स्थायी पर्वत विकास


पर्वतीय क्षेत्रों और समुदायों के सामने उपस्थित समस्याएँ उनके पर्यावरण की अनूठी विशिष्टताओं से उत्पन्न होती हैं। सबसे बड़ी चिन्ता इन पर्वतीय समुदायों को व्यापक राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं में समन्वित करने की है क्योंकि खुली अर्थव्यवस्था या विश्वव्यापीकरण की अवधारणाओं से उनके परिप्रेक्ष्य आसानी से मेल नहीं खाते।

संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण और विकास सम्मेलन (यूएनसीईडी) की कार्यसूची 21 के अध्याय 13 में स्थायी पर्वतीय विकास पर जोर दिया गया है। साथ ही इस दिशा में तत्काल कार्रवाई करने और दो कार्यक्रम क्षेत्रों को स्पष्ट करने की आवश्यकता पर बल दिया गया है:

- पर्वतीय पारिस्थितिकी प्रणालियों के निरंतर विकास और पारिस्थितिकी का ज्ञान उत्पन्न करना और उसे मजबूत करना;

- समन्वित जलसंग्रह विकास और वैकल्पिक आजीविका अवसरों को प्रोत्साहन (सं.रा. 1992)। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन को अध्याय 13 का कार्य प्रबंधक नियुक्त किया गया।

पर्वतीय क्षेत्रों के महत्व के बारे में तेजी से बढ़ती जागरुकता को देखते हुए संयुक्त राष्ट्र ने नवम्बर 1998 में 2002 को अन्तरराष्ट्रीय पर्वत वर्ष मनाने की घोषणा की। अन्तरराष्ट्रीय पर्वत वर्ष मनाने के लिये खाद्य एवं कृषि संगठन को प्रमुख एजेंसी के रूप में चुना गया जिसे सरकारों, गैर सरकारी संगठनों, सामाजिक संस्थाओं तथा संयुक्त राष्ट्र के अन्य संगठनों, विशेषकर यूएनईजी, यूएनडीपी और यूनेस्को के सहयोग से इस वर्ष के सिलसिले में विशेष आयाजनों की व्यवस्था करनी थी। यह संगठन इस वर्ष को सम्बद्ध पर्वतीय मुद्दों के बारे में जन चेतना उत्पन्न करने और निरंतर पर्वतीय विकास पर अमल करने के बारे में ठोस कार्रवाई के लिये पर्याप्त राजनीतिक, संस्थागत और वित्तीय प्रतिबद्धता सुनिश्चित करने के एक अवसर के रूप में देखता है।

पर्वतीय क्षेत्र जल, ऊर्जा और जैव विविधता के महत्त्वपूर्ण स्रोत तो हैं ही, इनसे कृषि और वनोत्पादों, खनिजों और मनोरंजन स्थलों जैसे संसाधन भी उपलब्ध होते हैं। पर्वत पृथ्वी की एक-चौथाई भूमि में फैले हुए हैं और 10 में से 1 व्यक्ति इसमें रहता है, 60 से 80 प्रतिशत ताजा भूसतह जल इनसे मिलता है और जैव विविधता के 50 प्रतिशत हाट-स्पाटों को ये पोषित करते हैं। इसके अलावा पर्वत जलवायु परिवर्तन के मूल संकेतक भी होते हैं। विश्व भर में पर्वतों को संस्कृति, सभ्यता और ज्ञान का केन्द्र माना जाता रहा है।

लेकिन पर्वतीय पर्यावरण अत्यंत ही नाजुक पारिस्थितिकी प्रणाली है। अपनी खड़ी ढालों और सीधे आकार-प्रकार की वजह से इनमें भू-क्षरण, भूस्खलन और पर्यावरण एवं जैव विविधता के क्षरण की सम्भावना बनी रहती है। पर्वत वहाँ रहने वाले निवासियों के लिये कड़ी चुनौतियाँ उत्पन्न करते हैं। कड़े भौतिक पर्यावरण, पृथक्करण, संचार की कमी, पर्वतीय समुदायों को ज्ञान व प्रौद्योगिकी प्रदान करने में अपेक्षाकृत विफलता, और नस्ली अल्पसंख्यकों की उपेक्षा की वजह से पर्वतवासियों में गरीबी व्याप्त है।

