सूचना का अधिकार सत्ता को वापस लौटाना!
गुजरात में बच्चों के लिये निःशुल्क शिक्षा सुनिश्तित करना
गुजरात के पंचमहल जिले के कालोल तालुका में एक निजी न्यास द्वारा चलाए जा रहे स्कूल में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को उनके अध्यापक फीस देने के लिये मजबूर कर रहे थे, हालाँकि स्कूल को गुजरात सरकार से वित्तीय सहायता मिल रही थी और कायदे से उन्हें विद्यार्थियों से कोई फीस नहीं लेनी चाहिए थी। कालोल तालुक के एक निवासी असलम भाई ने स्कूल के प्राधानाचार्य से सरकारी आदेशों के उन सर्कुलरों की प्रति प्राप्त करने के लिये सूचना का अधिकार अधिनियम का इस्तेमाल किया जो स्कूल को फीस लेने की इजाजत देते थे। सूचना के अधिकार का आवेदन पाने के बाद प्रधानाचार्य ने लिखित में माना कि स्कूल को कोई फीस लेने का अधिकार नहीं था, कम्प्यूटर की उन कक्षाओं के अलावा जिन्हें न्यास ने स्वयं अपने पैसों से शुरु किया था। अब स्कूल के विद्यार्थी प्रसन्न हैं क्योंकि अब उनके अध्यापक उनसे कोई पीस नहीं मांगते।
प. बंगाल में सांसदों द्वारा सरकारी कोष से किए भारी खर्च से पर्दा हटा
भारतीय जनता पार्टी के राज्य अध्यक्ष श्री तथागत रॉय ने पं. बंगाल की सरकार से सूचना के अधिकार के एक आवेदन के जरिए सांसदों की विदेश यात्राओं पर खर्च की गई सरकारी धनराशियों के बारे में सूचना मांगी। उनके आवेदन का जवाब देते हुए राज्य सरकार ने खुलासा किया कि सांसदों की विदेश यात्राओं पर सरकारी कोष से विशाल धनराशियाँ खर्च की जा रही थीं। उदाहरण के लिये, 1987-2000 के बीच सरकार ने तत्कालीन मुख्यमंत्री की विदेश यात्राओं पर 18,25,600 रु. और 2001-2005 के बीच मुक्यमंत्री की विदेश यात्राओं पर 4,60,722 रु. खर्च किए। सूचना का अधिकार अधिनियम निर्वाचित प्रतिनिधियों को सार्वजनिक धन के व्यय के मामले में जवाबदेह ठहराने का एक ताकतवर औजार है।
सूचना के अधिकार ने चंडीगढ़ में किया कार पंजीकरण के फर्जीवाड़े का भंडाफोड़
एक बीमा जाँचकर्ता कैप्टन ए.एन. चोपड़ा (सेवानिवृत्त) ने सूचना के अधिकार का उपयोग करते हुए यह साबित करने के लिये सबूत जुटाए कि पंजीकरण व लाइसेंस प्राधिकरण और चंडीगढ़ में पुरानी कारों के विक्रेताओं द्वारा कारों के बीमों में फर्जीवाड़ा चलाया जा रहा था। श्री चोपड़ा की जाँच उस वक्त शुरु हुई जब एक कार दुर्घटना के लिये बीमे के दावे का एक मामला उनकी मेज पर आया बीमे के दावेदार श्री नटवर जब अपनी पुरानी कार के साथ उनके यहाँ आए, तो श्री चोपड़ा ने पाया कि उनके द्वारा उन्हें दिया गया पंजीकरण प्रमाणपत्र और मूल पंजीकरण प्रमाणपत्र अलग-अलग हैं। सूचना अधिकार अधिनियम का इस्तेमाल करते हुए श्री चोपड़ा ने पंजीकरण व लाइसेंस प्राधिकरण से इस मामले की पूरी फाइल पाने के लिये आवेदन किया। प्राधिकरण से प्राप्त तथ्यों से पता लगा कि कार के पंजीकरण प्रमाणपत्र में कार के निर्माण के वर्ष को 1996 से बदल कर 2000 कर दिया गया था और इस तरह कार विक्रेता और पंजीकरण व लाइसेंस प्राधिकरण के कुछ अधिकारियों ने श्री नटवर से 50,000 रु. ज्यादा वसूल अपनी जेबें गर्म की थीं।
भूमिका
