स्थायी विकास के लिये वनीकरण की आवश्यकता

वनाच्छादित क्षेत्र में कमी देश की अर्थव्यवस्था के लिये चिन्ताजनक है। वनारोपण और वनों से सम्बन्धित परियोजनाओं के लिये सरकार की ओर से मिलने वाली राशि में लगातार कमी आने से अब ऐसी स्थिति आ गई है जिसमें समाज को न सिर्फ वनों के संरक्षण बल्कि नष्ट हुए वनों के पुनर्विकास में भी अधिकाधिक भूमिका निभानी होगी। आखिर वनों और उनसे होने वाले फायदों का उपभोग भी तो समाज ही करता है। लेखक की राय में यही कारण है कि समाज को वनों की खोई हुई हरियाली लौटाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभानी होगी। विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था में वनों का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान है। भारत की आबादी का काफी बड़ा हिस्सा (करीब 75 प्रतिशत) ऊर्जा, आवास, चारा और इमारती लकड़ी की आवश्यकता को पूरा करने के लिये वनों पर निर्भर है।

जनसंख्या और अर्थव्यवस्था में विस्तार से वन उत्पादों तथा सेवाओं में वृद्धि हो रही है जबकि देश में वनाच्छादित क्षेत्र सिमटता जा रहा है। वन उत्पादों की माँग में वृद्धि, बढ़ती हुई आबादी की ज़मीन की माँग में वृद्धि और गरीबी वन क्षेत्र में कमी के प्रमुख कारण हैं।

देश के प्राकृतिक वनों की स्थिति लगातार खराब होने के कारण वह असन्तुलन है जो वनों की क्षमता के मुकाबले उनसे कहीं अधिक वनोपज प्राप्त करने से उत्पन्न हुआ है। इमारती लकड़ी और चारे की बढ़ती माँग तथा वन भूमि के खेती के लिये उपयोग से वनों पर जबरदस्त दबाव पड़ रहा है।

विभिन्न कारणों से कई राज्यों में गैर वन भूमि पर वन लगाने के सम्भावित विकल्प को भी नहीं अपनाया गया है और इस काम में जो तेजी आनी चाहिए थी, वह नहीं आई है। इसके अलावा कृषि वानिकी कार्यक्रम के अन्तर्गत निजी तथा खेती वाली भूमि में वृक्षारोपण को बढ़ावा देने के सरकार के प्रयासों का भी वैसा असर नहीं हुआ है जैसी कि उम्मीद थी। इसका कारण यह है कि इस कार्यक्रम के तहत दिये जाने वाले प्रोत्साहन लोगों की आशाओं से काफी कम हैं।

यहीं पर सवाल उठता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि वनों से फायदा उठा रहे लोग वन संसाधनों के तेजी से समाप्त होने की बात से अवगत नहीं हैं? अगर ऐसा है तो अन्ततः नुकसान उन्हीं को उठाना होगा। इस मुद्दे पर अलग-अलग धारणाएँ हैं। जहाँ जनसंख्या का काफी बड़ा हिस्सा वनों के नष्ट होने के दुष्परिणामों को जानता है, वहीं इन लोगों की दिलचस्पी भविष्य में वनों के संरक्षण के बजाय इनसे अपनी आवश्यकताओं की तात्कालिक पूर्ति में अधिक है। यह महसूस किया गया है कि जिन स्थानों पर वन मनुष्य की आजीविका का जरिया हैं वहाँ वनों का अस्तित्व और उनकी गुणवत्ता निम्नलिखित बातों पर निर्भर करती है:

1. वनरहित भूमि, गैर-वन भूमि और खेती योग्य भूमि पर विभिन्न वृक्षारोपण कार्यक्रमों द्वारा वनीकरण।
2. वनों के प्रबन्ध और विकास में वनों पर निर्भर लोगों को भागीदार बनाना तथा वन संसाधनों का विवेकसंगत उपयोग

