स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप हो पहाड़ की योजनाएँ

विशेष केन्द्रीय सहायता का यह घटा हुआ प्रतिशत उत्तरांचल के लिये एक चिन्ता का विषय है। देहरादून और नैनीताल जनपदों के अलावा उत्तरांचल के सभी जिलों के विकास सूचकांक राष्ट्रीय स्तर से काफी पीछे हैं, इस दृष्टि से उ.प्र. और उत्तरांचल विकास विभाग द्वारा योजना आयोग के स्तर पर प्रयास करना आवश्यक है। एक अनुमान से अनुमोदित विशेष केन्द्रीय सहायता के अतिरिक्त 1200 करोड़ की अतिरिक्त सहायता का इस मद में दिया जाना अत्यावश्यक है।

उत्तरांचल के बारे में एक महत्त्वपूर्ण जानकारी यह है कि 1991 की जनगणना के अनुसार जहाँ 59.26 लाख लोग उत्तरांचल में रह रहे हैं, वहीं लगभग 50 लाख उत्तरांचली इस क्षेत्र से बाहर निवास कर रहे हैं। विकास की रणनीति बनाते समय प्रवर्जन (पलायन) के कारणों पर गम्भीरता से ध्यान दिया जाना आवश्यक है। एक महत्त्वपूर्ण अध्ययन (श्री बोरा) के अनुसार प्रर्वजन के निम्न मुख्य कारण हैं-

1. 41 प्रतिशत गरीबी और न्यून आय
2. 16 प्रतिशत बेरोजगारी
3. 13 प्रतिशत मित्रों और सम्बन्धियों के कारण प्रवर्जन को प्रोत्साहन
4. 10 प्रतिशत अधिक अच्छे आर्थिक अवसरों की तलाश

अपनी रणनीति बनाते समय और योजनागत संसाधनों के परिव्यय में वरीयता निश्चित करते समय हमें इन कारणों पर ध्यान केन्द्रित करना होगा।

दूसरे प्रकार के आँकड़ों से स्पष्ट है कि आर्थिक व्यवस्था अभी भी कृषि आधारित है और दूसरी तरफ 70 प्रतिशत से अधिक लैंड होल्डिंग ऐसी है जिसमें व्यक्तिगत लैंड होल्डिंग एक हेक्टेयर, अर्थात् 50 नाली से कम है। स्पष्ट है कि यदि नई फसलों का पहाड़ी क्षेत्र में प्रवेश कराना है, तो तब छोटी-छोटी जोतों को बड़े चकों में परिवर्तित करना एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण वरीयता होनी चाहिए।

एक महत्त्वपूर्ण आँकड़ा यह है कि 15,951 आबाद गाँवों में लगभग 57 प्रतिशत ऐसे हैं जिनकी आबादी 200 व्यक्तियों से भी कम है। 500 तक की आबादी वाले गाँवों का प्रतिशत 89 है। इससे एक विशिष्टता पहाड़ी क्षेत्रों के लिये यह निकलती है कि यहाँ के अधिकांश गाँव आबादी की दृष्टि से छोटे-छोटे आकार के हैं। नीतिपरक बिन्दु यह है कि हमारे न्यूनतम आवश्यक कार्यक्रमों, जैसे ग्रामीण विद्युतीकरण, प्रौढ़ शिक्षा, ग्रामीण स्वच्छता, चारा व ईंधन इत्यादि में जो भी मानक हैं उनमें आबादी को मानक न मान कर भौगोलिक क्षेत्र पर आधारित बनाया जाए।

इससे एक सुझाव यह निकलता है कि उत्तरांचल विकास विभाग में ऐसे आर्थिक सेक्टर और विभागों में डेवलपमेंट फाइनेंस नॉर्म्स का गहन परीक्षण करने की विशेष व्यवस्था होनी चाहिए और जहाँ मानक केवल आबादी पर आधारित हैं उसे शुद्ध रूप से आबादी पर आधारित न करके भौतिक क्षेत्रफल के बीच अनुपात तय करना चाहिए, मुख्य सुझाव यह है कि मानक समिति का गठन किया जाये, जो प्रत्येक विभाग के डेवलेपमेंटल फाइनेंस के सम्बन्ध में विद्यमान मानकों का परीक्षण करे और नए मानक राज्य स्तर पर तय करें। इन्हीं मानकों के आधार पर योजनागत परिव्यय देने के लिये सहमत कराएँ।

