती है, जिससे मृदा संरक्षण को बढ़ावा मिलता है।
- इस पद्धति में जल का वितरण समान होता है।
- इस पद्धति में फसलों की पत्तियाँ नमी से युक्त होती है जिससे पादप रोग की सभावना कम रहती है।
- यह पद्धति पाला व ठण्ड से फसलों के बचाव में सहायता करती है।
- इस पद्धति से उर्जा की बचत होती है।
सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली से हानिया :-
- इस प्रणाली को लगाने के लिए शुरूआती खर्च अधिक है।
- अगर इस प्रणाली को अच्छी तरीके से डिजाईन नहीं किया गया तो खराब होने के चान्स होते हैं। • जो भी इस प्रणाली को अपना रहा है उसको इसके बारे में जानकारी होना जरूरी है
सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली को स्थापित करने के लिए सरकारी सहायता :-
सूक्ष्म सिंचाई प्रणाली को किसानों के बीच लोकप्रिय बनाने के लिए सरकार द्वारा प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना के उपघटक "पर ड्राप मोर क्राप" के द्वारा ठोस प्रयास किए जा रहे हैं। किसान अगर फल, फूल, सब्जियाँ और दवाइयों में प्रयोग होने वाली आदि फसलों को उगाते हैं, तो वह इन फसलों की सिंचाई के लिए ड्रिप / बौछारी तंत्र लगाने के लिए सरकार से अनुदान ले सकते है इस योजना का लाभ भारत के सभी वर्ग के किसानों को दिया जा रहा है। कृषक के पास स्वयं का खेत एवं जल श्रोत उपलब्ध होना चाहिए। इस योजना का लाभ सहकारी समिति के सदस्यों, स्वयं सहायता समूह इनकार्पोरेटेड कम्पनीज, पंचायती राज संस्थाओं, गैर सहकारी संस्थाओं, ट्रस्टस, उत्पादक कृषकों के समूह के सदस्यों को भी दिया जा रहा है। ऐसे किसान या संस्थाओं को भी योजना का लाभ अनुमन्य होगा जो सविंदा खेती एवं न्यूनतम 7 वर्ष के लीज एग्रीमेन्ट पर बागवानी या खेती करते हैं।
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