भारत जैसे तीव्र गति से बढ़ती जनसंख्या वाले देश में लोगों की खाद्यान्न आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु कृषि उत्पादन बढ़ाने के सभी यथासम्भव उपाय किए जाने आवश्यक हैं। उपयुक्त सिंचाई व्यवस्था के जरिए शुष्क क्षेत्रों को कृषि योग्य बनाना एवं वहाँ फसलोत्पादन की तीव्रता लाना भी इन्हीं प्रयासों का एक अंग है। किसी भी फसल के सफल उत्पादन में पानी की सबसे बड़ी भूमिका होती है। प्रस्तुत लेख में लेखक ने शुष्क क्षेत्रों में बागवानी फसलों की खेती के सम्बन्ध में कुछ महत्त्वपूर्ण सुझाव दिए हैं जो उन क्षेत्रों की सामाजिक-आर्थिक स्थिति सुधारने में मील का पत्थर साबित हो सकते हैं।
जल जीवन है। मनुष्य, जानवर तथा पेड़-पौधे सभी के जीवन चक्र का आधार पानी है। किसी भी फसल के सफल उत्पादन में पानी की सबसे बड़ी भूमिका होती है। पानी के लिए आज भी कृषक ऊपर की ओर निहारता है। परन्तु विडम्बना यह है कि विविधता से भरे इस देश में वर्षा की मात्रा में भी भारी विविधता है। उदाहरणार्थ तटीय कर्नाटक में औसत वार्षिक वर्षा 3264.8 मि.मी. होती है जबकि पश्चिमी राजस्थान में यह केवल 311.1 मि.मी. है। साथ ही साथ इसका वितरण भी असमान है। हमारे देश के कुल भौगोलिक क्षेत्रफल (329 मिलियन हेक्टेयर) का 12 प्रतिशत हिस्सा शुष्क जलवायु के अन्तर्गत आता है। शुष्क क्षेत्र मुख्य रूप से 6 राज्यों-राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, महाराष्ट्र, कर्नाटक एवं आन्ध्र प्रदेश में फैला हुआ है (सारणी-1)। मानचित्र के अवलोकन से ज्ञात होता है कि देश की कुल शुष्क जलवायु का 90 प्रतिशत हिस्सा उत्तर-पश्चिमी राज्यों में विद्यमान है। शुष्क मरुस्थलीय क्षेत्रों की मुख्य विशेषता यहाँ की वर्षा की मात्रा है जो 700 मि.मी. वार्षिक से भी कम है तथा सूर्याताप 400-500 कैलोरी/वर्ग से.मी./दिन है (सारणी-2)।मरुक्षेत्र का किसान अपने जीविकोपार्जन के लिए ज्वार, बाजरा, काकून, रागी, जौ आदि मोटे अनाज वाली फसलों की खेती करने को बाध्य है जोकि न तो आर्थिक रूप से लाभदायक हैं और न ही उत्पादक। अतः अब समय आ गया है कि कृषक जलवायु के अनुकूल ही खेती के तरीकों में परिवर्तन करे। शुष्क क्षेत्रों में बागवानी फसलों (विशेषकर फल-वृक्षों) की खेती निश्चित ही सामाजिक-आर्थिक स्थिति में सुधार के लिए मील का पत्थर साबित हो सकती है। फल-वृक्षों में जल की कमी तथा सूखा सहन करने की क्षमता अनाज वाली फसलों की अपेक्षा अधिक होती है। साथ ही फल-वृक्षों में कीट-व्याधियों का प्रकोप भी अपेक्षाकृत कम होता है तथा खाद-पानी की आवश्यकता भी कम होती है। बागवानी फसलों से जहाँ एक तरफ बढ़ती जनसंख्या को सन्तुलित आहार प्रदान करने में मदद मिलती है; वहीं दूसरी तरफ ये रोजगार के ज्यादा से ज्यादा अवसर तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था में अपेक्षित सुधार का साधन बनती हैं।
