शुष्क क्षेत्रों में जल संरक्षण की विधियाँ

शुष्क क्षेत्र
शुष्क क्षेत्र

जल न केवल फसलों बल्कि सभी जीवों के लिए नितांत आवश्यक है बल्कि पौधे की कई जैव-रासायनिक क्रियाओं में भी जल भाग लेता है। इसके अभाव में पौधे पोषक तत्वों को ग्रहण नहीं कर पाते हैं। यह एक प्राकृतिक संसाधन है, इसका उपयोग बहुत ही अच्छे ढंग से करने की आवश्यकता है। जल की सीमित उपलब्धता के कारण इसकी महत्ता और भी बढ़ जाती है। पानी की कमी से 'फसलोत्पादन भी गिरता है। पानी का सही ढंग से उपयोग कर इसकी कमी से होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए इस लेख के माध्यम से जल उपयोग क्षमता बढ़ाने के वैज्ञानिक तकनीकों को प्रस्तुत किया गया है।

भारत में कुल कृषि भूमि का लगभग 55 प्रतिशत क्षेत्रफल आज भी वर्षा आधारित सिचित क्षेत्र के अंतर्गत आता है। देश के कुल खाद्यान्न उत्पादन का 44 प्रतिशत वर्षा सिंचित क्षेत्र से ही प्राप्त होता है। इससे देश की लगभग 40 प्रतिशत जनसंख्या का भरण-पोषण होता है। इसी क्षेत्र से 85 प्रतिशत मोटा अनाज, 70 प्रतिशत तिलहन, 8 प्रतिशत दाल एवं 40 प्रतिशत तक चावल का उत्पादन होता है। यह एक सच्चाई है कि कृषि के क्षेत्र में इतना विकास होने के बाद भी कुल खेती योग्य क्षेत्रफल का 45-50 प्रतिशत के लगभग क्षेत्र वर्षा आधारित सिंचित ही है।

वर्षा आधारित कृषि एक जोखिम भरी और जटिल कृषि प्रणाली है। यह मानसून की अनियमितता एवं वितरण के साथ मिलकर 'फसल उत्पादन में व्यापक अंतर एवं अस्थाइता उत्पन्न करते हैं। वर्षा आधारित क्षेत्रों में फसल उत्पादन में उचित तरीकों से जल का प्रबंधन किया जाए तो इन क्षेत्रों से सिंचित क्षेत्रों के समान उत्पादन प्राप्त कर खाद्य उत्पादन को अधिक बढ़ाया जा सकता है। विश्व स्तर पर 80 प्रतिशत से अधिक जल का उपयोग मनुष्य द्वारा मुख्यत: फसल उत्पादन के लिए किया जाता है। वर्तमान समय में भूमिगत जल का स्तर निरंतर गिरता जा रहा है। इसके कारण वर्षा आधारित क्षेत्रों में मृदा की अधिक कठोर सतह का जल कम समय के लिए रह पाता है।

सिंचाई के सभी संसाधनों का पूर्णतः उपयोग कर लेने के बाद भी 50 प्रतिशत क्षेत्र को सिंचित नहीं किया जा सकता। अत: वर्षा आधारित क्षेत्रों पर कृषि विकास करने के लिए आवश्यक है कि कुछ ऐसे वैज्ञानिक तरीकों को अपनाया जाये, जिनसे कि इन क्षेत्रों में उगाई जाने वाली फसलों की जल उपयोग क्षमता को बढ़ाया जा सके। इससे वर्षा की अनियमितता एवं अनिश्चता होने पर भी फसल को जल कमी से बचाया जा सकता है। वर्तमान समय में शुष्क क्षेत्रों में जल संकट व्याप्त है।

कृषि उत्पादन को बढ़ते क्रम में बनाये रखने के लिए जल संरक्षण के उपायों को अपनाने पर जोर दिया जा रहा है। ऐसे समय में कृषि क्षेत्र में जल की कमी की पूर्ति करना आवश्यक है। इस समय जल की बढ़ती मांग की पूर्ति करने का एकमात्र उपाय उपलब्ध जल का लंबे समय तक संरक्षण करना है।

