सस्ती दाल के लिये सेहत पर दाँव


तत्काल दलहन का उत्पादन बढ़ाया नहीं जा सकता, इसलिये देश में लंबे समय से जारी दाल संकट से कैसे उबरा जाए, के अहम सवाल पर बहस के बीच अब प्रतिबंधित खेसारी दाल को लेकर चर्चा शुरू हो गई है। केंद्र सरकार 54 साल से खेसारी दाल पर लगी पाबंदी हटाने की तैयारी कर रही है। विपक्ष वाले सवाल उठा रहे हैं कि अमीर लोग तो खेसारी की दाल खाएँगे नहीं, वे अरहर की दाल का ही सेवन करेंगे, जबकि गरीबों को खेसारी परोसी जाएगी। पहले से बीमार और कुपोषित भारत के लिये खेसारी से प्रतिबंध उठाना कतई सही नहीं है...

साढ़े पाँच दशक पहले सरकार ने जिस खेसारी दाल को प्रतिबंधित किया था, वह एक बार फिर सुर्खियों में है। राजनीति से लेकर बाजार तक यह सवाल पूछा जा रहा है कि क्या दाल संकट से निपटने के लिये नरेंद्र मोदी की सरकार स्वास्थ्य की दृष्टि से प्रतिबंधित की जा चुकी दाल को वापस लाने की तैयारी कर रही है? खबर है कि कृषि जगत से लेकर भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद, भारतीय खाद्य सुरक्षा और मानक प्राधिकरण में मंथन चल रहा है कि कैसे आमजन की थाली में इसकी वापसी कराई जाए। खेसारी के नफा-नुकसान और पक्ष-विपक्ष की दलीलों को नजरअंदाज कर दिया जाए तो भी देश की सरकारों से यह सवाल पूछने का हक है कि जब दलहन की खेती का रकबा घट रहा था, उत्पादन कम हो रहा था, अपनी खपत का 20 फीसदी यानी लगभग 40 लाख टन दालें हमें बरसों से कनाडा और ऑस्ट्रेलिया आदि देशों से आयात करना पड़ता है, तब क्यों इतनी देर की गई।

जबकि इस दौरान देश की सत्ता अर्थशास्त्र के माहिर लोगों से लेकर हलधर किसान, हंसिया बाली, गरीब सर्वहारा वर्ग और किसान मजदूर का नारा बुलंद करने वालों के हाथों में भी थी या वह किसी न किसी रूप में सत्ता में हिस्सेदार थे। आँकड़े गवाह हैं कि वर्ष 1971 में प्रति व्यक्ति दाल की उपलब्धता देश में 51.1 ग्राम प्रतिदिन थी, जो साल 2013 में घटकर 41.9 ग्राम प्रतिदिन रह गई। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार, सेहत के लिये दाल की उपलब्धता 80 ग्राम प्रति दिन प्रतिव्यक्ति होना चाहिए। जाहिर है कि सत्ता की राजनीति के चलते भोजन और प्रोटीन की इस अहम जरूरत के बारे में सोचने की फ़ुरसत किसी को नहीं थी। अरहर की दाल पिछले छह महीने से गरीब क्या, मध्यमवर्ग की थाली से भी गायब हैं।

देश और प्रदेश की सरकारों के तमाम जतन के बाद भी दाल की कीमतें अब तक सामान्य नहीं हो सकी हैं। जमाखोरों से लाखों टन दाल जब्त कर हाल में ही दोबारा बाजार के हवाले किया गया, लेकिन कीमतें 160 और 180 रुपए के आस-पास ही आ सकी हैं। जमाना बदलने और खेती के नए तरीके ईजाद होने के बाद भी देश में आज खेती-किसानी करना किसी चुनौती से कम नहीं है। कभी सूखा और कभी मौसम के अतिवाद से भी किसान हतोत्साहित होते हैं। दलहन की खेती में कम पैदावार और तमाम तरह की दुश्वारियों के चलते मांग और आपूर्ति के बीच बड़ा अंतर दशकों से चला आ रहा है। बीते छह दशक में दलहन के रकबे में महज 60 लाख हेक्टेयर का इजाफा हुआ है, जबकि उत्पादन की संयुक्त सालाना वृद्धि दर एक प्रतिशत से भी कम रही है। देश में प्रति हेक्टेयर करीब 700 किलो दाल का उत्पादन होता है, जबकि फ्रांस में सबसे ज्यादा प्रति हेक्टेयर 4219 किलो दाल का उत्पादन होता है।

हर साल देश में 220 लाख टन दालों की खपत होती है। इसे पूरा करने के लिये करीब 40 लाख टन दालें विदेशों से आयात करनी पड़ती हैं। लेकिन आँकड़ों की ये कहानी बहुत पुरानी है। दरअसल, तीन साल के लगातार सूखे, दलहन की खेती का रकबा घटने और आनेवाली फसल से भी बहुत उम्मीद न होने से सरकार की चिंता बढ़ गई है। इससे दालों के दाम आगे भी कम होने के आसार जानकारों को नहीं लग रहे हैं। बीस महीने पुरानी मोदी सरकार महँगाई के मोर्चे पर तो विफल ही रही है, वह तत्काल आमजन को राहत पहुँचाने में भी अब तक सफल नहीं हो सकी है।

