बचे हुए जंगलों और पूरी तरह से उन पर निर्भर लोगों का प्रश्न तो है ही, लेकिन कागज उद्योग के सामने कच्चे माल की जो भयंकर समस्या है, उसे भी नकारा नहीं जा सकता। कागज उद्योग विकास परिषद की कच्चा माल समिति ने हिसाब लगाया है कि सन् 2000 तक अगर प्रति व्यक्ति 4.5 किलोग्राम कागज की खपत के लिए तैयारी करनी हो तो कागज और गत्ते की उत्पादन क्षमता को 42.5 लाख टन तक और न्यूजप्रिंट की उत्पादन क्षमता को 12.89 लाख टन तक बढ़ाना होगा। पूरी क्षमता के 80 प्रतिशत का उपयोग किया जा सके तो 34 लाक टन कागज व गत्ता और 10.31 लाख टन न्यूजप्रिंट का उत्पादन होगा। इस तरह वन आधारित कच्चे माल की आज जो मांग 30 से 50 टन तक है, वह 1.40 करोड़ टन तक बढ़ेगी (35 लाख टन बांस, और 1.05 करोड़ टन लुगदी वाली लकड़ी) और यह भी तब, जब हम मान लें कि फसल के डंठलों से भी 30 प्रतिशत कच्चा माल जुटाया जा सकेगा।
समिति ने सिफारिशों की एक लंबी सूची पेश की है। उसमें पहली सिफारिश है इन कारखानों की तकनीकी में परिवर्तन की, ताकि वे वर्तमान 60-70 प्रतिशत बांस की जरूरत को 30 प्रतिशत तक घटा सकें और बाकी 70 प्रतिशत कच्चा माल दूसरी लकड़ियों से प्राप्त कर सकें। मिसाल के लिए, जापान 90 से 100 प्रतिशत तक कड़ी लकड़ी से बढ़िया कागज तैयार करने में कामयाब हो गया है।
दूसरी लकड़ियों से बांस की कमी आगे चलकर बेहद बढ़ने वाली है। चूंकि बांस की पैदावार वहीं पुसा सकती है, जहां ज्यादा बारिश हो और मिट्टी भी अच्छी हो, इसलिए बांस की प्राप्ति प्राकृतिक वनों से ही हो सकेगी। नए सिरे से पूरा जोर लगाएं तो बांस के लिए पट्टे पर दी गई जमीन में बांस-वन की उत्पादकता 30 प्रतिशत बढ़ाई जा सकती है। सभी पेपर मिलों के पास लंबी अवधि के बांस वन के पट्टे हैं। इसका अर्थ यह है कि आज जो 17 लाख टन सूखे बांस का उत्पादन है, वह 22 लाख टन तक बढ़ सकता है। यह सन् 2000 तक की बांस की जरूरत पूरी करने के लिए पर्याप्त रहेगा, बशर्तें कुल कच्चे माल में बांस की मात्रा 30 प्रतिशत तक घट सके।
हर साल जो अतिरिक्त 80 लाख टन लुगदी वाली लकड़ी चाहिए, उसके लिए कोई 16 लाख हेक्टेयर जमीन में लुगदी लकड़ी के पेड़ इन्हीं कुछ सालों में लगाने होंगे ताकि सन् 2000 तक अपेक्षित मात्रा में प्लाइवुड तैयार हो सके। इसमें यह मानकर चला जा रहा है कि आठ साल की आवृत्ति में प्रति हेक्टेयर 40 टन लकड़ी सफेदे के पेड़ से मिला करेगी। इसके लिए हर साल 1.6 लाख हेक्टेयर में अभी से सफेदा लगाना शुरू करना होगा। असिंचित भूमि में लगाना हो तो आज की दर से, एक पेड़ लगाने की लगात- शुरू से आठवें साल तक-कुल 5,500 रुपये होगी। आठ साल की अवधि में 1.6 लाख हेक्टेयर में पेड़ लगाने की कुल लागत 900 करोड़ रुपये आएगी। यह हिसाब गलत भी हो सकता है, क्योंकि इसमें मान लिया गया है कि इन जंगलों से निरंतर इतनी पैदावार मिलती रहेगी, जितनी अब मिल रही है। पर सिंचाई और भी हो सकती है।