स्थायी पर्वत विकास के प्रमुख उद्देश्यों में मोटे तौर पर व्यापक स्थायी विकास के उद्देश्यों की झलक मिलती है। चुनौती यह है कि पर्यावरण से समझौता किए बिना या प्रचलित सामाजिक या सांस्कृतिक मूल्यों को नुकसान पहुँचाए बिना आर्थिक विकास पर जोर देना है। लेकिन पर्वतीय क्षेत्रों में यह चुनौती उन निहित भौतिक दबावों की वजह से बढ़ जाती है जिनके चलते पर्वतीय समुदाय राष्ट्रीय, प्रादेशिक और विश्व आर्थिक विकास के दायरे से अक्सर बाहर रह जाते हैं तथा शोषण एवं उपेक्षा के शिकार बन जाते हैं। नीति-निर्माताओं के लिये चुनौती इस बात की है कि आधुनिक अर्थव्यवस्था में पर्वतीय समुदायों के सहज समन्वय के साथ ही पर्वतीय क्षेत्रों की विशेष परिस्थितियों को भी ध्यान में रखा जाए।

मुद्दे एवं चुनौतियाँ


निरंतर पर्वतीय विकास में कई मूलभूत मुद्दे और प्राथमिकताएँ अवरोध के रूप में उभरती हैं। सरोकारों के भी अलग-अलग स्वरूप हैं। उदाहरण के लिये विश्व स्तर के सरोकारों में जलवायु परिवर्तन, जैव-विविधता संरक्षण, ताजे पानी के संसाधन, पारिस्थितिकी पर्यटन, सांस्कृतिक विरासत आदि शामिल हैं, जबकि प्रादेशिक मंच पर व्यापार, ऊपरी भूमि एवं निचली भूमि सम्पर्क, जलसंग्रह प्रबंध, प्रवजन, नदी थाला प्रबंध आदि पर मुख्य जोर है। राष्ट्रीय स्तर पर संरक्षण और विकास के लिये नीति, कानून, राष्ट्रीय कार्य नीतियों, नियोजन और कार्यक्रम निर्माण के क्षेत्रों पर जोर दिया जा सकता है। स्थानीय जमीनी स्तर पर प्रमुख मुद्दों में लोग, लिंग, समुदाय, स्थानीय अर्थव्यवस्था, आजीविका, संस्कृति, प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण और विकास के मुद्दों पर महत्व दिया जा सकता है। कुछ महत्त्वपूर्ण मुद्दों के बारे में चर्चा नीचे की जा रही है।

पर्यावरण सम्बन्धी मुद्दे


नाजुक पारिस्थितिकी प्रणालियाँ : भूस्खलनों के लिये जिम्मेदार कड़ी जलवायु स्थितियों और खड़ी ढलानें, पोषक तत्वों के भारी नुकसान और बड़े पैमाने पर भूक्षरण की वजह से पहाड़ों की पारिस्थितिकी प्रणालियाँ बड़ी ही नाजुक होती हैं। इसके अलावा ऊँचाइयों में तेजी से होने वाले परिवर्तनों से बड़ी संकरी पट्टियों में स्पष्ट पर्वतीय पर्यावास उत्पन्न होते हैं जो आसानी से बिगड़ या नष्ट हो सकते हैं। आजीविका के लिये खेती या अन्य संसाधनों के दोहन क्षेत्र सामान्यतया सीमित होते हैं और इस वजह से इनका जरूरत से अधिक इस्तेमाल किया जाता है।