आबादी पर आधारित मानकों को रखने का दुष्परिणाम यह भी है कि पहाड़ी क्षेत्रों में जो गिने-चुने नगरीय क्षेत्र हैं, वहाँ मैदानी क्षेत्रों की अपेक्षा आबादी कहीं कम होने के कारण इन पहाड़ी नगरीय क्षेत्रों में तैनात अधिकारियों/कर्मचारियों को विभिन्न भत्तों की सुविधा कम हो जाती है और अधिकारी/कर्मचारी पहाड़ी क्षेत्रों में तैनाती नहीं चाहते। उदाहरण के लिये नगरीय क्षेत्र प्रथम और द्वितीय श्रेणी के चिन्हित किये गए हैं, उनका मुख्य आधार नगरीय क्षेत्रों की आबादी है। इस आबादी आधारित मानक को यदि 50 प्रतिशत से भी कम कर दिया जाये (जैसा कि वर्तमान में है) तब भी नगरीय क्षेत्रों की अर्हता नहीं बन पाती और एक ओर अधिकारियों/कर्मचारियों के भत्ते कम होते हैं, वहीं इन क्षेत्रों में cost of living भी अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा अधिक आती है। इसलिये पर्वतीय नगरीय क्षेत्रों का वर्गीकरण भत्तों और सुविधाओं के दृष्टिकोण से उनके प्रशासनिक महत्त्व के आधार पर रखा जाये, न कि आबादी के आधार पर। इस प्रकार जिला मुख्यालयों, मण्डल मुख्यालयों, तहसील, ब्लॉक मुख्यालयों का प्रशासनिक दृष्टिकोण से एक प्रकार का वर्गीकरण किया जाना चाहिए। जिससे राजकीय सेवक सभी नगरीय क्षेत्रों के लिये समान रूप से आकर्षित हों।

वहीं छोटी प्रशासनिक इकाइयाँ गठित करने के क्रम में पर्वतीय क्षेत्र में जो नए जिले, तहसीलें, ब्लॉक बन रहे हैं, वहाँ के सरकारी स्टाफ की संरचना मैदानी क्षेत्रों से भिन्न हो, इस प्रकार की व्यवस्था तहसील स्तर पर विद्यमान थी, जहाँ एक तहसील के अन्दर एक वरिष्ठ नायब तहसीलदार की अध्यक्षता में पेशकारी गठित की जाती थी। नए सृजित पहाड़ी जनपदों में जिला मजिस्ट्रेट और पुलिस अधीक्षक के अलावा यदि अन्य अपर जिलाधिकारी, उप जिलाधिकारी स्टाफ की आवश्यकता है तो उसे कम-से-कम रखा जाये नए विकास खण्ड में खण्ड विकास अधिकारी के वेतनमान के स्थान पर संयुक्त खण्ड विकास अधिकारी के समस्त अधिकार प्रदान किए जाएँ, चूँकि नए जिले और विकासखण्ड तेजी से बन रहे हैं, अतः पर्वतीय जनपदों के लिये पेशकारियों और विकासखण्डों के लिये भी पर्वतीय क्षेत्र के मानक तय किये जाने चाहिए, जिससे प्रशासनिक आवर्ती व्यय कम-से-कम हो सके।

नवीं पंचवर्षीय योजना में उत्तरांचल के लिये 4,430 करोड़ रु. का परिव्यय निर्धारित है, जिसकी एक विशेषता यह भी है कि अनुमानित परिव्यय में 121.51 करोड़ रु. की राशि स्पेशल प्रॉब्लम ग्रान्ट्स के रूप में दशम वित्त आयोग के द्वारा संस्तुत किया गया है, जो 1997-2000 की अवधि के लिये है। विशेष केन्द्रीय सहायता उत्तरांचल के विकास के लिए एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सहायता है, नवीं पंचवर्षीय योजना के लिये यह राशि 1275 करोड़ रु. इंगित की गई है। जो कुल अनुमोदित परिव्यय का 28.78 प्रतिशत है, जबकि आठवीं पंचवर्षीय योजना में यह केन्द्रीय सहायता 50.98 प्रतिशत थी। विशेष केन्द्रीय सहायता का यह घटा हुआ प्रतिशत उत्तरांचल के लिये एक चिन्ता का विषय है। देहरादून और नैनीताल जनपदों के अलावा उत्तरांचल के सभी जिलों के विकास सूचकांक राष्ट्रीय स्तर से काफी पीछे हैं, इस दृष्टि से उ.प्र. और उत्तरांचल विकास विभाग द्वारा योजना आयोग के स्तर पर प्रयास करना आवश्यक है। एक अनुमान से अनुमोदित विशेष केन्द्रीय सहायता के अतिरिक्त 1200 करोड़ की अतिरिक्त सहायता का इस मद में दिया जाना अत्यावश्यक है।