वर्तमान परिदृश्य


देश का अभिलिखित वन क्षेत्र 7.65 करोड़ हेक्टेयर यानी कुल क्षेत्रफल का करीब 23 प्रतिशत है लेकिन इसमें से सिर्फ 6.4 करोड़ हेक्टेयर यानी देश के कुल क्षेत्रफल के 19.5 प्रतिशत भाग पर वृक्ष बचे हैं। 3.86 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र पेड़ों से काफी अच्छी तरह ढका हुआ है। जिसमें पेड़ों का घनत्त्व 10 प्रतिशत से अधिक है। 2.5 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र वनों के नष्ट होने से खराब हुआ है जिसका घनत्त्व 10 से 40 प्रतिशत है।

कुछ वन क्षेत्र ऐसा भी है जो बिल्कुल खाली है और इसमें नाम के लिये भी पेड़-पौधे नहीं हैं। वनों की स्थिति के बार में 1995 की एक रिपोर्ट के अनुसार देश में 1993 के मुकाबले वनाच्छादित क्षेत्र में 507 वर्ग किलोमीटर की कमी हुई है। अच्छे वनों का घनत्त्व भी कम हो रहा है तथा उजड़ते वनों के और नष्ट होने से स्थिति बदतर होती जा रही है। जाहिर है यह वनों और उनके आस-पास रहने वालों द्वारा वन्य संसाधनों के अन्धाधुन्ध उपयोग के कारण हो रहा है।

हालांकि वनों की सामान्य स्थिति खराब हुई है। मगर विभिन्न कानूनों के माध्यम से वनारोपण और उनके संरक्षण और नियंत्रण के जो प्रयास किये गए हैं उनसे 1997 के बाद से देश में वनाच्छादित क्षेत्र 6.4 करोड़े हेक्टेयर के आस-पास बना हुआ है। भारतीय वन सर्वेक्षण संगठन द्वारा 1987 के बाद से हर दूसरे साल कराए जाने वाले वन क्षेत्र के आकलन का तुलनात्मक विवरण इस प्रकार है:

वनाच्छादित क्षेत्र (वर्ग कि.मी.)


क्र.सं.

वर्ष

घने वन

उजड़े हुए वन

कच्छ क्षेत्र के वन

कुल

1.

1987

357,686

276,583

4,046

642,041

2.

1989

378,470

257,409

4,255

640,134

3.

1991

385,610

250,482

4,242

640,690

4.

1993

385,576

250,275

4,256

640,107

5.

1995

385,756

249,311

4,533

639,600

 

माँग-आपूर्ति स्थिति


भारत की 4.74 अरब घनमीटर वन सम्पदा में 8.76 करोड़ घनमीटर वार्षिक की दर से वृद्धि हो रही है लेकिन राष्ट्रीय उद्यानों, अभयारण्यों तथा आरक्षित जीव मंडलों के एक करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में वन्य पदार्थों के व्यावसायिक दोहन पर प्रतिबन्ध है। सिर्फ 1.2 करोड़ घनमीटर इमारती लकड़ी तथा चार करोड़ घनमीटर जलावन लकड़ी आधिकारिक रूप से प्राप्त की जा रही है।

वन क्षेत्रों में विभिन्न वनोपज प्राप्त करने के वर्तमान अधिकारों और रियायतों के अन्तर्गत जो चीजें वनों से प्राप्त की जा रही हैं उनके आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं मगर इनकी मात्र कई गुना ज्यादा हो सकती है। लकड़ी की मौजूदा माँग 3 करोड़ घनमीटर है। जिसमें से 83 लाख घनमीटर कागज, लुगदी और लकड़ी के तख्तों से बनने वाले सामान में इस्तेमाल होती है। 1.54 घनमीटर का इस्तेमाल आरा मिलों में (यानी इमारतों, फर्नीचर और पैकेजिंग में) किया जाता है।

1994-95 में करीब 60 करोड़ अमेरिकी डॉलर मूल्य की लकड़ी और लकड़ी के सामान का आयात किया गया। सन् 2010 तक इमारती लकड़ी की कुल माँग बढ़कर 6 करोड़ घनमीटर हो जाने का अनुमान लगाया गया है जिसमें से 2.05 करोड़ घनमीटर कागज, लुगदी और लकड़ी के पैनल बनाने में तथा 2.7 करोड़ घनमीटर आरा मिलों में इस्तेमाल की जाएगी।

