शुष्क क्षेत्रों में बेर आधारित समेकित खेती प्रणाली के माध्यम से टिकाऊ कृषि आय

सदाबहार वृक्ष आधारित कृषि प्रणाली से न केवल उन्हें अधिक आय प्राप्त हुई बल्कि इस क्षेत्र में असर पड़ने वाले सूखे के वर्षों में भी स्थिर उत्पादन और आय उपलब्ध हो सकी। उचित प्रकार से सिंचाई और वर्षा जल के इस्तेमाल से इस प्रणाली से होने वाली उपज और आय को और भी अधिक बढ़ाया जा सकता है। खेती के उपर्युक्त अनुभव यह सिद्ध करते हैं कि उपयुक्त फसलों, बागवानी और वानिकी के जरिए वर्षा जल सिंचाई और इसके प्रभावी उपयोग से शुष्क क्षेत्रों में भी खेती से आय काफी बढ़ाई जा सकती है। अक्सर सूखे की वजह से कम वर्षा वाले राजस्थान (वार्षिक वर्षा 100-450 मिमी.) में कृषि और मवेशी पालन पर बुरा प्रभाव पड़ता है। इसके अलावा अपर्याप्त वर्षा, तेज तापमान, ज़मीन और भूजल स्तर की खराब गुणवत्ता की वजह से इस क्षेत्र के किसानों के पास खेती और मवेशी पालन से संबंधित विकल्प सीमित रह जाते हैं।

जनसंख्या में तेजी से होती बढ़ोतरी और खराब बुनियादी ढांचे की वजह से गरीब ग्रामीण लोगों को संसाधनों की कमी से जूझना पड़ता है। ऐसी स्थिति में खेती से लगातार आय प्राप्त करते रहने के लिए योजना तैयार करना बेहद जरूरी है। इसके तहत सही फसल का चुनाव, वर्षा जल संचयन और सिंचाई के लिए इसका सही तरीके से इस्तेमाल सब कुछ शामिल है।

शुष्क क्षेत्रों में बेर (ज़ाईजिफ़स मॉरिटियाना) आधारित समेकित खेती प्रणाली के माध्यम से टिकाऊ आय प्राप्त करने का मॉडल प्रदर्शित करने के उद्देश्य से केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान (सीएजेडआरआई) ने 2006-11 के दौरान जोधपुर जिले के अपने द्वारा गोद लिए गए दंतीवाड़ा गांव में एक किसान श्री बबू खान को तकनीकी मदद मुहैया कराई जो कि एक सेवानिवृा सैनिक हैं। उनके पास 5 हेक्टेयर जमीन थी जो कि शुष्क स्थितियों में अंशत: सिंचित थी और अधिकांशत: वर्षा जल पर निर्भर थी। उपलब्ध भूजल खारा था जिसका पीएच स्तर 8.0 और ईसी 5.8 तथा जमीन का पीएच 8.4 था। किसान ने उन्नत तकनीकों को अपनाने में काफी रुचि दिखाई।

सीएजेडआरआई के दिशानिर्देशों और एनएचएम के सहयोग से उन्होंने एक हेक्टेयर भूमि में बागवानी की और बेर (गोला, सेब और टिकरी) के 278 उन्नत किस्मों के पौधे लगाए। इसके अलावा उन्होंने चारों ओर कुमट (अकासिया सेनेगल) और नीम के 150 पौधे लगाए और इनके बीच में गुंडा (कोर्डिया मिक्सा)-20, बेल-5, अनार-5, और आंओला-6 के पेड़ लगाए और इस प्रकार टिकाऊ समेकित खेती प्रणाली का विकास किया। फल के अलावा बेर के पत्ते चारे के लिए इस्तेमाल किए गए जिससे सूखे की स्थिति में भी मवेशी बचे रह सके।

दिसंबर से मार्च तक नियमित तौर पर फल प्राप्त करने के लिए बेर की तीन प्रजातियां लगाई गई। गोला की खेती मध्य दिसंबर से 15 फरवरी, सेब की जनवरी के तीसरे सप्ताह से फरवरी के अंतिम सप्ताह तक और टिकरी की मध्य फरवरी से मार्च तक की जाती है। खेत पर अथवा पास के राजमार्ग पर वह सीधे अपने ग्राहकों को बेर बेचते हैं। इसके अलावा उनके पास 10 बकरियां भी हैं और वे बकरियों की लीद और खेतों के अवशिष्ट से कपोस्ट तैयार करते हैं।