बहुविध कार्यों का समर्थन: पर्वतीय पारिस्थितिकी प्रणालियाँ जल-चक्र में अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं क्योंकि ये हवा से नमी सोखती हैं। एशिया के आर्द्र और अर्ध-आर्द्र क्षेत्रों में 90 प्रतिशत से अधिक नदियाँ पर्वतीय जल संग्रहण क्षेत्रों से निकलती हैं। ये प्रणालियाँ पनबिजली की स्रोत होती हैं। इनसे जलाऊ और इमारती लकड़ी, खनिज तथा अयस्क भी प्राप्त होते हैं और ये जैव-विविधता के महत्त्वपूर्ण भंडार होते हैं। पर्वतीय पारिस्थितिकी प्रणालियों से पहाड़ों में बसने वाले लोगों को आजीविका के साधन भी उपलब्ध होते हैं।

इसलिए जरूरी है कि निरंतर पर्वतीय विकास परियोजनाओं से पारिस्थितिकी प्रणाली को नुकसान पहुँचाए बिना इन बहुविध कार्यों में मदद मिलती रहे। उदाहरण के लिये उत्खनन के कारण जमीन से हरियाली छिन गई है, गारे एवं कचरे के बड़े-बड़े क्षेत्र बन गए हैं और जल प्रवाह प्रदूषित हो गए हैं। औद्योगिक दृष्टि से वनों के उपयोग और चरागाहों तथा शिकारगाहों के लिये वन भूमि को साफ करने से जैव विविधता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है और ढलवां भूमि के क्षरण की सम्भावनाएँ बढ़ गई हैं।

जैव-विविधता संरक्षण: पर्वतमालाओं के गलियारों का एक जाल सा बनाकर जैव क्षेत्रों के संरक्षण के लिये जैव विविधता के प्रबंध के वास्ते सीमापार के देशों के साथ सहयात्रा जरूरी है। सागरमाथा (माउंट एवरेस्ट) क्षेत्र के प्रबंध के लिये नेपाल और चीन (तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र) के बीच भागीदारी इसका एक उदाहरण है। पहाड़ों में जैव-विविधता के संरक्षण और उसे बनाए रखने के लिये स्थानीय निवासियों का सहयोग भी अत्यन्त आवश्यक होता है। पारम्परिक विधियों के साथ मेल खाने वाली नई कृषि प्रौद्योगिकियों पर अमल किया जा रहा है ताकि पारिस्थितिकी प्रणाली प्रबंध की निरन्तरता सुनिश्चित की जा सके। इससे सीमापार पर्वत प्रणालियों के आस-पास विकास और संरक्षण के लिये सद्भाव, सहयोग और शांति बनाए रखने में मदद मिलेगी।

आर्थिक मुद्दे


आजीविका अवसरों में सुधार: पर्वतीय निवासी दुनिया में सबसे गरीब लोगों की श्रेणी में आते हैं। इसलिए उन्हें आर्थिक विकास की मुख्यधारा में लाने के लिये बड़े विकास-प्रयासों की जरूरत है। पर्वतीय इलाकों की ऊबड़-खाबड़ जमीन और दुर्गमता की वजह से इन क्षेत्रों के आर्थिक विकास का स्तर और उपयोगिता प्रभावित होती है। बाहरी अर्थव्यवस्थाओं के साथ इनका सम्पर्क नहीं होता और ये खुले बाजारों में प्रतिस्पर्धा के लायक नहीं होते हैं। पर्वतीय समुदायों के लिये आजीविका स्रोतों का सुधार सूक्ष्म स्तर पर ऐसे बाजारों की पहचान पर निर्भर करता है जिनमें पर्वतीय उत्पाद प्रतिस्पर्धा की दृष्टि से फायदेमंद स्थिति में हों। आजीविका अवसर बढ़ाने के लिये श्रम के रूप में पूँजी बढ़ाना और बुनियादी सुविधाओं को मजबूत बनाना भी जरूरी है। पर्वतों में रहने वाले समुदायों को अपने जीवन स्तर को सक्षम रूप से ऊँचा उठाने में मददगार कौशल और सुविधाएँ उपलब्ध कराने की सख्त जरूरत है।