शासन में भागीदारी किसी भी सफल लोकतंत्र का मूलमंत्र है। नागरिकों के रूप में हमें केवल चुनावों के वक्त ही नहीं, बल्कि नीतिगत निर्णयों, कानून और योजनाएं बनाए जाने के वक्त और परियोजनाओं तथा गतिविधियों का कार्यान्वयन करते समय भी दैनिक आधार पर भागीदारी करने की जरूरत होती है। जन सहभागिता न केवल शासन की गुणवत्ता में वृद्धि करती है, वह सरकार के कामकाज में पारदर्शिता और जवाबदेही को भी बढ़ावा देती है। पर हकीकत में नागरिक शासन में भागीदारी कैसे कर सकते हैं? जनता कैसे समझ सकती है कि फैसले कैसे किए जा रहे हैं? साधारण लोग कैसे जानें कि कर (टैक्स) से आए पैसे को कैसे खर्च किया जा रहा है या सार्वजनिक योजनाएँ सही तरीके से चलाई जा रही हैं या नहीं या फैसले लेते समय सरकार ईमानदार और निष्पक्षता से काम कर रही है या नहीं? सरकारी अधिकारियों का काम जनता की सेवा करना है, पर इन अधिकारियों को जनता के प्रति जवाबदेह कैसे बनाया जाए?
भागीदारी करने का एक तरीका यह है कि नागरिक उन संस्थाओं से सूनाएँ मांगने के लिये अपने सूचना के अधिकार का उपयोग करें जो सार्वजनिक धन से चल रही हैं या जो सार्वजनिक सेवाएं प्रदान कर रही हैं। मई 2006 में सूचना का अधिकार अधिनियम के लागू हो जाने के बाद भारत के सभी नागरिकों को सूचनाएँ मांगने/पाने का अधिकार है। यह अधिनियम इस बात को मान्यता देता है कि भारत जैसे लोकतंत्र में सरकार के पास मौजूद सभी सूचनाएँ अंततः जनता के लिये एकत्रित की गई सूचनाएँ हैं। नागरिकों को सूचनाएँ उपलब्ध कराना सरकार के कामकाज का एक सामान्य अंग भर है क्योंकि जनता को जानने का अधिकार है कि सार्वजनिक अधिकारी उनके पैसे से और उनके नाम पर क्या करते हैं।
सूचना का अधिकार अधिनियम इस बात को स्वीकार करता है कि सरकार द्वारा नागरिकों के साथ सूचनाएँ बांटना लोकतंत्र के संचालन के लिये स्वास्थ्यकर और लाभदायक है। गोपनीयता को अब बीते जमाने की बात हो जाना चाहिए। सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत अब किसी भी नागरिक को उन सूचनाओं को देने से इंकार नहीं किया जा सकता है जिन्हें विधायकों और सांसदों जैसे निर्वाचित जन प्रतिनिधियों द्वारा सरकार से सदन में हासिल किया जा सकता है। नए कानून के दायरे में न केवल केन्द्र, बल्कि राज्यों के भी सभी सार्वजनिक संस्थान और पंचायत तथा नगरपालिका जैसी स्थानीय स्वाशासन संस्थाएं भी आती हैं। इसका अर्थ है कि अब आप समूचे भारत में हर गाँव, जिले, कस्बे और शहर में नागरिक सार्वजनिक संस्थाओं के पास मौजूद सूचनाओं तक पहुँच की मांग कर सकते हैं।
भारत में अभी तक गोपनीयता सभी सरकारी संस्थाओं के कामकाज में व्याप्त रही है, लेकिन सूचना का अधिकार अधिनियम के साथ ही पासा पलटने लगा है। जहाँ शासकीय गोपनीयता अधिनियम 1923 में सूचना को सार्वजनिक करने को एक दंडनीय अपराध की श्रेणी में रखा गया था, वहीं सूचना का अधिकार अधिनियम अब सरकार में खुलेपन की मांग करता है। पहले सरकार के पास मौजूद सूचनाओं को जनता को उपलब्ध कराना एक दुर्लभ अपवाद हुआ करता था जो आम तौर पर किसी लोक प्राधिकरण के अधिकारियों की इच्छाओं पर निर्भर करता था, लेकिन अब सूचना का अधिकार अधिनियम ने सभी नागरिकों को शासन और विकास के अपने जीवन को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर सवाल पूछने और जवाब की मांग करने का अधिकार दे दिया है। अधिनियम अधिकारियों के द्वारा अपने भ्रष्ट तौर-तरीकों पर पर्दा डालने को ज्यादा मुश्किल बना देता है। सूचनाओं तक पहुँच के कारण खराब नीति-निर्माण प्रक्रिया को उजागर करने में मदद मिलेगी और इससे भारत के राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक विकास में नवजीवन का संचार होगा।
