सूचना अधिकार और राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियमों को लागू करने में ढिलाई

सूचना का अधिकार अधिनियम और राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम के तहत जनता जांच के प्रावधान से आम नागरिक को यह अधिकार प्राप्त है कि वह सरकार को जवाबदेह ठहरा सके, परन्तु जमीनी स्तर पर यह दोनों ही अधिनियम सही मायनों में लागू नहीं हो पाते हैं।

भारतीय लोकतंत्र में सूचना का अधिकार अधिनियम और राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम नि:संदेह एक महत्त्वपूर्ण मील का पत्थर रहे हैं। जो कार्यप्रणाली पहले संवेदनहीन थी और जिसमें पारदर्शिता और जवाबदेही दोनों ही नहीं थे, ऐसी व्यवस्था में इन अधिनियमों से आम आदमी को यह अधिकार प्राप्त हो गया कि वोह इसी व्यवस्था में सरकार को जवाबदेह ठहरा सके और पारदर्शिता सुनिश्चित कर सके। जाहिर बात है कि शासन करने वाले लोग इस जवाबदेही और पारदर्शिता के लिए आदतन तैयार नहीं थे, परन्तु दोनों अधिनियमों के आ जाने से इन लोगों को कानून का अनुपालन करना पड़ा। इन लोगों को यह समझ में आने लगा कि आखिरकार वोह लोग लोकतान्त्रिक व्यवस्था में कार्यरत हैं जिसमें आम जनता ही केंद्र में होती है। लोगों ने सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम के अंतर्गत हुए कार्य की जानकारी मंगनी शुरू की और जनता जांच के प्रावधान को लागू किया - यह आन्दोलनकारी नीतियाँ हैं क्योंकि अँग्रेज़ सरकार से जिस व्यवस्था को हमने अपने हाथों में लिया है और जिस तरह से अफसरवाद की मानसिकता पनपी है, इन दोनों नीतियों को लागू करना कोई मामूली बात नहीं थी।

अब शासन करने वालों को लग रहा है कि बहुत हो चुका! आम लोगों को एक हद तक ही पारदर्शिता और जवाबदेही का लुत्फ़ मिलना चाहिए। आम लोगों को इस हद तक की जवाबदेही और पारदर्शिता नहीं मिलनी चाहिए जिससे कि शासन करने वाले लोगों पर ही सवाल खड़े हो जाएँ। बिना रोक टोक के जो शासन करते आ रहे हैं, उन्हें अब इन जन हितैषी नीतियों से डर नहीं लगता है और अब वोह उन लोगों से, जो इन नीतियों के तहत प्रश्न उठा रहे हैं, बदले की भावना के साथ निबट रहे हैं। इन शासन करने वालों ने यह ठान ली है कि जो भी आवाज़ उनके वर्चस्व पर सवाल खड़ा करेगी, वोह उसको बर्बरता से कुचल देंगे। हालाँकि प्रशासनिक तंत्र को इन नीतियों को लागू करने के लिए बाध्य होना चाहिए, परन्तु वोह इन्ही शासन करने वाले लोगों द्वारा इस्तिमाल किया जा रहा है।

उत्तर प्रदेश के कुशीनगर जिले के कस्य ब्लाक के डुमरी गाँव पंचायत में, जो गरीबी-रेखा-के-नीचे सर्वेक्षण से सम्बंधित जांच शुरू हुई थी, वोह विकास के लिए आई बड़ी धनराशी के गबन की बड़े पैमाने पर जांच बन गई। ग्रामीण विकास विभाग के सहायक ग्रामीण आयुक्त ने गरीबों के लिए घरों के लिए आई धनराशी में और राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम की धनराशि में बड़े पैमाने पर गड़बड़ी पायीं। वकील उदयभान यादव, जिन्होंने इन जांचों को कराने में मुख्य भूमिका ली थी, को ग्राम प्रधान दिनेश वर्मा और उसके आदमियों ने धमकाया।

