शुष्क तथा अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों में पैदावार बढ़ाने की तकनीक

भारतीय कृषि के योजनागत विकास के बावजूद अब भी लगभग 85 मिलियन हेक्टेयर (60 प्रतिशत) कृषि क्षेत्र असिंचित है तथा भारतीय अर्थव्यवस्था काफी हद तक मानसून पर निर्भर करती है। देश के 13 राज्यों के लगभग 100 जिलों को सूखा संभावित या शुष्क व अर्द्ध-शुष्क क्षेत्र चिन्ह्ति किया गया है जहां पर कुल वर्षा वाष्पोत्सर्जन से भी कम होती है। कृषि मंत्रालय, भारत सरकार के एक अनुमान के अनुसार भारत की खाद्यान्न मांग वर्ष 2020 तक 281 मिलियन टन हो जाएगी। इस मांग की पूर्ति असिंचित (बारानी) क्षेत्रों में उन्नत कृषि तकनीकें अपनाकर एवं इस शुष्क व अर्द्ध-शुष्क क्षेत्र का टिकाऊ विकास करने पर ही संभव हो सकेगी।

देश के इतने बड़े भू-भाग के सूखाग्रस्त होने के कारण ही संसाधन होने के बावजूद हमारी खाद्य सुरक्षा व पोषण सुरक्षा को खतरा महसूस होता है। देश को दलहनों व खाद्य तेलों की पूर्ति के लिए आयात करना पड़ता है। यदि हमारे देश के वर्षा आधारित असिंचित क्षेत्रों का विकास चहुंमुखी तरीके से किया जाए, व उन्नत कृषि तकनीकों व जल संरक्षण तकनीकों को टिकाऊ तरीके से अपनाया जाए तो इतने बड़े भू-क्षेत्र में न केवल कृषि उत्पादन को बढ़ाया जा सकता है, बल्कि रोजगार सृजन व पशुपालन को बढ़ावा देकर कृषकों का जीवन-स्तर वराष्ट्र के लिए खाद्यान्न उत्पादन में सुधार किया जा सकता है।

शुष्क व अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों की प्रमुख समस्याएं


1. कम वर्षा व अधिक वाष्पोत्सर्जन एवं वाष्पीकरण के कारण फसलों को विभिन्न अवस्थाओं पर सूखे से जूझना पड़ता है जिससे इन क्षेत्रों की वास्तविक उत्पादकता राष्ट्रीय औसत उत्पादकता से काफी कम होती है।
2. अधिक तापमान व मृदा के रेतीले व वनस्पतिविहीन होने से जैविक पदार्थ की न्यूनता तथा मृदा की कम उर्वरता।
3. वायु व जल अपरदन द्वारा भूमि की ऊपरी परत का कटाव होने से उपजाऊ मृदा परत का क्षरण।
4. अधिकतर भाग में मृदा लवणीयता तथा क्षारीयता की समस्या।
5. अधिकांशतः असमतल भू-ढलान के कारण तेज जल बहाव।
6. अधिकतर किसानों की जोत का आकार कम होना।

असिंचित क्षेत्रों में फसलोत्पादन बढ़ाने की उन्नत तकनीकें वर्षा जल का संचयन व संरक्षण
.1. मृदा नमी की कमी की समस्या से बचने के लिए वर्षा के पानी का संचय करना चाहिए जोकि निम्न तरीकों से किया जा सकता हैः-
2. ढलान वाले क्षेत्रों में जल अधिग्रहण क्षेत्र का विकास करना, जिससे मृदा में वर्षा का पानी संचय करने तथा भू-जल स्तर बढ़ाने में भी मदद मिलेगी।

