प्राकृतिक सम्पदा के अटूट भण्डार सागर पर ही आश्रित होने के कारण उनकी जीवनशैली, संस्कृति और सामाजिक जीवन का तानाबाना उसी अनुरूप विकसित हुआ है। इसलिये जरूरी हो गया है कि मछुआरों और तटवर्ती किसानों को पुश्तैनी व्यवसायों से जोड़े रखने, समुद्री जीव-जन्तुओं को बचाए रखने और तटवर्ती वन एवं वनस्पतियों को पर्यावरणीय विनाश से मुक्त बनाए रखने के लिये इस सेतु समुद्रम परियोजना को रोका जाये। रामसेतु प्राकृतिक है या मानव निर्मित है, इस गुत्थी को सुलझाने का वीड़ा अब भारतीय इतिहास अनुसन्धान परिषद उठाने जा रही है। शोध के जरिए यह पता लगाया जाएगा कि रामसेतु से जुड़ी बाते मिथक हैं अथवा हकीकत। इस शोध कार्य में भारतीय पुरातत्व विभाग के पूर्व निदेशक आलोक त्रिपाठी भी शामिल रहेंगे।
आईसीएचआर के अध्यक्ष वाई सुदर्शन राव ने कहा है कि रामसेतु किस तरह अस्तित्व में आया इस पर विवाद कायम है। इसलिये इसकी वास्तविकता से सम्बन्धित मजबूत साक्ष्य जुटाए जाएँगे। इन साक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये यूनेस्को से गोताखोरी का लाइसेंस लेने के बाद पुदुचेरी में पानी के नीचे जाकर सेतु के अवशेष एकत्रित किये जाएँगे। रामसेतु को लेकर विवाद इसलिये गहराया हुआ है, क्योंकि सेतु के चलते सेतु समुद्रम परियोजना प्रभावित हो रही है।
हालांकि सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर आरके पचौरी ने सेतु समुद्रम परियोजना से जुड़े विभिन्न पहलूओं के विश्लेषण के आधार पर रिपोर्ट दी थी, उसके अनुसार रामसेतु को सुरक्षित रखते हुए वैकल्पिक मार्ग व्यावहारिक दृष्टि से सम्भव नहीं है। इस परियोजना का उद्देश्य रामसेतु के बीच से मार्ग बनाकर भारत के दक्षिणी हिस्से के इर्द-गिर्द समुद्र में जहाजों की आवाजाही के लिये रास्ता बनाना है।
यह रास्ता नौवहन मार्ग (नॉटिकल मील) 30 मीटर चौड़ा, 12 मीटर गहरा और 167 किमी लम्बा होगा। इतनी बड़ी परियोजना को वजूद में लाने के लिये पौराणिक काल में अस्तित्व में आये रामसेतु को क्षति तो पहुँचेगी ही, करोड़ों मछुआरों की आजिविका भी प्रभावित होगी। इस कारण डॉ. मनमोहन सरकार के दौरान संसद में भाजपा और शिवसेना ने खूब हंगामा किया था।
भारतीय समुद्र की तटवर्ती पट्टी 5 हजार 660 किमी लम्बी है। गुजरात, महाराष्ट्र, केरल, कर्नाटक, आन्ध्र प्रदेश, उड़ीसा, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल राज्यों और केन्द्र शासित राज्य गोवा, पुदुचेरी, लक्षद्वीप तथा अण्डमान-निकोबार द्वीप समूह के तहत ये विशाल तटवर्ती क्षेत्र फैले हैं। रामसेतु की विवादित धरोहर रामेश्वरम को श्रीलंका के जाफना द्वीप से जोड़ती है। यह मन्नार की खाड़ी में स्थित है। यहीं जो रेत, पत्थर और चूने की दीवार सी 30 किमी लम्बी पारनुमा सरंचना है, उसे ही रामसेतु का अवशेष माना जा रहा है।