देश में जलावन लकड़ी की वर्तमान माँग करीब 28 करोड़ टन है जिसके सन् 2010 तक 35.6 करोड़ घनमीटर हो जाने की सम्भावना है। इस तरह लकड़ी की माँग और आपूर्ति में भारी अन्तर बना हुआ है।

राष्ट्रीय वन नीति


1988 में बनी राष्ट्रीय वन नीति का मुख्य उद्देश्य ग्रामीण तथा जनजातीय लोगों की जलावन लकड़ी, चारा, इमारती लकड़ी तथा छुटपुट वनोपज की आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ वनों के संरक्षण तथा उजड़े वनों के विकास के माध्यम से पर्यावरण में स्थायित्व लाना और पारिस्थितिकीय सन्तुलन बनाए रखना है। वन नीति में देश के कुल क्षेत्र के कम-से-कम एक-तिहाई क्षेत्र पर वनों या वृक्षों का अस्तित्व बनाए रखने का राष्ट्रीय लक्ष्य भी निर्धारित किया गया है।

पहाड़ी इलाकों में मिट्टी के कटाव और इसे अनुपजाऊ होने से रोकने तथा वहाँ की नाजुक पारिस्थितिकीय प्रणाली में स्थायित्व लाने के लिये यह लक्ष्य दो-तिहाई रखा जाना चाहिए। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिये राष्ट्रीय वन नीति में उजड़े हुए वन क्षेत्र, बंजर जमीन, सामुदायिक भूमि, निजी भूमि और खेती की भूमि में वन लगाने के व्यापक समयबद्ध कार्यक्रम पर जोर दिया गया है। इसमें जलावन लकड़ी और चारे के उत्पादन पर खास जोर दिया गया है।

राष्ट्रीय वन नीति में जरूरत पड़ने पर जमीन सम्बन्धी कानूनों में परिवर्तन की बात भी कही गई है ताकि लोगों को भूमि पर वृक्ष, घास तथा चारा देने वाले पेड़ लगाने के लिये प्रोत्साहित किया जा सके। जहाँ तक वनों के प्रबन्ध में सामुदायिक भागीदारी का सवाल है, 1988 की राष्ट्रीय वन नीति की एक खास बात यह है कि इसमें वनों के विकास और संरक्षण में समाज की भूमिका को स्वीकार किया गया है।

नीति पत्र में राष्ट्रीय वन नीति के लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिये महिलाओं समेत समाज की व्यापक भागीदारी सुनिश्चित करने की बात कही गई है। इस नीति के अनुपालन में भारत सरकार ने संयुक्त वन प्रबन्ध के जरिए जन सहयोग हासिल करने के लिये एक जून, 1990 को सभी राज्यों और केन्द्रशासित प्रदेशों को विस्तृत दिशा-निर्देश जारी किये हैं। अब तक 17 राज्यों ने प्रशासनिक प्रस्ताव जारी किये हैं जिनमें लाभ में भागीदारी के आधार पर संयुक्त वन प्रबन्ध की अवधारणा अपनाई गई है। संयुक्त वन प्रबन्ध के अन्तर्गत स्थानीय लोगों को ग्राम स्तर की संस्थाओं जैसे ग्राम वन समितियों के रूप में संगठित किया जाता है ताकि वे वनों के प्रबन्ध में भागीदार बन सकें।

संसाधनों में वृद्धि


ग्रामीण क्षेत्रों में व्यापक गरीबी तथा मनुष्यों और जानवरों दोनों के भारी दबाव के कारण देश में वनों पर बहुत बुरा असर पड़ रहा है। एक अनुमान के अनुसार अगर वनों से हर साल प्राप्त किये जाने वाले विभिन्न प्रकार के पदार्थों की मौद्रिक और अमौद्रिक लागत की गणना की जाये तो इनकी कुल कीमत चार खरब रुपए बैठती है। दूसरी ओर वनों में किया जाने वाला निवेश सिर्फ 40 अरब रुपए है जो वनों से प्राप्त होने वाले पदार्थों की कुल अनुमानित कीमत का 10 प्रतिशत और देश के कुल योजना खर्च का केवल एक प्रतिशत है।