3. ज्यादा ढालू खेतों में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर कम ऊंचाई की मेड़ बनाकर पानी के बहाव को कम किया जा सकता है, जिससे पानी को जमीन में जाने के लिए अधिक समय मिलेगा।
4. खेत से जो पानी बहकर जाए उसे रोककर कुएं में डालने से कुएं के जलस्तर में बढ़ोत्तरी की जा सकती है।
5. ढलान वाले खेतों में कृषि का पट्टीदार तरीका काम में लेना चाहिए। इसके अंतर्गत बाजरा, ज्वार, मक्का, आदि अनाज वाली फसलों की कतारों के बाद मूंग, उड़द, मूंगफली, सोयाबीन आदि फसलों की कतारों में बुवाई करते हैं। इन दलहनी व तिलहनी फसलों की खासियत यह है कि ये पानी के बहाव को कम करती हैं जिससे उपजाऊ मिट्टी का कटाव तो रुकता ही है जमीन में पानी का रिसाव भी बढ़ता है।
6. खेत के निचले इलाकों में तालाब व टैंक का निर्माण करके वर्षा के पानी को इकट्ठा करना और उसका फसल की संवेदनशील अवस्थाओं पर सिंचाई के लिए प्रयोग करना।
7. विभिन्न तकनीकों जैसे भू-समतलीकरण, वृक्षारोपण, मेड़बंदी व ढलान के विपरीत जुताई व बुवाई करके वर्षा के पानी को बहकर नहीं जाने देना चाहिए और साथ ही पानी से होने वाले मृदा कटाव को रोकना चाहिए। खेत की ढलान के आड़े; विपरीत खेती करने अर्थात समस्त कृषि क्रियाएं जैसे जुताई, बुवाई आदि खेत की ढलान के आड़े की जाए तो कूंड का पानी कूंड में तथा खेत का पानी खेत में ही रहता है तथा व्यर्थ बहकर नहीं जाता। इस तरह ज्यादा से ज्यादा पानी जमीन के अन्दर जाता है जोकि वर्षा समाप्त होने के बाद फसल के लिए लम्बे समय तक काम आता है।
8. संरक्षित कृषि व पलवार के प्रयोग को बढ़ाना।
9. भूमि में अधिक जल अवशोषित करने के लिए गहरी जुताई, मेड़ बनाना व ढलान के विपरीत बुवाई आदि तकनीकों को अपनाना।

मृदा नमी संरक्षण


असिंचित क्षेत्रों की फसल प्रणालियों व फसलों में होने वाले नमी ह्रास को कम करने के लिए व नमी की कमी की समस्या को कम करने में निम्नलिखित तकनीकें सहायक हो सकती हैंः

1. खरपतवार मृदा नमी को वाष्पोत्सर्जन करके उड़ा देते हैं। अतः बारानी क्षेत्रों में सफल कृषि प्रबंधन के लिए खरपतवारों से वाष्पोत्सर्जन को रोकने व फसलों को उचित जगह, प्रकाश एवं पोषण प्रदान करने के लिए समुचित खरपतवार नियंत्रण आवश्यक है।
2. गर्मी में गहरी जुताई करें व वर्षा उपरांत जुताई करके पाटा लगाकर मृदा नमी संरक्षण करना चाहिए। भारी और दोमट वाले क्षेत्रों में गर्मी की जुताई करने से भूमि में अधिक जल सोखने की क्षमता बढ़ती है। जमीन से पानी को भांप बनकर उड़ने से रोकने के लिए कुल्फा या बक्खर चलाकर मिट्टी की ऊपरी परत को तोड़ देना चाहिए। यह टूटी हुई परत सतह आवरण का काम करती है।
3. वाष्पीकरण द्वारा होने वाले नमी ह्रास को कम करने के लिए पलवार (मल्च) का प्रयोग।
4. पत्तियों को मुरझाने से बचाने के लिए पोटेशियम का पर्णीय छिड़काव (0.5 प्रतिशत), तथा पुरानी पत्तियों को निकाल दें।
5. उचित पौधों की संख्या बनाए रखें। यदि पौधे घने हो तो मृदा में नमी को देखते हुए कुछ पौधे उखाड़ दें।
6. मृदा जलधारण क्षमता, मृदा उर्वरता व कार्बनिक पदार्थ बढ़ाने के लिए 5-10 टन/हेक्टेयर गोबर की खाद, कम्पोस्ट 5-8 टन/हेक्टेयर, वर्मी कम्पोस्ट 3-6 टन/हेक्टेयर एवं फसल अवशेषों का प्रयोग करें।
7. मध्यकालीन सुधार करें जैसे अन्तःसस्य क्रियाएं, पौधों की संख्या कम करना, जीवनरक्षक सिंचाई आदि करना।
8. मृदा नमी संरक्षण के लिए पालीमर्स का प्रयोग करें जैसे-हाइड्रोजेल (2.5-5.0 कि.ग्रा./हे.)।
9. वाष्पोत्सर्जनरोधी रसायनों जैसे के ओलिन (6 प्रतिशत) व साइकोसेल (0.03 प्रतिशत) का फसल की उचित अवस्था पर छिड़काव करें।

