पाठ-9
सन अस्सी के दशक की शुरूआत के वर्षों में हरियाणा के अंबाला जिले में हिमालय की शिवालिक पहाड़ियों की श्रृंखला के बीच, बसे हुये सुखोमाजरी ग्राम के निवासियों ने अपने लाभ के लिये जिस तरह अपने वन व जल-संसाधनों का प्रयोग किया था, उसके लिये राष्ट्र ने प्रशंसा प्राप्त की। परन्तु इस बात की कल्पना तो शायद उन्होंने भी नहीं की थी, कि जिस 400 हेक्टेयर के खैर के जंगल को वह पाल कर बड़ा कर रहे थे उसकी कीमत एक दिन करोड़ों रुपयों की हो जायेगी।
अनुमानित तौर पर 5000 खैर के पेड़ अब सुखामाजरी के जंगल में जवान हो गये हैं। एक हजार रुपये प्रति कुन्टल इमारती लकड़ी की औसत कीमत के हिसाब से, उन पेड़ों से अब 50 लाख रुपये की इमारती लकड़ी उपलब्ध हो सकती है। एक कुन्टल खैर की लकड़ी से पान व रंगाई कार्य में प्रयोग होने वाला लगभग 6 किलोग्राम कत्था निकलता है। 800 रु. प्रति किलोग्राम के हिसाब से इन जंगलों की कीमत में एक करोड़ रुपये की वृद्धि हो सकती है। इन जंगलों में लगभग 5000 पेड़ प्रतिवर्ष बड़े होंगे।
सुखोमाजरी के खैर के जंगल अब वास्तव में सोने की खान हैं व ग्रामवासी अब इनसे होनी वाली कमाई में अधिकतम हिस्से की माँग कर रहे हैं। अगर यह माँग मान ली जाती है तो इन वनों की सुरक्षा करने के लिये उनकी गारण्टी हमेशा के लिए प्राप्त की जा सकती है। वर्तमान में केवल कृषि के लिये पानी व भाभर घास से अल्पकालीन लाभ तक ही उनका ध्यान केन्द्रित है। इतने से भी ग्रामवासियों की वार्षिक प्रति व्यक्ति आय दो हजार रुपयों से अधिक है।
जंगल के संसाधनों पर ग्रामवासियों का कितना अधिकार है ? दरअसल, सुखोमाजरी की उन्नति का कारण है, 1976 से लागू किया गया संयुक्त वन प्रबन्धन का कार्यक्रम।
हालाँकि सुखोमाजरी के ग्रामवासी अपने जंगलों से अधिकतम, लाभ पाना चाहते हैं, हरियाणा वन विभाग द्वारा प्रस्तावित बिल में यह उल्लेख है कि उन्हें केवल पच्चीस प्रतिशत लाभ प्राप्त होगा, संयुक्त वन प्रबन्धन लागू होने से पहले वन में पेड़ों का घनत्व चालीस प्रतिशत से अधिक था।
हरियाणा के प्रमुख वन संरक्षक श्री गुरनाम सिंह का कहना है कि लोगों को भाभर व अन्य घासों से तत्कालिक मुनाफा हुआ है। अगर इमारती लकड़ी के मामले में भी हम लोगों का पक्ष लेते हैं तो सरकारी कोष को नुकसान होगा।
परन्तु केन्द्रीय मृदा व जल संरक्षण अनुसंधान व प्रशिक्षण संस्थान, चण्डीगढ़ के भूतपूर्व कर्मचारी श्री पी.आर.मिश्रा, जिन्होंने सुखोमाजरी भागीदारी प्रबन्धन परियोजना को प्रारम्भ किया था, सामुदायिक विकास के लिये धन जुटाने के लिये मुनाफे के 60 प्रतिशत हिस्से पर जोर दे रहे हैं। इसके अलावा उन्होंने मुनाफे के 10 प्रतिशत हिस्से को अन्य गाँव में बेकार पड़ी भूमि को विकसित करने के लिये एक ‘कल्याण कोष’ बनाने के लिये भी बल दिया है।
समृद्धि बढ़ने के साथ-साथ, सुखोमाजरी के ग्रामीण निवासी सम्पदा को बनाने में आर्थिक आत्मनिर्भरता के मामले में जागरूक होने लगे हैं। ग्राम वासियों द्वारा अपनी संस्था-हिल रिसोर्स मैनेजमेंट सोसायटी वन विभाग से लीज पर ली गई भाभर घास को ठेकेदारों को नीलाम कराना बन्द कर दिया है। सोसायटी के कोषाध्यक्ष प्रकाश चन्द्र मेलू के अनुसार, “जब हम पेपर मिलों को घास सीधे तौर पर बेच सकते हैं तो हम दूसरे व्यक्तियों को लाभ क्यों पहुँचायें?” उन्हें कम से कम दस हजार रुपये प्रति वर्ष मुनाफा कमाने की उम्मीद है।
आज गाँव में मौजूदा 83 परिवारों ने अपने कच्चे व मिट्टी-गारे से बने घरों की जगह ईंट व पक्के सीमेंट के मकान बना लिये हैं। उनमें से सभी घर प्राकृतिक सम्पदा का दोहन करके अब साधन सम्पन्न जीवन व्यतीत कर हरे हैं। सुखोमाजरी के श्री जेठू राम का कहना है कि यह कौन विश्वास करेगा कि केवल घास व पानी के दम पर टेलीविजन, फ्रिज, ट्रैक्टर, थ्रैशिंग मशीन, स्कूटर, मोटर साइकिल व साइकिलें प्राप्त की जा सकती हैं।
1980 में, सोसायटी बनने के केवल पाँच वर्ष बाद, परिवारों की औसत वार्षिक आमदनी 10,000 से लेकर 15,000 रुपये तक थी। हरियाणा वन विभाग में संरक्षक एस.के.धर कहते हैं “सहभागिता से भूमि का मुल्य बढ़ा है, यह साबित हुआ है।” आय में वृद्धि का मुख्य कारण है प्राकृतिक पुनरूत्पादन में बढ़ोतरी। श्री धर के अनुसार 1976 के मुकाबले में तेरह पेड़ प्रति हेक्टेयर से बढ़कर 1990 शुरूआती दशक में, एक हजार दो सौ बहत्तर पेड़ हो गये। इसी प्रकार घास की मात्रा भी 40 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर से बढ़कर 3 हजार कि.ग्रा. हेक्टेयर हो गई। 1989 में आयकर अधिनियम में संशोधन के पश्चात यह सोसायटी भी इसके अन्तर्गत आ गई। जिस में सम्पूर्ण सुखोमाजरी भी शामिल है सुखोमाजरी अब उन कुछ गाँवों की श्रेणी में आ गया है जो आयकर देते हैं। परन्तु सोसायटी ने अपने 15 प्रतिशत आयकर माफ करा लिया। अब सोसायटी केवल भाभर घास पर बिक्री कर देती है। इस कर के अलावा घास को हिमाचल प्रदेश में स्थित पेपर मिलों में ले जाने की चुँगी भी सौ रुपये प्रति गाड़ी के हिसाब से देनी पड़ती है।
सुखोमाजरी से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं के अनुसार यह चुँगी लिया जाना अनुचित है। प्राकृतिक संसाधन प्रबन्धन विशेषज्ञ मधु सरीन कहती हैं, “यह आश्चर्यजनक है कि निकट में मौजूद बल्लारपुर इंडस्ट्रीज लिमिटेड, जो कागज का निर्माण करती है, उसे सरकार भाभर घास खरीदने के लिये छूट देती है।” इसके विपरीत गाँववालों को यह साबित करना पड़ता है कि उन्होंने भाभर घास का व्यावसायिक उपयोग नहीं किया है।
इन फायदों से सुखोमाजरी का यह दावा मजबूत हुआ है कि संसाधनों की भागीदारी प्रबन्धन का वह एक उत्कृष्ट मॉडल है। परती भूमि विकास सोसायटी के श्री आर.के.मुखर्जी का कहना है, “यह परियोजना बिना किसी रूपरेखा के चली व इसमें जैसे-जैसे लोगों में आत्म-विश्वास की भावना बढ़ती गई वैसे-वैसे सहभागिता भी बढ़ती गई।”
चण्डीगढ़ में सुखना झील में बार-बार मिट्टी भर जाने के कारण से यह परियोजना 1970 में आरम्भ की गई। मिश्रा जी ने झील के जलग्रहण क्षेत्र में बसे सुखोमाजरी गाँव में चार चेकडेम बनाये व वृक्षारोपण किया। परन्तु उनका यह प्रयास असफल रहा क्योंकि गाँव वाले चण्डीगढ़ की जल समस्या के प्रति चिन्तित नहीं थे। श्री मिश्रा जी मानते हैं “ग्रामवासी श्री दौलतराम के एक कथन ने अधिकारियों की आँखें खोल दी। दौलतराम ने कहा था कि आप सब जंगल में जाकर उस समस्या का हल खोजने की कोशिश न करें जिसकी जड़ गाँव में है।”
