जमीनी स्तर पर अधिक कामयाबी न मिल पाने की वजह किसी योजना की कमी, धन का अभाव, प्रौद्योगिकी का अभाव अथवा सामुदायिक भागीदारी की कमी नहीं है, बल्कि इन सभी में समुचित तालमेल के अभाव के कारण ही ऐसा हो रहा है। जब तक सरकारी पहल में इसके सभी अंगों का समन्वय नहीं होगा और उसको लोगों का सम्पूर्ण समर्थन एवं योगदान नहीं मिलेगा, प्रौद्योगिकी का समुचित लाभ हमारे समाज में निम्नतम स्तर तक नहीं पहुँच सकेगा।कुछ माह पूर्व मैं राजस्थान के झुंझुनू जिले के केसरी गाँव की यात्रा पर रवाना हुआ। काम था दूरदर्शन के राष्ट्रीय नेटवर्क पर प्रसारित होने वाले मेरे विज्ञान कार्यक्रम ‘टर्निंग प्वाइण्ट’ के लिए एक ‘स्टोरी’ कवर करना। विज्ञान एवं प्रौ़द्योगिकी विभाग से मुझे केवल एक पंक्ति की जानकारी दी गई थी कि केसरी गाँव में विलोम रसाकर्षण (रिवर्स ऑसमॉसिस) संयन्त्र 3 वर्ष से काम कर रहा है जो खारे पानी (अत्यधिक फ्लोराइड तत्व युक्त) को मीठे पानी में बदल रहा है। इस घटना को कवर करने के लिए मुझे जिस बात ने प्रेरित किया वह रिवर्स ऑसमॉसिस, जैसी उच्च स्तरीय प्रौद्योगिकी नहीं थी, बल्कि यह सच्चाई थी कि यह प्रौद्योगिकी एक ठेठ गाँव में भली-भाँति काम कर रही थी और वह भी पिछले तीन वर्षों से। मुझे कौतूहल तो था, पर कुछ-कुछ सन्देह भी था। भारत में पिछले 10 वर्ष के वैज्ञानिक विकास का मेरा जो अनुभव था, उसे देखते हुए ठेठ मैदानी स्तर पर प्रौद्योगिकियों की प्रभावी सफलता की कोई कहानी मुझे याद नहीं आ रही थी।
मैदानी स्तर पर अपनाई जाने योग्य तमाम सफल प्रविधियों, देश के हजारों वैज्ञानिक संस्थानों में पर्याप्त वैज्ञानिक जनशक्ति की मौजूदगी; सरकार के पास विकास हेतु पर्याप्त धनराशि होने और उपयोगी प्रविधियों की आवश्यकता के बावजूद मुझे ऐसी किसी सफलता की कहानी याद नहीं आ रही थी। अतः ऐसी कौन-सी बात थी जो हमारे समाज के सबसे निचले तबके तक प्राविधिक सफलता का लाभ पहुँचा रही थी। मुझे उम्मीद थी कि 6 घण्टे की यात्रा के अन्त में इस प्रश्न का उत्तर मिल सकेगा।
हम जब केसरी पहुँचे, तो प्रौद्योगिकी को सफलतापूर्वक अपनाए जाने के कारण देश भर के गाँवों के लिए आदर्श बने होने की अपनी हैसियत से बेखबर यह गाँव उत्तर भारत के एक अलसाए गाँव जैसा ही लगा। गाँव को यह अन्दाजा नहीं था कि उसने अपनी सफलता की कहानी सबको बताने के लिए टेलीविजन का ध्यान भी आकर्षित कर रखा था। स्थानीय गैर-सरकारी संगठन ‘समग्र विकास संस्थान’, जिसने वैज्ञानिकों की टीम और ग्रामीणों के बीच एक जीवन्त सम्पर्क का काम किया था, अब यही काम हमारे लिए भी कर रहा था। हमने अपने काम की शुरुआत सबसे पहले संयन्त्र देखने से की। आर.