सुबह की नदी

जी, हाँ,
सुबह हुई है,
पानी की देह में सूरज उगा है,
नदी का जीवन
जानदार हुआ है,
पत्थर चाटना
अब उसे अपने लिए
स्वीकार हुआ है,
तट का तोड़ना
अब दूसरों के लिए
दरकार हुआ है।

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