![सिंचाई](https://farm4.staticflickr.com/3848/15221303616_9a5fffae70.jpg)
आज के बदलते परिवेश में जहाँ सम्पूर्ण उपयोगी जल का 83 फीसदी कृषि कार्य में प्रयोग होता है वहीं हमारे सामने जल की गुणवत्ता को बनाए रखना एक चुनौती पूर्ण कार्य है। बढ़ती हुई जनसंख्या की खाद्यान्न पूर्ति एवं गिरते हुए जलस्तर की रोकथाम हेतु हमें सिंचाई के परम्परागत (अप्लावन, कुंड, एवं क्यारी) विधियों को त्याग कर सिंचाई के नए विकल्पों को अपनाना होगा। सिंचाई के नए विकल्पों में ड्रिप सिंचाई (टपकदार) और स्प्रिंकलर (बौछारी) सिंचाई प्रमुख है। टपकदार सिंचाई में जल को पौधों के जड़ क्षेत्र (रूटजोन) में बूँद-बूँद करके पहुँचाया जाता है। इस विधि का विकास इज़राइल में किया गया था। वृहद प्रयोगात्मक स्तर पर 1869 ई. में इसे जर्मनी द्वारा अपनाया गया। जलस्तर के गिरते हुए प्रारूप को देखते हुए यह विधि अन्य देशों में भी लोकप्रिय होती जा रही है।
सिंचाई की यह विधि ऊसर, रेतीली मृदाओं व बागों की सिंचाई के लिये अत्यन्त उपयोगी है। इस विधि में पी.वी.सी. की पाइप लाइन खेत में बिछाई जाती है और आवश्यकतानुसार जगह-जगह पर नाॅजिल लगाए जाते हैं। नाॅजिल से जल निकल कर मृदा को धीरे-धीरे नम करता है। इस विधि द्वारा सिंचाई करने से 35-75 प्रतिशत पानी की बचत होती है। यह विधि ऊँची-नीची मृदाओं के लिये उपयुक्त है। पिछले 15 से 20 वर्षों में इस तरह की सिंचाई विधि की भारत के विभिन्न राज्यों में लोकप्रियता बढ़ी है। आज 3.51 लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल ड्रिप सिंचाई के अन्तर्गत आता है जो कि 1960 ई. में 40 हेक्टेयर था। भारत के राज्यों में ड्रिप सिंचाई के अन्तर्गत सर्वाधिक क्षेत्रफल वाले मुख्य राज्य महाराष्ट्र (94 हजार हेक्टेयर), कर्नाटक (66 हजार हेक्टेयर) और तमिलनाडु (55 हजार हेक्टेयर) हैं। इसमें स्त्रावण एवं वाष्पन न्यूनतम होता है। उत्सर्जक ड्रिप सिंचाई के द्वारा 30-40 प्रतिशत तक उर्वरक की तथा 60-80 प्रतिशत श्रम की बचत के साथ उपज में 90 प्रतिशत तक वृद्धि हो सकती है। इसके अन्य लाभों में खरपतवारों पर नियंत्रण प्रमुख है।
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इस विधि के द्वारा हवा में फव्वारे के रूप में पानी का छिड़काव किया जाता है जो मृदा की सतह पर कृत्रिम वर्षा के रूप में गिरता है। इस विधि में पानी का कृत्रिम वर्षा के रूप में छिड़काव किया जाता है जिससे पानी का समान वितरण होता है तथा कहीं पर भी पानी जमा नहीं होता है। इस विधि की रूपरेखा में पम्प मोटर मुख्य रेखा, फव्वारा निकाय आदि प्रमुख होते हैं। इसका प्रयोग करने से सिंचाई जल की लगभग 30-70 प्रतिशत तक बचत होती है। सिंचाई की इस विधि का प्रयोग रेतीली मृदा, ऊँची-नीची जमीन और जहाँ पर पानी की उपलब्धता कम है, वहाँ पर किया जा सकता है। इस विधि का प्रयोग विभिन्न फसलों जैसे कपास, मूँगफली, तम्बाकू तथा फूलों वाली फसलों की सिंचाई के लिये किया जाता है। इस विधि में यह विशेष ध्यान रखना होता है कि सिंचाई करते समय वायु की गति तेज नहीं होनी चाहिए। सिंचाई की इस विधि में कवकनाशी, कीटनाशी तथा उर्वरकों का प्रयोग आसानी से किया जा सकता है। रेगिस्तानी इलाकों के लिये सिंचाई की यह विधि अति उत्तम मानी जाती है। अतः रेगिस्तानी इलाकों के लिये सिंचाई की इस विधि की सिफारिश की जाती है।
संपर्क - श्री अजय कुमार मिश्र, केन्द्रीय मृदा लवणता अनुसन्धान संस्थान, करनाल - 132 001, हरियाणा
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