ओ. (रिसर्व ऑसमॉसिस) का विकास और निर्माण गुजरात के भावनगर स्थित केन्द्रीय नमक और समुद्री रसायन अनुसन्धान संस्थान (सीएमएमसीआरआई) के वैज्ञानिकों ने देश में ही किया था। धनराशि की व्यवस्था विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग, नई दिल्ली ने की थी। जिस छोटे से भवन में यह संयन्त्र लगा हुआ था, उसे राजस्थान सरकार ने उपलब्ध कराया था। राजस्थान सरकार ने ही विशाल जलाशय का निर्माण कराने के अलावा संयन्त्र के मासिक बिजली बिल के भुगतान का जिम्मा ले रखा था। परन्तु असली प्रश्न अभी भी अनुतरित था। हमने एनजीओ के स्थानीय गाइड से पूछा- ‘संयन्त्र किस तरह चलाया जा रहा है?' इस प्रश्न का हमें जो उत्तर मिला, उसने हमारी घण्टे की यात्रा और इस समाचार को कवर करने के निर्णय को सार्थक कर दिया।
जब सभी सुविधाएँ उपलब्ध थीं तो जरूरत थी कि यह संयन्त्र कुशलतापूर्वक चले और इसके लिए समूचा गाँव सामने आ खड़ा हुआ था। रिवर्स ऑसमॉसिस के बारे में कुछ न पता होने के बावजूद, वे इस संयन्त्र को चलाने की जिम्मेदारी लेने को तैयार थे। एक लम्बे अरसे से फ्लोराइड के अतिरेक का अभिशाप झेलने को मजबूर केसरी गाँव वालों के मन में संयन्त्र को चलाने में तकनीकी समस्या को लेकर कोई शंका नहीं थी। गाँव के अनेक युवा तीस-चालीस वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते अपने खेत गंवा चुके थे। और जब हमारी मुलाकात इसी तरह के युवक पोकर राम से हुई तो हमें किसी सबूत की जरूरत नहीं रही। पोकर राम के मुँह में एक भी दाँत नहीं था, परन्तु संयन्त्रों को लेकर उसको कोई मलाल नहीं था। उसे तसल्ली थी कि गाँव के बच्चों को तो अब इस हालत से नहीं गुजरना पड़ेगा।
आर.ओ. (रिसर्व ऑसमॉसिस) का विकास और निर्माण गुजरात के भावनगर स्थित केन्द्रीय नमक और समुद्री रसायन अनुसन्धान संस्थान (सीएमएमसीआरआई) के वैज्ञानिकों ने देश में ही किया था। धनराशि की व्यवस्था विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग, नई दिल्ली ने की थी। जिस छोटे से भवन में यह संयन्त्र लगा हुआ था, उसे राजस्थान सरकार ने उपलब्ध कराया था। राजस्थान सरकार ने ही विशाल जलाशय का निर्माण कराने के अलावा संयन्त्र के मासिक बिजली बिल के भुगतान का जिम्मा ले रखा था।इसी तरह के प्रेरक विचारों से भरे केसरी गाँव ने कार्रवाई की ओर पहला कदम बढ़ाया। पंचायत बुलाई गई और लोगों से निविदाएँ मंगाई गई। संयन्त्र को चलाने और उसकी देखभाल करने के लिए जिसकी निविदा सबसे कम होगी, उसे ही संयन्त्र को चलाने की जिम्मेदारी सौंपी जानी थीं। जिस व्यक्ति का इस कार्य के लिए चयन किया गया, उसने संयन्त्र को चलाने के लिए केवल एक हजार रुपए प्रतिमाह का प्रस्ताव रखा था। इस राशि में संयन्त्र को चलाने वाले शिवराम नामक एक लड़के का वेतन भी शामिल था। हाई स्कूल पास इस लड़के का चयन गाँव वालों ने ही किया था और वैज्ञानिकों ने चलाने का प्रशिक्षण दिया था। इस राशि के संग्रहण के लिए पंचायत ने गाँव वालों पर कर लगाने का एक अनूठा तरीका अपनाया। कर लगाने का आधार था पारम्परिक ‘अंग’ प्रणाली, जिसका अर्थ था प्रत्येक परिवार द्वारा खर्च की जाने वाली पानी की सबसे कम मात्रा (इकाई) परम्परा के अनुसार गाँव के प्रत्येक परिवार को परिवार के प्रत्येक सदस्य और मवेशी के अनुपात में भुगतान करना होता था और इसमें केवल एक सुखद अपवाद था कि परिवार की बेटियों को इससे मुक्त रखा गया था।
