वर्ष 1970 के बाद से वैज्ञानिकों ने कई प्रकार के नए सूक्ष्म जीवाणुओं की अनहोने पर्यावरण में खोज कर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया है। इन नए सूक्ष्म जीवाणुओं को इतनी विशिष्टता उनके उच्च तापमान एवं अत्यधिक निम्न तापमान-प्रेम के कारण मिल रही है जहाँ अन्य ज्ञात जीवन स्वरूप नहीं पनप सकते।पृथ्वी पर पाए जाने वाले जीवन स्वरूपों के विकास इतिहास में सर्वप्रथम सूक्ष्म जीवाणुओं का उद्भव हुआ था और कालांतर में इनके विभाजन से नए जीवन स्वरूप पृथ्वी पर उभरने लगे। संख्या एवं विस्तार की दृष्टि से पृथ्वी के समस्त प्रभाव वाले क्षेत्र में ये जीवाणु सबसे अधिक मात्रा में विद्यमान हैं। मानव शरीर में ही 100,000 बिलियन सूक्ष्म जीवाणु होते हैं।
आरंभ में जब पृथ्वी के वायुमंडल में ऑक्सीजन नहीं थी, खौलते समुद्री पानी में सबसे पहले ‘अनऑक्सीय श्वसन’ (अॅनअॅरोबिक ट्रैन्सिपिरेशन) क्षमतायुक्त सूक्ष्म जीवाणुओं का उद्भव आरंभ हुआ। जब कुछ काल पश्चात पृथ्वी के वायुमंडल में ऑक्सीजन की वृद्धि हुई, तब जाकर ‘ऑक्सीय श्वसन’ (अॅरोबिक) जीवाणुओं/जीवन स्वरूपों ने पृथ्वी पर कदम रखना आरंभ किया।
इन सूक्ष्म जीवाणुओं की क्षमता भी अनन्त है और गुण भी अलग-अलग हैं। फिर ऐसे भी कई सूक्ष्म जीवाणुओं के विद्यमान होने की संभावना है जिनके विषय में मानव को वर्तमान में जानकारी ही नहीं है।
वर्ष 1970 के बाद से वैज्ञानिकों ने कई प्रकार के नए सूक्ष्म जीवाणुओं की अनहोने पर्यावरण में खोज कर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया है। इन नई खोजों के फलस्वरूप वैज्ञानिक समुदाय सोचने लगा है कि पृथ्वी के अंदर में गहराई तक एक छिपा हुआ जीवमंडल हो सकता है जिसका कुल अम्बार पृथ्वी पर पाए जाने वाले जीवंत स्वरूपों के बराबर या अधिक भी हो सकता है। यदि इस प्रकार का कोई अदृश्य जीवमंडल वास्तव में विद्यमान है, तो विश्व में जीवनोत्पत्ति एवं उसके विकास का इतिहास हमें फिर से निर्मित करना होगा।
इन नए सूक्ष्म जीवाणुओं को इतनी विशिष्टता उनके उच्च तापमान एवं अत्यधिक निम्न तापमान-प्रेम के कारण मिल रही है जहाँ अन्य ज्ञात जीवन स्वरूप नहीं पनप सकते। उदाहरण के लिए—
1. इस प्रकार के कुछ जीवाणु 110 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान वाले पर्यावरण में फलते-फूलते पाए गए हैं। ये संभवतः 640 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान में भी जीवित रहने में सक्षम हो सकते हैं। इनमें से अधिकतर ताप-प्रेमी सूक्ष्म जीवाणु पुरातन काल के हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि ये ठीक उसी प्रकार के जीवाणु हैं जिन्होंने पृथ्वी पर जीवन विकास की आधारशिला निर्मित की है।
इन नए जीवाणुओं को ‘अतितापरागीय’ नाम से जाना जाता है और इनकी उपस्थिति उष्ण झरनों, सक्रिय ज्वालामुखी-क्रेटर, समुद्री फर्श के द्वार-मुख एवं खौलते तेल-भंडारों में पाई गई है।
वर्ष 1977 में प्रशांत महासागर सतह से 2457 मीटर गहराई पर ज्वालमुखी तापीय नलिका की दीवारों में (315.50 सेंटीग्रेड तापमान), ठंडे पानी एवं प्रचंड ताप के मध्य ‘आकिया’ नामक सूक्ष्म जीवाणु जीवित पाए गए।