समेकित पोषक तत्व प्रबंधन


असिंचित क्षेत्रों की मृदाएं प्यासी ही नहीं परन्तु भूखी भी रहती हैं। क्योंकि इन क्षेत्रों में मृदा व जल अपरदन के कारण तथा कम पोषक तत्वों के प्रयोग से मृदा उर्वरता कमजोर रहती है। कृषि उत्पादकता, मृदा उर्वरकता तथा पर्यावरण संरक्षण को एक साथ समावेशित करने के लिए समेकित या एकीकृत पादप पोषक तत्व प्रबंधन की आवश्यकता है। समेकित पादप पोषक तत्व प्रबंधन से अभिप्राय यह है कि फसल उत्पादकता एवं मृदा उर्वरकता को बढ़ाने तथा बनाए रखने के लिए पोषक तत्वों के सभी उपलब्ध स्रोतों (उर्वरक, जीवांश/कार्बनिक खादें, पौधों एवं जीवों के अवशेष, औद्योगिक उप-उत्पाद, जैविक उर्वरक आदि) से मृदा में पोषक तत्वों का इस प्रकार सामंजस्य कि जैविक गुणवत्ता पर हानिकारक प्रभाव डाले बगैर लगातार उच्च आर्थिक उत्पादन लिया जा सके। खाद और उर्वरक पर किए गए परीक्षणों से यह बात स्पष्ट हो गई है कि केवल रासायनिक उर्वरकों के उपयोग से किसी भी फसल या फसल प्रणाली से अधिक उपज प्राप्त नहीं की जा सकती है। अतः यह निर्विवाद सत्य है कि कार्बनिक खादों के साथ-साथ रसायनिक उर्वरकों के संतुलित उपयोग से न केवल अधिकतम उपज ली जा सकती है, बल्कि लम्बे समय तक इनके प्रयोग से भूमि के उर्वरता स्तर में भी सुधार होता है। कार्बनिक खादें जैसे गोबर की खाद (5-10 टन/हेक्टेयर), कम्पोस्ट (5-8 टन/हेक्टेयर), वर्मीकम्पोस्ट (3-6 टन/हेक्टेयर), हरी खाद जैसे ढैंचा, ग्वार इत्यादि, फसल अवशेष, जैव-उर्वरक आदि का प्रयोग करने से भूमि की उर्वरा-शक्ति लम्बे समय तक बनी रहती है। इसके अतिरिक्त कार्बनिक खादों के प्रयोग से मृदा में निम्नलिखितलाभ हैं:-

कार्बनिक खादों में पोषक तत्व घुलनशील अवस्था में रहते हैं एवं इस खाद में मृदा की प्राकृतिक उर्वराशक्ति को फिर से जीवित करने की समर्थता मौजूद होती है। इसलिए इस खाद को प्रयोग करने के बाद इसका असर लम्बे समय तक बना रहता है।

अपनी दानेदार प्रकृति के कारण कार्बनिक खाद व वर्मी कम्पोस्ट भूमि के वायु परिसंचरण, जलधारण क्षमता को न केवल सुधारता है अपितु जड़ बढ़ाव व फैलाव में भी वृद्धि करता है।