इस समिति ने कुछ और सुझाव दिए हैं। इस उद्योग को उजड़े जंगलों के बड़े-बड़े टुकड़े दिए जाएं जहां वे पेड़ लगाएं और अपनी जरूरत के लायक कच्चा माल पैदा कर लें। इस सुझाव पर अमल करने के लिए समिति कहती है कि भूमि की अधिकतम सीमा निर्धारण के कानून को उदार बनाया जाए। कंपनियां भी रियायती किस्म की आर्थिक मदद चाहती हैं ताकि पेड़ लगाने की लागत ज्यादा न आए और कागज मंहगा न पड़े। समिति का कहना है कि अगर सरकार फौरन कदम नहीं उठाएगी तो देश हर साल 20 लाख टन कागज और गत्ता आयात करने लगेगा जिससे सालाना 1,600 करोड़ रुपये (1982 की दर से) बाहर जाएंगे।
दूसरा सुझाव मिलों के आसपास सामाजिक वानिकी शुरू करने का है। पेपर मिल पास के किसानों को उनके अपने खेत में लगाने के लिए उन पेड़ो के पौधे दें, जो उनके कच्चे माल के योग्य हों। किसान उन्हें मेड़ों पर और परती जमीन पर लगाएं और तैयार पेड़ खरीदने का पहला मौका मिल वालों को दें।
पेपर मिल अपने जिले के बैंकों से भी मदद ले सकती हैं। राष्ट्रीय कृषि व ग्राम विकास बैंक से उन किसानों को पेड़ लगाने और तैयार होने तक उनकी देख-रेख होने वाले खर्च के लिए ऋण दिला सकती है। पेड़ बढ़ने पर मिल उसे खरीद लेगी और किसानों का कर्जा ब्याज सहित बैंक को चुका देगी। मिल अपना खर्च काट कर बाकी पैसा किसानों को दे देगी। इस बैंक ने ऐसी एक योजना आंध्र प्रदेश के कुर्नूल स्थित श्री रायलसीमा पेपर मिल्स के लिए चलाई है। समिति ने इस आपत्ति को ठुकरा दिया है कि इस योजना से एक फसली नकदी खेती को बढ़ावा मिलेगा। वह कहती है, “आदर्श स्थिति तो यह होती कि एक-सी पैदावार देने वाली दो-तीन किस्में हमें मिल जातीं तो मिली जुली खेती की जा सकती थी। वह नहीं हो तो एक ही किस्म के पेड़ों से काम लेना होगा। फिर भी देश के इस कोने से उस कोने तक फैली भूमि में से केवल 13 लाख हेक्टेयर में एक ही किस्म के पेड़ की खेती होती है तो खास हर्ज नहीं है। वह तो कुल भूमि का मात्र 0.43 प्रतिशत होगा।” कागज उद्योग वालों की इन दलीलों को राजनैतिक नेताओं तथा केंद्रीय मंत्रियों का समर्थन है। 1982 में केंद्रीय उद्योग मंत्री श्री नारायणदत्त तिवारी ने कागज उद्योग विकास परिषद को बताया था कि पेपर मिलों को अब अपना कच्चा माल खुद जुटाने की योजना शुरू कर देनी चाहिए।
वन लगाने के लिए किसानों के लिए किसानों को जमीन देने के सुझाव के पीछे दलील है कि वे सरकारी एजेंसियों से ज्यादा मुस्तैदी के साथ यह काम कर सकेंगे। श्री गाडगिल ने कर्नाटक के कुछ जिलों के अपने अध्ययन में बताया है कि सरकार एक हेक्टेयर में पेड़ लगाने पर 2,000 रुपये खर्च करती है। इसमें भीतरी प्रबंध का खर्च शामिल नहीं है। और सालाना दो टन प्रति हेक्टेयर पैदावार लेती है, जबकि केवल 500 से 1000 रुपये के खर्च में सालाना प्रति हेक्टेयर 10 टन पैदावार लेते हैं। तमिलनाडु के निजी किसानों का अध्ययन करने से भी यही तथ्य सामने आता है।