फिर 1990 के दशक में पृथ्वी के अंदर 3 किलोमीटर गहराई में स्थित खौलते तेल-भंडारों में अतितापरागीय सूक्ष्म जीवाणुओं की उपस्थिति का ज्ञान प्राप्त हुआ।
इन अतितापरागीय सूक्ष्म जीवाणुओं का मुख्य आवास पृथ्वी के अंदर स्थित उष्मा भंडार प्रतीत होते हैं जहाँ इन्हें धीरे-धीरे रिसते हुए तेल एवं भूमिगत जल-प्रवाह जैसे द्रव पदार्थों में समाए पौष्टिक तत्वों से भोजन प्राप्त होता रहता है। ये सूर्य प्रकाश के अभाव में अंधेरे में ही जीवन व्यतीत करने में सक्षम हैं, जबकि पृथ्वी में पाए जाने वाले सभी जीवन स्वरूपों को जीवित रहने एवं विकास करने के लिए सूर्य प्रकाश की अनिवार्यता है जिसके प्रभाव में वे प्रकाश-संश्लेषण के उपयोग द्वारा ऊर्जा प्राप्त करके जीवित रहते हैं।
2) लेकिन प्रकृति की माया अनन्त है और मानव ज्ञान इस विषय में अभी भी अधूरा है। हाल के वर्षों में केवल ताप प्रेमी ‘अतितापरागीय’ सूक्ष्म-जीवाणुओं की ही खोज नहीं हुई है बल्कि ठीक उनके विपरीत अत्यन्त ठंडे वातावरण में भी नए प्रकार के सूक्ष्म जीवणुओं के फलने-फूलने की जानकारी मिली है।
वर्ष 1997-98 के आरंभ में अंटार्कटिक के पूर्वी भाग में स्थित ‘वोस्टॉक क्षेत्र में एक गहरे वेधन छिद्र निर्माण के दौरान हिम-आवरण के 3000 मीटर नीचे गहराई में स्थित एक अलवण जल-झील की जानकारी मिली है। इस वेधन क्रिया के दौरान 3750 मीटर गहराई से प्राप्त जलमिश्रित बर्फ टुकड़ों के नमूनों की जाँच हवाई व मोनटाना विश्वविद्यालय (अमेरिका) के वैज्ञानिकों द्वारा किए जाने पर ज्ञात हुआ कि उनमें कई प्रकार के सूक्ष्म जीवाणु उपस्थित हैं। वोस्टाक क्षेत्र में भूमि तापमान 890 सेंटीग्रेड मापा गया है। इससे समझा जा सकता है कि ये जीवाणु कितने निम्न तापमान में जीवित रह सकते हैं।
इन वैज्ञानिकों के अनुसार शायद पानी जमने के पूर्व ये जीवाणु वहाँ उपस्थित थे। इनकी उपस्थिति यह भी दर्शाती है कि ये जीवाणु हजारों सदियों तक प्रकाश, उष्मा एवं नियमित पौष्टिक पदार्थ आपूर्ति के अभाव में भी बर्फीले एवं अंधकार भरे पर्यावरण में जीवित रहने की क्षमता रखते हैं।
इसके अलावा इन वैज्ञानिकों को इन नमूनों में विविधता भरे अनेक जीवाणु मिले हैं जो हजारों सदियों तक बाहरी दुनिया के संपर्क में न होने पर भी जैविक रूप से हमें ज्ञात सूक्ष्म जीवाणुओं के ही समान हैं। इसलिए अब यह समझा जा रहा है कि इस अदृश्य जीवमंडल को पृथ्वी के अंदर में समाई ऊर्जा एवं रासायनिक द्रव गतिमान रखे हुए है।
एक बात निश्चित है कि पृथ्वी में विकास क्रिया को गतिमान रखने में इन सूक्ष्म जीवाणुओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है, एवं भविष्य में भी निभाते रहेंगे। अपने जीवित रहने की विलक्षण क्षमता के कारण ये शीघ्रता से परिवर्तित होते हुए पर्यावरण के साथ अपने को ढालते हुए जीवित रहने में सक्षम हैं, क्योंकि इनके आयाम का विस्तार अनोखा है। एक ओर जहाँ हमारी पृथ्वी में भिन्न-भिन्न गुणों वाले ऑक्सीश्वसन जीवाणुओं की भरमार है, तो दूसरी ओर दलदलों, समुद्रतल की गहराईयों, सक्रिय ज्वालामुखी की दीवारों, खौलते प्राकृतिक तेल-भंडारों, आदि में भी पृथक गुणों वाले अनऑक्सीय जीवाणु पाए जाते हैं।