संरक्षण के प्रति गरीब ग्रामवासियों के मन में कहीं स्थान न था। वह अपने खाद्य, चारा व ईन्धन की जरूरतों को नष्ट हुये जंगल से पूरा नहीं कर पाते थे। जब वनाधिकारियों ने चराई पर रोक लगाई, तो उन्होंने भूमि-संरक्षण के निर्माणों को विरोध स्वरूप तोड़ दिया व रात्रि में लकड़ी की चोरी भी की।
ग्रामवासियों के खेमे में 1977 में बदलाव आया जब पानी के चार टैंक एक के बाद एक बनाये गये। इनसे पानी इकट्ठा करने की क्षमता बढ़ी व 1977 में ही अनाज उत्पादन भी 6.83 क्विंटल प्रति हेक्टेयर से बढ़ कर 1986 में 14.32 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हो गया। ग्रामवासी श्री हरिकिशन के अनुसार “पानी और जंगल गाँव की तरक्की के जड़ हैं।” पानी बदलाव का मुख्य कारण था क्योंकि गाँव की खेती केवल बरसाती पानी पर निर्धारित थी और उत्पादकता बहुत कम थी। पानी के बदले में गांव वाले जलग्रहण क्षेत्र की रक्षा करने को तैयार थे, और इस तथ्य को गाँव वासियों तक पहुँचाने में सफल रहे श्री मिश्रा जी।
कुछ समय तक ग्रामवासियों में पानी के बँटवारे को लेकर तनाव था, पर इस समस्या का निदान सोसायटी ने किया। उसने पानी के कूपन हर परिवार को जारी कर दिये जिन्हें आपास में बदला या बेचा भी जा सकता था। इससे भूमिहीन परिवार जल के अपने हिस्से को बेच कर अपनी आमदनी में बढ़ोतरी कर सकते थे। इतने साल बाद पानी के कूपनों की योजना अब लगभग खत्म हो चुकी है परन्तु इससे कोई गम्भीर झगड़े आदि की नौबत नहीं आई क्योंकि भाभर घास व चारे के अधिक उत्पादन से उनकी आय में बढ़ोतरी हुई। सुखोमाजरी के उदाहरण से प्रभावित होकर हरियाणा वन विभाग ने इस मॉडल को शिवालिक की पहाड़ियों के अन्य गाँव में लागूू किया लेकिन सुखोमाजरी की भाँति इन गाँवों में यह योजना सफल नहीं हो सकी क्योंकि इन गाँवों में कई जातियों के लोग रहते थे। जबकि सुखोमाजरी में केवल एक ही जाति थी।
उदाहरण स्वरूप लोहगड़ में हरिजनों ने कुछ जाति के लोगों के खिलाफ दमन करने का आरोप लगाया। एक हरिजन महिला द्वारिका देवी कहती है, “जब हम लोग जंगल से लकड़ी के मोटे लट्ठे लाते हैं तो हमें तंग किया जाता है। जबकि ऊँची जातियों के सदस्यों को कोई नहीं टोकता।” द्वारिका देवी के अनुसार उन्हें लोहगड़ में सोसायटी की मीटिंग की खबर भी नहीं दी जाती है। एक पर्यवेक्षक का दावा है, “ऊँची व नीची जातियों के बीच में अन्तर साफ दिखाई पड़ता हैं क्योंकि ऊँची जातियों ने अधिकतर फायदों को अपनी तरफ समेट लिया है।”
संसाधनों के बँटवारे को लेकर आम समस्या न केवल ग्रामवासियों के बीच में थी बल्कि गाँवों के बीच भी थी। एक बार धमाला व सुखोमाजरी का आपस में जलागम व पानी को लेकर विवाद हो गया। इस समस्या का हल धमाला के निवासियों के लिये एक अलग बाँध बनाकर निकाला गया।
सूखे व धन की कमी से उत्पन्न समस्या से सहकारी प्रणाली के टूटने का खतरा भी पैदा हो जाता है। 1987-88 में पड़े सूखे के दौरान सुखोमाजरी के निवासी एक-दूसरे के साथ रहे क्योंकि उन्हें चेकडेम के फायदों का ज्ञान हो चुका था। सोसायटी को भी कभी-कभी ग्रामवासियों का सहयोग न मिलने की दशा में बाहरी सहायता लेने को बाध्य होना पड़ता था।
यह सर्वथा मान लिया गया कि जल संरक्षण करना बहुत जरूरी हैं क्योंकि इससे घास इत्यादि जैसे वन संसाधनों में वृद्धि होती है। जेठू राम के अनुसार जब सदस्यों को यह लगता है कि उनके आपसी सहयोग से फायदा होगा तो वे साथ रहते हैं।
सहभागिता प्रबन्धन से सफाई, जल-निकासी व सामुदायिक विकास के अन्य पहलुओं पर किये गये विभागीय निवेश की उपयोगिता बढ़ाई जा सकती है। उदाहरण स्वरूप धमाला गाँव में ग्रामवासी एक परियोजना को भरपूर सहायाता दे रहे हैं जिसमें सरकार द्वारा शौचालयों का निर्माण हो रहा है और सामग्री उपयोगी कर्ताओं द्वारा उपलब्ध कराई गई है। जो ग्रामवासी इसमें सहयोग नहीं दे सकते हैं उनकी मदद के लिये सोसायटी हाथ बढ़ाती है।
सुखोमाजरी में नालियों से पत्तियों को इकट्ठा करके खाद बनाई जाती है। स्थानीय लोगों ने सूरजपुर के सिमेंट कारखाने के सहयोग से एक दल-दल भूमि का उद्धार किया है। उस क्षेत्र में अनुपयोगी सिमेंट को डालकर इसे समतल कर दिया गया है।
ऐसी बात नहीं है कि समस्याएँ नहीं हैं। सुखोमाजरी परिवार अब तक मछली-पालन, रस्सी बनाना व सिट्रोनेला घास के संयन्त्र लगाने के क्षेत्रों में असफल रहा है। इन गतिविधियों में कुछ व्यक्तियों ने प्रबन्धन कार्य किया तो है, परन्तु विवाद ही हुआ है।
हालाँकि, प्राकृतिक पुनरूत्पादन ने बहुत फायदे पहुँचाये हैं, उससे जंगली जानवर भी आने लगे हैं जो फसलों को नुकसान पहुँचाते हैं। परेशान ग्रामीणों को पहरेदारी करते-करते रात बितानी पड़ती है व उनकी जानवरों से शत्रुता हो गई है।
लेकिन जेठू राम कहते हैं “जब तक हमारा हक होगा तब तक सब कुछ सम्भाल लेंगे।” अब केवल यह देखना है कि क्या सुखोमाजरी के खैर के जंगल पर उसका व अन्य गाँववालों का अधिकार माना जायेगा या नहीं।
महाराष्ट्र राज्य के अहमदनगर जिले में बसा हुआ एक छोटा सा हरा-भरा गाँव-रालेगण सिद्धी। महाराष्ट्र सरकार ने इसे एक आदर्श गाँव की मान्यता दी है, जहाँ सुःख एवं समृद्धि दोनों का ही वास है। लोग एकता से मिलजुलकर कार्य करते हैं। पीने के पानी एवं खेतों में पानी की कोई कमी नहीं है। घास, चारा एवं वृक्षों की छत्रछाया से पर्यावरण शुद्ध है। कुल्हाड़बंदी, नसबंदी, नशाबंदी, घास चराई बंदी और श्रमदान, ये पाँच नियम, लोगों के जीवन का हिस्सा बन गई है।
1970 के दशक में रालेगण सिद्धी बहुत ही गम्भीर स्थिति में था। वृक्षों के अधिकतम कटान से जमीन बंजर नजर आती थी। भूमि की उपजाऊ मिट्टी वर्षा के पानी से बड़े पैमाने में बह कर चली जा रही थी। खेती और पीने के पानी की समस्या निरन्तर बढ़ती जा रही थी। रोजगार के अभाव से ग्रामवासी शहर की ओर पलायन करने लगे थे। पक्षीय राजनीति के कारण ग्राम वासियों के बीच विवाद एवं आपसी मतभेद बढ़ने लगे। पेट की खातिर लोगों ने घर में शराब के ठेके खोल लिए। लगभग सारा गाँव नशीले पदार्थों के सेवन का आदी बन गया। अपर्याप्त बरसाती पानी पर आधारित खेती से जो भी पैदावार होती, साहुकार महाजन ब्याज के रूप में उसे निगल जाते। घर-घर में दरिद्रता, अज्ञान, बीमारियाँ, दुःख, अशान्ति, बेचैनी बसी हुई थी।
इसी समय सेना से निवृत्त हुए रालेगण सिद्धी के वासी, किशन बाबूराव हजारे ने गाँव की स्थिति को सुधारने का संकल्प लिया। गाँव की युवक मंडली को अपने विश्वास में लेकर हजारे जी समाज सेवा के कार्य में जुड़ गए। सर्वप्रथम, गाँव के यादवबाबा मंदिर (जो एक उजड़ा खंडहर था) के पुनर्निमाण के लिए। इससे गाँव वालों को ग्राम विकास के लिये प्रेरणा एवं प्रोत्साहन मिला। मंदिर में युवा मंडलियों की बैठकें होने लगी, जिसमें आपस में दुनिया की प्रगति और गाँव के विकास के बारे में विचार विमर्श होने लगे। गाँव श्रद्धा से हजारे जी को अण्णा (बड़ा भाई) कह कर पुकारने लगे।
