तो क्या अब सूचना का अधिकार भी देश के दूसरे सैकड़ों नियम-कायदे और कानून की तरह नौकरशाहों की साजिशों का शिकार बन कर रह जायेगा ? कम से कम झारखंड में जिस तरीके से सरकारी भर्राशाही में इस कानून का दम निकालने की कोशिश हो रही है, उससे तो ऐसा ही लगता है। लाट साहबों के नखरे रखने वाले सरकारी अधिकारी-कर्मचारी और सूचना अधिकारी व सूचना आयुक्त मिल-जुल कर इस कानून के खिलाफ ऐसे-ऐसे दाव-पेंच अपना रहे हैं, जिसमें इस कानून के सहारे सूचना निकलवाने का सपना देखने वाले आम आदमी का दम निकल जाये।
झारखंड में सरकारी भर्राशाही का आलम ये है कि राज्य सरकार के अधिकांश विभाग अव्वल तो सूचना के अधिकार के तहत आवेदन लेने में ही आनाकानी करते हैं। अगर किसी तरह आवेदन ले भी लिया तो सूचना देना-न देना उनकी ‘कृपा’ पर निर्भर होता है। सूचना न मिले तो आप अपील कर सकते हैं, राज्य आयुक्त के पास जा सकते हैं। लेकिन इन सबों के बाद भी सूचना मिल जाये, ये जरुरी नहीं है। हां, सूचना आयुक्त से अपील के बाद आवेदन वापस लेने की धमकियां आपको ज़रुर मिल सकती हैं।
सरकार ने प्रसाद बांटने की तरह राज्य में सूचना आयुक्त बनाये और सबको पीली बत्तियां बांट दी। मोटी तनख्वाह पाने वाले इन सूचना आयुक्तों के जिम्मे कितने काम हैं, यह देखने-जानने की फुरसत किसी के पास नहीं है। जबकि यहां अन्य राज्यों की तरह एक-दो सूचना आयुक्तों से भी काम हो सकता था।
इस पद की शोभा बढ़ाने वालों की मंशा जनता की सेवा में कम मलाई मारने में ज्यादा है। सरकार में बैठे नेताओं की परिक्रमा कर कई लोग लिखा-पढ़ी का काम छोडकर यह पद पाने में सफल हो गये। सरकार में बैठे लोगों के लिए अपने लोगों को उपकृत करने के लिए अच्छा मौका मिल गया। धीरे -धीरे यह पद मलाईदार बनता गया। इन आयुक्तों की ठसक किसी मंत्री से कम नहीं रह गयी। फिलहाल सूचना आयुक्तों की कार्यशैली पर ही कई तरह के प्रश्न खड़े होने लगे हैं। कुछ सूचना आयुक्त लगभग थानेदार की भूमिका निभा रहे हैं और उल्टा सूचना के बदले लोगों को ब्लैकमेल कर रहे हैं।
दूरदराज से लोग शिकायत लेकर सूचना आयुक्तों के पास आते हैं। लेकिन इन्हें न्याय मिलना तो दूर कार्यालयों के इतने चक्कर लगवाये जाते हैं कि ये थक हार कर वापस लौटने को विवश हो जाते हैं।
पिछले दिनों रांची के केन्द्रीय पुस्तकालय में यूथ फॉर द चेंज के तत्वावधान में आयोजित जन सुनवाई कार्यक्रम के दौरान राज्य में सूचना के अधिकार के हाल को लेकर हैरतअंगेज तथ्यों का खुलासा हुआ।
दुमका के प्रो। बह्मदयाल मंडल ने सूचना आयुक्त पर आरोप लगाया कि सूचना मिलना तो दूर, उनके मामले में एफआईआर दर्ज कराने की धमकी दे डाली। सूचना के अधिकार के तहत दुमका के जिला शिक्षा पदाधिकारी सह लोक सूचना अधिकारी शिवचरण मंडल से शिक्षा विभाग से संबधित सूचनाएं मांगी थी। सूचना तो नहीं मिली, बदले में प्रताड़ना मिली। उनकी बहू रंभा कुमारी को सूरजमंडल उच्च विद्यालय सरैयाहाट दुमका से निकाल दिया गया तथा अभद्र व्यवहार किया गया।
रांची धुर्वा के नागेश्वर शर्मा ने कहा कि उन्होंने राज्य पुलिस की बहाली की मेगा सूची सूचना के अधिकार के तहत मांगी थी लेकिन तीन साल के बाद भी उन्हें सूचना नहीं दी गयी और मामला हाईकोर्ट में चल रहा है।
झारखंड के साहबगंज के राधेश्याम कहना था कि उनके घर के बगल में विडियो सिनेमा हॉल खोल दिया गया। उन्होंने सूचना मांगी कि आवासीय परिसर में ऐसे सिनेमा हॉल खोलने की अनुमति किस प्रक्रिया के तहत दी गयी। उन्हें सूचना नहीं दी गयी।
राज्य के पूर्व मंत्री रामचंद्र केसरी का कहना था कि गढ़वा के उपायुक्त ने एक निर्देश जारी किया है कि अब प्रखंड तथा अनुमंडलों की जगह केवल जिला में ही लोक सूचना पदाधिकारी होंगे। यह मनमानी नहीं तो और क्या है?
