सतपुड़ा जब झूमने लगता है


मानसून आते ही सतपुड़ा के पहाड़ों और जंगलों की छटा देखती ही बनती है। जो जंगल गर्मी में सूखे, उदास और बेजान से दिखते हैं वे मानसून की बारिश आते ही हरे-भरे और सजीव हो उठते हैं। मन मोह लेते हैं, बरबस अपनी ओर खींचते हैं।

बारिश से जमीन, चट्टानें और पेड़ों की नंगी डालियों में नई जान आ जाती है। चारों तरफ हरियाली फूट पड़ती है। पेड़ों की शाखाएँ सरसराती हवा में डोलने लगती हैं। चिड़ियाँ फुदकने लगती हैं। उनके गीत और जंगल की हवा मिल जाती है।

जो नदी नाले गर्मी में सूख जाते हैं, या कहें अदृश्य हो जाते हैं, बारिश में बहने लगे हैं। पहाड़ियों से निकलकर झरने कल-कल बहने लगते हैं। इनको देखकर ऐसा लगता है जैसे गुमा हुआ व्यक्ति अचानक से मिल जाता है।

मौसम में नई बहार आ जाती है। जगह-जगह से छोटे-बड़े पौधे निकल आते हैं। पेड़ों के बीच से, चट्टानों की दरारों से और जहाँ आप सोच भी नहीं सकते वहाँ से पौधे झाँकने लगते हैं।

बारिश के दौरान पेड़ों से बूँदें टपकना, पेड़ों की डालियों में लड़ियों सी सज जाती हैं। घने मिश्रित के वनों के ऊपर छतरी से छाए बादल मँडरा रहे हैं, धुएँ सा आभास होता है, पानी की फुहार गिरती रहती है, रिमझिम-रिमझिम, धीरे-धीरे।

मैं सतपुड़ा की रानी पचमढ़ी और उसके आसपास जाता रहा हूँ। पिपरिया से पचमढ़ी की ओर जाने वाली सड़क पर 8-10 किलोमीटर जाते ही जंगल शुरू हो जाता है। इन दिनों सागौन के पेड़ सफेद फूलों से लदे हैं। इसके जुड़वा पत्ते हवा में हिलते हैं। हाथ के स्पर्श से खरखराते हैं।

सागौन इमारती लकड़ी है। इसके खुरदरे पत्तों से किसान खेतों में ढबुआ (मंडप) बनाते थे, जिससे वे रखवाली करने के दौरान रहते हैं। जंगल वाले इलाकों में अब भी बनाते हैं। इसके पत्तों से बने ढबुए बहुत ठंडे होते हैं।

होली के आसपास जंगल पलाश के लाल फूलों से सज जाता है। इसके पत्तों से दोना-पत्तल बनाए जाते हैं। आंजन की पत्तियाँ गर्मी में भी हरी होती हैं। इसके अलावा जंगल में महुआ, आम, आंजन, साज, सेमरा, बील, धावड़ा, हर्र, बहेड़ा, आँवला, सरई और कई पेड़-पौधे व कई वनस्पतियाँ हैं। पतझड़ के मौसम में ये जंगल उदास और नंगे हो जाते हैं।

नर्मदा जो विन्ध्यांचल और सतपुड़ा के बीच मैकल पर्वत से निकलती है, इसलिये इसे मैकलसुता कहते हैं। इसकी बंजर, शेर, दूधी, शक्कर, पलकमती, तवा, देनवा जैसी सहायक नदियाँ भी सतपुड़ा पहाड़ से निकलती हैं। जो आजकल लगभग सूख गई हैं। बारिश में ही बहती हैं। जंगल का मोहक रूप मानसून में होता है, इसी जंगल और पहाड़ से नदियों का अस्तित्व जुड़ा है।

सतपुड़ा पहाड़ों में आदिवासी रहते हैं। हमारे इलाके में गोंड और कोरकू रहते हैं। ये सूखी खेती करते हैं। यानी बारिश के पानी पर आधारित। मक्का, ज्वार, कोदो, कुटकी और कई तरह की सब्जियाँ। धान भी लगाते हैं।

कुल मिलाकर, यह कहा जा सकता है कि मानसून में सतपुड़ा का नजारा बहुत खूबसूरत होता है और नर्मदा भी साथ-साथ ही चलती है गुजरात तक, जहाँ वो समुद्र में मिलती है। अगर हमें नदियाँ बचाना है, तो जंगल और पहाड़ भी बचाने होंगे, जो उनको सदानीरा बनाए रखते हैं।
 

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Post By: RuralWater
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