अण्णा एवं युवा मंडली व्यसनमुक्ति की दिशा में मिलजुलकर प्रयास करने लगे। हर शराब की भट्टी पर जाकर, शराब के धन्धे बंद करने की प्रार्थना की। रोजी रोटी की समस्या सुलझाने के लिये सर्वप्रथम जलस्रोत विकास के बारे में गम्भीरता से विचार हुआ। जो लोग-चोरी-छिपे शराब बनाते थे, उनकी भट्टियाँ तोड़ने का कार्य युवकों ने अपने हाथ में लिया। शराबबंदी कार्यक्रम, शत प्रतिशत सफल हुआ।
सभी के लिए रोजी-रोटी उपलब्ध होगी, इसी आत्मविश्वास के साथ रालेगण सिद्धी में अण्णा हजारे के नेतृत्व में जलस्रोत विकास कार्य प्रारम्भ हुआ। इसमें सभी गाँव वालों ने अपने हाथ बटाये। गाँव के पश्चिम की ऊपरी छोर से नीचे, पूरब की तरफ मिट्टी और पानी को रोका गया। पहाड़ी पर जलशोषक नालियाँ खोदी गई। पहाड़ी और टीलों को पेड़-पौधे, घास लगाकर विकसित किया गया। इसके साथ-साथ बड़े पत्थरों के बाँधों का निर्माण किया गया एवं नीचे के उतार पर नालियाँ बंडिंग, तालाब एवं बाँध बनाए गए। जलस्रोत का पानी जिन नालियों में बहता है, वहाँ नालियों की चौड़ाई गई, और सीमेन्ट के पक्के बाँध, भूमिगत बाँध तथा गेबियन बाँधों का निर्माण किया गया। बरसाती पानी की हर बूँद को रोका गया और इस्तेमाल किया गया। पहले रालेगण सिद्धी में सिर्फ 70 से 80 एकड़ जमीन सिंचित थी पर अब जलस्रोत विकास के कारण 1100 से 1200 एकड़ सिंचित है।
रालेगण सिद्धी में पानी का वैज्ञानिक ढँग से नियोजन किया गया है। कुछ किसानों ने सामूहिक कुँओं के लिये सहकारी पानी आपूर्ति सोसायटी स्थापित की है। प्रत्येक किसान को पानी आपूर्ति का राशन कार्ड दिया गया है। बारी-बारी से उन्हें सिंचाई की पूर्ति की जाती है। प्रति वर्ष प्रति एकड़ रु. 60 से 70 सिंचाई शुल्क लिया जाता है। किसान भी पानी का सुव्यवस्थित ढँग से इस्तेमाल करते हैं।
रालेगण सिद्धी में पेड़ों का महत्व देखते हुए ग्रामवासियों ने वनीकरण बड़े पैमाने पर किया है। प्रत्येक वर्ष तीन से चार लाख पेड़ लगाए गए एवं देखभाल करके बढ़ाए गए। घास चाराई बंदी एवं कुल्हाड़बंदी का सम्पूर्ण गाँव ने पालन किया। पाँच सौ एकड़ जमीन में जहाँ जानवरों को चराया जाता था, वहाँ अलग से घास और ईंधन के लिये पेड़ लगाये गये। फलस्वरूप रालेगण सिद्धी में अब हरियाली छा गई।
रालेगण सिद्धी में 15 से 20 प्रतिशत ग्रामवासियों की जमीन ऊँचाई पर होने से, जलस्रोत का लाभ वहाँ पर नहीं पहुँचता। पैदावार अनाज, वर्ष में तीन-चार महीनों के लिये कम पड़ता है। उनकी जरूरत पूरी करने की दृष्टि से रालेगण सिद्धी में अनाज बैंक शुरू किया गया। ग्रामसभा में सर्वसम्मति से लिये गये निर्णय के मुताबिक अधिक अनाज जिन किसानों की खेती में से मिलता है, वे दान के रूप में इस अनाज बैंक में 4/10/20 सेर अनाज जमा करते हैं। इस बैंक में प्रतिवर्ष 25 से 30 क्विंटल अनाज जमा होता है। लकिन यह किसी को भी मुफ्त में नहीं बाँटा जाता। रालेगण सिद्धी में अनाज के लिये आने वाले जरूरतमंदों के आवेदन पत्रों पर, ग्रामसभा में विचार-विमर्श किया जाता है और जरूरत के अनुसार अनाज का बँटवारा किया जाता है। उनके खेतों में अनाज की अच्छी पैदावार होने पर 20 प्रतिशत अधिक अनाज वसूल किया जाता है। बैंक की तरह अनाज बैंक का व्यवहार साफ-सुथरा चलता है, हेरा-फेरी नहीं होती। इस अनाज बैंक में ज्यादा जमा हुये अनाज का सदुपयोग गाँव के छात्रावास में रहने वाले गरीब बच्चों के भोजन के लिये एंव अन्य विकास कार्य के लिये किया जाता है।
रालेगण सिद्धी के विकास कार्यों में महिलाओं का बहुत बड़ा योगदान रहा है। श्रमदान में वे हमेशा अग्रसर रहती है। पंचायत चुनाव में उन्हें सर्वसम्मति से निर्विरोध चुना गया। अब रालेगण सिद्धी में ग्राम पंचायत का कार्य महिलायें भलीभाँति से चला रही हैं। इसके अलावा महिलाओं के लिये कढ़ाई-बुनाई, कपड़े सीलने जैसे प्रशिक्षण की कक्षायें भी चलती हैं।
रालेगण सिद्धी ने श्रमदान से स्वाबलंबन का, समाजहित में तरीका अपनाया। श्रमदान के दिन, काम के स्वरूप को ध्यान में रखते हुए तय किये जाते हैं। यहाँ परिवार के सदस्यों के अनुसार श्रमदान का बँटवारा किया जाता है। 15 दिनों में, एक दिन हर कोई श्रमदान के लिए देता है। रालेगण सिद्धी में स्कूल की इमारत छात्रावास, वृक्षारोपण, तालाब, सार्वजनिक कुएँ, नालियाँ, नहरें, छोटे बाँध जैसे कार्यों में ग्रामवासियों ने श्रमदान किया है। श्रमदान और स्वाबलंबन से रालेगण सिद्धी के विकास कार्यों को नई दिशा मिली है।
रालेगण सिद्धी में हर कार्य को ग्रामवासियों के सहयोग और सर्वसम्मति से किया जाता है। ग्रामसभा का निर्णय अंतिम माना जाता है। नसबंदी, नशाबंदी, चराईबंदी, कुल्हाड़बंदी जैसे सभी हितकारी नियम ग्रामसभा में लिये गये और सर्वसम्मति से अमल किये गये। संत यादवबाबा शिक्षण प्रसारक मंडल द्वारा शैक्षणिक कार्य सम्भाला जाता है। दूध विकास सोसायटी किसानों को दूध व्यवसाय के लिये सहायता करती है। किसानों से दूध एकत्रित करके, दूध डेयरी को भेजने का कार्य भी यह सोसायटी करती है। सात सामूहिक पानी आपूर्ति संस्थायें किसानों को सामुहिक कुँओं से पानी आपूर्ति का कार्य सम्भालती हैं। महिलाओं पर होने वाले अन्याय दूर करने में महिला मंगल का बड़ा योगदान रहा है। युवामंडल द्वारा सांस्कृतिक और सामजिक कार्यों की जिम्मेदारी निभाई जाती हैं। यहाँ की संस्थाएँ पंजीकृत हैं एवं हिसाब-किताब बिल्कुल सही रखा जाता है। प्रतिवर्ष हर संस्था का लेखा-जोखा एवं हिसाब ग्राम सभा को प्रस्तुत किया जाता है एवं उनकी सहमति और मान्यता ली जाती है।
रालेगण सिद्धी में आई क्रान्ति की प्रक्रिया भारत के अन्य गाँव में भी होनी चाहिये। जिससे हर गाँव एक आदर्श गाँव के रूप में उभर सके।
रालेगण सिद्धी जो कि आकलग्रस्त गाँव था और अब समृद्धशाली गाँव बन गया, अन्ना हजारे के प्रयासों से। गाँव में पीने को पानी नहीं था और इसी समस्या से त्रस्त थे, गाँववासी। इसी बीच 1965 में भारत पाकिस्तान युद्ध के पश्चात ऐच्छिक सेवा निवृत्ति लेकर किसान राव बाबु उर्फ अन्ना हजारे ने ईश्वर निष्ठा एवं गाँधीवादी मानवता रूपी सोच लेकर गाँव के लोगों को संगठित किया। कर्म भावना एवं जागरूकता लाकर समाज में गतिशीलता लाए। लोगों की साल में एक बार पानी न मिलने वाली जमीन को, साल में दो बार सींचने का अवसर मिला। और ये तभी सम्भव हो पाया, जब उन्होंने वर्षा जल की बूँद-बूँद को बचाकर संरक्षित किया। लोगों की नैसर्गिक मदद से संसाधनों का प्रबन्धन करके उत्पादन बढ़ाया गया और मनचाही फसलों को उगाया गया। खेती के साथ बागवानी को महत्ता दी। उत्पादन क्षमता और उत्पादकात में वृद्धि हुई।