किसानों को वन भूमि देने की दिशा में पहल की है कर्नाटक ने। मार्च 1982 में उसने एक अन्य नीति घोषित की कि सरकार अपने राज्य में लुगदी वाले पेड़ लगाने के लिए उद्योगों को जंगल की जमीन देगी। वे अपने खर्च से वहां पेड़ लगाएंगे और उसकी पैदावार का एक हिस्सा जमीन के किराये के रूप में या रायल्टी के रूप में सरकार को देंगे। अगर सरकार उस उत्पादन के अपने हिस्से को उस समय की कीमत पर बेचने का निश्चय करती है तो पहला हक उत्पादक उद्योगों को होगा। इस नीति का लाभ मैसूर पेपर मिल्स ने उठाया है। उसने पट्टे पर 30,000 हेक्टेयर जमीन ली है, जिसमें सफेदा लगाने की योजना है।
मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र सरकारें भी इसी तरह की योजना तैयार कर रही हैं। 1981 में उरूलीकांचन में आयोजित एक विचार गोष्ठी में महाराष्ट्र के वनमंत्री ने घोषणा की थी कि सरकार उद्योगों को वन लगाने के लिए जमीन देगी। इसमें 50 प्रतिशत पेड़ों की आय वह लेगी। मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री अर्जुन सिंह ने घोषित किया था कि वन आधारित उद्योग अपना कच्चा माल खुद पैदा कर लें। जो भी उद्योग आगे आएगा, उसके साथ वन विकास निगम बराबर की पूंजी लगाएगा। पंजीकृत ग्राम सहकारी समितियों और कुटीर उद्योगों को भी 100 हेक्टेयर जमीन पाने का हक होगा। उद्योगों को सिर्फ जमीन उनसे छीन ली जाएगी।
आंध्र प्रदेश और गुजरात राज्यों ने भी विस्तार से योजनाएं तैयार की थीं, लेकिन वे राजनैतिक उलझन में फंस गईं। आंध्र प्रदेश में सरकार ने पेपर मिलों को 60 रुपये टन के हिसाब से कच्चा माल देने का वादा किया था। लेकिन फिर दाम बढ़ाकर 250 रुपये टन कर दिया तो उद्योग अदालत में गए। उन्होंने कहा कि यह सरकार की मनमानी है। अपनी सफाई में सरकार ने कहा कि बढ़े हुए दामों की आमदनी से वनों का ही विकास करेगी। लेकिन उद्योगपतियों को भरोसा नहीं है कि आंध्र प्रदेश वन विकास निगम आवश्यक मात्रा में जंगल लगा सकेगा या इस बढ़ी रायल्टी की दर से वन संवर्धन का काम चल सकेगा। उधर सरकार कह रही है कि उद्योग वाले जंगल चौपट कर देंगे। यानी दूसरे शब्दों में कहें तो दोनों विरोधी पक्ष राज्य वन संपदा के ह्रास के मामले में ‘सहमत’ हैं।
आंध्र प्रदेश सरकार ने जो योजना बनाई है, उसके तहत सबसे पहले जमीन को पट्टे पर लिया जाएगा ताकि उससे राज्य को राजस्व मिलने लगे। पट्टा आंध्र प्रदेश वन विकास निगम को दिया जाएगा और निगम उसमें जंगल लगाने के लिए 20 वर्षीय शर्तनामे पर किसी ठेकेदार को जमीन भाड़े पर देगा। भाड़े पर देने से अधिकतम सीमा कानून की पांबंदी का पालन हो सकेगा। इसके उत्पादन को निगम खरीद लेगा, फिर बिक्रिकर जोड़कर अपने राजस्व के अनुरूप भाव तय करेगा और उसे दुबारा जंगल लगाने वाले ठेकेदार को ही बेचेगा। ठेकेदार को दाम पुसाये नहीं तो फिर माल खुले बाजार में जाएगा। इस उलझन भरी प्रक्रिया से सरकार को विश्वास है कि भूमि की अधिकतम सीमा कानून और वन सुरक्षा