वैज्ञानिकों का मानना है कि पृथ्वी में प्रलय होने पर भी ये सूक्ष्म जीवाणु अपने निकटतम सहयोगी ‘आकिआ’ के साथ नष्ट नहीं होंगे, विशेषकर ऐसे जीवन्त स्वरूप जो बिना प्रकाश-संश्लेषण या अकार्बनिक (इनार्गेनिक) रसायनों का उपयोग जीवित रहने व प्रजनन के लिए करते हैं, इस संकट से बच जाएँगे।वैज्ञानिकों का मानना है कि पृथ्वी में प्रलय होने पर भी ये सूक्ष्म जीवाणु अपने निकटतम सहयोगी ‘आकिआ’ के साथ नष्ट नहीं होंगे, विशेषकर ऐसे जीवन्त स्वरूप जो बिना प्रकाश-संश्लेषण या अकार्बनिक (इनार्गेनिक) रसायनों का उपयोग जीवित रहने व प्रजनन के लिए करते हैं, इस संकट से बच जाएँगे। पृथ्वी में सभी प्रकार की वनस्पतियों व प्राणियों का नाश हो जाने वाली स्थिति में भी ये ढीठ जीवन्त स्वरूप आगे बढ़ते चलेंगे। पृथ्वी की सतह अंगार-भट्टी बन जाने पर भी कार्बनिक ऊर्जा निष्कर्षक और पेट्रोलियम पदार्थों में आश्रित रहने वाले ये जीवन स्वरूप पृथ्वी की गहराई में कई किलोमीटर भीतर जीवित रहेंगे। फिर शायद कुछ करोड़ वर्ष बीतने पर पृथ्वी में जीवन विकास के लिए उपयुक्त पर्यावरण निर्माण जब कभी संभव होगा, ये सूक्ष्म जीवाणु सक्रिय होकर नए प्रकार के उच्च जीवन स्वरूपों का विकास करने में योगदान करेंगे।
यद्यपि पृथ्वी में पाए जाने वाले सभी जीवन स्वरूप अपने-आप में अनोखे व पृथक स्वरूप लिए होते हैं, लेकिन प्रकृति ने इनके सहयोग से एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण ‘खाद्य शृंखला’ स्थापित की है। इसके माध्यम से सभी जीवन स्वरूप एक भीमकाय यांत्रिक मशीन के अलग-अलग पुर्जों के समान लय में, प्रकृति द्वारा निर्धारित अपनी-अपनी भूमिका द्वारा एक दूसरे के हित में कार्य करते हुए इस प्रकार आपस में जुड़े होते हैं, मानो एक ही परिवार के सदस्य हों जो खून के रिश्ते से आपस में जुड़े होते हैं।
खाद्य शृंखला को गतिमान रखने के लिए प्रकृति ने जीवन स्वरूपों की स्थापना भी भूक्षेत्र, आकार, क्रियाकलाप और खानपान को ध्यान में रख कर की है, ताकि जल, थल व वनस्पति, आदि जहाँ कहीं कुछ भी उत्पन्न हो, उसका पूरा सदुपयोग किया जा सके। इस आधार पर पृथ्वी के जीवन स्वरूपों को तीन मुख्य वर्गों में बाँटा जा सकता है—शिकार, शिकारी एवं सफाई करने वाले। प्रकृति ने इनके मध्य संतुलन बनाए रखने के लिए एक ऐसा व्यवधान स्थापित किया है कि स्वयं शिकारी भी किसी न किसी का शिकार बनते हैं चाहे वह किसी जीव के रूप में हो अथवा प्राकृतिक कारणों से हो, जैसे बुढ़ापा, रोग, अप्राकृतिक विपदा, आदि। इसके अलावा शिकार होने वाले जीवों को बचाव व सुरक्षा के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की क्षमता प्रकृति ने प्रदान की है, जैसे तेज दौड़ना, पैरों की बनावट, छिपना, संगठित दलों में रहना, वृहत स्वरूप, जहर, चटकीले रंग, खाने की पसंद, भाव-भंगिमा द्वारा भयभीत करना, उड़ना, आदि। इस प्रकार सुरक्षा, आक्रमण और एक दूसरे पर निर्भरता के मध्य पृथ्वी में प्राकृतिक संतुलन स्वयं स्थापित रहता है।
