हिमालय क्षेत्र में पतंगों एवं तितलियों का विस्तार चौंकाने वाला है। हिमालय में पतंगों के विस्तार संबंधी इस अध्ययन में नैनीताल जिले के भीमताल से लेकर गागर तक की 20 किलोमीटर लंबी पट्टी में तितलियों की 1200 प्रजातियों की उपस्थिति से कई निष्कर्ष निकले हैं। असम या नेपाल के पूर्वी क्षेत्र में पाई जाने वाली तथा मुंबई से लेकर दक्षिण भारत में मिलने वाली तितलियां अब उत्तराखंड को अपना बसेरा बना लिया है। तितलियों के प्राकृतिक आवास में आए इस बदलाव से जैव विविधता में बदलाव परिलक्षित होता है। उत्तराखंड में ही नहीं, पूरे देश में ग्लोबल वार्मिंग जलवायु परिवर्तन का कारण बन चुका है। इससे न केवल जैव विविधता में बदलाव आ रहे हैं वरन फसलचक्र भी बदल रहा है। साथ ही बदल रहा है समूचा पारिस्थितिकी तंत्र इस परिवर्तन से मानव जीवन तो प्रभावित हो ही रहा है, साथ ही पृथ्वी के कई हिस्सों पर भी इसका व्यापक असर पड़ रहा है। इसी जैव विविधता में आ रहे बदलावों के मद्देनजर अगर उत्तराखंड की बात करें तो यहां के वैज्ञानिकों को पश्चिमी घाट में पाई जाने वाली तितलियों की कई प्रजातियों का डेरा मिला है जो अमूमन पहले यहां नहीं मिलती थीं। मुंबई से लेकर दक्षिण भारत में मिलने वाली तितलियां अब उत्तराखंड में बहुतायत में दिख रही हैं। इस क्षेत्र के तितली वैज्ञानिक पीटर स्मेटसेक का मानना है कि तितलियों के प्राकृतिक आवास में आए इस बदलाव से जैव विविधता में बदलाव परिलक्षित होता है।
इनके अनुसार हिमालय क्षेत्र में पतंगों एवं तितलियों का विस्तार चौंकाने वाला है। हिमालय में पतंगों के विस्तार संबंधी इस अध्ययन में नैनीताल जिले के भीमताल से लेकर गागर तक की 20 किलोमीटर लंबी पट्टी में तितलियों की 1200 प्रजातियों की उपस्थिति से कई निष्कर्ष निकले हैं। जो प्रजातियां भीमताल में मिलती हैं वह गागर में भी मिलें, यह जरूरी नहीं है इससे यह पता लगता है कि जंगलों की एक-सी प्राकृतिक अवस्था होने के बावजूद कीट-पतंगों की एक जैसी परिस्थिति होना जरूरी नहीं है। ग्रेफियम डिसीन नामक सामान्य तितली जो कि दिल्ली से हलद्वानी तक समान रूप से मिलती है, वहीं हाक माथ नामक पतंक की प्रजाति भी यहां 1994 में पहली बार दिखाई दी थी जो अब सामान्य रूप से हर जगह दिखाई दे रही है। इसी तरह तालीकाड़ा नीसियस नाम की एक तितली जो रेडपियरेट नाम से भी जानी जाती है, नैनीताल से देहरादून के बीच आमतौर पर दिखाई दे जाती है। वैसे, यह पश्चिमी घाट में ही पाई जाती थी। इस तरह असम या नेपाल के पूर्वी क्षेत्र में पाई जाने वाली तितलियों की प्रजातियों, जैसे फलोस असोक, आरहोपाला अबसियस और नाकाडूबा काराबा ने अब उत्तराखंड को अपना बसेरा बना लिया है।
वैज्ञानिक इस मौसम परिवर्तन का ही संकेत मानते हैं। मौसम बदलने से ही तितलियों का आवास बदल रहा है। इससे फसलचक्र में परिवर्तन आए हैं। खासकर गर्मियों में उपजाई जाने वाली फसलों पर खासा असर हुआ है। मई और जून महीने में बारिश न होने से आलू के अलावा फलों की पैदावार में कमी आई है।