गाँव में दूध 250 लीटर नहीं होता था। लोग 15 से 20 गाय, भैंस पालते थे, परन्तु जब उन्होंने गाँव वालों को, मवेशियों की उत्पादक क्षमता बढ़ाने के लिए प्रेरित किया तब गाँव से 3000 लीटर दूध बाहर के गाँवों को बेचने जाने लगा। उन्होंने गाँव के लोगों को वैकल्पिक ऊर्जा के रूप में सौर ऊर्जा, बायोगैस प्लाण्ट के इस्तेमाल पर बल दिया।
उन्होंने गाँव के लोगों को पाँच सूत्रोंः नसबंदी, नशाबंदी, चराइबंदी, कुल्हाड़बंदी एवं श्रमदान के लिए प्रेरित किया।
कम खर्च में गामीणों के लिए अस्पताल में बेहतर चिकित्सा सुविधा मिले इसके लिए 60 महिलाओं को 1 साल का प्रशिक्षण दिया गया। इसके अतिरिक्त पशु उपचार केन्द्र की स्थापना की गयी।
उन्होंने आने वाली पीढ़ी के बच्चों को संस्कारित कर, आत्मनिर्भर बनाकर, जीवन मूल्यों को शिक्षण केन्द्र सम्मिलित कर उज्जवल शक्तिप्रदान करने पर बल दिया। उन्होंने विद्यार्थियों के लिए कम्प्यूटर प्रशिक्षण अनिवार्य किया। इसके लिए उन्होंने गाँव के लोगों को प्रेरित कर सहभागिता के माध्यम से 17-18 कम्प्यूटर स्कूल को दान किये। उन्होंने विद्यार्थियों के पूर्ण विकास के लिए, ज्ञान के साथ तंदरूस्ती को भी महत्व दिया। जिसमें नेतृत्व, खिलाड़ीपन और अनुशासन पर विशेष बल दिया जाता था।
सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए, उन्होनें दलितों को 60,000 रु. कर्ज से मुक्ति दिलाई, जिसके लिए, गाँववासियों ने संयुक्त रूप से 2 साल तक दलितों के खेतों में श्रमदान किया और उन्हें कर्ज मुक्त किया। परिवर्तन की कड़ी में उन्होंने एक नई सामाजिक व्यवस्था बनाई, जिसमें तीज (महाराष्ट्र में मनाया जाने वाला हिन्दुओं का धार्मिक त्यौहार) के अवसर- पाटिलों के बैलों की पूजा बाद में कर, पहले दलितों के बैलों की पूजा की जाने लगी और अब यही सामाजिक व्यवस्था बन गई है। इसलिए समाज में परिवर्तन जरूरी है।
गाँव के लोग वृद्धों को अपने माता पिता समझते हैं। और उन्हें पूर्ण रूप से मान सम्मान दिया जाता है। रालेगण सिद्धी में सभी जाति, समुदायों के लोगों के सामूहिक विवाह का प्रचलन है। जिसमें एक साथ 40-50 युवक-युवतियों का विवाह सामूहिक रूप से एक ही मंडप में किया जाता है।
रालेगण सिद्धी में, पराक्रमी लोगों को विशेष रूप से सम्मान दिया जाता है। वर्ष में एक बार रात का भोजन आयोजित करके ग्राम परिवर्तन दिन मनाते हैं और ये व्यवस्था रालेगण सिद्धी में अभी भी प्रचलित है। रालेगण सिद्धी में विभिन्न महिलाओं की बचत योजनाएं चल रही हैं, और वहाँ की महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति सजग हैं।
ग्राम सभा, विधान सभा और लोक सभा से ऊपर होती है। स्वावलंबन एवं सम्पूर्णता ही रालेगण सिद्धी का ध्येय है, और जिसमें ग्राम सभा का सक्रिय योगदान रहता है।
अन्ना हजारे का मानना है कि आबदी तो बढ़ रही है, परन्तु सामाजिक निष्ठा वाले लोगों की कमी निरन्तर हो रही है। परन्तु सत्यनिष्ठा एवं ईश्वर में विश्वास रखने वाले अन्ना हजारे ने, रालेगण सिद्धी को एक आदर्श गाँव बनाने में एक दीप स्तम्भ की भूमिका अदा की है।
जल ही जीवन है, पानी मनुष्य को प्रकृति की देन है, जो होठों पर गीत लाता है, और जीवन में सम्पन्नता। यदि जल का प्रबन्धन उचित किया जाए तो जल मित्र है, और लापरवाही बरती जाए, तो यही जल अभिशाप बन जाता है। यदि वर्षा अधिक होती है तो, फसलों को नुकसान पहुँचता है और यदि वर्षा का अभाव हो तो भी अकाल की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। दोनों ही स्थितियों में किसान की त्रासदी ही रहती है इसलिए वर्षा जल का संरक्षण और संग्रहण कर अकाल की स्थिति से निपटा जा सकता है। इसके लिए वानस्पतिक और अभियांत्रिक उपायों का सम्मिश्रित प्रयोग करके जल एवं मृदा का संरक्षण किया जा सकता है, जिससे मिट्टी की उत्पादकता को बनाये रखते हुए, उत्पादन क्षमता बढ़ायी जा सकती है।
1. मिट्टी के छोटे-छोटे बाँध बनाकर बंजर जमीन को उपजाऊ बनाया जा सकता है।
2. जल संग्रहण करके भूजल आपूर्ति में वृद्धि होती है।
3. समोच्च (Contour) बाँध बनाकर खेती करना मिट्टी को क्षरण से बचाने के लिए रेखाएँ बनाने के लिए (Dump Level) की जरूरत नहीं होती है। यह उपजाऊ मिट्टी को रोकता है, पानी के रिसने की क्षमता बढ़ती है। पेड़ पौधों के आवरण के अभाव में बड़ी नालियाँ विरान बन जाती हैं। पेड़ पौधों के पत्ते वर्षा जल के वेग को कम करते हैं, और जड़ों द्वारा मिट्टी की पकड़ बनाने में मदद करती हैं। छोटे नालों में पौधे लगाने से उन्हें बड़े नालों में परिवर्तित करने से रोका जा सकता है।
भूक्षरण के लिए जल और तूफान ही नहीं अनियंत्रित पशुओं की चराई से भी विरान और बंजर जमीन बन जाती है। इसे कम किया जा सकता है, वानस्पतिक एवं अभियांत्रिक उपायों का सम्मिश्रित उपयोग से। उचित फासले में नालों पर अवरोधक बनाकर उपजाऊ मिट्टी को बहने से रोका जा सकता है। पथरीला आवरण नाले पर बनाने से जल की तीव्रता को कम किया जा सकता है।
बिखरी हुई खंतियों (Staggered Trenches) की मजबूती को बढ़ाने के लिए, बाँधों पर पेड़ पौधे लगाने होंगे, जैसे रामबाण के पौधे। (रामबाण) रस्सी बनाने के काम आते हैं। इससे बंजर और पथरीली जमीन पर मनोहर हरियाली छा जाती है।
ढ़लान पर सीढ़ियाँ बनानाः- बाँधों पर पेड़ पौधों को न लगाने की वजह से, भूमि के कटाव की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं।
छोटे-छोटे जल प्रबन्धन विकसित करने से भूजल में वृद्धि होती है, और स्रोतों में वर्ष भर जल उपलब्ध रहता है। निश्चित जल आपूर्ति से खेती में जोश उत्पन्न होता है जिससे कि प्रति हेक्टेयर कुल कार्य दिवसों (दिनों) में वृद्धि होगी तो गाँवों से युवाओं के पलायन (Migration) में भी कमी आएगी। खेतों की उत्पादकता बढ़ेगी और पशुओं के लिए भरपूर चारा मिलेगा। जमीन और पानी प्रकृति की बहुमूल्य वस्तु हैं। इसलिए इनका संरक्षण एवं संग्रहण आवश्यक है।