पिछले तीन वर्षों से काम ठीक-ठाक चल रहा है। शिवराम रोजाना संयन्त्र को चलाता है। उसे यह तो पता नहीं कि यह ‘क्यों’ काम करता है, परन्तु उसे यह अच्छी तरह मालूम है कि यह ‘कैसे’ काम करता है। उसे इस संयन्त्र को चलाने का प्रशिक्षण भावनगर के सीएसएमसीआरआई ने दिया है। संयन्त्र की क्षमता रोजाना 35 हजार लीटर खारे पानी को शुद्ध पानी में बदलने की है। संयन्त्र को चलाने की बाबत किसी सहायता के लिए वैज्ञानिकों से सम्पर्क करने से लेकर दिन में बिजली की स्थिति के बारे में निकटवर्ती विद्युत मण्डल से जानकारी लेते रहना शिवराम के ही जिम्मे है।
जैसे ही गाँव में बिजली आती है, शिवराम संयन्त्र को चलाने हेतु दौड़ पड़ता है। मशीन चलने की आवाज गूंजने लगती है। शुद्ध मीठा पानी टंकी में भरने लगता है। नालों के नीचे पानी भरने के बर्तन लगने लगते हैं। हम अस्सी वर्षीय सावन राम की ‘साउण्ड बाइट’ (प्रतिक्रिया) रिकॉर्ड करने के लिए उसके पास जाते है। साफ हिन्दी बोलने में असमर्थ सावन राम पूरी कहानी को हिन्दी और राजस्थानी की मिली-जुली भाषा में बयान करता है। ‘ये पानी पीकर, जी सोरो होवे’ (मैं जब यह पानी पीता हूँ, मेरी तबियत खुश हो जाती है)। जिस बर्तन में वह दिन में दो बार पानी भरकर ले जाता है, वह साफ और मीठे पानी से भरा हुआ है। वह कहता है कि तीन वर्ष पहले जो बात उसके लिए सपना थी, वह अब हकीकत में बदल गई है। एक और ग्रामवासी भगवती देवी हमें बताती हैं कि इससे पहले चाय में वह स्वाद नहीं आता था, जो अब आता है। उतेजना और सन्तोष के भाव केसरी गाँव के प्रत्येक व्यक्ति के चेहरे पर झलक रहे थे। दरअसल, उनकी प्रतिक्रियाओं से अधिक उनके चेहरे के भाव हमारे कैमरे पर ज्यादा स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। अन्ततः मुझे वह समाचार मिल गया था, जिसकी मुझे तलाश थी। एक ऐसी कहानी है जिसे मैंने अनेक वक्ताओं के प्रमुख भाषणों में सुना था, सेमिनारों में गम्भीर चर्चा के विषय के रूप में देखा था, और अनेक अखबारों और पत्रिकाओं में असंख्यक लेखों के रूप में पढ़ा था, लेकिन अब से पहले अपनी आँखों से कभी न देख पाया था।
वास्तव में वह क्या चीज है जिससे यह काम कर रहा है? इस अनुकरणीय सफलता के पीछे क्या है? क्या यह सीएमएमसीआरआई के वैज्ञानिकों का कौशल है या विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग की आर्थिक सहायता? क्या ये राज्य सरकार द्वारा प्रदत्त ढाँचागत सुविधाएँ हैं, या फिर स्थानीय एनजीओ द्वारा उपलब्ध कराया गया महत्त्वपूर्ण सम्पर्क? क्या यह राज्य स्थित विज्ञान एंव प्रौद्योगिकी विभाग का प्रभावी समन्वयन है अथवा केसरी गाँव के लोगों की सामुदायिक भागीदारी? शायद यह प्रश्न उसी तहर बेमानी है जैसे यह पूछना कि शरीर का कौन-सा अंग उसके समुचित और स्वस्थ रूप से काम करने के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण है। सम्भवतः इसका उत्तर उस कहानी में छिपा है जो मैंने कभी अपनी शाला के नैतिकशास्त्र की कक्षा में पढ़ी थी। कहानी इस प्रकार है-