ग्लोवबल वार्मिंग और पारिस्थितिकी बदलाव के कारण हिमालय की भू-संरचना भी बदल रही है। हिमालय क्षेत्र के कई ग्लेशियर इसी बीच बने या बिगड़े हैं। गढ़वाल विश्वविद्यालय के भूगर्भशास्त्र के उपाचार्य डॉ. एम.पी.एस विष्ट के अनुसार, नंदा देवी जैव मंडल के अंदर और बाहर निकलने वाली की नदियों का मिजाज बदलता दिख रहा है। समय-समय पर आने वाली आपदाएं इसकी गवाह हैं। चमोली जिले के सतोपंथ एवं भगवत खरक के अलकापुरी पर छोटी-सी झील बनने से माणा गांव के आसपास मची ताबाही भी इसी का नतीजा कही जा सकती है यानी मौसमी मिजाज में बदलाव के चलते कई हिमालयी गांवों का भूगोल बदल चुका है। भारत-चीन सीमा के गब्योंग गांव का भूधंसाव भी इसी बदलाव का नतीजा है। बदरी-केदार क्षेत्र में पहले बादल छाने पर सीधे बर्फबारी हो जाती थी लेकिन अब कई हफ्ते तक वर्षा होने के बाद ही बर्फ पड़ती है। इस क्षेत्र में बुरांस के फूल एवं फलों के उत्पादन का समय भी परिवर्तित होता साफ दिखाई दे रहा है।
चीड़ वनों के विस्तार एवं चौंड़ी पत्ती वाले वनों के सिकुड़ने की घटना को भी वैज्ञानिक इसी बदलाव की कड़ी मानते हैं। वनस्पतिशास्त्री एवं योजना आयोग के सलाहकार प्रो.एस.पी. सिंह के अनुसार, चीड़ वनों के विस्तार एवं सदाबहार वनों की सिकुड़ती जमीन इस बदलाव का नमूना है। लैंटाना जैसी घास अब कॉर्बेट जैसे वन्य-जैव विविधता के स्वर्ग माने जाने वाले पार्क के भीतर बढ़ रही है तो राजाजी नेशनल पार्क के कई क्षेत्र का रेगिस्तानीकरण हो चुका है। इससे इन पार्कों में वन्यजीवों को चारे का संकट भी झेलना पड़ रहा है। इस बात की पुष्टि पूर्व वन्यजीव प्रतिपालक श्रीकांत चंदोला भी करते हैं। मौसमी बदलाव ने ग्लेशियरो के निकट पाई जाने वाली वनस्पतियों को भी विलुप्त कर दिया है। नंदा देवी जैव मंडल के भीतर सिकाड़ा जैसी झींगूर प्रजाति के निंफ से निकलने वाला कीड़ा जड़ी के मिलने से भी वैज्ञानिक हैरान हैं क्योंकि सिकाड़ा का निंफ 16 वर्षों तक मिट्टी के अंदर रहकर प्रजनन के वक्त मात्र एक सप्ताह के लिए ही बाहर आता है।
इस दौरान उसके द्वारा दिए गए अंडों को फिर से पेड़ों की जड़ों में छेद बना कर वहां उनके निंफ में कार्डियों सैपिन नामक एंजायम बनने की प्रक्रिया के दौरान उसमें उत्पन्न होने वाली एक कवक में इस एंजायम के चले जाने से उनकी प्रोटीन वैल्यू इतनी बढ़ जाती है कि वह अत्यधिक पौष्टिक तत्व से भर जाता है। यह प्रजाति अब तक भारतीय क्षेत्र में अप्राप्य थी। इसे चीन, कनाडा व अमेरिका में पहले देखा गया था। इन सब बदलावों के चलते कई पर्यावरणविद् सरकार से मौसम परिवर्तन के दृष्टिगत हिमालय के लिए चेतावनी प्रणाली के विकास पर जोर दे रहे हैं। पर्यावरणविदों के अनुसार, जलवायु परिवर्तन से हिमालय क्षेत्र की दैवीय आपदा का स्वरूप बदलकर अनिष्टकारी हो सकता है। इसलिए इस क्षेत्र में चेतावनी प्रणाली को विकसित करना जरूरी है। हर वर्ष हिमालयी राज्यों, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड में आ रही तबाहियों को रोकने के लिए ऐसी चेतावनी प्रणाली जरूरी मानी जा रही है।