नष्ट हो चुके वनों को फिर से लगाने के लिये ग्राम वन समितियों के पास बहुत कम वित्तीय संसाधन उपलब्ध हैं। वनों के विकास पर होने वाले निवेश पर अगर समग्र रूप से विचार करें तो इस बात की कोई खास उम्मीद नहीं बँधती कि नष्ट हुए वनों को फिर से लगाने के कार्य में तेजी आएगी इतना ही नहीं, जनसंख्या में वृद्धि से वनों का दोहन बेतहाशा बढ़ने की आशंका है।

पहले गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम के लिये आवंटित धनराशि का काफी बड़ा भाग गाँवों में सामाजिक वानिकी पर खर्च किया जाता था परन्तु अब विभिन्न गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों में इसके लिये अलग से कोई राशि आवंटित नहीं की जाती। ऐसी स्थिति में वनों का उपयोग करने वाले समुदाय को टिकाऊ विकास के लिये अनुकूल परिस्थितियाँ उत्पन्न करनी होंगी।

जो लोग वनों के विकास के कार्य से अलग-थलग पड़ चुके हैं और जिन्हें वनों के भविष्य से कोई सरोकार नहीं रह गया है, उनके लिये प्रोत्साहनों की व्यवस्था करनी होगी। देश में एक ऐसी व्यवस्था कायम करने की जरूरत है जिसमें वनोपज से प्राप्त होने वाली आमदनी का काफी बड़ा हिस्सा मजदूरी या नकद राशि के रूप में उजड़े हुए वनों को फिर से लगाने में खर्च किया जाये। यह कार्य अगर राष्ट्रीय स्तर पर भी हो तो कोई हर्ज नहीं है।

विभिन्न पंचवर्षीय योजनाओं में वानिकी क्षेत्र के लिये आवंटित धनराशि तथा देश के कुल योजना खर्च की तुलना में इस राशि का प्रतिशत इस प्रकार है:

क्र.सं.

पंचवर्षीय योजना

वानिकी क्षेत्र के लिये आवंटन (लाख रु. में)

कुल योजना खर्च का प्रतिशत

1.

पहली

764

0.39

2.

दूसरी

2121

0.46

3.

तीसरी

4585

0.53

4.

चौथी

8942

0.54

5.

पाँचवी

20880

0.51

6.

छठी

69249

0.71

7.

सातवीं

185910

1.03

8.

आँठवीं

400000

1.00

 

वानिकी क्षेत्र के विकास के लिये धन जुटाने और इससे सम्बन्धित मुद्दों पर विचार के लिये संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) तथा खाद्य और कृषि संगठन की सहायता से राष्ट्रीय वानिकी कार्ययोजना तैयार की जा रही है। इसके सितम्बर, 1997 तक पूरा हो जाने की सम्भावना है।

नए प्रयास


1988 की राष्ट्रीय वन नीति के लक्ष्यों को पूरा करने के लिये करीब 4.55 करोड़ हेक्टेयर अतिरिक्त ज़मीन पर वन लगाने होंगे और 2.5 करोड़ हेक्टेयर भूमि पर उजड़ चुके वनों का फिर से विकास करना होगा। यहाँ हम सब यह मान कर चल रहे हैं कि वर्तमान वन क्षेत्र का और विनाश नहीं होगा।

1985 में किये गए एक मूल्यांकन के अनुसार माँग को देखते हुए हर साल 50 लाख हेक्टेयर जमीन पर वन लगाने जरूरी हैं। इसी बात को ध्यान में रखकर परती भूमि विकास बोर्ड गठित किया गया है। इतने बड़े पैमाने पर वनीकरण के लिये वानिकी के बुनियादी ढाँचे को मजबूत करने के साथ-साथ इसका विस्तार भी करना होगा।