“एक समय की बात है कि शरीर के सदस्य पेट से काफी नाराज हो गए। वे इस बात को लेकर दुखी थे कि उन्हें भोजन इकट्ठा कर पेट तक पहुँचना होता है, जबकि पेट खुद कुछ नहीं करता सिवाय उसके द्वारा किए गए श्रम का फल खाने के।
अतः उन्होंने तय किया कि वे अब पेट के लिए भोजन नहीं लाएँगे। हाथ इसे मुँह तक नहीं ले जाएँगे। दाँत चबाएँगे नहीं, गला निगलेगा नहीं। इससे पेट को खुद कुछ करने को विवश होना पड़ेगा। परन्तु उनके इस (ना) काम का नतीजा यह हुआ कि शरीर इस कदर कमजोर हो गया कि उनकी जान को ही खतरा हो गया। अन्ततः उन्हें यह बात समझ आई कि एक-दूसरे की मदद करके वे लोग दरअसल अपनी ही भलाई के लिए काम कर रहे हैं।”
इससे हमें यह शिक्षा मिलती है कि विकास सम्बन्धी सफलता की कहानी के कई निर्देशांक (अंग) हैं और उनमें से प्रत्येक इस प्रक्रिया-नियोजन से लेकर क्रियान्वयन तक का महत्त्वपूर्ण अंग है। जमीनी स्तर पर अधिक कामयाबी न मिल पाने की वजह किसी योजना की कमी, धन का अभाव, प्रौद्योगिकी का अभाव अथवा सामुदायिक भागीदारी की कमी नहीं है, बल्कि इन सभी में समुचित तालमेल के अभाव के कारण ही ऐसा हो रहा है। जब तक सरकारी पहल में इसके सभी अंगों का समन्वय नहीं होगा और उसको लोगों का सम्पूर्ण समर्थन एवं योगदान नहीं मिलेगा, प्रौद्योगिकी का समुचित लाभ हमारे समाज में निम्नतम स्तर तक नहीं पहुँच सकेगा। उसके सुखद परिणाम से हम वंचित रहेंगे और केसरी गाँव ने दिखा दिया है कि यह पूर्ण समर्थ और योगदान कोई मुश्किल बात नहीं है।
इस सुखद अहसास के साथ मैं वापस केसरी गाँव से दिल्ली के लिए रवाना हुआ। मुझे इस बात का भान था कि मेरे पास एक ऐसी कहानी है जिसे लोगों तक पहुँचाना मेरा कर्तव्य है।
(लेखक विज्ञान फिल्मों के निर्देशक हैं और वर्तमान में दूरदर्शन पर प्रसारित हो रहे टर्निंग प्वाइण्ट नामक शृंखला का निर्देशन कर रहे हैं)
मैदानी स्तर पर अपनाई जाने योग्य तमाम सफल प्रविधियों, देश के हजारों वैज्ञानिक संस्थानों में पर्याप्त वैज्ञानिक जनशक्ति की मौजूदगी; सरकार के पास विकास हेतु पर्याप्त धनराशि होने और उपयोगी प्रविधियों की आवश्यकता के बावजूद मुझे ऐसी किसी सफलता की कहानी याद नहीं आ रही थी। अतः ऐसी कौन-सी बात थी जो हमारे समाज के सबसे निचले तबके तक प्राविधिक सफलता का लाभ पहुँचा रही थी। मुझे उम्मीद थी कि 6 घण्टे की यात्रा के अन्त में इस प्रश्न का उत्तर मिल सकेगा।
