पॉप्स से निपटने की कवायद पूरे विश्व में चल रही है, पर विकासशील देशों में इनसे निपटने के माकूल इंतजाम अभी तक नहीं है। ऐसे में बचाव यही है कि पॉप्स पैदा ही न हो पाएं। और लोगों को इसके प्रति जागरूक किया जाए। इसे उत्पन्न करने वाले कारकों का कम से कम इस्तेमाल किया जाए। ताकि पॉप्स के दुष्प्रभाव से अपने और अपनी धरती के जीवन को सुरक्षित रखा जा सके। पॉप्स’ यानी परसिस्टेंट आर्गेनिक पॉल्यूटेंट्स यानी चिरस्थाई कार्बनिक प्रदूषक हैं। प्रदूषण के ये वाहक कार्बन और क्लोरीन के यौगिक होते हैं। इनकी खासियत या सबसे बड़ा दुर्गुण यह होता है कि ये काफी समय तक वायुमंडल में मौजूद रहते हैं। हवा, पानी, भूमि और भोजन के माध्यम से एक जगह से दूसरी जगह पहुंचने वाले ये यौगिक हमारे स्वास्थ्य के लिए बहुत बड़ा खतरा है।
पॉप्स लगभग हर जगह पाए जाते हैं। अस्पतालों से निकलने वाला कूड़ा-कचरा, कीटनाशक दवाएं, पुरानी बैटरियां, कंप्यूटर और मोबाइल फोन तक पॉप्स के वाहक और शरणदाता हैं। इनके अलावा जब काफी मात्रा में इकट्ठा कूड़ा जलाया जाता है, तो भी भारी मात्रा में पॉप्स पैदा होते हैं। ऐसे में पॉप्स की मौजूदगी को कम से कम करने के लिए रास्ता यही है कि पॉप्स को शरण देने वाले सामानों को सावधानी के साथ नष्ट किया जाए।
एल्ड्रिन, डाइएल्ड्रिन, एंड्रिन, क्लोरडेन, हेप्टाक्लोर, टॉक्साफेन, माइरेक्स, पीसीबी, डयाक्सिन, फ्यूरॉन वगैरह पॉप्स हैं। अपने देश में इनकी किसी भी रूप में उत्पादन, आयात, निर्यात और इस्तेमाल सभी पूर्णतया प्रतिबंधित है। डीडीटी भी इनका स्रोत है और उसका कृषि में इस्तेमाल प्रतिबंधित है, पर किसान इसका इस्तेमाल करते हैं और इस तरह से भोजन के माध्यम से यह पॉप्स हमारे शरीर में पहुंच जाते हैं।
कुछ पॉप्स ट्रांसफार्मर के कैपेलिटर में प्रयोग होने वाले तेल में होते हैं, तो कुछ तब अस्तित्व में आते हैं, जब बड़ी मात्रा में कुछ (जिसमें घरेलू कूड़ा और अस्पतालों से आने वाला कूड़ा दोनों ही शामिल हैं।) खुले आकाश में जलाया जाता है। पॉप्स हमारे पर्यावरण के लिए किस कदर खतरनाक है। यह इसी बात से समझा जा सकता है कि इनकी सूक्ष्म मात्रा में मौजूदगी भी कैंसर और अविकसित बच्चों के जन्म जैसी बातों को जन्म दे सकती है। इसके अलावा ये हमारे तंत्रिका तंत्र को भी प्रभावित करते हैं।
पॉप्स से निपटने की कवायद पूरे विश्व में चल रही है, पर विकासशील देशों में इनसे निपटने के माकूल इंतजाम अभी तक नहीं है। ऐसे में बचाव यही है कि पॉप्स पैदा ही न हो पाएं। और लोगों को इसके प्रति जागरूक किया जाए। इसे उत्पन्न करने वाले कारकों का कम से कम इस्तेमाल किया जाए। ताकि पॉप्स के दुष्प्रभाव से अपने और अपनी धरती के जीवन को सुरक्षित रखा जा सके।
ईमेल : pandey.neeraj475@gmail.com
पॉप्स लगभग हर जगह पाए जाते हैं। अस्पतालों से निकलने वाला कूड़ा-कचरा, कीटनाशक दवाएं, पुरानी बैटरियां, कंप्यूटर और मोबाइल फोन तक पॉप्स के वाहक और शरणदाता हैं। इनके अलावा जब काफी मात्रा में इकट्ठा कूड़ा जलाया जाता है, तो भी भारी मात्रा में पॉप्स पैदा होते हैं। ऐसे में पॉप्स की मौजूदगी को कम से कम करने के लिए रास्ता यही है कि पॉप्स को शरण देने वाले सामानों को सावधानी के साथ नष्ट किया जाए।
एल्ड्रिन, डाइएल्ड्रिन, एंड्रिन, क्लोरडेन, हेप्टाक्लोर, टॉक्साफेन, माइरेक्स, पीसीबी, डयाक्सिन, फ्यूरॉन वगैरह पॉप्स हैं। अपने देश में इनकी किसी भी रूप में उत्पादन, आयात, निर्यात और इस्तेमाल सभी पूर्णतया प्रतिबंधित है। डीडीटी भी इनका स्रोत है और उसका कृषि में इस्तेमाल प्रतिबंधित है, पर किसान इसका इस्तेमाल करते हैं और इस तरह से भोजन के माध्यम से यह पॉप्स हमारे शरीर में पहुंच जाते हैं।
कुछ पॉप्स ट्रांसफार्मर के कैपेलिटर में प्रयोग होने वाले तेल में होते हैं, तो कुछ तब अस्तित्व में आते हैं, जब बड़ी मात्रा में कुछ (जिसमें घरेलू कूड़ा और अस्पतालों से आने वाला कूड़ा दोनों ही शामिल हैं।) खुले आकाश में जलाया जाता है। पॉप्स हमारे पर्यावरण के लिए किस कदर खतरनाक है। यह इसी बात से समझा जा सकता है कि इनकी सूक्ष्म मात्रा में मौजूदगी भी कैंसर और अविकसित बच्चों के जन्म जैसी बातों को जन्म दे सकती है। इसके अलावा ये हमारे तंत्रिका तंत्र को भी प्रभावित करते हैं।
पॉप्स से निपटने की कवायद पूरे विश्व में चल रही है, पर विकासशील देशों में इनसे निपटने के माकूल इंतजाम अभी तक नहीं है। ऐसे में बचाव यही है कि पॉप्स पैदा ही न हो पाएं। और लोगों को इसके प्रति जागरूक किया जाए। इसे उत्पन्न करने वाले कारकों का कम से कम इस्तेमाल किया जाए। ताकि पॉप्स के दुष्प्रभाव से अपने और अपनी धरती के जीवन को सुरक्षित रखा जा सके।
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