कानून से पैदा होने वाली अड़चनों से बचा जा सकेगा। नए कानूनों के अनुसार वन भूमि का कोई दूसरा उपयोग करने के लिए राज्य सरकार को पहले केंद्र सरकार की इजाजत लेनी पड़ती है। राज्य सरकार ने राज्य में कागज के चार कारखानों और रेयान कंपनियों को 40,000 हेक्टेयर वन भूमि देने की योजना बनाई है। आंध्र प्रदेश सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार, “अगर हम उद्योगों को पहले के करार के अनुसार सस्ते दामों पर कच्चा माल नहीं देते हैं या उन्हें जमीन नहीं देते हैं, जिसे लेने को वे खुशी-खुशी तैयार हैं, तो वे सीधे अदालत पहुंचेंगे और तालाबंदी घोषित कर देंगे। तब मजदूर संघ और राजनीतिक लोग हमारी गरदन पकड़ेंगे।”
यह कैसा विचित्र दौर है कि जो लोग कानून बनाते हैं, वे ही उससे बचने के रास्ते ढूंढने लगते हैं। तब ये कानून हैं किनके लिए?
चार साल पहले गुजरात सरकार ने भी 30 साल के पट्टे पर स्वयंसेवी संस्थाओं और उद्योगों को वन लगाने के लिए बंजर जमीन देने की एक योजना बनाई थी। कुल 132 फर्मों ने आवेदन पत्र दिए। इनमें श्री नानुभाई अमीन की कंपनी ज्योति लिमिटेड भी है जो सौर ऊर्जा के उपकरण बनाती है। प्रमुख उद्योगपति श्री शंकर रंगनाथन की संस्था ‘इयान एक्सचेंज’ है और मीठापुर के टाटा उद्योग भी हैं। उनकी योजना थी कि जमीन मिलने पर प्रति हेक्टेयर कम-से-कम 400 पेड़ लगाएंगे। कुल उत्पादन का 20 प्रतिशत माल सरकार को सरकार द्वारा निर्धारित दाम पर देने की बात थी। वह माल निम्न आय वर्ग के लोगों को ईंधन और लकड़ी के रूप में उपयोग करने के लिए दिया जाना था। कुल उद्योगों की मांग 50,000 हेक्टेयर की थी। लेकिन आदिवासी नेता श्री झीणाभाई दर्जी ने इस योजना का सख्त विरोध किया और अपने प्रभाव के बल पर फिलहाल उसे रुकवा दिया है। झीणाभाई के मत में जमीन केवल वनवासियों को और दूसरे कमजोर लोगों को ही देनी चाहिए।
समिति ने सिफारिशों की एक लंबी सूची पेश की है। उसमें पहली सिफारिश है इन कारखानों की तकनीकी में परिवर्तन की, ताकि वे वर्तमान 60-70 प्रतिशत बांस की जरूरत को 30 प्रतिशत तक घटा सकें और बाकी 70 प्रतिशत कच्चा माल दूसरी लकड़ियों से प्राप्त कर सकें। मिसाल के लिए, जापान 90 से 100 प्रतिशत तक कड़ी लकड़ी से बढ़िया कागज तैयार करने में कामयाब हो गया है।
दूसरी लकड़ियों से बांस की कमी आगे चलकर बेहद बढ़ने वाली है। चूंकि बांस की पैदावार वहीं पुसा सकती है, जहां ज्यादा बारिश हो और मिट्टी भी अच्छी हो, इसलिए बांस की प्राप्ति प्राकृतिक वनों से ही हो सकेगी। नए सिरे से पूरा जोर लगाएं तो बांस के लिए पट्टे पर दी गई जमीन में बांस-वन की उत्पादकता 30 प्रतिशत बढ़ाई जा सकती है। सभी पेपर मिलों के पास लंबी अवधि के बांस वन के पट्टे हैं। इसका अर्थ यह है कि आज जो 17 लाख टन सूखे बांस का उत्पादन है, वह 22 लाख टन तक बढ़ सकता है। यह सन् 2000 तक की बांस की जरूरत पूरी करने के लिए पर्याप्त रहेगा, बशर्तें कुल कच्चे माल में बांस की मात्रा 30 प्रतिशत तक घट सके।