हम जब केसरी पहुँचे, तो प्रौद्योगिकी को सफलतापूर्वक अपनाए जाने के कारण देश भर के गाँवों के लिए आदर्श बने होने की अपनी हैसियत से बेखबर यह गाँव उत्तर भारत के एक अलसाए गाँव जैसा ही लगा। गाँव को यह अन्दाजा नहीं था कि उसने अपनी सफलता की कहानी सबको बताने के लिए टेलीविजन का ध्यान भी आकर्षित कर रखा था। स्थानीय गैर-सरकारी संगठन ‘समग्र विकास संस्थान’, जिसने वैज्ञानिकों की टीम और ग्रामीणों के बीच एक जीवन्त सम्पर्क का काम किया था, अब यही काम हमारे लिए भी कर रहा था। हमने अपने काम की शुरुआत सबसे पहले संयन्त्र देखने से की। आर.ओ. (रिसर्व ऑसमॉसिस) का विकास और निर्माण गुजरात के भावनगर स्थित केन्द्रीय नमक और समुद्री रसायन अनुसन्धान संस्थान (सीएमएमसीआरआई) के वैज्ञानिकों ने देश में ही किया था। धनराशि की व्यवस्था विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग, नई दिल्ली ने की थी। जिस छोटे से भवन में यह संयन्त्र लगा हुआ था, उसे राजस्थान सरकार ने उपलब्ध कराया था। राजस्थान सरकार ने ही विशाल जलाशय का निर्माण कराने के अलावा संयन्त्र के मासिक बिजली बिल के भुगतान का जिम्मा ले रखा था। परन्तु असली प्रश्न अभी भी अनुतरित था। हमने एनजीओ के स्थानीय गाइड से पूछा- ‘संयन्त्र किस तरह चलाया जा रहा है?' इस प्रश्न का हमें जो उत्तर मिला, उसने हमारी घण्टे की यात्रा और इस समाचार को कवर करने के निर्णय को सार्थक कर दिया।
जब सभी सुविधाएँ उपलब्ध थीं तो जरूरत थी कि यह संयन्त्र कुशलतापूर्वक चले और इसके लिए समूचा गाँव सामने आ खड़ा हुआ था। रिवर्स ऑसमॉसिस के बारे में कुछ न पता होने के बावजूद, वे इस संयन्त्र को चलाने की जिम्मेदारी लेने को तैयार थे। एक लम्बे अरसे से फ्लोराइड के अतिरेक का अभिशाप झेलने को मजबूर केसरी गाँव वालों के मन में संयन्त्र को चलाने में तकनीकी समस्या को लेकर कोई शंका नहीं थी। गाँव के अनेक युवा तीस-चालीस वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते अपने खेत गंवा चुके थे। और जब हमारी मुलाकात इसी तरह के युवक पोकर राम से हुई तो हमें किसी सबूत की जरूरत नहीं रही। पोकर राम के मुँह में एक भी दाँत नहीं था, परन्तु संयन्त्रों को लेकर उसको कोई मलाल नहीं था। उसे तसल्ली थी कि गाँव के बच्चों को तो अब इस हालत से नहीं गुजरना पड़ेगा।
आर.ओ. (रिसर्व ऑसमॉसिस) का विकास और निर्माण गुजरात के भावनगर स्थित केन्द्रीय नमक और समुद्री रसायन अनुसन्धान संस्थान (सीएमएमसीआरआई) के वैज्ञानिकों ने देश में ही किया था। धनराशि की व्यवस्था विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग, नई दिल्ली ने की थी। जिस छोटे से भवन में यह संयन्त्र लगा हुआ था, उसे राजस्थान सरकार ने उपलब्ध कराया था। राजस्थान सरकार ने ही विशाल जलाशय का निर्माण कराने के अलावा संयन्त्र के मासिक बिजली बिल के भुगतान का जिम्मा ले रखा था।