अन्तरराष्ट्रीय समन्वित पर्वतीय विकास केन्द्र: अन्तरराष्ट्रीय समन्वित पर्वतीय विकास केन्द्र के हिंदुकुश हिमालय के स्थायी विकास के लिये क्षेत्रीय सहयोग कार्यक्रम का एक प्रमुख अंग पर्वतीय निवासियों में व्याप्त गरीबी को कम करना और उनके आजीविका साधनों को बनाए रखना है। सम्पूर्ण पर्वतीय क्षेत्र में जीवन स्तर उन्नत बनाने के लिये प्रस्तावित गतिविधियों में छोटी-छोटी जोतों के लिये खेत में मृदा-जल-पोषक तत्व प्रबंध और सम्बद्ध प्रौद्योगिकी और प्रबंध विकल्पों में सुधार, उच्च मूल्य वस्तुओं और उद्यमों, आय एवं रोजगार अवसरों में विविधता और विस्तार तथा बुनियादी सुविधाओं और सेवाओं का संतुलित विकास शामिल किया गया है।

उच्च भूमि/निम्न भूमि की परस्पर निर्भरता: पर्वतीय निवासियों के लिये आर्थिक अवसर बढ़ाने और यह सुनिश्चित करने के लिये कि उनके संसाधनों और उनकी सेवाओं के उपयोग का उन्हें उचित मेहनताना प्राप्त हो, पर्वतीय तथा निचले क्षेत्रों के बीच संसाधनों के आवागमन को समझना अत्यंत आवश्यक होता है। सामान्यतया सामानों और सेवाओं के अंतरप्रवाह की तुलना में संसाधन और वस्तुओं का बाह्य प्रवाह कहीं अधिक होता है। खनिज अयस्क और इमारती लकड़ी जैसी खत्म होने वाली वस्तुओं के निर्यात का महत्व काफी होता है। इन वस्तुओं को बड़े पैमाने पर निकाला जाता है लेकिन स्थानीय लोगों को इनके बदले में प्रतिपूर्ति बहुत कम मिलती है। इसके विपरीत आने वाली वस्तुएँ आमतौर पर मुख्य रूप से उपभोक्ता वस्तुओं के रूप में कम और सीमित होती हैं। हाँ, विशिष्ट बुनियादी संरचना और औद्योगिक विकास परियोजनाओं में निवेश जरूर अधिक मात्रा होता है।

उच्च तथा निम्न भूमियों के बीच आर्थिक सम्पर्क और परस्पर निर्भरता की जरूरत मुख्यतया दोनों क्षेत्रों के अपने-अपने प्राकृतिक संसाधनों के भंडारों और इन अंतरों के कारण उत्पन्न व्यापार सम्भावनाओं के कारण पैदा होती है। परस्पर सम्बंध कई ढाँचागत और संस्थागत व्यवस्थाओं तथा सम्बद्ध प्रौद्योगिक एवं मानव क्षमताओं से प्रभावित होते हैं। एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह है कि कम कीमत पर पर्वतीय इलाकों से मुख्यतया कच्चे माल का निर्यात होता है। इस प्रकार व्यापार की शर्तें पर्वतीय लोगों के पक्ष में नहीं होतीं और उनके संसाधनों के बड़े पैमाने पर दोहन से मिलने वाले आर्थिक लाभ अक्सर पर्वतीय समुदाय को नहीं मिल पाते। इस प्रकार एक सामान्य निष्कर्ष यह है कि निचली भूमियों में रहने वाले लोगों को सबसे अधिक फायदा होता है, जबकि पर्वतीय समुदायों को पर्यावरण का नुकसान और सामाजिक लागत झेलनी पड़ती है। यह बात सिंचाई और आदमी के इस्तेमाल के लिये ताजा पानी के उपयोग, दोमट मिट्टी की तलहट और पोषक तत्वों के प्रवाह तथा भरपाई न होने वाली अन्य पर्यावरण सेवाओं के प्रवाह के मामले में भी खरी उतरती है।

पर्वत विकास और संरक्षण में निवेश: ऐसा निवेश आमतौर से कम होता है और जब होता है तो यह केवल उच्च पूँजी प्रधान परियोजनाओं तक सीमित होता है। शुद्ध मूल्य के हिसाब से इन निवेशों से पर्वतीय समुदायों या उनके पर्यावरण को थोड़ा ही फायदा पहुँचता है। नियोजन और क्रियान्वयन से स्थानीय समुदायों को अक्सर अलग रखा जाता है जिनके द्वारा इस क्षेत्र को होने वाले नुकसानों की भरपाई या पर्यावरण को होने वाले नुकसान को कम करने पर कम ही ध्यान दिया जाता है।