अवांछित जानवरों से सुरक्षा के लिए चारों ओर से लोहे की जाली से घेराव किया गया है। खारेपन की समस्या से निपटने के लिए जिप्सम का प्रयोग किया गया है। श्री बबू खान ने बाकी की जमीन पर मूंगफली और मोठ की फली तथा तिल के एचवाईवी बीजों का उत्पादन शुरू किया है। ये बीज गांव के बाकी किसानों को बेचे गए। अपनी आय बढ़ाने के साथ ही उन्होंने उन्नत तकनीकों को लोकप्रिय बनाने में भी बहुमूल्य योगदान दिया।

वर्षा जल संचयन के लिए एनएचएम से आंशिक समर्थन से उन्होंने 50,000 लीटर के भूमिगत टैंक का निर्माण करवाया जिसमें ड्रिप प्रणाली भी मौजूद है। पहले वर्ष में वर्षा जल के द्वारा पौध लगाई गई उसके बाद दूसरे वर्ष से पौधों की सिंचाई के लिए बोरवेल के खारे पानी और संचित वर्षा जल का इस्तेमाल किया गया। अब बेर के पौधों में फल लगने के मौसम में 2-3 बार सिंचाई की जरूरत पड़ती है।

पहले किसान लगभग 20-30 क्विंटल अनाज और दाल प्राप्त कर पाता है। अब सूखे के समय भी वो अच्छी आय अर्जित कर पाता है। अब (यहां तक कि 2011-12 में वर्षा की कमी के बावजूद) एक हेक्टेयर बाग से उनकी आय 50,000 रुपए तक है। इसके अलावा अपने घर के लिए अनार, गुंडा (लसोड़ा), आंओला जैसे फल अलग से प्राप्त होते हैं। अपनी बाकी की 4 हेक्टेयर भूमि पर कृषि फसल लगाकर वो लगभग 20 से 25 हजार प्रति हेक्टेयर रुपए कमाते हैं। उनके क्षेत्र के अनेक किसान टिकाऊ कृषि-बागवानी-प्रणाली के बारे में सीखने के लिए उनके पास आते हैं।

जोधपुर के मानकलाओं गांव (25 किमी.- उत्तर) के एक अन्य किसान श्री नंद किशोर जैसलमेरिया जिनके पास वर्षा जल की परिस्थितियों (औसत वर्षा 365 मिमी.) में 3.1 हेक्टेयर की कृषि योग्य भूमि हैं, उन्होंने भी टिकाऊ समेकित खेती प्रणाली विकसित की है। शुरूआत में खेती से उनकी आय काफी कम थी। सूखे के समय आय शून्य होती थी या फिर नुकसान उठाना पड़ता था। 1980 के शुरूआती दौर में वो सीएजेडआरआई के संपर्क में आए और बताई गई प्रणाली के साथ बेर की उन्नत किस्मों (गोला, सेब, उमरन) के 750 पौधे लगाएं। एक समेकित खेती प्रणाली के रूप में उस जमीन को विकसित किया गया।

बेर के बाग के अलावा अन्य फसलें, मधुमक्खी पालन तथा 10+1 बकरी इकाई भी उनके पास मौजूद है। इसके अलावा अकाशिया टॉरटिलिस, प्रोसोपिस जुलिलोरा, नीम और आर्थिक महत्व के अन्य बहुद्देशीय पेड़ों की प्रजातियां लगाकर खेत की घेराबंदी की गई। इससे न केवल ईंधन की लकड़ी प्राप्त हुई बल्कि मृदा की सुरक्षा और संरक्षण भी हो सका साथ ही उर्वरकता के स्तर में भी वृद्धि हुई। अलग-अलग प्रकार की प्रजातियों की घेराबंदी से गर्मियों के दिनों में गर्म हवा से फसल की सुरक्षा होती है। इससे न केवल वाष्पण-उत्सर्जन नुकसान में कमी हुई बल्कि सुखदायक प्रभाव और पौधों तथा फसल प्रणाली में भी अधिक प्रभावात्मकता आई और वो प्रतिकूल परिस्थितियों का सामना करने के लिए अधिक तैयार हुए। इसके अलावा घेराबंदी के साथ-साथ की गई खुदाई से खेत में अवांछित जानवरों को आने से रोकने में मदद मिली। गड्ढों की वजह से पर्याप्त मात्रा में नमी संरक्षण मेढ़ के पास सदाबहार पौधों के विकास के लिए पर्याप्त थी।