सन अस्सी के दशक की शुरूआत के वर्षों में हरियाणा के अंबाला जिले में हिमालय की शिवालिक पहाड़ियों की श्रृंखला के बीच, बसे हुये सुखोमाजरी ग्राम के निवासियों ने अपने लाभ के लिये जिस तरह अपने वन व जल-संसाधनों का प्रयोग किया था, उसके लिये राष्ट्र ने प्रशंसा प्राप्त की। परन्तु इस बात की कल्पना तो शायद उन्होंने भी नहीं की थी, कि जिस 400 हेक्टेयर के खैर के जंगल को वह पाल कर बड़ा कर रहे थे उसकी कीमत एक दिन करोड़ों रुपयों की हो जायेगी।
अनुमानित तौर पर 5000 खैर के पेड़ अब सुखामाजरी के जंगल में जवान हो गये हैं। एक हजार रुपये प्रति कुन्टल इमारती लकड़ी की औसत कीमत के हिसाब से, उन पेड़ों से अब 50 लाख रुपये की इमारती लकड़ी उपलब्ध हो सकती है। एक कुन्टल खैर की लकड़ी से पान व रंगाई कार्य में प्रयोग होने वाला लगभग 6 किलोग्राम कत्था निकलता है। 800 रु. प्रति किलोग्राम के हिसाब से इन जंगलों की कीमत में एक करोड़ रुपये की वृद्धि हो सकती है। इन जंगलों में लगभग 5000 पेड़ प्रतिवर्ष बड़े होंगे।
सुखोमाजरी - प्राकृतिक सम्पदा से परिपूर्ण गाँव
सुखोमाजरी के खैर के जंगल अब वास्तव में सोने की खान हैं व ग्रामवासी अब इनसे होनी वाली कमाई में अधिकतम हिस्से की माँग कर रहे हैं। अगर यह माँग मान ली जाती है तो इन वनों की सुरक्षा करने के लिये उनकी गारण्टी हमेशा के लिए प्राप्त की जा सकती है। वर्तमान में केवल कृषि के लिये पानी व भाभर घास से अल्पकालीन लाभ तक ही उनका ध्यान केन्द्रित है। इतने से भी ग्रामवासियों की वार्षिक प्रति व्यक्ति आय दो हजार रुपयों से अधिक है।
जंगल के संसाधनों पर ग्रामवासियों का कितना अधिकार है ? दरअसल, सुखोमाजरी की उन्नति का कारण है, 1976 से लागू किया गया संयुक्त वन प्रबन्धन का कार्यक्रम।
हालाँकि सुखोमाजरी के ग्रामवासी अपने जंगलों से अधिकतम, लाभ पाना चाहते हैं, हरियाणा वन विभाग द्वारा प्रस्तावित बिल में यह उल्लेख है कि उन्हें केवल पच्चीस प्रतिशत लाभ प्राप्त होगा, संयुक्त वन प्रबन्धन लागू होने से पहले वन में पेड़ों का घनत्व चालीस प्रतिशत से अधिक था।
हरियाणा के प्रमुख वन संरक्षक श्री गुरनाम सिंह का कहना है कि लोगों को भाभर व अन्य घासों से तत्कालिक मुनाफा हुआ है। अगर इमारती लकड़ी के मामले में भी हम लोगों का पक्ष लेते हैं तो सरकारी कोष को नुकसान होगा।
परन्तु केन्द्रीय मृदा व जल संरक्षण अनुसंधान व प्रशिक्षण संस्थान, चण्डीगढ़ के भूतपूर्व कर्मचारी श्री पी.आर.मिश्रा, जिन्होंने सुखोमाजरी भागीदारी प्रबन्धन परियोजना को प्रारम्भ किया था, सामुदायिक विकास के लिये धन जुटाने के लिये मुनाफे के 60 प्रतिशत हिस्से पर जोर दे रहे हैं। इसके अलावा उन्होंने मुनाफे के 10 प्रतिशत हिस्से को अन्य गाँव में बेकार पड़ी भूमि को विकसित करने के लिये एक ‘कल्याण कोष’ बनाने के लिये भी बल दिया है।
समृद्धि बढ़ने के साथ-साथ, सुखोमाजरी के ग्रामीण निवासी सम्पदा को बनाने में आर्थिक आत्मनिर्भरता के मामले में जागरूक होने लगे हैं। ग्राम वासियों द्वारा अपनी संस्था-हिल रिसोर्स मैनेजमेंट सोसायटी वन विभाग से लीज पर ली गई भाभर घास को ठेकेदारों को नीलाम कराना बन्द कर दिया है। सोसायटी के कोषाध्यक्ष प्रकाश चन्द्र मेलू के अनुसार, “जब हम पेपर मिलों को घास सीधे तौर पर बेच सकते हैं तो हम दूसरे व्यक्तियों को लाभ क्यों पहुँचायें?” उन्हें कम से कम दस हजार रुपये प्रति वर्ष मुनाफा कमाने की उम्मीद है।
आज गाँव में मौजूदा 83 परिवारों ने अपने कच्चे व मिट्टी-गारे से बने घरों की जगह ईंट व पक्के सीमेंट के मकान बना लिये हैं। उनमें से सभी घर प्राकृतिक सम्पदा का दोहन करके अब साधन सम्पन्न जीवन व्यतीत कर हरे हैं। सुखोमाजरी के श्री जेठू राम का कहना है कि यह कौन विश्वास करेगा कि केवल घास व पानी के दम पर टेलीविजन, फ्रिज, ट्रैक्टर, थ्रैशिंग मशीन, स्कूटर, मोटर साइकिल व साइकिलें प्राप्त की जा सकती हैं।
1980 में, सोसायटी बनने के केवल पाँच वर्ष बाद, परिवारों की औसत वार्षिक आमदनी 10,000 से लेकर 15,000 रुपये तक थी। हरियाणा वन विभाग में संरक्षक एस.के.धर कहते हैं “सहभागिता से भूमि का मुल्य बढ़ा है, यह साबित हुआ है।” आय में वृद्धि का मुख्य कारण है प्राकृतिक पुनरूत्पादन में बढ़ोतरी। श्री धर के अनुसार 1976 के मुकाबले में तेरह पेड़ प्रति हेक्टेयर से बढ़कर 1990 शुरूआती दशक में, एक हजार दो सौ बहत्तर पेड़ हो गये। इसी प्रकार घास की मात्रा भी 40 कि.ग्रा. प्रति हेक्टेयर से बढ़कर 3 हजार कि.ग्रा. हेक्टेयर हो गई। 1989 में आयकर अधिनियम में संशोधन के पश्चात यह सोसायटी भी इसके अन्तर्गत आ गई। जिस में सम्पूर्ण सुखोमाजरी भी शामिल है सुखोमाजरी अब उन कुछ गाँवों की श्रेणी में आ गया है जो आयकर देते हैं। परन्तु सोसायटी ने अपने 15 प्रतिशत आयकर माफ करा लिया। अब सोसायटी केवल भाभर घास पर बिक्री कर देती है। इस कर के अलावा घास को हिमाचल प्रदेश में स्थित पेपर मिलों में ले जाने की चुँगी भी सौ रुपये प्रति गाड़ी के हिसाब से देनी पड़ती है।
सुखोमाजरी से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ताओं के अनुसार यह चुँगी लिया जाना अनुचित है। प्राकृतिक संसाधन प्रबन्धन विशेषज्ञ मधु सरीन कहती हैं, “यह आश्चर्यजनक है कि निकट में मौजूद बल्लारपुर इंडस्ट्रीज लिमिटेड, जो कागज का निर्माण करती है, उसे सरकार भाभर घास खरीदने के लिये छूट देती है।” इसके विपरीत गाँववालों को यह साबित करना पड़ता है कि उन्होंने भाभर घास का व्यावसायिक उपयोग नहीं किया है।
मॉडल प्रोजेक्ट
इन फायदों से सुखोमाजरी का यह दावा मजबूत हुआ है कि संसाधनों की भागीदारी प्रबन्धन का वह एक उत्कृष्ट मॉडल है। परती भूमि विकास सोसायटी के श्री आर.के.मुखर्जी का कहना है, “यह परियोजना बिना किसी रूपरेखा के चली व इसमें जैसे-जैसे लोगों में आत्म-विश्वास की भावना बढ़ती गई वैसे-वैसे सहभागिता भी बढ़ती गई।”
चण्डीगढ़ में सुखना झील में बार-बार मिट्टी भर जाने के कारण से यह परियोजना 1970 में आरम्भ की गई। मिश्रा जी ने झील के जलग्रहण क्षेत्र में बसे सुखोमाजरी गाँव में चार चेकडेम बनाये व वृक्षारोपण किया। परन्तु उनका यह प्रयास असफल रहा क्योंकि गाँव वाले चण्डीगढ़ की जल समस्या के प्रति चिन्तित नहीं थे। श्री मिश्रा जी मानते हैं “ग्रामवासी श्री दौलतराम के एक कथन ने अधिकारियों की आँखें खोल दी। दौलतराम ने कहा था कि आप सब जंगल में जाकर उस समस्या का हल खोजने की कोशिश न करें जिसकी जड़ गाँव में है।”
संरक्षण के प्रति गरीब ग्रामवासियों के मन में कहीं स्थान न था। वह अपने खाद्य, चारा व ईन्धन की जरूरतों को नष्ट हुये जंगल से पूरा नहीं कर पाते थे। जब वनाधिकारियों ने चराई पर रोक लगाई, तो उन्होंने भूमि-संरक्षण के निर्माणों को विरोध स्वरूप तोड़ दिया व रात्रि में लकड़ी की चोरी भी की।
