वायु प्रदूषण, औद्योगिक प्रगति से अधिक इस बात पर निर्भर करता है कि आप प्रगति और प्रकृति के मध्य कितना सन्तुलन रख रहे हैं। अगर प्रगति और प्रकृति के बीच सन्तुलन स्थापित किया जाये तो न केवल वायु प्रदूषण बल्कि हर तरह के प्रदूषण से निपटा जा सकता है। मगर इसके लिये हर स्तर पर मुस्तैदी दिखानी पड़ती है। प्रदूषण को लेकर हमारे हुक्मरानों की उदासीनता को इससे समझा जा सकता है कि देश का कोई भी राजनीतिक दल अपने घोषणा पत्र में प्रदूषण नियंत्रण का वादा नहीं करता। पिछले दिनों विश्व स्वास्थ्य संगठन की वायु प्रदूषण को लेकर जारी रिपोर्ट में भारत की स्थिति काफी चिन्ताजनक बताई गई। रिपोर्ट बताती हैं कि दुनिया के प्रत्येक दस में से नौ व्यक्ति प्रदूषित हवा में साँस लेने के लिये मजबूर हैं। वायु प्रदूषण से होने वाली हर तीन में से दो मौतें भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया में होती हैं। इससे भारत में वायु प्रदूषण की स्थिति को समझा जा सकता है।
इस साल की शुरुआत में केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने देश के 21 चुनिन्दा शहरों की वायु गणवत्ता पर एक रिपोर्ट जारी की थी। बोर्ड की रिपोर्ट बताती है कि इन 21 शहरों में हरियाणा का पंचकुला एक ऐसा शहर है, जहाँ वायु गुणवत्ता का स्तर सन्तोषजनक है।
मुम्बई और पश्चिम बंगाल के शहर हल्दिया में वायु की गुणवत्ता कुछ ठीक है। लेकिन बाकी सभी शहरों की हवा का स्तर मध्यम और खराब से लेकर बहुत खराब तक पाया गया। इनमें मुजफ्फरपुर, लखनऊ, दिल्ली, वाराणसी, पटना, फरीदाबाद, कानपुर, आगरा आदि शहरों में प्रदूषण का स्तर बहुत अधिक है। इनमें दिल्ली तीसरा सबसे अधिक प्रदूषित शहर है।
प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के ये आँकड़े भले ही अभी सिर्फ चुनिन्दा 21 शहरों की तस्वीर पेश कर रहे हों, लेकिन वास्तविकता यही है कि वायु प्रदूषण दिन-ब-दिन पूरे देश के लिये संकट बनता जा रहा है। केन्द्रीय पर्यावरण मंत्री रहते हुए प्रकाश जावड़ेकर ने राज्यसभा में कुछ आँकड़े पटल पर रखे थे। इसके मुताबिक दिल्ली में वायु प्रदूषण जनित बीमारियों से प्रतिदिन लगभग 80 लोगों की मौत होती है।
नासा सेटेलाइट द्वारा एकत्रित आँकड़ों से पता चलता है कि दिल्ली में पीएम-25 जैसे छोटे कण की मात्रा बेहद अधिक है। औद्योगिक उत्सर्जन और वाहनों के धुएँ से हवा में पीएम-25 कणों की बढ़ती मात्रा घनी धुंध का कारण बन रही है। इनकार नहीं कर सकते कि इसी कारण दिल्ली दुनिया के दस सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में शामिल है। देश के अन्य महानगरों की भी कमोबेश यही स्थिति है।
अमेरिका के येल विश्वविद्यालय के एक अध्ययन के मुताबिक एन्वायरनमेंट परफॉर्मेन्स इंडेक्स के 178 देशों की सूची में 32 अंक खिसककर भारत 155वें पायदान पर पहुँच गया है। वायु प्रदूषण के मामले में भारत की स्थिति ब्रिक्स देशों में सबसे खस्ताहाल है। भारत की तुलना में पाकिस्तान, नेपाल, चीन और श्रीलंका की स्थिति बेहतर है जिनका इस इंडेक्स में स्थान क्रमशः 148वाँ, 139वाँ, 118वाँ और 69वाँ है। यह सूची जिन नौ प्रदूषण कारकों के आधार पर तैयार की गई है, उनमें वायु प्रदूषण भी शामिल है। इससे देश में प्रतिवर्ष लगभग छः लाख लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ता है। अफसोसजनक है कि देश इसको लेकर चिन्ता तो जाहिर करता है लेकिन इसके निवारण और रोकथाम के लिये वास्तव में कुछ करता हुआ नहीं दिखता है।
बहरहाल, इन आँकड़ों पर यह तर्क दिया जा सकता है कि पाकिस्तान, श्रीलंका आदि देशों की जनसंख्या, औद्योगिक प्रगति और वाहनों की मात्रा भारत की अपेक्षा बेहद कम है, इसलिये वहाँ वायु प्रदूषण का स्तर नीचे है। लेकिन सवाल उठता है कि स्विट्जरलैंड, ऑस्ट्रेलिया, सिंगापुर आदि देश क्या औद्योगिक प्रगति नहीं कर रहे? उनके यहाँ वाहन नहीं हैं? फिर भी वो दुनिया के सर्वाधिक वातानुकूलित देशों में कैसे शुमार हैं? क्या ऐसी दलीलों के जरिए देश और इसके कर्णधार इसको प्रदूषण मुक्त करने की अपनी जिम्मेदारी से बच सकते हैं?
दरअसल, वायु प्रदूषण, औद्योगिक प्रगति से अधिक इस बात पर निर्भर करता है कि आप प्रगति और प्रकृति के मध्य कितना सन्तुलन रख रहे हैं। अगर प्रगति और प्रकृति के बीच सन्तुलन स्थापित किया जाये तो न केवल वायु प्रदूषण बल्कि हर तरह के प्रदूषण से निपटा जा सकता है। मगर इसके लिये हर स्तर पर मुस्तैदी दिखानी पड़ती है। प्रदूषण को लेकर हमारे हुक्मरानों की उदासीनता को इससे समझा जा सकता है कि देश का कोई भी राजनीतिक दल अपने घोषणा पत्र में प्रदूषण नियंत्रण का वादा नहीं करता।
ऐसे वादे से इसलिये परहेज नहीं किया जाता कि प्रदूषण नियंत्रण जैसे वादे से सिर्फ इसलिये परहेज करते हैं कि उनकी नजर में ये कोई मुद्दा नहीं होता। देश में वायु प्रदूषण के लिये दो सर्वाधिक जिम्मेदार कारक हैं। एक डीजल-पेट्रोल वाहन और दूसरा औद्योगिक इकाइयाँ। इनमें मोटर वाहनों में तो कुछ ऐसे बदलाव हुए हैं जिससे उनसे होने वाले प्रदूषण में कमी आये। सीएनजी वाहन, बैटरी चालित वाहन आदि ऐसे ही कुछेक बदलावों के उदाहरण हैं। लेकिन औद्योगिक इकाइयों पर नियंत्रण के लिये कुछ ठोस नहीं किया जा रहा जबकि उनसे सिर्फ वायु ही नहीं, बल्कि जल प्रदूषण भी बढ़ रहा है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)
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Post By: RuralWater