२८ फरवरी २००९ को ग्राम प्रधान के आदमी एक दलित मजदूर परसुराम को मार रहे थे, क्योंकि परसुराम ने जाली मास्टर रोल पर सवाल खड़ा कर दिया था जिसमें उसके नाम से पैसा निकाला गया था जब कि असलियत में उसने एक दिन भी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम के तहत कार्य नहीं किया था। उदयभान ने जब परसुराम को पिटते देखा, तो हस्तक्षेप किया। ग्राम प्रधान के लोगों ने उदयभान को भी बहुत मारा। एक अन्य दलित, कपिल देव, जिसको ग्राम प्रधान का संरक्षण प्राप्त है, उसने उदयभान के ख़िलाफ़ पुलिस रपट लिखवा दी और दलितों के ख़िलाफ़ हिंसा करने के लिए केस बन गया। राजनीतिक दबाव की वजह से, ९ मार्च २००९ को, उदयभान और उसके पिताजी हरी यादव को गिरफ्तार कर लिया गया। परसुराम के भाई राम भारत और पिताजी जय कारन को भी गिरफ्तार किया गया पर बाद में रिहा कर दिया गया।

१४ जनवरी २००९ को हरदोई जिले के भरावन ब्लाक के गाँव पंचायत ऐरा काके मऊ में ग्राम प्रधान के घर के बाहर अपनी मजदूरी मांगने के लिए कई मजदूर इकठ्ठे हो रहे थे। ग्राम प्रधान के पति, घनश्याम, जो अपनी बीवी के नाम पर प्रधानी का कार्य सँभालते हैं, ने पहले तो मजदूरों को डरा-धमका कर भगाने की कोशिश की। जब तनाव बढ़ गया तो पुलिस भी आ गई। जब मजदूरों ने, राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम के तहत, ग्राम प्रधान की शिकायत दर्ज कराने की बात की, तब घनश्याम ने अपने लोगों से मजदूरों पर लाठियों से हमला करवा दिया। इस घटना के दौरान अतरौली पुलिस स्टेशन के एसएचओ और अन्य पुलिसकर्मी मूक दर्शक बने रहे। एक दलित मजदूर मेडई और अन्य सामाजिक कार्यकर्ता राम भरोसे को सर पर चोट आई। हालाँकि घनश्याम के ख़िलाफ़ पुलिस केस फाइल हो गया था परन्तु बार-बार कहने के बाद भी और अनेकों अधिकारियों को पत्र लिखने के बाद भी, घनश्याम के ख़िलाफ़ दलितों पर हिंसा करने का अधिनियम नहीं लगाया गया है, और अब तक कोई भी प्रशासनिक करवाई नहीं की गई है।

मऊ जिले के कोपागंज ब्लाक के देवकली, बिश्नुपुर, पुराना कोपा और जैराम्गढ़ गाँव के मजदूर, जिसमें से अधिकाँश महिलाएं और दलित थे, पिछले ६ महीने से नहीं मिली हुई मजदूरी को मांगने के लिए ब्लाक अधिकारी के कार्यालय के बहार इकठ्ठा होने लगे। इनमें से एक मजदूर को वार्तालाप के लिए कार्यालय के भीतर बुलवाया गया और अन्दर बैठे हुए लोगों द्वारा बहुत मारा गया। मजदूरों में यह जान कर बहुत रोष था, और इस क्रोध का ब्लाक विकास अधिकारी राम दुलार और एक अन्य कर्मचारी संजीव सिंह को सामना करना पड़ा। इसी घटना में कुछ महिलाओं को भी चोट आई। अभी तक न तो किसी भी मजदूर को उसकी मजदूरी मिल पायी है और न ही मजदूरों को मारने वाले लोगों पर कोई भी करवाई हो पायी है।

२८ फरवरी २००९ को सीतापुर जिले के कस्मंदा ब्लाक के गाँव पंचायत रूर में, एक तालाब को गहरा करने का काम चल रहा था। इन्ही लोगों में से कुछ महिलाएं हैण्ड पम्प से पानी पीने चली गई। यह हैण्ड पम्प इस छेत्र के एक बाहुबली मदन दिक्षित का था, जिसको मदन मुनि नाम से जाना जाता है। इन महिलाओं को अश्लील टिप्पणियों को झेलना पड़ा। जब इन महिलाओं के परिवार के पुरुषों ने इस बात का विरोध किया, तो उनकी पिटाई कर दी गई। जब मजदूरों ने पुलिस स्टेशन जा कर रपट लिखानी चाही, तो मदन मुनि पहले से ही वहाँ पर बैठा हुआ था। मजदूर उसके ख़िलाफ़ दलितों पर हिंसा करने के लिए केस लिखवाना चाह रहे थे। पुलिस ने रपट लिखने में आनाकानी करी और अगले दिन सुबह रपट लिखवाने को कहा। जब अगले दिन सुबह भी मजदूर रपट लिखवाने के लिए डटे हुए थे, तो पुलिस स्टेशन के भीतर ही मजदूरों में से दो पुरुषों और दो महिलाओं को पीटा गया। इस क्षेत्र में सक्रिय सामाजिक संगठनों की मदद से मदन मुनि के ख़िलाफ़ दलितों पर हिंसा करने का केस रपट तो लिखा गया परन्तु उन पुलिसकर्मियों के ख़िलाफ़ कोई केस नहीं लिखा गया जिन्होंने पुलिस स्टेशन में ही मजदूरों को मारा था।