ग्रामवासियों के खेमे में 1977 में बदलाव आया जब पानी के चार टैंक एक के बाद एक बनाये गये। इनसे पानी इकट्ठा करने की क्षमता बढ़ी व 1977 में ही अनाज उत्पादन भी 6.83 क्विंटल प्रति हेक्टेयर से बढ़ कर 1986 में 14.32 क्विंटल प्रति हेक्टेयर हो गया। ग्रामवासी श्री हरिकिशन के अनुसार “पानी और जंगल गाँव की तरक्की के जड़ हैं।” पानी बदलाव का मुख्य कारण था क्योंकि गाँव की खेती केवल बरसाती पानी पर निर्धारित थी और उत्पादकता बहुत कम थी। पानी के बदले में गांव वाले जलग्रहण क्षेत्र की रक्षा करने को तैयार थे, और इस तथ्य को गाँव वासियों तक पहुँचाने में सफल रहे श्री मिश्रा जी।
पानी की भागीदारी
कुछ समय तक ग्रामवासियों में पानी के बँटवारे को लेकर तनाव था, पर इस समस्या का निदान सोसायटी ने किया। उसने पानी के कूपन हर परिवार को जारी कर दिये जिन्हें आपास में बदला या बेचा भी जा सकता था। इससे भूमिहीन परिवार जल के अपने हिस्से को बेच कर अपनी आमदनी में बढ़ोतरी कर सकते थे। इतने साल बाद पानी के कूपनों की योजना अब लगभग खत्म हो चुकी है परन्तु इससे कोई गम्भीर झगड़े आदि की नौबत नहीं आई क्योंकि भाभर घास व चारे के अधिक उत्पादन से उनकी आय में बढ़ोतरी हुई। सुखोमाजरी के उदाहरण से प्रभावित होकर हरियाणा वन विभाग ने इस मॉडल को शिवालिक की पहाड़ियों के अन्य गाँव में लागूू किया लेकिन सुखोमाजरी की भाँति इन गाँवों में यह योजना सफल नहीं हो सकी क्योंकि इन गाँवों में कई जातियों के लोग रहते थे। जबकि सुखोमाजरी में केवल एक ही जाति थी।
उदाहरण स्वरूप लोहगड़ में हरिजनों ने कुछ जाति के लोगों के खिलाफ दमन करने का आरोप लगाया। एक हरिजन महिला द्वारिका देवी कहती है, “जब हम लोग जंगल से लकड़ी के मोटे लट्ठे लाते हैं तो हमें तंग किया जाता है। जबकि ऊँची जातियों के सदस्यों को कोई नहीं टोकता।” द्वारिका देवी के अनुसार उन्हें लोहगड़ में सोसायटी की मीटिंग की खबर भी नहीं दी जाती है। एक पर्यवेक्षक का दावा है, “ऊँची व नीची जातियों के बीच में अन्तर साफ दिखाई पड़ता हैं क्योंकि ऊँची जातियों ने अधिकतर फायदों को अपनी तरफ समेट लिया है।”
संसाधनों पर विवाद
संसाधनों के बँटवारे को लेकर आम समस्या न केवल ग्रामवासियों के बीच में थी बल्कि गाँवों के बीच भी थी। एक बार धमाला व सुखोमाजरी का आपस में जलागम व पानी को लेकर विवाद हो गया। इस समस्या का हल धमाला के निवासियों के लिये एक अलग बाँध बनाकर निकाला गया।
सूखे व धन की कमी से उत्पन्न समस्या से सहकारी प्रणाली के टूटने का खतरा भी पैदा हो जाता है। 1987-88 में पड़े सूखे के दौरान सुखोमाजरी के निवासी एक-दूसरे के साथ रहे क्योंकि उन्हें चेकडेम के फायदों का ज्ञान हो चुका था। सोसायटी को भी कभी-कभी ग्रामवासियों का सहयोग न मिलने की दशा में बाहरी सहायता लेने को बाध्य होना पड़ता था।
संसाधनों का विकास
यह सर्वथा मान लिया गया कि जल संरक्षण करना बहुत जरूरी हैं क्योंकि इससे घास इत्यादि जैसे वन संसाधनों में वृद्धि होती है। जेठू राम के अनुसार जब सदस्यों को यह लगता है कि उनके आपसी सहयोग से फायदा होगा तो वे साथ रहते हैं।
सहभागिता प्रबन्धन से सफाई, जल-निकासी व सामुदायिक विकास के अन्य पहलुओं पर किये गये विभागीय निवेश की उपयोगिता बढ़ाई जा सकती है। उदाहरण स्वरूप धमाला गाँव में ग्रामवासी एक परियोजना को भरपूर सहायाता दे रहे हैं जिसमें सरकार द्वारा शौचालयों का निर्माण हो रहा है और सामग्री उपयोगी कर्ताओं द्वारा उपलब्ध कराई गई है। जो ग्रामवासी इसमें सहयोग नहीं दे सकते हैं उनकी मदद के लिये सोसायटी हाथ बढ़ाती है।
दल-दल भूमि का सुधार
सुखोमाजरी में नालियों से पत्तियों को इकट्ठा करके खाद बनाई जाती है। स्थानीय लोगों ने सूरजपुर के सिमेंट कारखाने के सहयोग से एक दल-दल भूमि का उद्धार किया है। उस क्षेत्र में अनुपयोगी सिमेंट को डालकर इसे समतल कर दिया गया है।
ऐसी बात नहीं है कि समस्याएँ नहीं हैं। सुखोमाजरी परिवार अब तक मछली-पालन, रस्सी बनाना व सिट्रोनेला घास के संयन्त्र लगाने के क्षेत्रों में असफल रहा है। इन गतिविधियों में कुछ व्यक्तियों ने प्रबन्धन कार्य किया तो है, परन्तु विवाद ही हुआ है।
हालाँकि, प्राकृतिक पुनरूत्पादन ने बहुत फायदे पहुँचाये हैं, उससे जंगली जानवर भी आने लगे हैं जो फसलों को नुकसान पहुँचाते हैं। परेशान ग्रामीणों को पहरेदारी करते-करते रात बितानी पड़ती है व उनकी जानवरों से शत्रुता हो गई है।
लेकिन जेठू राम कहते हैं “जब तक हमारा हक होगा तब तक सब कुछ सम्भाल लेंगे।” अब केवल यह देखना है कि क्या सुखोमाजरी के खैर के जंगल पर उसका व अन्य गाँववालों का अधिकार माना जायेगा या नहीं।
रालेगण सिद्धी-एक आदर्श गाँव
महाराष्ट्र राज्य के अहमदनगर जिले में बसा हुआ एक छोटा सा हरा-भरा गाँव-रालेगण सिद्धी। महाराष्ट्र सरकार ने इसे एक आदर्श गाँव की मान्यता दी है, जहाँ सुःख एवं समृद्धि दोनों का ही वास है। लोग एकता से मिलजुलकर कार्य करते हैं। पीने के पानी एवं खेतों में पानी की कोई कमी नहीं है। घास, चारा एवं वृक्षों की छत्रछाया से पर्यावरण शुद्ध है। कुल्हाड़बंदी, नसबंदी, नशाबंदी, घास चराई बंदी और श्रमदान, ये पाँच नियम, लोगों के जीवन का हिस्सा बन गई है।
35 साल पहले का रालेगण
1970 के दशक में रालेगण सिद्धी बहुत ही गम्भीर स्थिति में था। वृक्षों के अधिकतम कटान से जमीन बंजर नजर आती थी। भूमि की उपजाऊ मिट्टी वर्षा के पानी से बड़े पैमाने में बह कर चली जा रही थी। खेती और पीने के पानी की समस्या निरन्तर बढ़ती जा रही थी। रोजगार के अभाव से ग्रामवासी शहर की ओर पलायन करने लगे थे। पक्षीय राजनीति के कारण ग्राम वासियों के बीच विवाद एवं आपसी मतभेद बढ़ने लगे। पेट की खातिर लोगों ने घर में शराब के ठेके खोल लिए। लगभग सारा गाँव नशीले पदार्थों के सेवन का आदी बन गया। अपर्याप्त बरसाती पानी पर आधारित खेती से जो भी पैदावार होती, साहुकार महाजन ब्याज के रूप में उसे निगल जाते। घर-घर में दरिद्रता, अज्ञान, बीमारियाँ, दुःख, अशान्ति, बेचैनी बसी हुई थी।
समाजसेवा का मंदिर
इसी समय सेना से निवृत्त हुए रालेगण सिद्धी के वासी, किशन बाबूराव हजारे ने गाँव की स्थिति को सुधारने का संकल्प लिया। गाँव की युवक मंडली को अपने विश्वास में लेकर हजारे जी समाज सेवा के कार्य में जुड़ गए। सर्वप्रथम, गाँव के यादवबाबा मंदिर (जो एक उजड़ा खंडहर था) के पुनर्निमाण के लिए। इससे गाँव वालों को ग्राम विकास के लिये प्रेरणा एवं प्रोत्साहन मिला। मंदिर में युवा मंडलियों की बैठकें होने लगी, जिसमें आपस में दुनिया की प्रगति और गाँव के विकास के बारे में विचार विमर्श होने लगे। गाँव श्रद्धा से हजारे जी को अण्णा (बड़ा भाई) कह कर पुकारने लगे।