इसी तरह के प्रेरक विचारों से भरे केसरी गाँव ने कार्रवाई की ओर पहला कदम बढ़ाया। पंचायत बुलाई गई और लोगों से निविदाएँ मंगाई गई। संयन्त्र को चलाने और उसकी देखभाल करने के लिए जिसकी निविदा सबसे कम होगी, उसे ही संयन्त्र को चलाने की जिम्मेदारी सौंपी जानी थीं। जिस व्यक्ति का इस कार्य के लिए चयन किया गया, उसने संयन्त्र को चलाने के लिए केवल एक हजार रुपए प्रतिमाह का प्रस्ताव रखा था। इस राशि में संयन्त्र को चलाने वाले शिवराम नामक एक लड़के का वेतन भी शामिल था। हाई स्कूल पास इस लड़के का चयन गाँव वालों ने ही किया था और वैज्ञानिकों ने चलाने का प्रशिक्षण दिया था। इस राशि के संग्रहण के लिए पंचायत ने गाँव वालों पर कर लगाने का एक अनूठा तरीका अपनाया। कर लगाने का आधार था पारम्परिक ‘अंग’ प्रणाली, जिसका अर्थ था प्रत्येक परिवार द्वारा खर्च की जाने वाली पानी की सबसे कम मात्रा (इकाई) परम्परा के अनुसार गाँव के प्रत्येक परिवार को परिवार के प्रत्येक सदस्य और मवेशी के अनुपात में भुगतान करना होता था और इसमें केवल एक सुखद अपवाद था कि परिवार की बेटियों को इससे मुक्त रखा गया था।
पिछले तीन वर्षों से काम ठीक-ठाक चल रहा है। शिवराम रोजाना संयन्त्र को चलाता है। उसे यह तो पता नहीं कि यह ‘क्यों’ काम करता है, परन्तु उसे यह अच्छी तरह मालूम है कि यह ‘कैसे’ काम करता है। उसे इस संयन्त्र को चलाने का प्रशिक्षण भावनगर के सीएसएमसीआरआई ने दिया है। संयन्त्र की क्षमता रोजाना 35 हजार लीटर खारे पानी को शुद्ध पानी में बदलने की है। संयन्त्र को चलाने की बाबत किसी सहायता के लिए वैज्ञानिकों से सम्पर्क करने से लेकर दिन में बिजली की स्थिति के बारे में निकटवर्ती विद्युत मण्डल से जानकारी लेते रहना शिवराम के ही जिम्मे है।
जैसे ही गाँव में बिजली आती है, शिवराम संयन्त्र को चलाने हेतु दौड़ पड़ता है। मशीन चलने की आवाज गूंजने लगती है। शुद्ध मीठा पानी टंकी में भरने लगता है। नालों के नीचे पानी भरने के बर्तन लगने लगते हैं। हम अस्सी वर्षीय सावन राम की ‘साउण्ड बाइट’ (प्रतिक्रिया) रिकॉर्ड करने के लिए उसके पास जाते है। साफ हिन्दी बोलने में असमर्थ सावन राम पूरी कहानी को हिन्दी और राजस्थानी की मिली-जुली भाषा में बयान करता है। ‘ये पानी पीकर, जी सोरो होवे’ (मैं जब यह पानी पीता हूँ, मेरी तबियत खुश हो जाती है)। जिस बर्तन में वह दिन में दो बार पानी भरकर ले जाता है, वह साफ और मीठे पानी से भरा हुआ है। वह कहता है कि तीन वर्ष पहले जो बात उसके लिए सपना थी, वह अब हकीकत में बदल गई है। एक और ग्रामवासी भगवती देवी हमें बताती हैं कि इससे पहले चाय में वह स्वाद नहीं आता था, जो अब आता है। उतेजना और सन्तोष के भाव केसरी गाँव के प्रत्येक व्यक्ति के चेहरे पर झलक रहे थे। दरअसल, उनकी प्रतिक्रियाओं से अधिक उनके चेहरे के भाव हमारे कैमरे पर ज्यादा स्पष्ट दिखाई दे रहे थे। अन्ततः मुझे वह समाचार मिल गया था, जिसकी मुझे तलाश थी। एक ऐसी कहानी है जिसे मैंने अनेक वक्ताओं के प्रमुख भाषणों में सुना था, सेमिनारों में गम्भीर चर्चा के विषय के रूप में देखा था, और अनेक अखबारों और पत्रिकाओं में असंख्यक लेखों के रूप में पढ़ा था, लेकिन अब से पहले अपनी आँखों से कभी न देख पाया था।