पर्वतीय क्षेत्रों के विकास में उच्च जोखिम, निवेश झेलने की कम क्षमता, निवेश के मुकाबले अवसरों के लिये मजबूत व्यवस्था का अभाव और निवेश पूँजी की कमी जैसी कई समस्याएँ आड़े आती हैं जबकि निचले इलाकों में अतिरिक्त निवेश उपलब्ध होने की स्थिति में बेहतर अवसर उपलब्ध होते हैं। इसलिए पर्वतीय क्षेत्रों से पूँजी का प्रवाह होने लगता है। साथ ही लोगों का बाहर जाना भी जारी रहता है। इसलिए एक सबसे महत्त्वपूर्ण चुनौती पर्वतीय क्षेत्रों में इस प्रकार से निवेश जुटाने की है जिससे स्थानीय लोगों को लाभ पहुँचे और जो पर्यावरण की दृष्टि से अनुकूल व स्थायी हों।

खुली अर्थव्यवस्था और विश्व व्यापीकरण: बाजार-प्रधान व्यवस्थाओं में अल्पावधि वाणिज्यीकरण पर जोर रहता है। इसकी वजह से कई पर्वतीय क्षेत्रों में पारम्परिक संस्कृतियों और सामाजिक रीति-रिवाजों की अक्सर उपेक्षा हई है। नई सम्भावनाओं के उत्पन्न हुए बिना जहाँ पारम्परिक उत्पादन अवसरों को अवरुद्ध किया गया हो, वहाँ यह उपेक्षा और भी गम्भीर हो गई है। बाजार-प्रेरित अर्थव्यवस्थाओं से उत्पन्न नए प्रोत्साहनों, प्रौद्योगिकियों, बुनियादी सुविधाओं और संस्थागत समर्थन से निम्न भूमियों में पर्वतीय सामानों के गहन उत्पादन को बढ़ावा मिल सकता है।

परिणामस्वरूप पर्वतीय समुदायों को जो फायदे पहले मिलते थे वे कम हो जाते हैं। इमारती लकड़ी काटने के लाइसेंस मंजूर करने से पर्वतीय लोगों पर अपनी आजीविका कमाने के लिये स्थानीय वनों के इस्तेमाल पर रोक लग जाती है, जबकि पनबिजली के विकास से उनकी खेतिहर जमीनें पानी में डूब सकती हैं और उनके क्षेत्रों में राष्ट्रीय पार्कों, संरक्षित वनों और पर्यटन-स्थलों के विकास से उनकी आमदनी के पारम्परिक स्रोत छिन सकते हैं। निरंतर पर्वत विकास का उद्देश्य पर्वतीय अर्थव्यवस्थाओं को व्यापक क्षेत्रीय व राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था प्रणालियों में समन्वित करना है ताकि पर्वतीय लोगों को आर्थिक लाभों और व्यापार अवसरों का समान हिस्सा उपलब्ध कराया जा सके।

सामाजिक-आर्थिक मुद्दे


दुर्गमता और पृथक्करण: पर्वतीय क्षेत्रों के दूरदराज और कठिन क्षेत्र होने के कारण इनके विकास में बाधा आती है। ढुलाई की उच्च लागत से व्यापार विकास में काफी अड़चन होती है तथा शीघ्र खराब हो जाने वाली वस्तुओं को बाजार पहुँचाने में लगने वाले अधिक समय से उनके निर्यात में रुकावट आ सकती है। इसी प्रकार इन इलाकों के दुर्गम व दूरदराज में होने के कारण पर्वतीय लोगों की शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं या ग्रामीण विस्तार कार्यक्रमों से सम्बन्धित राष्ट्रीय या अन्तरराष्ट्रीय कार्यक्रमों में रुकावट आती है। इससे वे ज्ञान और नए-नए विचारों से वंचित रह जाते हैं तथा बाहरी दुनिया के साथ कारगर संवाद स्थापित करने की उनकी क्षमता भी प्रतिकूल रूप से प्रभावित होती है। इसलिए उनका अलग-थलग पड़ जाना उनकी गरीबी बढ़ाने का एक प्रमुख कारण बन जाता है।