कार्बनिक खाद व वर्मी कम्पोस्ट के प्रयोग से मृदा की जल-धारण क्षमता में वृद्धि होती है व सिंचाई में बचत होती है।

कार्बनिक खादों व वर्मी कम्पोस्ट में बहुत से ह्यूमिक एसिड्स रहते हैं जिनका कार्य पौधों की बढ़वार में वृद्धि के साथ ही केटायन एक्सचेंज कैपेसिटी व भूमि की भौतिक दशा सुधारना होता है।

कार्बनिक खादों के प्रयोग से फल, सब्जियों व अनाज की गुणवत्ता में सुधार कर कृषक की उपज का बेहतर मूल्य दिलवाता है।

शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों के लिए उपयुक्त जल प्रबंधन प्रौद्योगिकी


.किसानों की शुष्क एवं अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों की कृषि प्रणालियों में कम जल उपलब्धता में जलदक्षता एवं उत्पादकता बढ़ाने के लिए अनुमोदित कृषि क्रियाएं निम्नलिखित हैं:-

नवीनतम सिंचाई विधियां जैसे स्प्रिंकलर और ड्रिप सिंचाई विधि से सामान्य एवं खासकर अधिक मूल्य वाली फसलों में अधिक जल उपयोग क्षमता, कम जल का प्रयोग और अधिक पैदावार के साथ-साथ कृषि आय में भी उल्लेखनीय वृद्धि होती है।

ड्रिप सिंचाई विधि विभिन्न फसलों में उच्च गुणवत्ता एवं अधिक पैदावार के लिए अति-उत्तम साबित हुई है। अतः किसान इस सिंचाई विधि की अधिक प्रारंभिक लागत के कारण केंद्र व राज्य सरकारों की योजनाओं से ऋण, अनुदान एवं सुविधाओं का उचित लाभ उठाकर ड्रिप सिंचाई प्रणाली को अपनाकर अधिक धनोपार्जन वाली फसलों में जल-उपयोग दक्षता बढ़ाने के साथ-साथ उच्च गुणवत्तायुक्त अधिक उत्पादन एवं लाभ ले सकते हैं।

स्प्रिंकलर व ड्रिप सिंचाई विधि खेतों में लगाए जाने वाली सामान्यतः सभी फसलों जैसे कि गेहूं, आलू, सब्जियां, दलहनी व तिलहनी फसलों आदि के लिए कम जल उपलब्धता, असमतल, उबड़-खाबड़ एवं पहाड़ी क्षेत्रों के साथ-साथ लवणीय मृदाओं में कृषि उत्पादन व उच्च जलदक्षता के लिए एक अच्छा विकल्प है।

स्प्रिंकलर और ड्रिप उद्यान, कृषि उद्यानिकी एवं कृषि-वानिकी कृषि प्रणालियों में उच्च जलक्षमता, गुणवत्तापूर्ण कृषि उत्पादन एवं अधिक लाभ के लिए अच्छी जल प्रबंधन तकनीकें हैं।

जल प्रबंधन के लिए उपयुक्त फसल क्रांतिक अवस्थाओं पर सिंचाई देनी चाहिए। अगर गेहूं के लिए एक ही सिंचाई जल की उपलब्धता हो तो क्राउन जड़ की शुरुआती (सी.आरआई.) अवस्था पर सिंचाई अवश्य करें। अगर दो सिंचाई के लिए जल की उपलब्धता हो तो सी.आर.आई. व फूल अवस्था पर सिंचाई करें। इसी तरह तीन सिंचाईयों की उपलब्धता में सी.आर.आई., फूल अवस्था एवं पौधों में छिड़काव की अवस्था में सिंचाई करें।