वनीकरण की व्यापक जरूरत को ध्यान में रखते हुए अभी जो कोशिशें की जा रही हैं वे न सिर्फ अपर्याप्त हैं बल्कि वनीकरण के लिये कम राशि उपलब्ध होने से इनमें लगातार गिरावट आ रही है।

पहली से छठी पंचवर्षीय योजनावधि में 82 लाख हेक्टेयर जमीन पर वन लगाए गए। सातवीं योजना में 88.8 लाख हेक्टेयर जमीन वन क्षेत्र में लाई गई। दो वार्षिक योजनाओं (1990-91, 1991-92) और आठवीं योजना में वनीकरण का लक्ष्य और उपलब्धियाँ इस प्रकार रहीं:

अवधि

लक्ष्य (लाख हे.)

उपलब्धि (लाख हे.)

1990-91

18.0

13.9

1991-92

18.0

17.3

1992-93

17.9

16.8

1993-94

18.4

15.2

1994-95

19.5

15.2

1995-96

16.9

15.2

1996-97

16.9

-

 

जाहिर है कि इस समय जिस पैमाने पर वन लगाए जा रहे हैं और इस काम में जो बढ़ोत्तरी हो रही है उससे मौजूदा ज़रूरतों और बढ़ती माँग को पूरा नहीं किया जा सकेगा। वन लगाने का कार्य आमतौर पर सरकारी खर्च से किया जा रहा है। हर साल सिर्फ 10 लाख हेक्टेयर उजड़े वनों वाली ज़मीन पर और 4 से 5 लाख हेक्टेयर गैर-वन भूमि/निजी भूमि पर वन लगाए जा रहे हैं। इससे तो देश में ईंधन की जरूरत भी ठीक से पूरी नहीं हो सकेगी।

दूसरी ओर उद्योगों के लिये लकड़ी की बढ़ती माँग से काफी प्राकृतिक वन भी नष्ट होने लगेंगे। इतना ही नहीं अल्यूमिनियम, प्लास्टिक और इस्पात जैसे लकड़ी के विकल्पों से होने वाले जबरदस्त प्रदूषण तथा रद्दी कागज के पुनरुपयोग में कमी से उद्योगों की लकड़ी की माँग और बढ़ेगी।

उच्च कोटि के वनों के विकास में सबसे बड़ी बाधा आर्थिक संसाधनों की कमी है। सरकार द्वारा उपलब्ध कराई जाने वाली राशि ईंधन, चारा और इमारती लकड़ी का उत्पादन बढ़ाने में खर्च की जानी चाहिए ताकि अपनी बुनियादी ज़रूरतों के लिये वनों पर निर्भर स्थानीय तथा जनजातीय लोगों की आवश्यकताएँ पूरी की जा सकें। माँग तथा वनों से उपलब्ध स्थायी उपज के बीच बढ़ते अन्तर को ध्यान में रखते हुए सरकारी एजेंसियों को ईंधन की लकड़ी, चारे और इमारती लकड़ी का उत्पादन बढ़ाने के लिये वन क्षेत्र में हर साल 30 लाख हेक्टेयर का विस्तार करना चाहिए।

इसके अलावा गाँवों के गरीबों और वनवासियों की न्यूनतम बुनियादी आवश्यकताओं की वस्तुएँ अत्यन्त कम लागत पर उपलब्ध कराने तथा काटे जा चुके वनों में वृक्षारोपण के भी प्रयास किये जाने चाहिए। वनों के संरक्षण में एक अन्य बाधा वनों के आसपास रहने वाले मनुष्यों और पशुओं का हस्तक्षेप है। वनों के प्रबन्ध में लोगों को भागीदार बनाने की नीति नष्ट हो रहे वनों में अपनाई गई है। संयुक्त वन प्रबन्ध नीति के अन्तर्गत स्थानीय समुदायों को वनों के प्रबन्ध और संरक्षण में भागीदार बनाकर नष्ट हो रहे वनों का विकास किया जा रहा है।