जीवन स्वरूपों में इतनी विभिन्नता होने पर भी स्वविकास के लिए भोजन करना सभी की नियति है, चाहे वह उल्लिखित सूक्ष्म जीवाणु क्यों न हों। इस विकास कर्म के अंतर्गत जीव-जंतुओं को विष्टा और वनस्पतियों को सूखे पत्ते/फूल/फल/टहनी का निष्कासन समय-समय पर करना पड़ता है और अंत में मृत्यु का आलिंगन कर संसार से विदा लेनी पड़ती है। इन सभी मृत पदार्थों में सूक्ष्म जीवाणु होते हैं और वे भूमि में सक्रिय कीड़े-मकौड़ों की सहायता से एक ओर भूमि से अनावश्यक पदार्थों की सफाई, तो दूसरी ओर उनकी क्षय क्रिया तेज कर उनमें सन्निहित पौष्टिक तत्वों के पुनरावर्तन द्वारा भूमि उर्वरकता वृद्धि कर वनस्पतियों के फलने-फूलने की क्षमता को क्षीण नहीं होने देते।
इस प्रकार पृथ्वी में विद्यमान जीवन चक्र एक गोलाकार परिधि में घूमता रहता है जिसमें सभी प्राणी एक दूसरे से जुड़े हैं। इस खाद्य शृंखला को प्रभावशाली रूप में गतिशील रखने के लिए प्रकृति ने सूक्ष्म जीवाणुओं की रचना एक उत्प्रेरक (कैटॅलिटिक) एजेंट के रूप में की है, जिनमें विभिन्न परिस्थितियों में ‘बायो उपचारित और बायो प्रजनन’ क्षमता अंगीभूत होती है। प्रकृति ने इन गुणों का उपयोग यथार्थता बरतते हुए सभी जीवन स्वरूपों के अंतर में उनके विशिष्ट आहार की पाचन क्रिया को सक्रिय रखने में सक्षम, सूक्ष्म जीवाणुओं की पदस्थापना की है।
उदाहरण के लिए एक मांसाहारी भेड़िया अपने शिकार की हड्डी सहित सब कुछ खा कर उसे पचाने की क्षमता रखता है क्योंकि उसके दांतों की विशिष्ट बनावट हड्डियों को तोड़ने में सहायक होती है और उसके मुख की लार में तीक्ष्ण अम्लीय (एसिडिक) क्षमता भरे सूक्ष्म जीवाणु हड्डियों को गला कर चूर-चूर कर देते हैं। इसीलिए भेड़िये द्वारा त्यागी विष्टा एक सफेद-भूरे चूर्ण के गोले (बॉल) समान होती है और किसी क्षेत्र में इस रूप कि विष्टा दिखाई पड़ना भेड़िये की उपस्थिति का स्पष्ट संकेत प्रदान करती है। इसके विपरीत मानव दाँतों की संरचना ऐसी होती है कि वह प्राकृतिक रूप में अनाज व फल-फूल (शाकाहारी भोजन) खा कर अपना विकास कर सके और इनके पाचन क्रिया के लिए उसके मुख की लार में क्षारीय (एल्कलाइन) क्षमता युक्त सूक्ष्म जीवणु विद्यमान होते हैं। अर्थात मानव शरीर की रचना केवल शाकाहारी भोजन के उपयुक्त प्रकृति ने निर्माण की है और इसलिए यह देखने में भी आता है कि मांसाहारी भोजन करने वाले लोगों के दांत शकाहारियों की अपेक्षा कम उम्र में ही खराब होने लगते हैं।
प्रकृति के आयाम अनन्त हैं, जिनका अनावरण शोध द्वारा हमारा वैज्ञानिक समुदाय समय-समय पर करता रहता है। इन नई जानकारियों के साथ उनके उपयोग के द्वार भी हमारे लिए स्वतः खुल जाते है। एन्टीबायोटिक दवाओं का निर्माण सूक्ष्म जीवाणुओं से होता है व इनके गुणों के विषय में जानकारी बढ़ने के साथ-साथ इनका उपयोग कई क्षेत्रों में किया जाने लगा है, जैसे—कृषि भूमि उर्वरकता वृद्धि, गंदे पानी का शुद्धिकरण, दवा निर्माण, कचरा निर्मूलन द्वारा गैस व बिजली उत्पादन, कृषि उत्पाद संरक्षण, समुद्र में फैल गए तेल का उन्मूलन व कोयला खानों में रिसती विस्फोटक मिथेन गैस पर नियंत्रण (कुछ विशिष्ट जीवाणु इन्हें खा कर जीवित रहते हैं), बायोगैस प्रजनन, आदि। स्पष्ट है कि पृथ्वी में जीवन विकास को गतिमान रखने में सूक्ष्म जीवाणुओं ने सक्रिय भूमिका निभाई है।