राजधानी देहरादून स्थित रिमोट सेसिंग संस्थान के वैज्ञानिक डॉ. संपति रे के मुताबिक, बादल फटने से होने वाली तमाम घटनाओं से भारी तबाही होती है लेकिन यदि सरकार दृढ़ इच्छाशक्ति से काम करे तो इन घटनाओं का पता वक्त रहते ही लग सकता है। सार्क देशों के आपदा प्रबंधन प्रकोष्ठ में काम कर चुके वैज्ञानिक डॉ. संपति रे के अनुसार, सार्क देशों के लिए गठित सार्क डिजास्टर मैनेजमेंट सेंटर ने इस तरह का एक प्रस्ताव भी स्वीकार किया है जिसके तहत राज्य में डाएलर्स वैदर राडार लगा कर और वर्षा के एकत्रित आंकड़ों की मदद से उनका विश्लेषण किया जा सकता है। इसके लिए राज्य का भूगर्भीय सर्वेक्षण कर भूस्खलन सक्रिय क्षेत्र को चिन्हित भी करना होगा। ऐसा एक प्रयोग थाईलैंड में हो रहा है लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि मसूरी और नैनीताल में राडार लगाने के लिए राज्य सरकारें कई वर्षों से स्थान तक नहीं खोज पाई हैं। वैसे, डॉ. संपति रे ने अलकनंदा घाटी में एक पायलट प्रोजेक्ट शुरू कर वहां बारह स्वचालित मौसम केंद्र बनाए हैं। इन्हें रिमोट सेंसिंग के माध्यम से उपग्रहों से जोड़ा गया है और फिर उपग्रहों की मदद से आंकड़े प्राप्त किए गए हैं।
इन आकड़ों से वे तीन घटनाओं का पूर्वानुमान प्राप्त करने में सफल हो चुके हैं। इसी पूर्वानुमान से उन्होंने एक गणितीय फॉर्मूला भी तैयार किया है। उनके अनुसार, यदि 15 दिनों के वर्षांत का आंकड़ा उपलब्ध हो, साथ ही उस क्षेत्र में भूस्खलन की घटनाओं को देखा जाए तो अनुमान लगाना आसान हो जाता है। डॉ. रे के अनुसार, प्रकृति विनाश से पूर्व संकेत जरूर करती है ताकि मानव सतर्क हो जाए। उन संकेतों को यदि समझा जा सके तो विनाश से काफी हद तक बचा जा सकता है लेकिन मजे की बात यह है कि हर वर्ष होने वाली तबाही में इन तौर-तरीकों को लागू करने की कसमें राजनेता जरूर लेते हैं लेकिन समय बीतने पर इसे भूलकर अगले वर्ष फिर तबाही का इंतजार करना आम जनता की नियति बन गई है।
इनके अनुसार हिमालय क्षेत्र में पतंगों एवं तितलियों का विस्तार चौंकाने वाला है। हिमालय में पतंगों के विस्तार संबंधी इस अध्ययन में नैनीताल जिले के भीमताल से लेकर गागर तक की 20 किलोमीटर लंबी पट्टी में तितलियों की 1200 प्रजातियों की उपस्थिति से कई निष्कर्ष निकले हैं। जो प्रजातियां भीमताल में मिलती हैं वह गागर में भी मिलें, यह जरूरी नहीं है इससे यह पता लगता है कि जंगलों की एक-सी प्राकृतिक अवस्था होने के बावजूद कीट-पतंगों की एक जैसी परिस्थिति होना जरूरी नहीं है। ग्रेफियम डिसीन नामक सामान्य तितली जो कि दिल्ली से हलद्वानी तक समान रूप से मिलती है, वहीं हाक माथ नामक पतंक की प्रजाति भी यहां 1994 में पहली बार दिखाई दी थी जो अब