झारखंड में श्री कृष्ण लोक प्रशासन केन्द्र ने आम लोगों को सूचना उपलब्ध कराने की गरज से पिछले वर्ष अधिकारियों का प्रशिक्षण चलाया था ताकि वे इस कानून को बेहतर ढंग से समझ सकें। वहीं इस संस्थान ने अपने दरवाजे आम लोगों के लिए खोल दिया तथा आम लोगों को प्रशिक्षण दिया। केन्द्र के तात्कालीन महानिदेशक अशोक कुमार सिंह ने इस दिशा में सकारात्मक पहल की थी । लेकिन इन प्रशिक्षणों के उलट लोगों को सरकारी महकमे में अब सवाल पूछने की सजा मिल रही है।
सूचना के अधिकार में वे ही लोग बाधा बन रहे हैं जिन लोगो पर इसके कार्यान्वयन की जिम्मेदारी है।
हालांकि कई सूचना अघिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि अब वे अभद्र व्यवहार करनेवाले सूचना आयुक्तों के यहां से अपने मामले का तबादला कराएंगे। साथ ही शपथपत्र दाखिल कर राज्यपाल को वस्तु स्थिति से वाकिफ कराएंगे। इसके अलावा प्रीवेंशन आफ करप्शन एक्ट 31-डी के तहत मुकदमा दायर करेंगे।
मैग्सेसे अवार्ड विजेता अरविंद केजरीवाल कहते हैं “सूचना आयुक्तों के चयन की प्रक्रिया में बदलाव की जरूरत है। सूचना आयुक्तों की एक लंबी टीम की नहीं बल्कि एक सूचना आयुक्त ही काफी है।”
आंकड़े बताते हैं कि इस कानून को लागू हुए पांच वर्ष बीत गए लेकिन स्थिति है कि केवल 15 फीसदी मामले में ही लोक सूचना अधिकारी तय समय सीमा में जवाब दे पाते हैं। 55 फीसदी लोगों को सूचना मिलने में तीस दिनों से ज्यादा समय लगा तो 9 फीसदी लोगों को 60 दिनों से ज्यादा इंतजार करना पड़ा। एक फीसदी लोगों को एक वर्ष से ज्यादा समय तक का इंतजार करना पड़ा। 19 फीसदी लोगों को सूचना ही नहीं मिली। पारदर्शिता और सुशासन के नाम पर राज कर रही सरकारों के कथनी करनी की पोल स्वतः खुल जाती है।
एक अध्ययन के मुताबिक सूचना आयोगों का दरवाजा खटखटाने वाले 100 में से 27 लोगों को ही सही जानकारी मिल पाती है। अपीलकर्ता के पक्ष में 39 फीसदी ही आदेश लागू हो पाते है। प्रदेश स्तर पर तैनात सूचना आयुक्तों की दोषपूर्ण कार्यप्रणाली के कारण सूचना के अधिकार का लाभ आम लोगों को नहीं मिल पा रहा है।
सूचना के अधिकार में वे ही लोग बाधा बन रहे हैं जिन लोगो पर इसके कार्यान्वयन की जिम्मेदारी है। सूचना आयुक्तों के पास अधिकार के तौर पर ऐसे दांत हैं, जिसका इस्तेमाल वे दोषियो को दंडित कर सकते है।
अरविंद केजरीवाल कहते हैं- “धारा 18 के तहत सूचना आयुक्त अधिकारियों से न केवल जानकारी ले सकते है बल्कि पुलिस का भी इस्तेमाल कर सकते हैं। सूचना आयुक्तों की नियुक्ति राजनीतिक हस्तक्षेप से बल्कि योग्यता के आधार पर की जानी चाहिए। आम जनता तो इस कानून की मदद से भ्रष्टाचार पर कारगर तरीके से नकेल कसने का प्रयास कर रही है तो दूसरी तरफ सरकार में बैठे भ्रष्ट अधिकारी और नेता लोगों को सूचना और उनके अधिकार से वंचित ही करना चाहते हैं।”सूचना के अधिकार से वंचित करने वाले अधिकारी और सूचना आयुक्तों के मामले को सुनते हुये ‘बाड़ द्वारा ही खेत को खाने’ का पुराना किस्सा याद आता है न !
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