वास्तव में वह क्या चीज है जिससे यह काम कर रहा है? इस अनुकरणीय सफलता के पीछे क्या है? क्या यह सीएमएमसीआरआई के वैज्ञानिकों का कौशल है या विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग की आर्थिक सहायता? क्या ये राज्य सरकार द्वारा प्रदत्त ढाँचागत सुविधाएँ हैं, या फिर स्थानीय एनजीओ द्वारा उपलब्ध कराया गया महत्त्वपूर्ण सम्पर्क? क्या यह राज्य स्थित विज्ञान एंव प्रौद्योगिकी विभाग का प्रभावी समन्वयन है अथवा केसरी गाँव के लोगों की सामुदायिक भागीदारी? शायद यह प्रश्न उसी तहर बेमानी है जैसे यह पूछना कि शरीर का कौन-सा अंग उसके समुचित और स्वस्थ रूप से काम करने के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण है। सम्भवतः इसका उत्तर उस कहानी में छिपा है जो मैंने कभी अपनी शाला के नैतिकशास्त्र की कक्षा में पढ़ी थी। कहानी इस प्रकार है-
“एक समय की बात है कि शरीर के सदस्य पेट से काफी नाराज हो गए। वे इस बात को लेकर दुखी थे कि उन्हें भोजन इकट्ठा कर पेट तक पहुँचना होता है, जबकि पेट खुद कुछ नहीं करता सिवाय उसके द्वारा किए गए श्रम का फल खाने के।
अतः उन्होंने तय किया कि वे अब पेट के लिए भोजन नहीं लाएँगे। हाथ इसे मुँह तक नहीं ले जाएँगे। दाँत चबाएँगे नहीं, गला निगलेगा नहीं। इससे पेट को खुद कुछ करने को विवश होना पड़ेगा। परन्तु उनके इस (ना) काम का नतीजा यह हुआ कि शरीर इस कदर कमजोर हो गया कि उनकी जान को ही खतरा हो गया। अन्ततः उन्हें यह बात समझ आई कि एक-दूसरे की मदद करके वे लोग दरअसल अपनी ही भलाई के लिए काम कर रहे हैं।”
इससे हमें यह शिक्षा मिलती है कि विकास सम्बन्धी सफलता की कहानी के कई निर्देशांक (अंग) हैं और उनमें से प्रत्येक इस प्रक्रिया-नियोजन से लेकर क्रियान्वयन तक का महत्त्वपूर्ण अंग है। जमीनी स्तर पर अधिक कामयाबी न मिल पाने की वजह किसी योजना की कमी, धन का अभाव, प्रौद्योगिकी का अभाव अथवा सामुदायिक भागीदारी की कमी नहीं है, बल्कि इन सभी में समुचित तालमेल के अभाव के कारण ही ऐसा हो रहा है। जब तक सरकारी पहल में इसके सभी अंगों का समन्वय नहीं होगा और उसको लोगों का सम्पूर्ण समर्थन एवं योगदान नहीं मिलेगा, प्रौद्योगिकी का समुचित लाभ हमारे समाज में निम्नतम स्तर तक नहीं पहुँच सकेगा। उसके सुखद परिणाम से हम वंचित रहेंगे और केसरी गाँव ने दिखा दिया है कि यह पूर्ण समर्थ और योगदान कोई मुश्किल बात नहीं है।
इस सुखद अहसास के साथ मैं वापस केसरी गाँव से दिल्ली के लिए रवाना हुआ। मुझे इस बात का भान था कि मेरे पास एक ऐसी कहानी है जिसे लोगों तक पहुँचाना मेरा कर्तव्य है।
(लेखक विज्ञान फिल्मों के निर्देशक हैं और वर्तमान में दूरदर्शन पर प्रसारित हो रहे टर्निंग प्वाइण्ट नामक शृंखला का निर्देशन कर रहे हैं)
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Post By: birendrakrgupta