(लेखक कोल इंडिया लिमिटेड से सेवानिवृत्त एक भूवैज्ञानिक हैं।)
आरंभ में जब पृथ्वी के वायुमंडल में ऑक्सीजन नहीं थी, खौलते समुद्री पानी में सबसे पहले ‘अनऑक्सीय श्वसन’ (अॅनअॅरोबिक ट्रैन्सिपिरेशन) क्षमतायुक्त सूक्ष्म जीवाणुओं का उद्भव आरंभ हुआ। जब कुछ काल पश्चात पृथ्वी के वायुमंडल में ऑक्सीजन की वृद्धि हुई, तब जाकर ‘ऑक्सीय श्वसन’ (अॅरोबिक) जीवाणुओं/जीवन स्वरूपों ने पृथ्वी पर कदम रखना आरंभ किया।
इन सूक्ष्म जीवाणुओं की क्षमता भी अनन्त है और गुण भी अलग-अलग हैं। फिर ऐसे भी कई सूक्ष्म जीवाणुओं के विद्यमान होने की संभावना है जिनके विषय में मानव को वर्तमान में जानकारी ही नहीं है।
वर्ष 1970 के बाद से वैज्ञानिकों ने कई प्रकार के नए सूक्ष्म जीवाणुओं की अनहोने पर्यावरण में खोज कर सभी को आश्चर्यचकित कर दिया है। इन नई खोजों के फलस्वरूप वैज्ञानिक समुदाय सोचने लगा है कि पृथ्वी के अंदर में गहराई तक एक छिपा हुआ जीवमंडल हो सकता है जिसका कुल अम्बार पृथ्वी पर पाए जाने वाले जीवंत स्वरूपों के बराबर या अधिक भी हो सकता है। यदि इस प्रकार का कोई अदृश्य जीवमंडल वास्तव में विद्यमान है, तो विश्व में जीवनोत्पत्ति एवं उसके विकास का इतिहास हमें फिर से निर्मित करना होगा।
इन नए सूक्ष्म जीवाणुओं को इतनी विशिष्टता उनके उच्च तापमान एवं अत्यधिक निम्न तापमान-प्रेम के कारण मिल रही है जहाँ अन्य ज्ञात जीवन स्वरूप नहीं पनप सकते। उदाहरण के लिए—
1. इस प्रकार के कुछ जीवाणु 110 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान वाले पर्यावरण में फलते-फूलते पाए गए हैं। ये संभवतः 640 डिग्री सेंटीग्रेड तापमान में भी जीवित रहने में सक्षम हो सकते हैं। इनमें से अधिकतर ताप-प्रेमी सूक्ष्म जीवाणु पुरातन काल के हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि ये ठीक उसी प्रकार के जीवाणु हैं जिन्होंने पृथ्वी पर जीवन विकास की आधारशिला निर्मित की है।
इन नए जीवाणुओं को ‘अतितापरागीय’ नाम से जाना जाता है और इनकी उपस्थिति उष्ण झरनों, सक्रिय ज्वालामुखी-क्रेटर, समुद्री फर्श के द्वार-मुख एवं खौलते तेल-भंडारों में पाई गई है।
वर्ष 1977 में प्रशांत महासागर सतह से 2457 मीटर गहराई पर ज्वालमुखी तापीय नलिका की दीवारों में (315.50 सेंटीग्रेड तापमान), ठंडे पानी एवं प्रचंड ताप के मध्य ‘आकिया’ नामक सूक्ष्म जीवाणु जीवित पाए गए।
फिर 1990 के दशक में पृथ्वी के अंदर 3 किलोमीटर गहराई में स्थित खौलते तेल-भंडारों में अतितापरागीय सूक्ष्म जीवाणुओं की उपस्थिति का ज्ञान प्राप्त हुआ।