उत्तरांचल से प्रवर्जन (पलायन) को प्रभावी रूप से रोकने के लिये आवश्यक होगा कि इस क्षेत्र में पर्याप्त निवेश हो। इस सम्बन्ध में संस्थागत वित्त की बड़ी मात्रा निवेश करने के लिये स्थानीय आवश्यकताओं के अनुरूप व्यावहारिक योजनाएँ बनाई जानी आवश्यक हैं, जो स्थानीय व्यक्तियों के कौशल से सुगमता से क्रियान्वित हो सकें, उत्तरांचल क्षेत्र में निवेश जमा अनुपात की स्थिति चिन्ताजनक है। 1993 में उ.प्र. में ऋण जमा अनुपात 42.36 प्रतिशत था। तब उत्तरांचल में यह मात्र 26.47 प्रतिशत थी। इसमें पर्वतीय भूभाग को अलग रख दिया जाय तो यह केवल 16 प्रतिशत था। अब जबकि उ. प्र. का निवेश जमा अनुपात घटकर 39 प्रतिशत के करीब आ गया है, स्पष्ट है कि उत्तरांचल क्षेत्र में इसकी स्थिति और भी खराब हो चुकी है। इसलिये सरकारी और संस्थागत वित्त निवेश के लिये चिन्हित योजनाओं पर बड़ी वर्केबुल योजनाओं को बनाने, उनका वित्त पोषण करना और योजनाओं के त्वरित क्रियान्वयन में जो कठिनाइयाँ अनुभव हो रही हैं, उनका निवारण किया जाना आवश्यक हैं।

इसके तहत उत्तरांचल विकास विभाग की महत्त्वपूर्ण वरीयता वाले कार्यक्रमों की परिचिन्हित करना है। वहीं स्वयं उत्तरांचल विकास विकास विभाग और 12 जनपदों के जनपद विकास प्रशासन और वे विभाग जो चिन्हित योजनाओं के लिये जिम्मेदार हैं। उनकी कार्यप्रणाली में इस प्रकार से सुधार लाया जाना आवश्यक होगा। जिससे इन चिन्हित योजनाओं के लिये सेल्फ ऑफ प्रोजेक्ट बैंकों के सामने प्रस्तुत कर वार्षिक योजना में इन योजनाओं के लिये वित्त दिए जाने की व्यवस्था हो सके।

सेल्फ प्रोजेक्ट में ऐसी योजनाएँ ली जाएँ, जो सीधे उत्पादन कार्य से स्थानीय व्यक्ति को जोड़ें उनमें 6,000 वन पंचायतों के पास उपलब्ध भूमि में गैर काष्ठीय उत्पादों का उत्पादन वर्केबुल स्कीम के माध्यम से और सरकार की रोजगारपरक योजनाओं के माध्यम से सम्भव है। जो क्षेत्र पक्के मार्गों से जुड़े हैं, वहाँ जिला सहकारी दुग्ध संघों के माध्यम से सघन मिनी डेयरी योजना को प्रत्येक जिले में और बड़े आकार में लेकर वित्त पोषित किया जाये। सघन मिनी डेयरी परियोजना के साथ-साथ बहुवर्षीय पर्वतीय चारा घासों के बीज और पौध उत्पादन के कार्य को भी इस कार्यक्रम के साथ लिया जाये। महिला डेयरी परियोजना का विस्तार भी उत्तरांचल के 12 जनपदों में चरणबद्ध रूप में वृहद रूप में लिया जाये और इस कार्यक्रम को बहुवर्षीय चारा उत्पादन के साथ जोड़ा जाये। इसका वित्त पोषण सरकारी और राष्ट्रीयकृत बैंकों के साथ हो।

चाय विकास योजना के क्षेत्र में जो प्रगति हुई है, उसमें और गति लाकर और विभिन्न शंकाओं का शीघ्रातिशीघ्र समाधान करके इस योजना को और बड़े पैमाने पर लिया जाये, जिससे निजी क्षेत्र द्वारा सरकारी पहल के साथ-साथ संस्थागत वित्त के वित्त पोषण के आधार पर इस क्षेत्र में कार्य करने का अवसर मिलेगा।

फल प्रसंस्करण जैसी इकाइयों, जो सरकारी क्षेत्र में विद्यमान हैं, को आधुनिक कर एफ.पी.ओ. लाइसेंस दिलाकर तथा ज्यादा व्यावसायिक बना कर तथा निजी फल प्रसंस्करण इकाइयों की स्थापना में भी निजी क्षेत्र का और संस्थागत वित्त का पूँजी निवेश बढ़ाया जाना चाहिए।

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