सामान्य रूप से हर जगह दिखाई दे रही है। इसी तरह तालीकाड़ा नीसियस नाम की एक तितली जो रेडपियरेट नाम से भी जानी जाती है, नैनीताल से देहरादून के बीच आमतौर पर दिखाई दे जाती है। वैसे, यह पश्चिमी घाट में ही पाई जाती थी। इस तरह असम या नेपाल के पूर्वी क्षेत्र में पाई जाने वाली तितलियों की प्रजातियों, जैसे फलोस असोक, आरहोपाला अबसियस और नाकाडूबा काराबा ने अब उत्तराखंड को अपना बसेरा बना लिया है।
वैज्ञानिक इस मौसम परिवर्तन का ही संकेत मानते हैं। मौसम बदलने से ही तितलियों का आवास बदल रहा है। इससे फसलचक्र में परिवर्तन आए हैं। खासकर गर्मियों में उपजाई जाने वाली फसलों पर खासा असर हुआ है। मई और जून महीने में बारिश न होने से आलू के अलावा फलों की पैदावार में कमी आई है।
ग्लोवबल वार्मिंग और पारिस्थितिकी बदलाव के कारण हिमालय की भू-संरचना भी बदल रही है। हिमालय क्षेत्र के कई ग्लेशियर इसी बीच बने या बिगड़े हैं। गढ़वाल विश्वविद्यालय के भूगर्भशास्त्र के उपाचार्य डॉ. एम.पी.एस विष्ट के अनुसार, नंदा देवी जैव मंडल के अंदर और बाहर निकलने वाली की नदियों का मिजाज बदलता दिख रहा है। समय-समय पर आने वाली आपदाएं इसकी गवाह हैं। चमोली जिले के सतोपंथ एवं भगवत खरक के अलकापुरी पर छोटी-सी झील बनने से माणा गांव के आसपास मची ताबाही भी इसी का नतीजा कही जा सकती है यानी मौसमी मिजाज में बदलाव के चलते कई हिमालयी गांवों का भूगोल बदल चुका है। भारत-चीन सीमा के गब्योंग गांव का भूधंसाव भी इसी बदलाव का नतीजा है। बदरी-केदार क्षेत्र में पहले बादल छाने पर सीधे बर्फबारी हो जाती थी लेकिन अब कई हफ्ते तक वर्षा होने के बाद ही बर्फ पड़ती है। इस क्षेत्र में बुरांस के फूल एवं फलों के उत्पादन का समय भी परिवर्तित होता साफ दिखाई दे रहा है।
चीड़ वनों के विस्तार एवं चौंड़ी पत्ती वाले वनों के सिकुड़ने की घटना को भी वैज्ञानिक इसी बदलाव की कड़ी मानते हैं। वनस्पतिशास्त्री एवं योजना आयोग के सलाहकार प्रो.एस.पी. सिंह के अनुसार, चीड़ वनों के विस्तार एवं सदाबहार वनों की सिकुड़ती जमीन इस बदलाव का नमूना है। लैंटाना जैसी घास अब कॉर्बेट जैसे वन्य-जैव विविधता के स्वर्ग माने जाने वाले पार्क के भीतर बढ़ रही है तो राजाजी नेशनल पार्क के कई क्षेत्र का रेगिस्तानीकरण हो चुका है। इससे इन पार्कों में वन्यजीवों को चारे का संकट भी झेलना पड़ रहा है। इस बात की पुष्टि पूर्व वन्यजीव प्रतिपालक श्रीकांत चंदोला भी करते हैं। मौसमी बदलाव ने ग्लेशियरो के निकट पाई जाने वाली वनस्पतियों को भी विलुप्त कर दिया है। नंदा देवी जैव मंडल के भीतर सिकाड़ा जैसी झींगूर प्रजाति के निंफ से निकलने वाला कीड़ा जड़ी के मिलने से भी वैज्ञानिक हैरान हैं क्योंकि सिकाड़ा का निंफ 16 वर्षों तक मिट्टी के अंदर रहकर प्रजनन के वक्त मात्र एक सप्ताह के लिए ही बाहर आता है।