अमेरिका की विज्ञान संस्था नासा ने इस पुल के उपग्रह से चित्र लेकर अध्ययन करने के बाद दावा किया था कि मानव निर्मित यह पुल दुनिया की सबसे पुरानी सेतु संरचना है। इस नाते भी राम ने यदि इस सेतु का निर्माण नहीं भी किया है तो भी इस धरोहर को सुरक्षित रखने की जरूरत है। हालांकि वाल्मीकि रामायण, स्कंद पुराण, ब्रह्म पुराण, विष्णु पुराण और अग्नि पुराण में इस सेतु के निर्माण और इसके ऊपर से लंका जाने के विवरण हैं।
इन ग्रंथों के अनुसार राम और उनके खोजी दल ने रामेश्वरम से मन्नार तक जाने के लिये वह मार्ग खोजा, जो अपेक्षाकृत सुगम होने के साथ रामेश्वरम के निकट था। जहाँ से राम व उनकी वानर सेना ने उपलब्ध सभी 65 रामायणों के अनुसार लंका के लिये कूच किया था। माना जाता है कि 500 साल पहले तक यहाँ पानी इतना कम था कि मन्नार और रामेश्वरम के बीच लोग सेतुनुमा टापूओं से होते हुए पैदल ही आया जाया करते थे। वैसे इस क्षेत्र में ऐसे कम दबाव व धार वाले पत्थर भी पाये जाते हैं, जो पानी में नहीं डूबते। नल और नील ने जिन पत्थरों का उपयोग सेतु निर्माण में किया, शायद ये उन्हीं पत्थरों के अवशेष हों जो आज भी धार्मिक स्थलों पर देखने को मिल जाते हैं।
इन सब साक्ष्यों के आधार पर इसके संरक्षण के लिये जनहित याचिकाएँ शीर्ष न्यायालय में दायर की गईं, जिससे इस सेतु को हानि न हो। तमिलनाडू की मुख्यमंत्री रहीं जयललिता ने इस परियोजना को विधानसभा में रोकने का प्रस्ताव लाकर सेतु को राष्ट्रीय स्मारक घोषित करने की माँग केन्द्र सरकार से की थी। यदि रामसेतु के प्रसंग को छोड़ भी दिया जाये तो जैव संसाधनों की दृष्टि से भी विश्व बाजार में इस क्षेत्र को सबसे ज्यादा समृद्ध क्षेत्र माना जाता है। इसकी जैविक और पारिस्थितिकी विलक्षणता के चलते ही इसे ‘जैव मण्डल आरक्षित क्षेत्र’ घोषित किया हुआ है।
इस क्षेत्र का रामसेतु के बहाने न केवल पुरातत्वीय दृष्टि से बल्कि सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक महत्त्व भी है। मोती के लिये प्रसिद्ध रहा यह क्षेत्र शंख के उत्पादन के लिये भी जाना जाता है। दरअसल मन्नार की खाड़ी राष्ट्रीय अन्तरराष्ट्रीय महत्त्व की एक जीवित प्रयोगशाला है। यहाँ लगभग 3700 प्रकार के जीव व वनस्पतियों की जीवन्त हलचल है। जिसमें कछुओं की 17 प्रजातियाँ हैं। मूँगे की 117 किस्में हैं। इस क्षेत्र में पाये जाने वाला दुर्लभ मैंग्रोव वृक्ष कार्बन डाइऑक्साइड का शोषण कर बढ़ते तापमान को कम करता है। बड़ी मात्रा में प्रवाल (शैवाल) भित्ति भी हैं। इसी विविधता के कारण भारत को जैविक दृष्टि से दुनिया में सम्पन्नतम समुद्री क्षेत्र माना जाता है।