हर साल जो अतिरिक्त 80 लाख टन लुगदी वाली लकड़ी चाहिए, उसके लिए कोई 16 लाख हेक्टेयर जमीन में लुगदी लकड़ी के पेड़ इन्हीं कुछ सालों में लगाने होंगे ताकि सन् 2000 तक अपेक्षित मात्रा में प्लाइवुड तैयार हो सके। इसमें यह मानकर चला जा रहा है कि आठ साल की आवृत्ति में प्रति हेक्टेयर 40 टन लकड़ी सफेदे के पेड़ से मिला करेगी। इसके लिए हर साल 1.6 लाख हेक्टेयर में अभी से सफेदा लगाना शुरू करना होगा। असिंचित भूमि में लगाना हो तो आज की दर से, एक पेड़ लगाने की लगात- शुरू से आठवें साल तक-कुल 5,500 रुपये होगी। आठ साल की अवधि में 1.6 लाख हेक्टेयर में पेड़ लगाने की कुल लागत 900 करोड़ रुपये आएगी। यह हिसाब गलत भी हो सकता है, क्योंकि इसमें मान लिया गया है कि इन जंगलों से निरंतर इतनी पैदावार मिलती रहेगी, जितनी अब मिल रही है। पर सिंचाई और भी हो सकती है।
इस समिति ने कुछ और सुझाव दिए हैं। इस उद्योग को उजड़े जंगलों के बड़े-बड़े टुकड़े दिए जाएं जहां वे पेड़ लगाएं और अपनी जरूरत के लायक कच्चा माल पैदा कर लें। इस सुझाव पर अमल करने के लिए समिति कहती है कि भूमि की अधिकतम सीमा निर्धारण के कानून को उदार बनाया जाए। कंपनियां भी रियायती किस्म की आर्थिक मदद चाहती हैं ताकि पेड़ लगाने की लागत ज्यादा न आए और कागज मंहगा न पड़े। समिति का कहना है कि अगर सरकार फौरन कदम नहीं उठाएगी तो देश हर साल 20 लाख टन कागज और गत्ता आयात करने लगेगा जिससे सालाना 1,600 करोड़ रुपये (1982 की दर से) बाहर जाएंगे।
दूसरा सुझाव मिलों के आसपास सामाजिक वानिकी शुरू करने का है। पेपर मिल पास के किसानों को उनके अपने खेत में लगाने के लिए उन पेड़ो के पौधे दें, जो उनके कच्चे माल के योग्य हों। किसान उन्हें मेड़ों पर और परती जमीन पर लगाएं और तैयार पेड़ खरीदने का पहला मौका मिल वालों को दें।
पेपर मिल अपने जिले के बैंकों से भी मदद ले सकती हैं। राष्ट्रीय कृषि व ग्राम विकास बैंक से उन किसानों को पेड़ लगाने और तैयार होने तक उनकी देख-रेख होने वाले खर्च के लिए ऋण दिला सकती है। पेड़ बढ़ने पर मिल उसे खरीद लेगी और किसानों का कर्जा ब्याज सहित बैंक को चुका देगी। मिल अपना खर्च काट कर बाकी पैसा किसानों को दे देगी। इस बैंक ने ऐसी एक योजना आंध्र प्रदेश के कुर्नूल स्थित श्री रायलसीमा पेपर मिल्स के लिए चलाई है। समिति ने इस आपत्ति को ठुकरा दिया है कि इस योजना से एक फसली नकदी खेती को बढ़ावा मिलेगा। वह कहती है, “आदर्श स्थिति तो यह होती कि एक-सी पैदावार देने वाली दो-तीन किस्में हमें मिल जातीं तो मिली जुली खेती की जा सकती थी। वह नहीं हो तो एक ही किस्म के पेड़ों से काम लेना होगा। फिर भी देश के इस कोने से उस कोने तक फैली भूमि में से केवल 13 लाख हेक्टेयर में एक ही किस्म के पेड़ की खेती होती है तो खास हर्ज नहीं है। वह तो कुल भूमि का मात्र 0.43 प्रतिशत होगा।” कागज उद्योग वालों की इन दलीलों को राजनैतिक नेताओं तथा केंद्रीय मंत्रियों का समर्थन है। 1982 में केंद्रीय उद्योग मंत्री श्री नारायणदत्त तिवारी ने कागज उद्योग विकास परिषद को बताया था कि पेपर मिलों को अब अपना कच्चा माल खुद जुटाने की योजना शुरू कर देनी चाहिए।