व्यसन मुक्ति
अण्णा एवं युवा मंडली व्यसनमुक्ति की दिशा में मिलजुलकर प्रयास करने लगे। हर शराब की भट्टी पर जाकर, शराब के धन्धे बंद करने की प्रार्थना की। रोजी रोटी की समस्या सुलझाने के लिये सर्वप्रथम जलस्रोत विकास के बारे में गम्भीरता से विचार हुआ। जो लोग-चोरी-छिपे शराब बनाते थे, उनकी भट्टियाँ तोड़ने का कार्य युवकों ने अपने हाथ में लिया। शराबबंदी कार्यक्रम, शत प्रतिशत सफल हुआ।
जलस्रोत क्षेत्र विकास
सभी के लिए रोजी-रोटी उपलब्ध होगी, इसी आत्मविश्वास के साथ रालेगण सिद्धी में अण्णा हजारे के नेतृत्व में जलस्रोत विकास कार्य प्रारम्भ हुआ। इसमें सभी गाँव वालों ने अपने हाथ बटाये। गाँव के पश्चिम की ऊपरी छोर से नीचे, पूरब की तरफ मिट्टी और पानी को रोका गया। पहाड़ी पर जलशोषक नालियाँ खोदी गई। पहाड़ी और टीलों को पेड़-पौधे, घास लगाकर विकसित किया गया। इसके साथ-साथ बड़े पत्थरों के बाँधों का निर्माण किया गया एवं नीचे के उतार पर नालियाँ बंडिंग, तालाब एवं बाँध बनाए गए। जलस्रोत का पानी जिन नालियों में बहता है, वहाँ नालियों की चौड़ाई गई, और सीमेन्ट के पक्के बाँध, भूमिगत बाँध तथा गेबियन बाँधों का निर्माण किया गया। बरसाती पानी की हर बूँद को रोका गया और इस्तेमाल किया गया। पहले रालेगण सिद्धी में सिर्फ 70 से 80 एकड़ जमीन सिंचित थी पर अब जलस्रोत विकास के कारण 1100 से 1200 एकड़ सिंचित है।
पानी का नियोजन
रालेगण सिद्धी में पानी का वैज्ञानिक ढँग से नियोजन किया गया है। कुछ किसानों ने सामूहिक कुँओं के लिये सहकारी पानी आपूर्ति सोसायटी स्थापित की है। प्रत्येक किसान को पानी आपूर्ति का राशन कार्ड दिया गया है। बारी-बारी से उन्हें सिंचाई की पूर्ति की जाती है। प्रति वर्ष प्रति एकड़ रु. 60 से 70 सिंचाई शुल्क लिया जाता है। किसान भी पानी का सुव्यवस्थित ढँग से इस्तेमाल करते हैं।
वृक्षारोपण और पर्यावरण
रालेगण सिद्धी में पेड़ों का महत्व देखते हुए ग्रामवासियों ने वनीकरण बड़े पैमाने पर किया है। प्रत्येक वर्ष तीन से चार लाख पेड़ लगाए गए एवं देखभाल करके बढ़ाए गए। घास चाराई बंदी एवं कुल्हाड़बंदी का सम्पूर्ण गाँव ने पालन किया। पाँच सौ एकड़ जमीन में जहाँ जानवरों को चराया जाता था, वहाँ अलग से घास और ईंधन के लिये पेड़ लगाये गये। फलस्वरूप रालेगण सिद्धी में अब हरियाली छा गई।
अनाज बैंक
रालेगण सिद्धी में 15 से 20 प्रतिशत ग्रामवासियों की जमीन ऊँचाई पर होने से, जलस्रोत का लाभ वहाँ पर नहीं पहुँचता। पैदावार अनाज, वर्ष में तीन-चार महीनों के लिये कम पड़ता है। उनकी जरूरत पूरी करने की दृष्टि से रालेगण सिद्धी में अनाज बैंक शुरू किया गया। ग्रामसभा में सर्वसम्मति से लिये गये निर्णय के मुताबिक अधिक अनाज जिन किसानों की खेती में से मिलता है, वे दान के रूप में इस अनाज बैंक में 4/10/20 सेर अनाज जमा करते हैं। इस बैंक में प्रतिवर्ष 25 से 30 क्विंटल अनाज जमा होता है। लकिन यह किसी को भी मुफ्त में नहीं बाँटा जाता। रालेगण सिद्धी में अनाज के लिये आने वाले जरूरतमंदों के आवेदन पत्रों पर, ग्रामसभा में विचार-विमर्श किया जाता है और जरूरत के अनुसार अनाज का बँटवारा किया जाता है। उनके खेतों में अनाज की अच्छी पैदावार होने पर 20 प्रतिशत अधिक अनाज वसूल किया जाता है। बैंक की तरह अनाज बैंक का व्यवहार साफ-सुथरा चलता है, हेरा-फेरी नहीं होती। इस अनाज बैंक में ज्यादा जमा हुये अनाज का सदुपयोग गाँव के छात्रावास में रहने वाले गरीब बच्चों के भोजन के लिये एंव अन्य विकास कार्य के लिये किया जाता है।
ग्राम विकास में महिलाओं का योगदान
रालेगण सिद्धी के विकास कार्यों में महिलाओं का बहुत बड़ा योगदान रहा है। श्रमदान में वे हमेशा अग्रसर रहती है। पंचायत चुनाव में उन्हें सर्वसम्मति से निर्विरोध चुना गया। अब रालेगण सिद्धी में ग्राम पंचायत का कार्य महिलायें भलीभाँति से चला रही हैं। इसके अलावा महिलाओं के लिये कढ़ाई-बुनाई, कपड़े सीलने जैसे प्रशिक्षण की कक्षायें भी चलती हैं।
श्रमदान और स्वाबलंबन
रालेगण सिद्धी ने श्रमदान से स्वाबलंबन का, समाजहित में तरीका अपनाया। श्रमदान के दिन, काम के स्वरूप को ध्यान में रखते हुए तय किये जाते हैं। यहाँ परिवार के सदस्यों के अनुसार श्रमदान का बँटवारा किया जाता है। 15 दिनों में, एक दिन हर कोई श्रमदान के लिए देता है। रालेगण सिद्धी में स्कूल की इमारत छात्रावास, वृक्षारोपण, तालाब, सार्वजनिक कुएँ, नालियाँ, नहरें, छोटे बाँध जैसे कार्यों में ग्रामवासियों ने श्रमदान किया है। श्रमदान और स्वाबलंबन से रालेगण सिद्धी के विकास कार्यों को नई दिशा मिली है।
एक आदर्श गाँव
रालेगण सिद्धी में हर कार्य को ग्रामवासियों के सहयोग और सर्वसम्मति से किया जाता है। ग्रामसभा का निर्णय अंतिम माना जाता है। नसबंदी, नशाबंदी, चराईबंदी, कुल्हाड़बंदी जैसे सभी हितकारी नियम ग्रामसभा में लिये गये और सर्वसम्मति से अमल किये गये। संत यादवबाबा शिक्षण प्रसारक मंडल द्वारा शैक्षणिक कार्य सम्भाला जाता है। दूध विकास सोसायटी किसानों को दूध व्यवसाय के लिये सहायता करती है। किसानों से दूध एकत्रित करके, दूध डेयरी को भेजने का कार्य भी यह सोसायटी करती है। सात सामूहिक पानी आपूर्ति संस्थायें किसानों को सामुहिक कुँओं से पानी आपूर्ति का कार्य सम्भालती हैं। महिलाओं पर होने वाले अन्याय दूर करने में महिला मंगल का बड़ा योगदान रहा है। युवामंडल द्वारा सांस्कृतिक और सामजिक कार्यों की जिम्मेदारी निभाई जाती हैं। यहाँ की संस्थाएँ पंजीकृत हैं एवं हिसाब-किताब बिल्कुल सही रखा जाता है। प्रतिवर्ष हर संस्था का लेखा-जोखा एवं हिसाब ग्राम सभा को प्रस्तुत किया जाता है एवं उनकी सहमति और मान्यता ली जाती है।
रालेगण सिद्धी में आई क्रान्ति की प्रक्रिया भारत के अन्य गाँव में भी होनी चाहिये। जिससे हर गाँव एक आदर्श गाँव के रूप में उभर सके।
रालेगण सिद्धी (डॉक्युमेन्टरी फिल्म का सार)