समेकित खरपतवार प्रबंधन


खरपतवार न केवल फसल से वृद्धि व स्थान के लिए प्रतिस्पर्धा करते हैं बल्कि फसलों के हिस्से के जल व पोषक तत्वों का भी अवशोषण करते हैं। खरपतवार मृदा नमी का वाष्पोत्सर्जन करके उड़ा देते हैं। अतः असिंचित क्षेत्रों में सफल कृषि प्रबंधन के लिए खरपतवारों का नियंत्रण अति आवश्यक है। खरपतवारों का प्रकोप कम हो इसके लिए बुवाई से पूर्व जुताई व खेत की तैयारी भली प्रकार से करें। यदि शून्य जुताई विधि द्वारा बुवाई की हो तो फसल में पूर्व फसलों के अवशेषों का आवरण बनाकर रखें। फसल अवशेषों का आवरण (मल्च/पलवार) खेत में बनाए रखने से खरपतवारों का अंकुरण कम होता है तथा मृदा नमी का ह्रास भी कम होता है। जब फसल 20 से 40 दिन की हो जाए तब आवश्यकतानुसार निराई-गुड़ाई करनी चाहिए। निराई-गुड़ाई करने से खरपतवार नियंत्रण के अतिरिक्त भूमि की ऊपरी परत टूट जाने से मृदा नमी का वाष्पीकरण कम होता है तथा मृदा में वायुसंचार भी बढ़ता है। विभिन्न फसलों के लिए आवश्यकतानुसार उपयुक्त समय पर शाकनाशियों का प्रयोग करके भी खरपतवारों का नियंत्रण किया जा सकता है। असिंचित क्षेत्रों में खरपतवार नियंत्रण के लिए प्रयोग होने वाले शाकनाशियों की जानकारी सारणी में दी गई है।

खरपतवार नियंत्रण के लिए उपयुक्त शाकनाशी

फसल

शकनाशी का नाम

मात्रा ग्राम (सक्रिय तत्व/हे.)

प्रयोग का समय

बाजरा, ज्वार

एट्राजिन

500

बुवाई के 3 दिन के अंदर

मक्का

एट्राजिन

500-750

बुवाई के 3 दिन के अंदर

 

पेंडीमिथैलिन +एट्राजिन

750 +500

बुवाई के 2-3 दिन बाद

गेहूं, जौ

पेंडीमिथैलिन

1000

बुवाई के 1-2 दिन बाद

 

आइसोप्रोट्यूरान या

750

बुवाई के 25-35 दिन बाद

 

सल्फोसल्फ्यूरान या

25

बुवाई के 25-30 दिन बाद

अरहर, उड़द, मूंग, चना, मसूर, सरसों

पेंडीमिथैलिन

1000

बुवाई के 1-2 दिन बाद

सोयाबीन

पेंडीमिथैलिन

1000

बुवाई के 1-2 दिन बाद

 

इमाझीथाफायर

100

बुवाई के 15-20 दिन बाद

 



सूखे से बचाव के नीतिगत व संस्थागत उपाय


भारतीय मौसम विभाग द्वारा प्रतिवर्ष जनवरी या फरवरी में मानसून की भविष्यवाणी जारी की जाती है। इस सूचना के आधार पर पहले से तैयारी करके सूखे जैसी भयावह समस्या का सामना कुछ हद तक किया जा सकता है। सूखे की स्थिति में चारे व दाने वाली फसलों के उत्पादन में व सूखाग्रस्त क्षेत्र में कमनुकसान हो इसके लिए निम्न कदम उठाए जा सकते हैं:-