निजी उद्यम
वन लगाने के लिए किसानों के लिए किसानों को जमीन देने के सुझाव के पीछे दलील है कि वे सरकारी एजेंसियों से ज्यादा मुस्तैदी के साथ यह काम कर सकेंगे। श्री गाडगिल ने कर्नाटक के कुछ जिलों के अपने अध्ययन में बताया है कि सरकार एक हेक्टेयर में पेड़ लगाने पर 2,000 रुपये खर्च करती है। इसमें भीतरी प्रबंध का खर्च शामिल नहीं है। और सालाना दो टन प्रति हेक्टेयर पैदावार लेती है, जबकि केवल 500 से 1000 रुपये के खर्च में सालाना प्रति हेक्टेयर 10 टन पैदावार लेते हैं। तमिलनाडु के निजी किसानों का अध्ययन करने से भी यही तथ्य सामने आता है।
किसानों को वन भूमि देने की दिशा में पहल की है कर्नाटक ने। मार्च 1982 में उसने एक अन्य नीति घोषित की कि सरकार अपने राज्य में लुगदी वाले पेड़ लगाने के लिए उद्योगों को जंगल की जमीन देगी। वे अपने खर्च से वहां पेड़ लगाएंगे और उसकी पैदावार का एक हिस्सा जमीन के किराये के रूप में या रायल्टी के रूप में सरकार को देंगे। अगर सरकार उस उत्पादन के अपने हिस्से को उस समय की कीमत पर बेचने का निश्चय करती है तो पहला हक उत्पादक उद्योगों को होगा। इस नीति का लाभ मैसूर पेपर मिल्स ने उठाया है। उसने पट्टे पर 30,000 हेक्टेयर जमीन ली है, जिसमें सफेदा लगाने की योजना है।
मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र सरकारें भी इसी तरह की योजना तैयार कर रही हैं। 1981 में उरूलीकांचन में आयोजित एक विचार गोष्ठी में महाराष्ट्र के वनमंत्री ने घोषणा की थी कि सरकार उद्योगों को वन लगाने के लिए जमीन देगी। इसमें 50 प्रतिशत पेड़ों की आय वह लेगी। मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री अर्जुन सिंह ने घोषित किया था कि वन आधारित उद्योग अपना कच्चा माल खुद पैदा कर लें। जो भी उद्योग आगे आएगा, उसके साथ वन विकास निगम बराबर की पूंजी लगाएगा। पंजीकृत ग्राम सहकारी समितियों और कुटीर उद्योगों को भी 100 हेक्टेयर जमीन पाने का हक होगा। उद्योगों को सिर्फ जमीन उनसे छीन ली जाएगी।
आंध्र प्रदेश और गुजरात राज्यों ने भी विस्तार से योजनाएं तैयार की थीं, लेकिन वे राजनैतिक उलझन में फंस गईं। आंध्र प्रदेश में सरकार ने पेपर मिलों को 60 रुपये टन के हिसाब से कच्चा माल देने का वादा किया था। लेकिन फिर दाम बढ़ाकर 250 रुपये टन कर दिया तो उद्योग अदालत में गए। उन्होंने कहा कि यह सरकार की मनमानी है। अपनी सफाई में सरकार ने कहा कि बढ़े हुए दामों की आमदनी से वनों का ही विकास करेगी। लेकिन उद्योगपतियों को भरोसा नहीं है कि आंध्र प्रदेश वन विकास निगम आवश्यक मात्रा में जंगल लगा सकेगा या इस बढ़ी रायल्टी की दर से वन संवर्धन का काम चल सकेगा। उधर सरकार कह रही है कि उद्योग वाले जंगल चौपट कर देंगे। यानी दूसरे शब्दों में कहें तो दोनों विरोधी पक्ष राज्य वन संपदा के ह्रास के मामले में ‘सहमत’ हैं।