बनारस जिले के चोलापुर ब्लाक में, लगभग २०० मजदूर जो धौरहरा, सारयां और मुनरी के रहने वाले थे, उनको सारयां जीपी में एक तालाब को गहरा करने के लिए पिछले १ महीने से मजदूरी नहीं मिली थी। जूनियर अभियंता ने भुगतान रुपया ३९।८० प्रति दिन के हिसाब से करने की बात की थी, और मजदूरों का कहना था कि इसी काम के लिए धौरहरा जीपी में न्यूनतम भुगतान रुपया १०० प्रति दिन हुआ है। २६ फरवरी २००९ को गाँव के विकास अधिकारी ने मजदूरों को लिखित आश्वासन दिया कि ३ मार्च २००९ को रुपया १०० प्रति दिन के दर से उनको भुगतान हो जाएगा। जब मजदूर ५ मार्च को ब्लाक विकास अधिकारी के कार्यालय में इकठ्ठे हुए, तो अधिकारी उपस्थित नहीं थे। एक ब्लाक कर्मचारी की सलाह पर उन्होंने वाराणसी-आजमगढ़ राजपथ (हाईवे) बंद कर दिया। चोलापुर पुलिस स्टेशन के एसएचओ वहाँ पर पहुँचे और मजदूरों को बर्बरतापूर्वक लाठियों से मारा गया। लगभग ५० मजदूर, जिनमें १० महिलाएं भी शामिल थीं, बुरी तरह से चोट खाए थे। हीरावती, जो गर्भवती थी, वोह भी चोट खायी थी। २० लोगों को और ५० साइकिलों को पुलिस स्टेशन लाया गया और मजदूरों को निजी 'बांड' भरने के बाद ही रिहा किया गया। जब एसएचओ से पूछा गया कि उस गाँव के विकास अधिकारी के ख़िलाफ़ वोह क्या करवाई करेगा जिसने मजदूरों को उनके कानूनन हक़ से वंचित रखा है, चूँकि इन मजदूरों का राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम के तहत मजदूरी पर कानूनन हक़ बनता है, तो उसने कहा कि वोह सिर्फ़ ऊपर से आए हुए आदेशों का अनुपालन कर रहा है। उसने उस अधिकारी का नाम लेने से मना कर दिया जिसने लाठीचार्ज के आदेश दिए थे। अगले दिन, रुपया ४२ प्रति दिन के दर से मजदूरी, मजदूरों के अकाउंट में भेज दी गई।

मजदूरों को दबाना अब एक प्रवृति बनती जा रही है। शासन करने वालों ने मजदूरों द्वारा अपने अधिकारों के मांगे जाने पर सख्ती से पेश आने की ठान ली है। मजदूरों को सज़ा मिलेगी, ऐसा माना जाने लगा है। शासन करने वाले यह समझ रहे हैं कि मजदूरों का अधिकार मांगने से, लोकतंत्र में निर्णय लेने की प्रक्रिया में भी फिर मजदूर वर्ग अपनी भागीदारी मांगेगा और सामाजिक न्याय के लिए संघर्ष भी मजबूत होगा। शासन करने वाले लोग इतनी आसानी से यह शक्ति खोना नहीं चाहते हैं। उपरोक्त किस्सों से यह भी साफ़ झलक रहा है कि मजदूर वर्ग अब अधिक संगठित होता जा रहा है। राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम की यह तो एक उपलब्धि रही है। हमें उम्मीद है कि मजदूरों की समस्याएँ लोकतान्त्रिक व्यवस्था के अन्दर ही शांतिपूर्वक ढंग से सुलझाई जाएँगी और इससे समाज में और सरकार में लोकतान्त्रिक मूल्यों को बढ़ावा मिलेगा।

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