खाद्य सुरक्षा: पर्वतीय समुदायों को कुपोषण और खाद्य असुरक्षा का खासतौर पर खतरा अधिक रहता है। विशेषकर औरतों और बच्चों को यह खतरा काफी ज्यादा होता है। पर्वतीय क्षेत्र में कृष्य भूमि की सीमित सुलभता, घटिया मृदा स्तर और कठोर जलवायु स्थितियों की वजह से खाद्य उत्पादन गम्भीर रूप से प्रतिबंधित हो जाता है। दूरदराज की स्थिति और उच्च परिवहन लागत भी अन्य क्षेत्रों से उत्पादों और प्रौद्योगिकी तथा खाद्य पदार्थों का आना सीमित कर देती है।

कठोर जीवन स्थिति से पर्वतीय क्षेत्रों में कुपोषण तथा सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी का स्तर भी बढ़ जाता है। उपलब्ध आँकड़ों से पता चलता है कि वहाँ कम वजन, बौनेपन और बराबरी की समस्याएँ गम्भीर हैं। न केवल मात्रा में, बल्कि इष्टतम संगठन और गुणवत्ता के लिहाज से खाने की कमी है। सामान्य स्वास्थ्य सुविधाओं और प्रतिरक्षीकरण के अभाव में अधिक बीमारियाँ होती हैं जिनका परिणाम लोगों के निरंतर गिरते स्वास्थ्य के रूप में सामने आता है। पर्वतीय क्षेत्रों की विशेष पोषण समस्याओं में जन्म के समय कम भार, घटिया आहार, शिशु मृत्यु, आयोडीन की कमी से पैदा होने वाली बीमारियाँ, प्रसव पूर्व और प्रसवोत्तर मृत्यु, गलगंड और थयराइड के कारण शारीरिक व मानसिक अवरुद्धता, विटामिन ‘ए’ की कमी आदि प्रमुख हैं।

1996 में रोम में हुए विश्व खाद्य शिखर सम्मेलन ने खाद्य सुरक्षा को विश्व समुदाय के लिये एक उच्च प्राथमिकता मुद्दे के रूप में विचारार्थ रखा था। इसका अर्थ यह है कि निरंतर पर्वतीय विकास की दिशा में किए जाने वाले प्रयास भूख और कुपोषण के उन्मूलन के लिये विश्व व्यवस्था का अभिन्न अंग बन जाएँगे, जो उननत खाद्य सुरक्षा और गरीबी उन्मूलन के समग्र उद्देश्यों के अनुरूप होंगे।

औरतों और बच्चों की स्थिति: कठोर भौगोलिक स्थितियों की वजह से पर्वतीय क्षेत्रों में स्त्रियों और बच्चों द्वारा झेले जाने वाली समस्याएँ और गम्भीर हो जाती हैं। निरंतर पर्वतीय विकास में ग्रामीण विस्तार के जरिए जीवन स्तर उन्नत बनाने तथा पर्वतीय समुदायों के द्वार पर ही स्वास्थ्य और शिक्षा जैसी सामाजिक सेवाएँ उपलब्ध कराने के लिये संसाधनों के बेहतर प्रबंध में स्त्रियों और नौजवानों की भूमिका पर जोर दिया जाता है।

आदमी तो लम्बी अवधियों के लिये घर से दूर रहते हैं, खेतों और परिवारों की गुजर बसर का काम नौजवानों तथा औरतों के जिम्मे होता है। इसलिए वे निश्चित समयावधियों तथा स्थायी तौर पर दोनों ही स्थितियों में पर्वतों से पलायन से प्रभावित होते हैं। औरतों की जमा और ऋण सुविधाओं, कृषि विस्तार सेवाओं तथा अन्य सेवाओं तक पहुँच सीमित ही होती है। पर्वतों से पलायन की वजह से बच्चों को भी अतिरिक्त जिम्मेदारी उठानी पड़ सकती है। उदाहरण के लिये चरवाही तथा अन्य घरेलू काम उनके जिम्मे आ सकते हैं और इनका असर उनके शैक्षिणिक अवसरों पर पड़ता है।