वर्षा जल का उचित प्रबंधन न हो पाने के कारण जल हानि के साथ उपजाऊ मृदा का भी निरंतर हास हो रहा है। अत: खेतों तथा सभी क्षेत्रों से जल को बहकर नष्ट होने से रोकने के प्रयास करने होंगे साथ ही कृषि में ऐसी फसलों के समावेश को बढ़ावा देने की आवश्यकता है, जो कम जल मांग करती हों और मृदा हास को कम करने में सक्षम होने के साथ वर्षा जल को जमीन में रिसने को सुलभ बनाती हों। वर्षा आधारित फसलों में वाष्पन-वाष्पोत्सर्जन कुल अवक्षेपण से अधिक होता है, इससे फसल उत्पादन कम हो पाता है। इन क्षेत्रों में फसल उत्पादन के लिए जल का संरक्षण करके फसलों को पर्याप्त जल उपलब्धता या सूखा पड़ने पर प्रतिरोधिता उत्पन्न कर उत्पादन बढ़ाया जा सकता है। ऐसे कुछ उपाय जो कि शुष्क क्षेत्रों में जल उपयोग क्षमता बढ़ाने में सार्थक हो सकते हैं, उनकी विस्तृत विवेचना आगे दी गई है;

भूमि प्रबंधन

शुष्क क्षेत्र में वर्षा की मात्रा एवं वर्षा समय, दोनों अल्प होते हैं। मृदा का इस प्रकार प्रबंधन किया जाना चाहिए कि मृदा में जल की उपलब्धता पौधों के लिए अधिक समय तक बनी रहे। उचित भूमि प्रबंधन द्वारा वर्षा जल को काफी मात्रा में संचय किया जा सकता है। दो से तीन वर्ष के अंतराल पर गहरी जुताई एवं वर्षा से पहले गर्मी में जुताई कर दी जाए तो भूमि अधिक मात्रा में पानी सोखती है। जुताई, खेत के ढलान के समकोण पर करके जल बहाव में अवरोध उत्पन्न कर गति को कम कर सकते हैं।

समोच्च जुताई

वर्षा जल जब मृदा की सतह पर संतृप्त होने के बाद जल अपवाह के रूप में ढलान के अनुरूप बहता है तब ढलान के समानांतर जुताई कर जल अपवाह को कम किया जा सकता है। इस प्रकार मृदा द्वारा जल का अधिक अवशोषण किया जाता है और यह मृदा में नमी के रूप में बना रहता है।

गहरी जुताई

आगामी फसल की बुआई करने से पहले खेत की ग्रीष्मकालीन गहरी जुताई करके वर्षा जल, मृदा द्वारा पर्याप्त मात्रा में अवशोषित कर लिया जाता है। इससे आगामी फसल के जल भाग की पूर्ति की जा सकती है। मानसून पूर्व खेत के चारों तरफ से मेड्बंदी व जुताई कर जल संरक्षण किया जा सकता है। असिंचित क्षेत्र की फसल वर्षा के जल पर ही आश्रित होती है। अत: यह फसल के लिए अमृत के समान होता है। गहरी जुताई से मृदा नमी अधिक समय तक संरक्षित रहती है। इससे आगामी फसल का अंकुरण पर्याप्त मात्रा में होता है और फसल की जल मांग भी पूरी होती है।

भू समतलीकरण एवं मेड़बंदी

अधिक ढालयुक्त मृदा से वर्षा जल का बहाव ढाल के प्रतिशत से दो गुने अधिक प्रवाह से बहता है। भू समतलीकरण से मृदा में पानी का नीचे की ओर प्रवाह घट जाता है। इससे मृदा जल मात्रा को बढ़ाया जा सकता है। खेत में कुछ अंतराल पर मेडबंदी कर भी जल के प्रवाह को कम किया जा सकता है।

 जल उपयोग दक्षता बढ़ाने की जरूरत

मेडबंदी से वर्षा का जल अधिक समय तक मृदा सतह पर रुकने से पर्याप्त मात्रा में मृदा द्वारा अवशोषित कर लिया जाता है। इससे फसलों द्वारा अधिक समय तक जल की पूर्ति की जा सकती है।

ढाल के समकोण में जुताई

खेत में ढाल का प्रतिशत अधिक है तो ढाल के समकोण में जुताई करके जल के बहाव का नियंत्रण किया जाता है। इससे वर्षा का जल खेत में अधिक गहराई तक अवशोषित कर लिया जाता है। इस प्रकार नालियों का पानी खेत में अधिक समय तक ठहरेगा। इससे भूमि में जल की प्रतिशत मात्रा में वृद्धि होगी।

समोच्च रेखाओं पर खेती

शुष्क क्षेत्रों में कंटूर ट्रेंच का निर्माण कर भी वर्षा जल को संरक्षित किया जाता है। इन ट्रेंच पर फसल उगाकर जल की कमी को पूरा किया जाता है। वर्षा जल का संरक्षण करने के लिए ट्रेंच का निर्माण ढाल के अनुरूप किया जाता है, जिससे कि वर्षा का पर्याप्त मात्रा में संचयन हो सके।