रालेगण सिद्धी जो कि आकलग्रस्त गाँव था और अब समृद्धशाली गाँव बन गया, अन्ना हजारे के प्रयासों से। गाँव में पीने को पानी नहीं था और इसी समस्या से त्रस्त थे, गाँववासी। इसी बीच 1965 में भारत पाकिस्तान युद्ध के पश्चात ऐच्छिक सेवा निवृत्ति लेकर किसान राव बाबु उर्फ अन्ना हजारे ने ईश्वर निष्ठा एवं गाँधीवादी मानवता रूपी सोच लेकर गाँव के लोगों को संगठित किया। कर्म भावना एवं जागरूकता लाकर समाज में गतिशीलता लाए। लोगों की साल में एक बार पानी न मिलने वाली जमीन को, साल में दो बार सींचने का अवसर मिला। और ये तभी सम्भव हो पाया, जब उन्होंने वर्षा जल की बूँद-बूँद को बचाकर संरक्षित किया। लोगों की नैसर्गिक मदद से संसाधनों का प्रबन्धन करके उत्पादन बढ़ाया गया और मनचाही फसलों को उगाया गया। खेती के साथ बागवानी को महत्ता दी। उत्पादन क्षमता और उत्पादकात में वृद्धि हुई।
गाँव में दूध 250 लीटर नहीं होता था। लोग 15 से 20 गाय, भैंस पालते थे, परन्तु जब उन्होंने गाँव वालों को, मवेशियों की उत्पादक क्षमता बढ़ाने के लिए प्रेरित किया तब गाँव से 3000 लीटर दूध बाहर के गाँवों को बेचने जाने लगा। उन्होंने गाँव के लोगों को वैकल्पिक ऊर्जा के रूप में सौर ऊर्जा, बायोगैस प्लाण्ट के इस्तेमाल पर बल दिया।
उन्होंने गाँव के लोगों को पाँच सूत्रोंः नसबंदी, नशाबंदी, चराइबंदी, कुल्हाड़बंदी एवं श्रमदान के लिए प्रेरित किया।
कम खर्च में गामीणों के लिए अस्पताल में बेहतर चिकित्सा सुविधा मिले इसके लिए 60 महिलाओं को 1 साल का प्रशिक्षण दिया गया। इसके अतिरिक्त पशु उपचार केन्द्र की स्थापना की गयी।
उन्होंने आने वाली पीढ़ी के बच्चों को संस्कारित कर, आत्मनिर्भर बनाकर, जीवन मूल्यों को शिक्षण केन्द्र सम्मिलित कर उज्जवल शक्तिप्रदान करने पर बल दिया। उन्होंने विद्यार्थियों के लिए कम्प्यूटर प्रशिक्षण अनिवार्य किया। इसके लिए उन्होंने गाँव के लोगों को प्रेरित कर सहभागिता के माध्यम से 17-18 कम्प्यूटर स्कूल को दान किये। उन्होंने विद्यार्थियों के पूर्ण विकास के लिए, ज्ञान के साथ तंदरूस्ती को भी महत्व दिया। जिसमें नेतृत्व, खिलाड़ीपन और अनुशासन पर विशेष बल दिया जाता था।
सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए, उन्होनें दलितों को 60,000 रु. कर्ज से मुक्ति दिलाई, जिसके लिए, गाँववासियों ने संयुक्त रूप से 2 साल तक दलितों के खेतों में श्रमदान किया और उन्हें कर्ज मुक्त किया। परिवर्तन की कड़ी में उन्होंने एक नई सामाजिक व्यवस्था बनाई, जिसमें तीज (महाराष्ट्र में मनाया जाने वाला हिन्दुओं का धार्मिक त्यौहार) के अवसर- पाटिलों के बैलों की पूजा बाद में कर, पहले दलितों के बैलों की पूजा की जाने लगी और अब यही सामाजिक व्यवस्था बन गई है। इसलिए समाज में परिवर्तन जरूरी है।
गाँव के लोग वृद्धों को अपने माता पिता समझते हैं। और उन्हें पूर्ण रूप से मान सम्मान दिया जाता है। रालेगण सिद्धी में सभी जाति, समुदायों के लोगों के सामूहिक विवाह का प्रचलन है। जिसमें एक साथ 40-50 युवक-युवतियों का विवाह सामूहिक रूप से एक ही मंडप में किया जाता है।
रालेगण सिद्धी में, पराक्रमी लोगों को विशेष रूप से सम्मान दिया जाता है। वर्ष में एक बार रात का भोजन आयोजित करके ग्राम परिवर्तन दिन मनाते हैं और ये व्यवस्था रालेगण सिद्धी में अभी भी प्रचलित है। रालेगण सिद्धी में विभिन्न महिलाओं की बचत योजनाएं चल रही हैं, और वहाँ की महिलाएं अपने अधिकारों के प्रति सजग हैं।
ग्राम सभा, विधान सभा और लोक सभा से ऊपर होती है। स्वावलंबन एवं सम्पूर्णता ही रालेगण सिद्धी का ध्येय है, और जिसमें ग्राम सभा का सक्रिय योगदान रहता है।
अन्ना हजारे का मानना है कि आबदी तो बढ़ रही है, परन्तु सामाजिक निष्ठा वाले लोगों की कमी निरन्तर हो रही है। परन्तु सत्यनिष्ठा एवं ईश्वर में विश्वास रखने वाले अन्ना हजारे ने, रालेगण सिद्धी को एक आदर्श गाँव बनाने में एक दीप स्तम्भ की भूमिका अदा की है।
सुनहरी धरती (डॉक्यूमेन्टरी फिल्म का सार)
जल ही जीवन है, पानी मनुष्य को प्रकृति की देन है, जो होठों पर गीत लाता है, और जीवन में सम्पन्नता। यदि जल का प्रबन्धन उचित किया जाए तो जल मित्र है, और लापरवाही बरती जाए, तो यही जल अभिशाप बन जाता है। यदि वर्षा अधिक होती है तो, फसलों को नुकसान पहुँचता है और यदि वर्षा का अभाव हो तो भी अकाल की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। दोनों ही स्थितियों में किसान की त्रासदी ही रहती है इसलिए वर्षा जल का संरक्षण और संग्रहण कर अकाल की स्थिति से निपटा जा सकता है। इसके लिए वानस्पतिक और अभियांत्रिक उपायों का सम्मिश्रित प्रयोग करके जल एवं मृदा का संरक्षण किया जा सकता है, जिससे मिट्टी की उत्पादकता को बनाये रखते हुए, उत्पादन क्षमता बढ़ायी जा सकती है।
1. मिट्टी के छोटे-छोटे बाँध बनाकर बंजर जमीन को उपजाऊ बनाया जा सकता है।
2. जल संग्रहण करके भूजल आपूर्ति में वृद्धि होती है।
3. समोच्च (Contour) बाँध बनाकर खेती करना मिट्टी को क्षरण से बचाने के लिए रेखाएँ बनाने के लिए (Dump Level) की जरूरत नहीं होती है। यह उपजाऊ मिट्टी को रोकता है, पानी के रिसने की क्षमता बढ़ती है। पेड़ पौधों के आवरण के अभाव में बड़ी नालियाँ विरान बन जाती हैं। पेड़ पौधों के पत्ते वर्षा जल के वेग को कम करते हैं, और जड़ों द्वारा मिट्टी की पकड़ बनाने में मदद करती हैं। छोटे नालों में पौधे लगाने से उन्हें बड़े नालों में परिवर्तित करने से रोका जा सकता है।
भूक्षरण के लिए जल और तूफान ही नहीं अनियंत्रित पशुओं की चराई से भी विरान और बंजर जमीन बन जाती है। इसे कम किया जा सकता है, वानस्पतिक एवं अभियांत्रिक उपायों का सम्मिश्रित उपयोग से। उचित फासले में नालों पर अवरोधक बनाकर उपजाऊ मिट्टी को बहने से रोका जा सकता है। पथरीला आवरण नाले पर बनाने से जल की तीव्रता को कम किया जा सकता है।
बिखरी हुई खंतियों (Staggered Trenches) की मजबूती को बढ़ाने के लिए, बाँधों पर पेड़ पौधे लगाने होंगे, जैसे रामबाण के पौधे। (रामबाण) रस्सी बनाने के काम आते हैं। इससे बंजर और पथरीली जमीन पर मनोहर हरियाली छा जाती है।
ढ़लान पर सीढ़ियाँ बनानाः- बाँधों पर पेड़ पौधों को न लगाने की वजह से, भूमि के कटाव की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं।
छोटे-छोटे जल प्रबन्धन विकसित करने से भूजल में वृद्धि होती है, और स्रोतों में वर्ष भर जल उपलब्ध रहता है। निश्चित जल आपूर्ति से खेती में जोश उत्पन्न होता है जिससे कि प्रति हेक्टेयर कुल कार्य दिवसों (दिनों) में वृद्धि होगी तो गाँवों से युवाओं के पलायन (Migration) में भी कमी आएगी। खेतों की उत्पादकता बढ़ेगी और पशुओं के लिए भरपूर चारा मिलेगा। जमीन और पानी प्रकृति की बहुमूल्य वस्तु हैं। इसलिए इनका संरक्षण एवं संग्रहण आवश्यक है।
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