सांस्कृतिक मुद्दे


सांस्कृतिक अखंडता: पर्वतीय समुदायों ने ऐसी कृषि प्रणालियाँ और भू-उपयोग ढाँचे तैयार किए हैं जो मौजूदा भौगोलिक स्थितियों के साथ मेल तो खाते ही हैं, उनके लिये स्थायी आजीविका के स्रोत भी उत्पन्न करते हैं। लंबे अरसे से और प्रवजन के जरिए ये प्रणालियाँ और ढाँचे विशिष्ट पर्वतीय संस्कृति के रूप में बदल गए हैं। चुनौती अब इस बात की है कि लोककथा, संगीत, नृत्य, रीति रिवाजों और परम्पराओं के रूप में उनकी संस्कृति के अनूठे ताने-बाने को नुकसान पहुँचाए बिना उन्हें व्यापक लक्ष्यों को पाने में सक्षम कैसे बनाया जाए। अभी हाल में बाहरी दुनिया के साथ अधिक सम्पर्क से ऐसे समुदायों की अपेक्षाएँ बढ़ गई हैं और उन्हें परिवर्तन की माँग करने की प्रेरणा मिलने लगी है। सामान्य तौर पर इसके लिये संसाधनों के इस्तेमाल में क्रांतिकारी परिवर्तन, नए उत्पादों को अपनाने और संस्थागत ढाँचों तथा जोखिम बंटवारा व्यवस्थाओं के दायरे में नवीनताओं पर गौर करना होगा।

मौलिक जनाधिकारों की सुरक्षा: अब सबसे बड़ी चुनौती प्राचीन ज्ञान, तौर-तरीकों, दृष्टिकोणों और संस्कृति को बचाने की है जो मौखिक परम्पराओं में जीवित है। मौलिक लोगों के अधिकारों को मान्यता देने और उनके पुरखों की जमीन, संस्कृति तथा परम्पराओं से उन्हें आर्थिक लाभ उठाने के अधिकार देने की जरूरत है। इसके लिये एक विशेष कानून बनाने की जरूरत होगी जैसा कि फिलीपीन्स ने 1986 में बनाया था। इस कानून से वहाँ मानवाधिकार सरोकारों के एक नए युग का सूत्रपात हुआ था। इनमें विस्थापित मूल लोगों के अधिकार भी शामिल थे, जिनके संरक्षण के लिये राज्य की प्रशासनिक शक्तियों के जरिए व्यक्तियों, परिवारों और मूल समूहों के पूर्वजों के क्षेत्रों के वैध दावों को मान्यता देने, तथा प्रचलित ज्ञान, रीतिरिवाज और संस्कृति के अनुसार भूमि-प्रबंध के लिए ढाँचा उपलब्ध कराने पर जोर दिया जाता है।

पावन पर्वत और पवित्र नदियाँ: पर्वत प्राचीन ज्ञान और असाधारण आध्यात्मिक परम्पराओं के भंडार हैं। पर्वतों से कई पवित्र नदियाँ निकलती हैं और उनमें बहती हैं जिनका अपना खास ऐतिहासिक, पौराणिक और सांस्कृतिक महत्व है। ऐसे खजानों को विकसित, संरक्षित और प्रोत्साहित करने की जरूरत है और शायद उन्हें अनूठे उत्पादों और सेवाओं के रूप में बेचना भी जरूरी है ताकि स्थानीय लोगों को लाभ पहुँच सके।