सस्यन प्रबंधन

फसल उत्पादन के लिए शुष्क क्षेत्रों में ऐसी सस्यन की विधियों एवं फसलों के समावेश को बढाने की आवश्यकता है, जो वर्षा द्वारा प्राप्त जल में भरपूर उत्पादन देने में सफल हों। फसलों का चयन क्षेत्र की मृदा के प्रकार एवं उर्वरता के अनुरूप होना चाहिए। इससे शुष्क दशा में फसल पौध अपना जीवनकाल बिना जल की कमी के पूर्ण कर सकेगा। शुष्क क्षेत्रों के लिए फसलों एवं उनके साथ की जाने वाली कुछ क्रियाओं को अपनाने से वर्षा जल का संरक्षण किया जा सकता है।

फसलों का चयन

वर्षा जल की कमी के कारण शुष्क क्षेत्र पप फसल उत्पादन में कमी फसल आधारित भी होती है। इन क्षेत्रों पर सामान्यत: मक्का, ज्वार, अरहर, बाजरा, कपास जैसी फसल उगाकर अधिक जल मांग वाली फसलों की अपेक्षा अधिक उत्पादन प्राप्त किया जा सकता है। ऐसी फसले अपनी गहरे एवं विस्तृत जड्‌ संरचना के कारण जल का उपयोग विपरीत परिस्थिति में भी कर पाने में सफल होती हैं। ऐसी फसलों से मृदाक्षरण की समस्या उत्पन्न होती है। इसलिए फसल के साथ अंतरासस्यन के रूप में कम अवधि वाली फसलों का समावेश भी आवश्यक है। इस प्रकार मृदा संरक्षण के साथ जल को भी संरक्षित किया जा सकता है।

फसल चक्र अपनाना

मृदा की विभिन्‍न परतों की उर्वराशक्ति एवं जल संचयन क्षमता का सही उपयोग एवं वर्षा की कमी के निदान के लिए फसल चक्र अपनाया जाता है। फसल चक्र में भूमि कटाव अवरोधक फसलें जैसे कि तिलहनी, दलहनी, घास आदि का समावेश करना चाहिए। मृदा एवं जल को अधिक समय तक संरक्षित कर ज्यादा उपज प्राप्त की जा सकती है। फसल चक्रण में गहरी जड़ वाली अधिक अवधि की एवं उथली जड़ वाली कम अवधि की फसलों का चयन आवश्यक है। इससे उपलब्ध जल का समुचित उपयोग फसलों द्वारा किया जा सकता है।

मिश्रित खेती

मिश्रित खेती में दो या अधिक फसलें एक साथ उगाई जाती हैं। शुष्क क्षेत्रों में इस प्रकार की खेती भूमि की सतह पर जल बहाव में अवरोध उत्पन्न कर भूमि एवं जल संरक्षण को बढ़ावा देती है। प्राकृतिक प्रकोप के समय भी एक फसल तो किसान को मिल जाती है। मिश्रित खेती में फसल द्वारा मृदा को समान रूप से ढक दिया जाता है। इससे मृदा सतह से होने वाले वाष्पीकरण की दर को नियंत्रित कर जल हास को कम किया जा सकता है।

जैविक खाद का उपयोग

जैविक खाद फसलों को पोषक तत्वों की पूर्ति ही नहीं करती बल्कि यह मृदा की भौतिक अवस्था भी सुधारती है। इससे मृदा भुरभुरी, मृदा में वायु संचार, पारगम्यता बढ़ना, जल उपयोग क्षमता में वृद्धि एवं जल अप्रवाह वेग में काफी कमी होती है। जैविक खाद मृदा के कणों को बांधकर रखती है। इस मृदा में पर्याप्त सूक्ष्म छिद्र होते हैं। वर्षा जल का संचयन इन सूक्ष्म छिद्र में अधिक समय तक मृदा कणों के साथ बना रहता है। जैविक खाद से मृदा जल धारण क्षमता में वृद्धि होने से सूखे की अवस्था में भी पौधों को पर्याप्त जल प्राप्त होता रहता है। इससे फसलों को लंबे वर्षा अंतराल में भी जल की कमी नहीं होती।