1. विभिन्न दशाओं के अनुसार वैकल्पिक फसल रणनीति अपनाई जानी चाहिए तथा दोबारा बुवाई आदि की स्थिति में अनुमानित दर पर ऊर्जा, उर्वरक तथा बीज उपलब्ध कराए जा सकते हैं। क्षेत्र व समय विशेष हेतु आपातकालीन फसल योजना बनाई जाए।
2. जल स्रोत में समय-पूर्व जल उपलब्धता का मूल्यांकन किया जाना चाहिए, जिससे कि सूखे के समय पेयजल की कमी ना हो तथा संभव हो तो फसलों के लिए जीवनरक्षक सिंचाई की व्यवस्था हो सके।
3. सिंचाई जल का सुसंगठित प्रयोग किया जाए तथा दुरुपयोग रोका जाए ताकि अधिक क्षेत्र में सिंचाई करके फसलों को बचाया जा सके।
4. नमी संरक्षण उपायों व जल संग्रहण को बढ़ावा देना चाहिए तथा वर्षा जल को बहकर जाने से रोकना चाहिए।
5. आधुनिक सिंचाई के साधनों जैसे ड्रिप व स्प्रिंकलर सिंचाई को बड़े पैमाने पर प्रचारित किया जाना चाहिए जिससे जल उपयोग दक्षता बढ़ेगी तथा जल अपव्यय रोका जा सकेगा।
6. कृषकों को आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर बनाया जाना चाहिए। इसके लिए उनको वैकल्पिक कृषि उद्योगों जैसे पशुपालन, मुर्गीपालन, मत्स्यपालन, मशरूम उत्पादन आदि को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
7. सूखे की स्थिति में चारे के मूल्यों को नियंत्रित किया जाना चाहिए व सूखाग्रस्त क्षेत्रों में चारे की उपलब्धता तथा दूसरे स्थानों से परिवहन की समुचित व्यवस्था सुनिश्चित की जानी चाहिए। सूखे के समय व सूखा संभावित क्षेत्रों में उद्योगों के लिए जल आपूर्ति नियंत्रित की जानी चाहिए।
8. सूखा संभावित क्षेत्रों में बहुवर्षीय फल वृक्षों जैसे आंवला, खजूर, बेर व फालसा तथा बहुवर्षीय घासों को लगाना चाहिए जिससे किसानों की आय में वृद्धि की जा सके।
9. कुछ नकदी व औषधीय फसलों जो सूखा सहन करने में सक्षम हैं जैसे गुग्गल, सर्पगंधा, ईसबगोल, जीरा आदि फसलों को फसल चक्र में सम्मिलित कर आय व जीविका के साधन उपलब्ध करवाए जा सकते हैं।
10. कृषकों की आय व रोजगार बढ़ाने के लिए कृषि प्रणाली घटकों जिनमें फसलों के साथ पशुओं व अन्य लाभदायक घटकों को शामिल कर क्षेत्र विशेष व स्थिति विशेष के आधार पर अपनाया जाना चाहिए।
11. जल-संरक्षण में सामुदायिक भागीदारी-सामुदायिक-स्तर पर भी जल संरक्षण उपाय किए जाने चाहिए। उदाहरण के तौर पर बरसाती नालों में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर स्थानीय स्तर पर उपलब्ध सामग्री-पत्थर, मूंज आदि के अवरोध बना देने से पानी रुक-रुक कर बहता है तथा मिट्टी का कटाव भी रुकता है। पानी के बहने की गति कम होने से मिट्टी का कटाव भी कम हो जाता है व जमीन में जल का रिसाव बढ़ता है। इसके फलस्वरूप क्षेत्र के जलस्तर में बढ़ोत्तरी होती है। गांव के तालाब, पोखर आदि को भी गहरा किया जाना चाहिए।

सारांश


.शुष्क व अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों में यदि उन्नत सस्य तकनीकें अपनाई जाएं, वर्षा जल का संरक्षण व संचय किया जाए, फसल प्रबंधन की समन्वित प्रौद्योगिकी अपनाए तथा सूखे से फसलों के बचाव के लिए समय पर कदम उठाए जाएं तो बारानी क्षेत्रों की उत्पादकता में उल्लेखनीय वृद्धि की जा सकती है। इसके अतिरिक्त सुनियोजित तरीके से सूखा व अकाल प्रबंधन एवं नमी संरक्षण तथा उपलब्ध मृदा नमी का दक्ष उपयोग करके न केवल बारानी क्षेत्रों का टिकाऊ विकास व खाद्य व पोषण सुरक्षा के लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है बल्कि कृषि आय वृद्धि व रोजगार सृजन करके शुष्क व अर्द्ध-शुष्क क्षेत्रों का चहुंमुखी विकास किया जा सकता है।
(लेखक भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में वरिष्ठ वैज्ञानिक है।)

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