संयुक्त वन प्रबन्ध


वनों के संरक्षण सम्बन्धी नीतिगत दिशा-निर्देशों में वनों पर आश्रित लोगों की ईंधन, चारा, गैर-इमारती वन उत्पाद और इमारती लकड़ी की वाजिब घरेलू माँग को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया है। नीति सम्बन्धी इस दस्तावेज़ में यह भी कहा गया है कि वनों से विभिन्न प्रकार के लाभान्वित लोगों को वनों के विकास और संरक्षण के कार्य में पूर्ण भागीदारी के लिये प्रेरित किया जाना चाहिए। लेकिन समस्या इस बात की है कि वनों की स्थिति सुधारने में समाज की क्षमता की पहचान तथा उसका उपयोग कैसे किया जाये।

देश के विभिन्न भागों की स्थिति तथा सामाजिक आर्थिक दशाएँ इतनी विविध हैं कि सामुदायिक भागीदारी की कोई एक नीति बनाना असम्भव है। इसीलिये भारत सरकार ने एक जून, 1990 के अपने दिशा-निर्देशों में स्थान विशेष की स्थितियों के अनुसार सामुदायिक भागीदारी की योजना बनाने एवं उसे लागू करने की जिम्मेदारी राज्यों पर छोड़ी थी। अधिकतर राज्यों ने वन प्रबन्ध में लोगों की भागीदारी को, जिसे दूसरे शब्दों में संयुक्त वन प्रबन्ध कहा जाता है, संस्थागत रूप दे दिया है।

वन भूमि का स्वामित्व दिये बिना सहभागितापूर्ण प्रबन्ध के लिये ग्राम वन-समितियों के गठन पर जोर दिया जा रहा है ताकि नष्ट हो चुके वनों का सामूहिक रूप से फायदा उठाया जा सके। इस समुदाय को वनों से प्राप्त पदार्थों जैसे घास, पेड़ों की शाखाओं और छुट-पुट वनोपज के उपयोग का पूर्ण अधिकार होगा। अगर वृक्षों से प्राप्त उपज की अदला-बदली करके वे वनों का संरक्षण करने में कामयाब होते हैं तो उन्हें उस उपज की बिक्री से प्राप्त आमदनी में हिस्सा भी दिया जाएगा।

यह हिस्सा विभिन्न राज्यों में अलग-अलग और 25 प्रतिशत से लेकर शत-प्रतिशत तक है। अब तक 17 राज्यों ने संयुक्त वन प्रबन्ध में शामिल ग्राम वन-समितियों के गठन के बारे में अधिसूचना/प्रस्ताव जारी किये हैं। एक अनुमान के अनुसार संयुक्त वन प्रबन्ध प्रणाली के अन्तर्गत 15 हजार ग्राम वन-समितियाँ करीब 20 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में नष्ट हो रहे वनों का प्रबन्ध कर रही हैं।

समन्वित प्रयास


स्थायी वन प्रबन्ध व्यापक अर्थ वाला वाक्यांश है जिसमें वन संरक्षण और विकास के सभी पहलू शामिल हैं। प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण और संवर्द्धन किया जाना चाहिए परन्तु इसके साथ ही समाज विकास सम्बन्धी अनिवार्य आवश्यकताओं की अनदेखी भी नहीं की जानी चाहिए। स्थायी आधार पर वन प्रबन्ध काफी कठिन कार्य है जिसे सरकार और जनता दोनों के सहयोग से ही पूरा किया जा सकता है। संयुक्त वन प्रबन्ध इस दिशा में एक सशक्त कदम है।

लकड़ी पर आधारित कई उद्योग वनीकरण के प्रयासों में भागीदारी के लिये आगे आए हैं। गैर-सरकारी संगठन भी भारत को हरा-भरा बनाने में खुलकर मदद कर रहे हैं। भारत के हरे-भरे वन उसकी सबसे बड़ी विशेषता हैं। इस उद्देश्य के लिये कार्यरत सभी एजेंसियों के समन्वित प्रयासों से हमारे वनों की यह हरी-भरी सम्पदा फिर वापस लौटेगी।

(लेखक पर्यावरण और वन मंत्रालय में वन महानिरीक्षक हैं।)

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