उन्नत किस्में एवं परिपक्वता समय

शुष्क क्षेत्र में फसलों से अधिक पैदावार प्राप्त करने में फसल की पकने की अवधि का बहुत बड़ा योगदान होता है। इन क्षेत्रों में फसल उगाने के लिए 0-2 सप्ताह का समय मिलता है। इस अवधि के दौरान जो फसलें अपना जीवनचक्र पूरा कर लेती हैं उनसे अच्छी पैदावार प्राप्त की जा सकती है। देरी से पकने वाली फसलें अपना जीवनकाल जल की कमी के कारण पूर्ण नहीं कर पाती हैं। इसलिए फसलों की ऐसी किस्मों का चयन करना चाहिए, जो कम समय में परिपक्व होती हैं और मृदा में पर्याप्त नमी बने रहने तक अपना जीवनचक्र पूर्ण कर लेती हैं।

खरपतवार नियंत्रण

शुष्क क्षेत्र में नमी एवं पोषक तत्व 'फसल उत्पादन के प्रमुख घटक हैं। खरपतवार फसलों के साथ नमी एवं पोषक तत्वों के लिए प्रतिस्पर्धा कर उपयोग करने में फसलों की अपेक्षा अधिक प्रभावी होते हैं। खरपतवार एवं फसलों के मध्य मुख्यत: 25-30 दिनों तक की अवस्था तक अधिक प्रतिस्पर्धा होती है। इसी अंतराल में खरपतवार का नियंत्रण कर मृदा जल का संरक्षण किया जा सकता है। खरपतवार द्वारा मृदा जल का अवशोषण फसलों की अपेक्षा अधिक मात्रा में किया जाता है और ये फसलों के लिए जल की कमी उत्पन्न कर देते हैं।

वाष्पन प्रतिरोधी पदार्थ का उपयोग

शुष्क क्षेत्र की फसलों में ऐसे पदार्थों का उपयोग जल की कमी होने पर पौधों के उन हिस्सों पर किया जाता है, जहां से वाष्पोत्सर्जन की प्रक्रिया अधिक होती है। इसके उपयोग से पौधों के वायुवीय भागों से वाष्पोत्सर्जन कम मात्रा में होने लगता है। इससे पौधों द्वारा जल का ह्रास वाष्पोत्सर्जन के रूप में कम होता है। मृदा में जल की कमी होने पर भी पौधों में मुझझान की अवस्था में कमी की जा सकती है। वाष्पन प्रतिरोधी पदार्थ कई प्रकार के होते हैं। जैसे-स्टोमेटा बंद करने वाले-फिनाइल मरक्यूरिक एसिटेट, एट्राजीन, एबीए आदि जो पौधों की पत्तियों से वाष्पोत्सर्जन की प्रक्रिया को कम कर देते हैं। मोम, तैलीय, तरल सिलिकॉन, मोबीलीफ, हेक्जाकेनोल, आदि प्रकार के पदार्थ पत्तियों की सतह पर पतली फिल्म बनाकर वाष्पोत्सर्जन को कम करते हैं। इनके अतिरिक्त कुछ पदार्थ कावोलिन, साइकोसील इत्यादि प्रकाश का परार्वतन एवं पौधों की वृद्धि रोककर जल की उपयोग क्षमता बढ़ाते हैं। इन पदार्थों के उपयोग से पौधों की अन्य क्रियाएं प्रभावित होती हैं। इनका उपयोग सामान्यतः: पौधों को मरने से बचाने के लिए तब किया जाता है, जब मृदा में जल की मात्रा काफी कम हो गई हो।

पौध संख्या एवं अंतराल

शुष्क क्षेत्र में मृदा जल की कमी के कारण इसका प्रभाव बीज अंकुरण पर पड़ता है। इसलिए इन क्षेत्रों में सिंचित क्षेत्रों की अपेक्षा बीज दर कुछ मात्रा में बढ़ाकर बुआई की जाती है। जब पौधों की बढ़वार होती है तब प्रति क्षेत्र पौधा संख्या अधिक होने पर मृदा जल का हास अधिक होता है और पौधों की उत्पादन क्षमता को प्रभावित करता है। इससे बचने के लिए फसलों को उनकी बढ़वार एवं फैलाव स्थान को ध्यान में रखकर निश्चित अंतराल पर प्रतिक्षेत्र पौध संख्या भी सिंचित क्षेत्र की अपेक्षा कम कर लेना चाहिए। इससे फसलों को कम मृदा आद्द्रता पर प्रतिक्षेत्र कम पौध संख्या होने से उपलब्ध जल का पर्याप्त मात्रा में वितरण हो सके।

  • दशरथ सिंह ज.ने.कृ-वि.वि., जबलपुर में 'प्रक्षेत्र विस्तार अधिकारी हैं। और धर्मेंद्र सिंह यशोना भाकृअनुप-भारतीय मृदा विज्ञान संस्थान, भोपाल(मध्य प्रदेश) में अनुसंधान सहायक हैं।
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