प्रजातियों का चयन
शुष्क क्षेत्रों में उगाई जाने वाली फसलों के उत्पादन को यूँ तो बहुत से वातावरणीय घटक प्रभावित करते हैं परन्तु मुख्य रूप से कम वर्षा ही सफल फलोत्पादन के मार्ग में बाधा है। अतः हमें ऐसे फल वृक्षों तथा प्रजातियों का चुनाव करना चाहिए जिन्हें जल की आवश्यकता कम होती हो; जिनकी वृद्धि पुष्पन एवं फलन ऐसे समय पर होता हो जिस समय जल की उपलब्धता सुनिश्चित हो; जड़ें गहरी जाती हों, क्षेत्र विशेष के लिए अनुकूल हों, सूखा अवरोधी हों, लवणीय-क्षारीय जल के प्रति सहिष्णु हों व आर्थिक पर्यावरणीय दृष्टि से भी लाभकारी हों।
स्वस्थाने पौध स्थापन (‘इन सीटू’ बाग रोपण विधि)
पौधशाला में पौध तैयार कर फिर उसे भूमि में लगाने पर पौधों की गहराई तक जाने वाली जड़े क्षतिग्रस्त हो जाती हैं जिससे उनकी सहिष्णुता कम हो सकती है। साथ ही रोपण के तुरन्त बाद पौधों की जड़ें भूमि से खाद-पानी का अवशोषण नहीं कर पाती तथा जल के अभाव में सूख जाती हैं। इससे बचने के लिए पौधे का वहीं रोपण करने की सिफारिश की जाती है जहाँ अन्तिम रूप से उसे बाग के रूप में रहना होता है। उद्यान लगाने की इस विधि को ‘इन सीटू’ विधि या ‘स्वस्थाने पौध स्थापन’ कहते हैं। चूँकि शुष्क क्षेत्रों में भूमिगत जल काफी नीचे (45-50 मीटर) होता है, अतः इन क्षेत्रों में यह विधि बाग-रोपण के लिए उपयुक्त है। इस विधि में पौधों के बीजों को बाग लगाने की विधि एवं रोपित किए जाने वाले फल-वृक्ष के अनुसार उपयुक्त दूरी पर बोया जाता है। बीजों की बुवाई का कार्य प्रायः मानसून शुरू होने के पहले ही पूरा कर लिया जाता है तथा जब पौधे लगभग एक वर्ष पुराने हो जाते हैं तो उन पर उन्नत किस्म की सांकुर डाली से कलम बाँधने या कलिकायन का कार्य किया जाता है। इस तरह स्थापित बाग सही किस्म का तथा उत्पादक होता है।
जल प्रबन्ध
शुष्क क्षेत्रों में जलाभाव एक प्रमुख समस्या है। अतः जितना भी वर्षा का जल उपलब्ध हो उसको अधिकतम उपयोग में लाना चाहिए। इसके लिए प्रत्येक वृक्ष की परिधि में थालानुमा संरचना (माइक्रोकैचमेन्ट) बनाने की संस्तुति व्यावहारिक पाई गई है। पौधे को लगभग 0.5-1.0 मीटर गहरे गड्ढे में रोपना भी जल-संरक्षण का एक प्रमुख तरीका है। बाग के चारों तरफ स्थानीय वृक्षों जैसे अकेशिया अरेबिका, अकेशिया टारटालिस (बबूल), बेर, नीम, लसौड़ा आदि की वायु अवरोधक पट्टी लगाना भी बाग को हवा के गर्म झोंकों से बचाने में प्रभावकारी पाया गया है। बूँद-बूँद सिंचाई प्रणाली या ‘ड्रिप इरीगेशन’ तथा घड़ा सिंचाई प्रणाली आदि विधियाँ इन क्षेत्रों में जल संरक्षण के लिए खासतौर पर लाभकारी हैं। बूँद-बूँद सिंचाई प्रणाली की उत्पादकता एवं लाभदायकता को देखते हुए केन्द्र सरकार ने इसकी कुल लागत का 50 प्रतिशत अनुदान देने की घोषणा की है। इस सिंचाई प्रणाली में जल बूँद-बूँद कर पौधे के जड़ क्षेत्र में उपलब्ध कराया जाता है। इस विधि के निम्नलिखित फायदे हैंः-
1. जल की 70 प्रतिशत तक बचत,
2. अनुपयुक्त खारे जल का प्रयोग,
3. ऊँची-नीची, ऊबड़-खाबड़ जमीन का उपयोग,
4. कम खरपतवार वृद्धि,
5. मजदूरों की बचत (60-90 प्रतिशत),
6. बगैर व्यवधान के कर्षण क्रिया,
7. पोषक तत्वों का अधिक उपयोग,
8. पौधों की तेज वृद्धि,
9. लवण व पादप रक्षक रसायनों का पर्णीय प्रभाव शून्य,
10. शुष्क क्षेत्रों के लिए खासतौर पर उपयुक्त।
परन्तु इस विधि पर आने वाला खर्च इसके व्यावहारिक प्रयोग में कठिन साबित हो रहा है। इसके मद्देनजर छोटे किसानों के लिए घड़ा प्रणाली अधिक व्यावहारिक है। इस विधि में मिट्टी के घड़े को, जिसकी तली में एक छिद्र बना दिया जाता है, मुख तक पूरी तरह मृदा सतह के नीचे बैठा दिया जाता है। पानी घड़े से रिस-रिस कर पौधे को उपलब्ध होता रहता है। जल को जलस्रोत से लाने के लिए जल के थैलों या बैलगाड़ी का प्रयोग करना आसान होता है।
सारणी-1 राज्यवार शुष्क क्षेत्रों का ब्यौरा | ||
राज्य | शुष्क क्षेत्रों का क्षेत्रफल (मिलियन हेक्टेयर) | देश के कुल शुष्क क्षेत्रीय क्षेत्रफल में हिस्सा (प्रतिशत) |
राजस्थान | 19.6 | 62.00 |
गुजरात | 6.0 | 20.00 |
पंजाब | 1.5 | 5.00 |
हरियाणा | 1.3 | 4.00 |
महाराष्ट्र | 0.13 | 0.40 |
कर्नाटक | 0.85 | 3.00 |
आन्ध्र प्रदेश | 2.15 | 7.00 |
कुल | 31.73 | 100.00 |
स्रोत: कृषि चयनिका (अक्टूबर-दिसम्बर, 1996) |
सारणी-2 शुष्क मरुस्थली क्षेत्रों की विशेषताएँ | |
कारक | परिणाम |
वर्षा | 700 मि.मी. से कम |
वर्षा का समय | जुलाई से सितम्बर |
कुल वर्षा | 12-31 दिन |
सूर्याताप | 400-500 कैलोरी/वर्ग सेमी./दिन |
न्यूनतम तापक्रम | 3-18 डिग्री सैल्सियस |
उष्णतम महीना | मई |
हवा की गति | 20 कि.मी./घण्टा |
भू-पौध वाष्पण | 6 मिमी./दिन |
शुष्कता अनुक्रमणिका (एरिडिटी इन्डेक्स) | 74-78 प्रतिशत |
मृदा में बालू कण | 85 प्रतिशत |
मृदा में जीवांश की मात्रा | 0.1-0.45 |
मृदा में जलधारण क्षमता | 25-28 प्रतिशत |
भूमिगत जल गहराई | 40-50 मीटर |
स्रोत: खाद पत्रिका 1996 |