आंध्र प्रदेश सरकार ने जो योजना बनाई है, उसके तहत सबसे पहले जमीन को पट्टे पर लिया जाएगा ताकि उससे राज्य को राजस्व मिलने लगे। पट्टा आंध्र प्रदेश वन विकास निगम को दिया जाएगा और निगम उसमें जंगल लगाने के लिए 20 वर्षीय शर्तनामे पर किसी ठेकेदार को जमीन भाड़े पर देगा। भाड़े पर देने से अधिकतम सीमा कानून की पांबंदी का पालन हो सकेगा। इसके उत्पादन को निगम खरीद लेगा, फिर बिक्रिकर जोड़कर अपने राजस्व के अनुरूप भाव तय करेगा और उसे दुबारा जंगल लगाने वाले ठेकेदार को ही बेचेगा। ठेकेदार को दाम पुसाये नहीं तो फिर माल खुले बाजार में जाएगा। इस उलझन भरी प्रक्रिया से सरकार को विश्वास है कि भूमि की अधिकतम सीमा कानून और वन सुरक्षा कानून से पैदा होने वाली अड़चनों से बचा जा सकेगा। नए कानूनों के अनुसार वन भूमि का कोई दूसरा उपयोग करने के लिए राज्य सरकार को पहले केंद्र सरकार की इजाजत लेनी पड़ती है। राज्य सरकार ने राज्य में कागज के चार कारखानों और रेयान कंपनियों को 40,000 हेक्टेयर वन भूमि देने की योजना बनाई है। आंध्र प्रदेश सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार, “अगर हम उद्योगों को पहले के करार के अनुसार सस्ते दामों पर कच्चा माल नहीं देते हैं या उन्हें जमीन नहीं देते हैं, जिसे लेने को वे खुशी-खुशी तैयार हैं, तो वे सीधे अदालत पहुंचेंगे और तालाबंदी घोषित कर देंगे। तब मजदूर संघ और राजनीतिक लोग हमारी गरदन पकड़ेंगे।”
यह कैसा विचित्र दौर है कि जो लोग कानून बनाते हैं, वे ही उससे बचने के रास्ते ढूंढने लगते हैं। तब ये कानून हैं किनके लिए?
चार साल पहले गुजरात सरकार ने भी 30 साल के पट्टे पर स्वयंसेवी संस्थाओं और उद्योगों को वन लगाने के लिए बंजर जमीन देने की एक योजना बनाई थी। कुल 132 फर्मों ने आवेदन पत्र दिए। इनमें श्री नानुभाई अमीन की कंपनी ज्योति लिमिटेड भी है जो सौर ऊर्जा के उपकरण बनाती है। प्रमुख उद्योगपति श्री शंकर रंगनाथन की संस्था ‘इयान एक्सचेंज’ है और मीठापुर के टाटा उद्योग भी हैं। उनकी योजना थी कि जमीन मिलने पर प्रति हेक्टेयर कम-से-कम 400 पेड़ लगाएंगे। कुल उत्पादन का 20 प्रतिशत माल सरकार को सरकार द्वारा निर्धारित दाम पर देने की बात थी। वह माल निम्न आय वर्ग के लोगों को ईंधन और लकड़ी के रूप में उपयोग करने के लिए दिया जाना था। कुल उद्योगों की मांग 50,000 हेक्टेयर की थी। लेकिन आदिवासी नेता श्री झीणाभाई दर्जी ने इस योजना का सख्त विरोध किया और अपने प्रभाव के बल पर फिलहाल उसे रुकवा दिया है। झीणाभाई के मत में जमीन केवल वनवासियों को और दूसरे कमजोर लोगों को ही देनी चाहिए।
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