इस दौरान उसके द्वारा दिए गए अंडों को फिर से पेड़ों की जड़ों में छेद बना कर वहां उनके निंफ में कार्डियों सैपिन नामक एंजायम बनने की प्रक्रिया के दौरान उसमें उत्पन्न होने वाली एक कवक में इस एंजायम के चले जाने से उनकी प्रोटीन वैल्यू इतनी बढ़ जाती है कि वह अत्यधिक पौष्टिक तत्व से भर जाता है। यह प्रजाति अब तक भारतीय क्षेत्र में अप्राप्य थी। इसे चीन, कनाडा व अमेरिका में पहले देखा गया था। इन सब बदलावों के चलते कई पर्यावरणविद् सरकार से मौसम परिवर्तन के दृष्टिगत हिमालय के लिए चेतावनी प्रणाली के विकास पर जोर दे रहे हैं। पर्यावरणविदों के अनुसार, जलवायु परिवर्तन से हिमालय क्षेत्र की दैवीय आपदा का स्वरूप बदलकर अनिष्टकारी हो सकता है। इसलिए इस क्षेत्र में चेतावनी प्रणाली को विकसित करना जरूरी है। हर वर्ष हिमालयी राज्यों, जम्मू-कश्मीर, उत्तराखंड में आ रही तबाहियों को रोकने के लिए ऐसी चेतावनी प्रणाली जरूरी मानी जा रही है।
राजधानी देहरादून स्थित रिमोट सेसिंग संस्थान के वैज्ञानिक डॉ. संपति रे के मुताबिक, बादल फटने से होने वाली तमाम घटनाओं से भारी तबाही होती है लेकिन यदि सरकार दृढ़ इच्छाशक्ति से काम करे तो इन घटनाओं का पता वक्त रहते ही लग सकता है। सार्क देशों के आपदा प्रबंधन प्रकोष्ठ में काम कर चुके वैज्ञानिक डॉ. संपति रे के अनुसार, सार्क देशों के लिए गठित सार्क डिजास्टर मैनेजमेंट सेंटर ने इस तरह का एक प्रस्ताव भी स्वीकार किया है जिसके तहत राज्य में डाएलर्स वैदर राडार लगा कर और वर्षा के एकत्रित आंकड़ों की मदद से उनका विश्लेषण किया जा सकता है। इसके लिए राज्य का भूगर्भीय सर्वेक्षण कर भूस्खलन सक्रिय क्षेत्र को चिन्हित भी करना होगा। ऐसा एक प्रयोग थाईलैंड में हो रहा है लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति यह है कि मसूरी और नैनीताल में राडार लगाने के लिए राज्य सरकारें कई वर्षों से स्थान तक नहीं खोज पाई हैं। वैसे, डॉ. संपति रे ने अलकनंदा घाटी में एक पायलट प्रोजेक्ट शुरू कर वहां बारह स्वचालित मौसम केंद्र बनाए हैं। इन्हें रिमोट सेंसिंग के माध्यम से उपग्रहों से जोड़ा गया है और फिर उपग्रहों की मदद से आंकड़े प्राप्त किए गए हैं।
इन आकड़ों से वे तीन घटनाओं का पूर्वानुमान प्राप्त करने में सफल हो चुके हैं। इसी पूर्वानुमान से उन्होंने एक गणितीय फॉर्मूला भी तैयार किया है। उनके अनुसार, यदि 15 दिनों के वर्षांत का आंकड़ा उपलब्ध हो, साथ ही उस क्षेत्र में भूस्खलन की घटनाओं को देखा जाए तो अनुमान लगाना आसान हो जाता है। डॉ. रे के अनुसार, प्रकृति विनाश से पूर्व संकेत जरूर करती है ताकि मानव सतर्क हो जाए। उन संकेतों को यदि समझा जा सके तो विनाश से काफी हद तक बचा जा सकता है लेकिन मजे की बात यह है कि हर वर्ष होने वाली तबाही में इन तौर-तरीकों को लागू करने की कसमें राजनेता जरूर लेते हैं लेकिन समय बीतने पर इसे भूलकर अगले वर्ष फिर तबाही का इंतजार करना आम जनता की नियति बन गई है।
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