इन अतितापरागीय सूक्ष्म जीवाणुओं का मुख्य आवास पृथ्वी के अंदर स्थित उष्मा भंडार प्रतीत होते हैं जहाँ इन्हें धीरे-धीरे रिसते हुए तेल एवं भूमिगत जल-प्रवाह जैसे द्रव पदार्थों में समाए पौष्टिक तत्वों से भोजन प्राप्त होता रहता है। ये सूर्य प्रकाश के अभाव में अंधेरे में ही जीवन व्यतीत करने में सक्षम हैं, जबकि पृथ्वी में पाए जाने वाले सभी जीवन स्वरूपों को जीवित रहने एवं विकास करने के लिए सूर्य प्रकाश की अनिवार्यता है जिसके प्रभाव में वे प्रकाश-संश्लेषण के उपयोग द्वारा ऊर्जा प्राप्त करके जीवित रहते हैं।
2) लेकिन प्रकृति की माया अनन्त है और मानव ज्ञान इस विषय में अभी भी अधूरा है। हाल के वर्षों में केवल ताप प्रेमी ‘अतितापरागीय’ सूक्ष्म-जीवाणुओं की ही खोज नहीं हुई है बल्कि ठीक उनके विपरीत अत्यन्त ठंडे वातावरण में भी नए प्रकार के सूक्ष्म जीवणुओं के फलने-फूलने की जानकारी मिली है।
वर्ष 1997-98 के आरंभ में अंटार्कटिक के पूर्वी भाग में स्थित ‘वोस्टॉक क्षेत्र में एक गहरे वेधन छिद्र निर्माण के दौरान हिम-आवरण के 3000 मीटर नीचे गहराई में स्थित एक अलवण जल-झील की जानकारी मिली है। इस वेधन क्रिया के दौरान 3750 मीटर गहराई से प्राप्त जलमिश्रित बर्फ टुकड़ों के नमूनों की जाँच हवाई व मोनटाना विश्वविद्यालय (अमेरिका) के वैज्ञानिकों द्वारा किए जाने पर ज्ञात हुआ कि उनमें कई प्रकार के सूक्ष्म जीवाणु उपस्थित हैं। वोस्टाक क्षेत्र में भूमि तापमान 890 सेंटीग्रेड मापा गया है। इससे समझा जा सकता है कि ये जीवाणु कितने निम्न तापमान में जीवित रह सकते हैं।
इन वैज्ञानिकों के अनुसार शायद पानी जमने के पूर्व ये जीवाणु वहाँ उपस्थित थे। इनकी उपस्थिति यह भी दर्शाती है कि ये जीवाणु हजारों सदियों तक प्रकाश, उष्मा एवं नियमित पौष्टिक पदार्थ आपूर्ति के अभाव में भी बर्फीले एवं अंधकार भरे पर्यावरण में जीवित रहने की क्षमता रखते हैं।
इसके अलावा इन वैज्ञानिकों को इन नमूनों में विविधता भरे अनेक जीवाणु मिले हैं जो हजारों सदियों तक बाहरी दुनिया के संपर्क में न होने पर भी जैविक रूप से हमें ज्ञात सूक्ष्म जीवाणुओं के ही समान हैं। इसलिए अब यह समझा जा रहा है कि इस अदृश्य जीवमंडल को पृथ्वी के अंदर में समाई ऊर्जा एवं रासायनिक द्रव गतिमान रखे हुए है।
एक बात निश्चित है कि पृथ्वी में विकास क्रिया को गतिमान रखने में इन सूक्ष्म जीवाणुओं ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है, एवं भविष्य में भी निभाते रहेंगे। अपने जीवित रहने की विलक्षण क्षमता के कारण ये शीघ्रता से परिवर्तित होते हुए पर्यावरण के साथ अपने को ढालते हुए जीवित रहने में सक्षम हैं, क्योंकि इनके आयाम का विस्तार अनोखा है। एक ओर जहाँ हमारी पृथ्वी में भिन्न-भिन्न गुणों वाले ऑक्सीश्वसन जीवाणुओं की भरमार है, तो दूसरी ओर दलदलों, समुद्रतल की गहराईयों, सक्रिय ज्वालामुखी की दीवारों, खौलते प्राकृतिक तेल-भंडारों, आदि में भी पृथक गुणों वाले अनऑक्सीय जीवाणु पाए जाते हैं।