‘वाटर हारवेस्टिंग’ भी जल प्रबन्ध की एक ऐसी तकनीक है जिसके तहत हम वर्षा के जल को अधिक से अधिक मात्रा में पौधे के लिए उपयोगी बनाते हैं। वर्षा का जल गड्ढों में एकत्र कर लिया जाता है तथा उसे वाष्पोत्सर्जन की क्रिया से बचाया जाता है एवं ऐसे समय पौधों को उपलब्ध कराया जाता है जब पौधों को इसकी सबसे ज्यादा जरूरत होती है। केन्द्रीय मरुक्षेत्र अनुसंधान संस्थान, जोधपुर के अनुसार 5 प्रतिशत का ढलान 54 वर्गमीटर ‘कैचमेन्ट’ के साथ वर्षा के जल को समुचित प्रयोग में लाने एवं उसके संरक्षण के लिए उपयुक्त होता है।
सहफसली खेती
अधिकांश बहुवर्षीय फल-वृक्षों का वानस्पतिक वृद्धिकाल अधिक होता है। ऐसी दशाओं में उनके बीच पड़ी खाली भूमि का उपयोग अन्य फसलों के उगाने में किया जा सकता है। इससे किसानों को शुरू के वर्षों में अतिरिक्त लाभ प्राप्त होता है एवं साथ ही वाष्पोत्सर्जन द्वारा जलह्रास भी नहीं होता। निम्न सहफसली खेती उचित पाई गई हैः
आंवला-बेर-फालसा
आंवला-बेर-करौंदा
आंवला-अमरूद-फालसा
आंवला-अमरूद-करौंदा
पलवार कृषि जनित अपशिष्ट या कृत्रिम रूप से तैयार प्लास्टिक की पतली चादर होती है जिससे पौधों को छोड़कर मृदा सतह को एकसार रूप में ढक दिया जाता है। ये जल संरक्षण, पौधे की परिधि में तापक्रम नियन्त्रण, सड़ने पर खाद एवं सूक्ष्म जीवों के विकास के लिए लाभकर सूक्ष्म जलवायु भी प्रदान करते हैं। साथ ही खरपतवार की वृद्धि भी रोकते हैं। घास, पुआल, धान का भूसा, गन्ने की पत्ती आदि मुख्य जैविक पलवार हैं जो सड़ने के उपरान्त मृदा के कार्बनिक पदार्थ की वृद्धि के साथ ही इनकी मौलिक एवं रासायनिक दशाओं में भी सुधार करते हैं। इसके अतिरिक्त आजकल प्लास्टिक की चादर का प्रयोग भी पलवार के रूप में किया जा रहा है।
इस प्रकार शुष्क क्षेत्रों में फलोत्पादन की विपुल सम्भावनाएँ मौजूद हैं। इन क्षेत्रों में उद्यानीय फसलों के विकास हेतु तथा अंतः क्षेत्र के सामाजिक, आर्थिक विकास के लिए अनेक संस्थाएँ कार्यरत हैं जिनमें केन्द्रिय मरु क्षेत्र अनुसंधान संस्थान, जोधपुर, राजस्थान कृषि विश्वविद्यालय, बीकानेर आदि मुख्य हैं। यहाँ शुष्क क्षेत्रीय उद्यानिकी फसलों की जैव विविधता का संरक्षण एवं उपयोग, प्रतिकूल परिस्थितियों को सहन करने वाली किस्मों का विकास एवं स्थानीय अनुकूलित फल-वृक्षों पर आधारित कृषि पद्धति के विकास सम्बन्धी कार्यक्रम प्रगति पर हैं। सबसे बड़ी जरूरत इस बात की है कि उच्च तकनीक, सुझाव, सहायता आदि किसानों तक समय पर पहुँचे तथा साथ ही किसान भी उसे अपनाएँ जिससे मरु क्षेत्रों में उद्यानीय कृषि के विकास की विपुल सम्भावनाओं का उचित विदोहन हो सके।
(लेखकद्वय गोविन्द बल्लभ पंत कृषि एवं प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, पन्तनगर, उत्तर प्रदेश के उद्यान विज्ञान विभाग में शोधकर्ता हैं।)
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