सूचना का अधिकार अधिनियम का उचित कार्यान्वयन हो और यह सरकार को अधिक तत्पर और संवेदनशील बनाने के अपने प्रयोजन को सिद्ध करे, इसे सुनिश्चित करने का सबसे अधिक विश्वसनीय तरीका यही है कि हम सब इसका ज्यादा से ज्यादा इस्तेमाल करें और वह भी जिम्मेदारी के साथ और असरदार तरीके से। इसी उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए सीएचआरआई ने यह मार्गदर्शिका तैयार की है। मार्गदर्शिका निम्न बातों को समझाने का लक्ष्य रखती हैः
सूचना के अधिकार के लिये अभियान तृणमूल स्तर के संगठनों और नागरिक समाज के समूहों द्वारा एक प्रभावी राष्ट्रीय सूचना कानून के लिये 1990 के दशक से अभियान चलाया जा रहा है। केन्द्र सरकार ने 2002 में सूचना स्वतंत्रता अधिनियम 2002 पारित कर इस दिशा में कदम बढ़ाया। दुर्भाग्यवश, अधिनियम कभी प्रभाव में ही नहीं आ पाया और इस नए कानून के तहत लोग कभी अपने अधिकारों का उपयोग नहीं कर सके। लेकिन, 2004 में नव-निर्वाचित संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने सूचना के अधिकार को अधिक प्रगतिशील, सहभागीता आधारित और सार्थक बनाने का वायदा किया। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के वायदों पर निगाह रखने के लिये राष्ट्रीय सलाहकार परिषद का गठन किया गया और इसमें राष्ट्रीय सूचना अधिकार जन अभियान के मुख्य समर्थकों को शामिल किया गया।
राष्ट्रीय सूचना अधिकार जन अभियान, सीएचआरआई और नागरिक समाज के अन्य समूहों की प्रस्तुतियों के आधार पर राष्ट्रीय सलाहकार परिषद ने अगस्त 2004 में सूचना स्वतंत्रता अधिनियम में संशोधनों की सिफारिशें सरकार को सौंपी। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद की सिफारिशों को बहुत हद तक शामिल करते हुए दिसंबर 2004 में सरकार ने संसद में सूचना अधिकार विधेयक पेश किया। अंततः लोकसभा ने 11 मई 2005 को इस विधेयक को पारित कर दिया। इसके बाद 12 मई 2005 को राज्य सभा द्वारा इसे पारित किया गया। सूचना अधिकार अधिनियम को 15 जून 2005 को राष्ट्रपति की स्वीकृति प्राप्त हो गई। नागरिकों को सूचनाओं तक पहुँच प्रदान करने की एक राष्ट्रव्यापी व्यवस्था स्थापित करने सम्बंधी कुछ प्रावधान तत्काल प्रभाव में आ गए। 12 अक्टूबर 2005 से देश भर में सूचना अधिकार अधिनियम पूरी तरह लागू हो गया है। |
(क) इस अधिनियम के दायरे में कौन सी संस्थाएँ आती हैं;
(ख) इस अधिनियम के तहत किन सूचनाओं को पा सकते हैं;
(ग) व्यवहार में सूचनाओं तक पहुँच कैसे बनाई जाए;
(घ) अगर लोगों को अपने द्वारा मांगी गई सूचना हासिल नहीं होती, तो उन्हें कौन से विकल्प उपलब्ध हैं और
(ड.) सरकार को अधिक जवाबदेह, कार्य-कुशल और जनता के प्रति संवेदनशील बनाने के लिये अधिनियम को क्रियान्वित करने में लोग कैसे शामिल हो सकते हैं।
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