समुद्र में उपलब्ध शैवाल (काई) भी एक महत्त्वपूर्ण खाद्य पदार्थ है। शैवाल में प्रोटीन की मात्रा भी ज्यादा होती है। लेकिन इसे खाने लायक बनाए जाने की तकनीकों का विकास हम ठीक ढंग से अब तक नहीं कर पाये हैं। लिहाजा इसे खाद्य के रूप में परिवर्तित कर दिया जाये तो परम्परागत शाकाहारी लोग भी इसे आसानी से खाने लगेंगे। शैवाल में अच्छे किस्म की चॉकलेट से कहीं ज्यादा ऊर्जा होती है।
आयुर्वेद औषधियों तथा आयोडीन जैसे महत्त्वपूर्ण तत्व भी इसमें होते हैं। गोया, सेतु समुद्रम परियोजना पर अमल जारी रहता है तो शैवाल भित्ति प्रणाली पर भी विपरीत असर पड़ेगा। इसके विखण्डित होने का खतरा है। ये शैवाल भित्तियाँ उष्ण कटिबन्धीय क्षेत्रों में न केवल खाद्य संसाधनों, बल्कि जैव रासायनिक प्रक्रियाओं में भी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। तटीय क्षेत्रों में ये लहरों का अवरोध बनकर कटाव को बाधित करती हैं। 750 प्रकार की मछलियों के आहार व प्रजनन का भी यही काई प्रमुख साधन है।
समुद्री तूफानों के विश्व प्रसिद्ध विशेषज्ञ डॉ. टैड मूर्ति के अनुसार 26 दिसम्बर 2004 को आये सुनामी तूफान के दौरान रामसेतु देश के दक्षिण हिस्से के लिये सुरक्षा कवच साबित हुआ था। इस अवरोध के परिणामस्वरूप सुनामी लहरों की प्रबलता शिथिल हुई और केरल सहित दक्षिणी इलाके, भारी तबाही से बचे रहे। इस परियोजना के पूर्ण होने के बाद यदि फिर सुनामी लहरें उफनती हैं तो रामसेतु के अभाव में लहरें बड़ी तबाही का कारण बन सकती हैं।
ऐसी प्राकृतिक आपदा आती है तो वैज्ञानिक व पर्यावरणविदों का मानना है कि इस क्षेत्र में पाये जाने वाले थोरियम के बड़े भण्डार नष्ट हो जाएँगे। विश्व का 30 प्रतिशत थोरियम भारत में ही मिलता है। जो यूरेनियम बनाने के काम आता है। समुद्र की गहराई बढ़ने से समुद्र में उच्च दबाव वाले ज्वार-भाटे की आशंका भी बढ़ेगी।
इस परियोजना के प्रभाव में आने वाले पाँच जिलों की करीब 2 करोड़ की आबादी के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो जाएगा। क्योंकि मन्नार की खाड़ी एवं पाक जलडमरूमध्य के किनारों पर आबाद मछुआरों के परिवार मुख्य रूप से मछलियों के कारोबार पर ही जिन्दा हैं। कुछ मछुआरे समुद्री शैवाल, शंख और मूँगे के व्यापार से भी जीवनयापन करते हैं।
प्राकृतिक सम्पदा के अटूट भण्डार सागर पर ही आश्रित होने के कारण उनकी जीवनशैली, संस्कृति और सामाजिक जीवन का तानाबाना उसी अनुरूप विकसित हुआ है। इसलिये जरूरी हो गया है कि मछुआरों और तटवर्ती किसानों को पुश्तैनी व्यवसायों से जोड़े रखने, समुद्री जीव-जन्तुओं को बचाए रखने और तटवर्ती वन एवं वनस्पतियों को पर्यावरणीय विनाश से मुक्त बनाए रखने के लिये इस सेतु समुद्रम परियोजना को रोका जाये। बहरहाल अक्टूबर-नवम्बर में जो शोध होने जा रहा है, उससे यह उम्मीद बँधी है कि अब शोध के जो परिणाम सामने आएँगे, वह पहले के निष्कर्षों की तुलना में कहीं ज्यादा निष्पक्ष होंगे।
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Post By: Editorial Team