कुछ मात्रा में सूखे पत्तों के जरिए पुश्तों और नमी वाली घास के द्वारा मृदा और नमी संरक्षण का कार्य किया गया। पहले 20 वर्षों के लिए खेत पूरी तरह वर्षा जल पर निर्भर था। स्थापना स्तर के पहले वर्ष में ज़रूरत के हिसाब से दूर के स्रोत पर स्थित टैंकर द्वारा पौधों की सिंचाई की गई। दूसरे वर्ष से बाग वर्षा जल की स्थिति पर संभलने और उत्पादन के लिए तैयार था।

बीस वर्षों के बाद एक बोरवेल लगाया गया जिसका पानी खारा था। बेर कुछ हद तक खारे पानी को सहन कर सकता है। फल तैयार करने के चरण में खारे पानी की मदद से भी पूरक सिंचाई की वजह से अच्छी फसल प्राप्त करने में सहायता हुई। 35 वर्षों के बाद भी खेत और बाग की अच्छे से देखरेख की जा रही है और यह टिकाऊ आय का स्रोत है। श्री जैसलमेरिया और कुछ ग्रामीण युवकों (उनके द्वारा पारिश्रमिक वहन किया जा रहा है) ने 'बेर उगाने के संबंध में लोगों को प्रशिक्षण भी दिया। इसके बाद उन्होंने फले हुए बेर की नर्सरी लगाई और इसे तैयार करने में दिन-रात मेहनत की।

शुरुआती 15 वर्षों में उन्होंने किसानों, स्वयंसेवी संगठनों, विभिन्न राज्यों के सरकारी विभागों को लाखों पौधे बेचे और बेर की खेती तथा इसके तरीकों के बारे में जानकारी के प्रसार में योगदान दिया। उनकी खेती का बड़ा हिस्सा बेर के फलों की बिक्री, मधुमक्खी पालन के लिए रखे बसों के किराए, बेर और अन्य पेड़ के पत्तों, ईंधन की लकड़ी और बकरी से मिलता है। बेर का हर पौधा वर्ष में लगभग 30-40 किलो फल देता है। वे अपनी तीन हेक्टेयर भूमि से लगभग 1,25,000 रुपए की वार्षिक शुद्ध आय प्राप्त करते हैं यानि प्रति हेक्टेयर 41,000/- रुपए की शुद्ध आय जो कि क्षेत्र की परंपरागत वार्षिक फसलों की तुलना में काफी अधिक है।

सदाबहार वृक्ष (शुष्क बागवानी) आधारित कृषि प्रणाली से न केवल उन्हें अधिक आय प्राप्त हुई बल्कि इस क्षेत्र में असर पड़ने वाले सूखे के वर्षों में भी स्थिर उत्पादन और आय उपलब्ध हो सकी। उचित प्रकार से सिंचाई और वर्षा जल के इस्तेमाल से इस प्रणाली से होने वाली उपज और आय को और भी अधिक बढ़ाया जा सकता है। खेती के उपर्युक्त अनुभव यह सिद्ध करते हैं कि उपयुक्त फसलों, बागवानी और वानिकी के जरिए वर्षा जल सिंचाई और इसके प्रभावी उपयोग से शुष्क क्षेत्रों में भी खेती से आय काफी बढ़ाई जा सकती है। हालांकि यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है कि प्रभावी विस्तार तंत्र के जरिए किसानों को सही समय पर तकनीक और महत्वपूर्ण जानकारियां प्राप्त हो सकें। शुरूआती चरण में खेती के स्तर पर सहयोग बेहद जरूरी है।

अन्य जानकारी के लिए किसानों के नाम और पते हैं।

1- श्री नंद किशोर जैसलमेरिया, मकान संख्या-
05, जैसलमेरिया की गली, नौचोकिया,
जोधपुर, फोन नं.- 0291-2622185,
मोबाइल-07597248866;

2- श्री बबू खान, मदीना कृषि फार्म, गांव
दंतीवाड़ा, वाया बानार, जोधपुर, मोबाइल-
09828560077

लेखक केन्द्रीय शुष्क क्षेत्र अनुसंधान संस्थान, जोधपुर के प्रमुख और निदेशक हैं।

ई-मेल- shalanderkumar@gmail.com

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