पर्वतीय क्षेत्रों में लड़ाई: विश्व की अधिकांश लड़ाइयाँ पर्वतीय क्षेत्रों में होती हैं जहाँ भारी संख्या में विश्व के निर्धन और कुपोषित लोग रहते हैं। निरंतर पर्वतीय विकास की दिशा में सबसे बड़ी अकेली बाधा युद्ध और खाद्य सुरक्षा बनाए रखने की है। शांति न होने पर गरीबी कम करने या पर्याप्त खाद्य आपूर्ति की सुरक्षा या स्थायी विकास पर गौर करने की सम्भावना कम ही रहती है। 1999 में विश्व की 27 प्रमुख सशस्त्र लड़ाइयों में से 23 पर्वतीय क्षेत्रों में लड़ी गई थीं। एशिया-प्रशांत क्षेत्र के कुछ ही देश इस उथल-पुथल से अछूते रहे हैं और कई मामलों में इन लड़ाइयों में पर्वतीय मूल के लोग भी शामिल रहे हैं। उदाहरण के लिये हिमालय में सियाचिन ग्लेशियर विश्व की सबसे लम्बी चलने वाली लड़ाइयों में से एक का स्थल रहा है। सबसे ताजा उदाहरण अफगानिस्तान का है। इस बीच कई पर्वतीय क्षेत्रों में खास नस्ली समूहों वाली लड़ाइयाँ समय-समय पर चलती रही हैं।

निष्कर्ष
पर्वतीय इलाकों और समुदायों की समस्याएँ आमतौर पर उनके परिवेश की खास विशेषताओं की वजह से उत्पन्न होती हैं। सर्वप्रमुख सरोकार पर्वतीय अर्थव्यवस्थाओं को व्यापक राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं में मिलाने या समन्वित करने का है क्योंकि उनके परिप्रेक्ष्य आसानी से खुली अर्थव्यवस्थाओं और विश्वव्यापीकरण की अवधारणाओं से मेल नहीं खाते।

सरकारों के लिये पर्वतीय विकास के वास्ते अनुकूल आर्थिक माहौल बनाना जरूरी है। साथ ही उनके लिये प्रतिस्पर्धी उत्पादों एवं बाजारों की पहचान और विकास (जैव उत्पाद, जड़ी बूटियाँ चिकित्सीय पौधों, शहद, मसालों, मवेशियों, हस्तशिल्प) के लिये अनुसंधान के रूप में सहायता की जरूरत है जो संभवतया पर्वतीय उत्पादों में विविधता से सम्भव है। पर्वतीय उत्पादों का मूल्यवर्द्धक विधायन एक और सम्भावना भरा क्षेत्र है। पर्यटन के सही विपणन से (प्रकृति अन्वेषण, रोमांचक खेल और आध्यात्मिक प्रवास) भी उन्हें एक स्थान बनाने का अवसर मिल सकता है।

स्थानीय संसाधनों (विशेष कर कृषि) की उत्पादकता बढ़ाने के लिये प्रौद्योगिकी हस्तक्षेप (जैव-प्रौद्योगिकी) तथा अनुकूल व्यापार शर्तों के विकास के लिये संस्थागत हस्तक्षेप की आवश्यकता पर जोर दिया जाना चाहिए। परिवहन और सेवा क्षेत्र की आधारभूत संरचना का निर्माण सहायता का एक सर्वाधिक त्वरित साधन है। सामुदायिक भागीदारी और विकेन्द्रित नियोजन का भी सहारा लिया जा सकता है। दूरदराज रहना एक सबसे नुकसानदेह बात है और इस कमी पर अगर काबू पा लिया गया तो यह गरीबी के खिलाफ लड़ाई में एक बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है।

नीति-निर्माताओं को भी बाहरी एजेंटों द्वारा पर्वतीय संसाधनों के दोहन की रोकथाम के लिये कदम उठाने होंगे क्योंकि ये लोग पर्यावरण को नुकसान पहुँचाने तथा सामाजिक ढाँचे को छिन्न-भिन्न करने का काम करते हैं। सरकारों को आमदनी के अधिक समानतापूर्ण वितरण के लिये राष्ट्रीय आर्थिक लक्ष्यों और स्थानीय समुदायों की माँगों एवं अधिकारों के बीच सन्तुलन बनाना होगा।

(लेखक नई दिल्ली स्थित एफ ए ओ में नेशनल ऑफिसर हैं।)

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