वैज्ञानिकों का मानना है कि पृथ्वी में प्रलय होने पर भी ये सूक्ष्म जीवाणु अपने निकटतम सहयोगी ‘आकिआ’ के साथ नष्ट नहीं होंगे, विशेषकर ऐसे जीवन्त स्वरूप जो बिना प्रकाश-संश्लेषण या अकार्बनिक (इनार्गेनिक) रसायनों का उपयोग जीवित रहने व प्रजनन के लिए करते हैं, इस संकट से बच जाएँगे।वैज्ञानिकों का मानना है कि पृथ्वी में प्रलय होने पर भी ये सूक्ष्म जीवाणु अपने निकटतम सहयोगी ‘आकिआ’ के साथ नष्ट नहीं होंगे, विशेषकर ऐसे जीवन्त स्वरूप जो बिना प्रकाश-संश्लेषण या अकार्बनिक (इनार्गेनिक) रसायनों का उपयोग जीवित रहने व प्रजनन के लिए करते हैं, इस संकट से बच जाएँगे। पृथ्वी में सभी प्रकार की वनस्पतियों व प्राणियों का नाश हो जाने वाली स्थिति में भी ये ढीठ जीवन्त स्वरूप आगे बढ़ते चलेंगे। पृथ्वी की सतह अंगार-भट्टी बन जाने पर भी कार्बनिक ऊर्जा निष्कर्षक और पेट्रोलियम पदार्थों में आश्रित रहने वाले ये जीवन स्वरूप पृथ्वी की गहराई में कई किलोमीटर भीतर जीवित रहेंगे। फिर शायद कुछ करोड़ वर्ष बीतने पर पृथ्वी में जीवन विकास के लिए उपयुक्त पर्यावरण निर्माण जब कभी संभव होगा, ये सूक्ष्म जीवाणु सक्रिय होकर नए प्रकार के उच्च जीवन स्वरूपों का विकास करने में योगदान करेंगे।
यद्यपि पृथ्वी में पाए जाने वाले सभी जीवन स्वरूप अपने-आप में अनोखे व पृथक स्वरूप लिए होते हैं, लेकिन प्रकृति ने इनके सहयोग से एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण ‘खाद्य शृंखला’ स्थापित की है। इसके माध्यम से सभी जीवन स्वरूप एक भीमकाय यांत्रिक मशीन के अलग-अलग पुर्जों के समान लय में, प्रकृति द्वारा निर्धारित अपनी-अपनी भूमिका द्वारा एक दूसरे के हित में कार्य करते हुए इस प्रकार आपस में जुड़े होते हैं, मानो एक ही परिवार के सदस्य हों जो खून के रिश्ते से आपस में जुड़े होते हैं।
खाद्य शृंखला को गतिमान रखने के लिए प्रकृति ने जीवन स्वरूपों की स्थापना भी भूक्षेत्र, आकार, क्रियाकलाप और खानपान को ध्यान में रख कर की है, ताकि जल, थल व वनस्पति, आदि जहाँ कहीं कुछ भी उत्पन्न हो, उसका पूरा सदुपयोग किया जा सके। इस आधार पर पृथ्वी के जीवन स्वरूपों को तीन मुख्य वर्गों में बाँटा जा सकता है—शिकार, शिकारी एवं सफाई करने वाले। प्रकृति ने इनके मध्य संतुलन बनाए रखने के लिए एक ऐसा व्यवधान स्थापित किया है कि स्वयं शिकारी भी किसी न किसी का शिकार बनते हैं चाहे वह किसी जीव के रूप में हो अथवा प्राकृतिक कारणों से हो, जैसे बुढ़ापा, रोग, अप्राकृतिक विपदा, आदि। इसके अलावा शिकार होने वाले जीवों को बचाव व सुरक्षा के लिए भिन्न-भिन्न प्रकार की क्षमता प्रकृति ने प्रदान की है, जैसे तेज दौड़ना, पैरों की बनावट, छिपना, संगठित दलों में रहना, वृहत स्वरूप, जहर, चटकीले रंग, खाने की पसंद, भाव-भंगिमा द्वारा भयभीत करना, उड़ना, आदि। इस प्रकार सुरक्षा, आक्रमण और एक दूसरे पर निर्भरता के मध्य पृथ्वी में प्राकृतिक संतुलन स्वयं स्थापित रहता है।
जीवन स्वरूपों में इतनी विभिन्नता होने पर भी स्वविकास के लिए भोजन करना सभी की नियति है, चाहे वह उल्लिखित सूक्ष्म जीवाणु क्यों न हों। इस विकास कर्म के अंतर्गत जीव-जंतुओं को विष्टा और वनस्पतियों को सूखे पत्ते/फूल/फल/टहनी का निष्कासन समय-समय पर करना पड़ता है और अंत में मृत्यु का आलिंगन कर संसार से विदा लेनी पड़ती है। इन सभी मृत पदार्थों में सूक्ष्म जीवाणु होते हैं और वे भूमि में सक्रिय कीड़े-मकौड़ों की सहायता से एक ओर भूमि से अनावश्यक पदार्थों की सफाई, तो दूसरी ओर उनकी क्षय क्रिया तेज कर उनमें सन्निहित पौष्टिक तत्वों के पुनरावर्तन द्वारा भूमि उर्वरकता वृद्धि कर वनस्पतियों के फलने-फूलने की क्षमता को क्षीण नहीं होने देते।
