सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की धज्जियाँ उड़ा रहे मौरंग खनन माफिया

यह माना जाता है कि लोगों के बुनियादी मौलिक अधिकार सिर्फ तीन हैं - रोटी, कपड़ा और मकान। लेकिन पिछले पांच सालों में मौरंग का ट्रक कृत्रिम महंगाई के कारण ढाई हजार रुपए से बढ़कर 20 हजार रुपए पर पहुंच गया है जिससे मकान की लागत इतनी बढ़ गई है कि मध्यम वर्गीय परिवार तक के लिए खुद का आशियाना बनाने का सपना तक देखना दुश्वार है।उरई, 26 मई 2013। बेतवा की मौरंग पर जब से माफिया की गिद्ध दृष्टि जमी है तब से इस जिले की तस्वीर ही बिगड़ गई है। कभी नदी किनारे रहने वाले केवट समुदाय के लोगों के पेट पालन का जरिया रहा यह धंधा आज बाहुबलियों और धनबलियों के शिकंजे में जकड़ गया है। इस बार 18 करोड़ रुपये सालाना की राजस्व वसूली का लक्ष्य मौरंग घाटों के लिए तय किया गया है जबकि घाट संचालन से जिले में सड़कों की एक अरब रुपए से अधिक की बर्बादी अनुमानित है।

कर चोर माफिया के लिए मौरंग व्यापार स्वर्ग साबित हो रहा है जबकि आम लोगों को आसमान छूती मौरंग की दरों की सौगात मिल रही है जिससे एक अदद घर का उनका सपना टूटता जा रहा है। अवैध खनन के कारण पर्यावरण को हो रही क्षति के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट ने लगभग डेढ़ साल पहले एक जनहित याचिका पर फैसला देते हुए इस पर रोक के लिए कई दिशा-निर्देश जारी किए थे जिससे उम्मीद की गई थी कि अब मौरंग माफिया के हाथ बंध जाएंगे। लेकिन राज्य सरकार व प्रशासन की मिलीभगत के कारण देश की सबसे आला अदालत की आंखों में धूल झोंकने में कोई कसर नहीं छोड़ी जा रही है। सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि कोई खनन क्षेत्र पांच हेक्टेयर से कम क्षेत्रफल का नहीं होगा और खनन शुरू करने के पहले उसका स्पष्ट सीमांकन कर पूरे खनन खंड की तारबंदी करनी होगी। लेकिन इनमें से किसी शर्त पर अमल नहीं हो रहा है। ज्यादातर घाटों पर जहां पट्टा है वहां बालू ही नहीं जिसके कारण दूसरी जगह से मौरंग उठाई जाती है।

जाहिर है कि तारबंदी होने पर ऐसा संभव नहीं रह जाएगा। ये भी निर्देश थे कि मशीनों का इस्तेमाल मौरंग निकालने के लिए कतई नहीं होगा। लेकिन नदी किनारे स्वाभाविक रूप से इकट्ठी होने वाली रेत को उठाने की बजाय दबंग ठेकेदार बीच जलधारा तक से मशीनों के जरिए तय से काफी ज्यादा गहराई तक मौरंग खनन करने की हिमाकत कर रहे हैं।

पर्यावरण विशेषज्ञों के मुताबिक, इसका नदी के अस्तित्व पर घातक दूरगामी प्रभाव हो सकता है लेकिन किसी को इसकी परवाह नहीं है। मौरंग खनन की इजाजत देने से पहले संबंधित क्षेत्र में प्रशासन को पूरी तरह पारदर्शी जनसुनवाई के लिए आला अदालत ने निर्देशित किया था। लेकिन खनन क्षेत्र के पास के खेत मालिकों के आए दिन अपनी जीविका बचाने के लिए की जाने वाली गुहार से साफ है कि इसमें कितनी गंभीरता दिखाई गई है। कई जगहों पर मौरंग भरे ट्रक खेतों में खड़ी फसल को रौंदते हुए निकलते रहे और किसान अपनी मेहनत की तबाही को मूकदर्शक रहकर झेलता रहा। पीड़ित किसानों की गुहार के बावजूद अधिकारी नहीं पसीजे तो उन्हें मन मसोसकर माफिया से समझौता करना पड़ा। दिनभर मौरंग भरे ट्रकों के आवागमन से उड़ने वाली गर्द के कारण खनन क्षेत्रों के आसपास हजारों एकड़ उपजाऊ जमीन के बंजर हो जाने का खतरा पैदा हो गया है। टीकर के रामकिशोर ने बताया कि मौरंग का जमाव हो जाने से इस बार अपने खेत में उन्हें एक चौथाई उपज भी नहीं मिल सकी। इसकी तस्दीक कई और भुक्तभोगी किसानों ने भी की। किसानों का कहना है कि अगर सचमुच खुली सुनवाई हुई होती तो उन्हें पहले ही अपनी इन आपत्तियों को अधिकारियों के सामने रखने का मौका मिल जाता।

ऐसा भी नहीं है कि मौरंग के खनन से राजस्व के रूप में सरकार को कोई बड़ा मुनाफा हो रहा हो। जोल्हूपुर कदौरा, जोल्हपुर इटौरा और मोहाना उरई जैसे मुख्य मार्गों के साथ-साथ कई जिला मार्ग पर ओवर लोड ट्रक चलने की वजह से एक साल भी समालत नहीं रह पाते। मौरंग खनन से मिलने वाली कुल रायल्टी की तुलना में छह गुना बजट इन सड़कों के पुनर्निर्माण पर हर साल खर्च हो जाता है। यहीं नहीं सड़कों के खराब बने रहने से आवागमन में होने वाली कठिनाई के कारण लाखों की आबादी के लिए रोजमर्रा की जिंदगी बेहद नारकीय बनी रहती है।

यह माना जाता है कि लोगों के बुनियादी मौलिक अधिकार सिर्फ तीन हैं - रोटी, कपड़ा और मकान। लेकिन पिछले पांच सालों में मौरंग का ट्रक कृत्रिम महंगाई के कारण ढाई हजार रुपए से बढ़कर 20 हजार रुपए पर पहुंच गया है जिससे मकान की लागत इतनी बढ़ गई है कि मध्यम वर्गीय परिवार तक के लिए खुद का आशियाना बनाने का सपना तक देखना दुश्वार है। प्रति ट्रक के हिसाब से अच्छा खासा गुंडा टैक्स हर घाट के रास्ते में बैरियर लगाकर वसूल किया जाता है। यह पूरी रकम सरकार में बैठे लोगों व अधिकारियों की जेब में पहुंचती है जो मौरंग के भाव में इतने जबर्दस्त उछाल का मुख्य कारण है।

सामाजिक कार्यकर्ता राकेश चौहान ने बताया कि सरकारी खजाने में तो केवल 18 करोड़ रुपए की मौरंग रायल्टी जिले में जमा होती है जबकि कम से कम तीन अरब रुपए की रायल्टी की सालाना चोरी एक ही रावन्ना के बार-बार इस्तेमाल की वजह से कर ली जाती है। नेताओं व अधिकारियों की इसमें अलग काली कमाई हो रही है। व्यापार कर भी नाममात्र का जमा होता है क्योंकि एक नंबर में दर्शाया जाने वाला मौरंग कारोबार वास्तविकता का एक बटा दस भी नहीं होता।

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