इस प्रकार पृथ्वी में विद्यमान जीवन चक्र एक गोलाकार परिधि में घूमता रहता है जिसमें सभी प्राणी एक दूसरे से जुड़े हैं। इस खाद्य शृंखला को प्रभावशाली रूप में गतिशील रखने के लिए प्रकृति ने सूक्ष्म जीवाणुओं की रचना एक उत्प्रेरक (कैटॅलिटिक) एजेंट के रूप में की है, जिनमें विभिन्न परिस्थितियों में ‘बायो उपचारित और बायो प्रजनन’ क्षमता अंगीभूत होती है। प्रकृति ने इन गुणों का उपयोग यथार्थता बरतते हुए सभी जीवन स्वरूपों के अंतर में उनके विशिष्ट आहार की पाचन क्रिया को सक्रिय रखने में सक्षम, सूक्ष्म जीवाणुओं की पदस्थापना की है।
उदाहरण के लिए एक मांसाहारी भेड़िया अपने शिकार की हड्डी सहित सब कुछ खा कर उसे पचाने की क्षमता रखता है क्योंकि उसके दांतों की विशिष्ट बनावट हड्डियों को तोड़ने में सहायक होती है और उसके मुख की लार में तीक्ष्ण अम्लीय (एसिडिक) क्षमता भरे सूक्ष्म जीवाणु हड्डियों को गला कर चूर-चूर कर देते हैं। इसीलिए भेड़िये द्वारा त्यागी विष्टा एक सफेद-भूरे चूर्ण के गोले (बॉल) समान होती है और किसी क्षेत्र में इस रूप कि विष्टा दिखाई पड़ना भेड़िये की उपस्थिति का स्पष्ट संकेत प्रदान करती है। इसके विपरीत मानव दाँतों की संरचना ऐसी होती है कि वह प्राकृतिक रूप में अनाज व फल-फूल (शाकाहारी भोजन) खा कर अपना विकास कर सके और इनके पाचन क्रिया के लिए उसके मुख की लार में क्षारीय (एल्कलाइन) क्षमता युक्त सूक्ष्म जीवणु विद्यमान होते हैं। अर्थात मानव शरीर की रचना केवल शाकाहारी भोजन के उपयुक्त प्रकृति ने निर्माण की है और इसलिए यह देखने में भी आता है कि मांसाहारी भोजन करने वाले लोगों के दांत शकाहारियों की अपेक्षा कम उम्र में ही खराब होने लगते हैं।
प्रकृति के आयाम अनन्त हैं, जिनका अनावरण शोध द्वारा हमारा वैज्ञानिक समुदाय समय-समय पर करता रहता है। इन नई जानकारियों के साथ उनके उपयोग के द्वार भी हमारे लिए स्वतः खुल जाते है। एन्टीबायोटिक दवाओं का निर्माण सूक्ष्म जीवाणुओं से होता है व इनके गुणों के विषय में जानकारी बढ़ने के साथ-साथ इनका उपयोग कई क्षेत्रों में किया जाने लगा है, जैसे—कृषि भूमि उर्वरकता वृद्धि, गंदे पानी का शुद्धिकरण, दवा निर्माण, कचरा निर्मूलन द्वारा गैस व बिजली उत्पादन, कृषि उत्पाद संरक्षण, समुद्र में फैल गए तेल का उन्मूलन व कोयला खानों में रिसती विस्फोटक मिथेन गैस पर नियंत्रण (कुछ विशिष्ट जीवाणु इन्हें खा कर जीवित रहते हैं), बायोगैस प्रजनन, आदि। स्पष्ट है कि पृथ्वी में जीवन विकास को गतिमान रखने में सूक्ष्म जीवाणुओं ने सक्रिय भूमिका निभाई है।
(लेखक कोल इंडिया लिमिटेड से सेवानिवृत्त एक भूवैज्ञानिक हैं।)
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Post By: birendrakrgupta