विश्व बाजार में कच्चे तेल के दाम एक दशक के न्यूनतम स्तर पर है, फिर भी देश के लोगों को पेट्रोल और डीजल इस अनुपात में 112 फीसदी अधिक कीमत पर मिल रहे हैं। प्रोटीन क्रांति और नई हरित क्रांति के दावे फेल हो चुके हैं। पिछले दस साल के कुशासन से ऊबी जनता सरकार, प्रधानमंत्री के दावों-वादों को भविष्य के आलोक में देख कर अभी खामोश है। लेकिन बात साफ है कि दाल की कमी और उसके आसमान छूते दामों को लेकर देशभर में दबे आक्रोश को उभरने से रोकने के उपाय के तौर पर केंद्र सरकार में खेसारी दाल से प्रतिबंध को हटाने पर विचार चल रहा है। एक अंग्रेजी दैनिक सूचना के अधिकार के तहत मांगी सूचना से सरकार की इस मंशा का खुलासा हुआ है। लेकिन इससे वाकई में कितना फायदा होगा, इसका कोई आकलन केंद्र सरकार के पास भी नहीं है। फिर ये सवाल तो बना ही हुआ है कि क्या केंद्र गरीबों के लिये खेसारी और उच्च मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग के लिये अरहर की दाल का भेद पैदा करने जा रही है।

कहा जा रहा है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी दालों के मामले में देश को आत्मनिर्भर बनाना चाहते हैं। पिछले महीने उन्होंने दालों की खेती को प्रोत्साहन देने के लिये एक स्कीम को मंजूरी दी थी। दरअसल, प्रोटीन शक्ति, स्वास्थ्य में व दालों का भोजन में महत्त्व के मद्देनजर विश्वभर में जनजागरूकता पैदा करने के उद्देश्य से वर्ष 2016 को संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी अन्तरराष्ट्रीय दलहन वर्ष घोषित किया है। गेहूँ और चावल को प्रोत्साहन दिए जाने के कारण इनका उत्पादन तेजी से बढ़ा, जबकि दलहन और तिलहनों का उत्पादन नहीं बढ़ा। जबकि गेहूँ और चावल उगाने में ज्यादा पानी की जरूरत होती है। तत्काल दलहन का उत्पादन बढ़ाया नहीं जा सकता, इसलिये देश में लंबे समय से जारी दाल संकट से कैसे उबरा जाए, के अहम सवाल पर बहस के बीच अब प्रतिबंधित खेसारी दाल को लेकर चर्चा शुरू हो गई है।

केंद्र सरकार 54 साल से खेसारी दाल पर लगी पाबंदी हटाने की तैयारी कर रही है। गौरतलब है कि खेसारी दाल खाने से पैरों में लकवा, गठिया और मस्तिष्क संबंधी विकारों की शिकायतें बड़े पैमाने पर मिलने के बाद केंद्र ने 1961 में खेसारी की खेती पर रोक लगा दी थी। वहीं ऐतिहासिक दस्तावेजों के मुताबिक, इससे पहले भी जब 1907 में देश में भयंकर सूखा पड़ा तो मध्य प्रदेश स्थित रीवा रियासत के तत्कालीन महाराजा वेंकट रमण सिंह ने भी इस दाल की खेती को बैन कर दिया था। मगर अब कृषि मंत्रालय ने खेसारी की खेती पर प्रतिबंध हटाने का प्रस्ताव भारतीय खाद्य सुरक्षा व मानक प्राधिकरण को भेजा है। मंत्रालय के मुताबिक नई किस्मों में नुकसानदायक तत्वों की मात्रा को सौ गुना तक कम कर दिया गया है।

वैज्ञानिकों का दावा है कि खेसारी दाल की रतन, प्रतीक और महातेओरा नाम की तीन ऐसी किस्में विकसित कर ली गई हैं, जिसके इस्तेमाल से कोई नुकसान नहीं होगा? खबरों के मुताबिक, इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च का कहना है कि खेसारी दाल की जो नई किस्में विकसित की गई हैं, उनमें पुरानी किस्मों के मुकाबले टॉकसिंस कम हैं। अगर खेसारी दाल को पकाया जाता है तो उनमें नुकसान वाले तत्व नहीं के बराबर बचेंगे। लेकिन एक अजीब बात ये है कि जिस दाल को 55 साल पहले प्रतिबंधित कर दिया गया था, उसके बारे में अब सरकारी आँकड़े दावा कर रहे हैं कि भारत में खेसारी दाल एक महत्त्वपूर्ण रबी फसल है। जो मुख्यत: छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, बिहार और पश्चिम बंगाल में लगभग चार-पाँच लाख हेक्टेयर क्षेत्रफल में उगाई जाती है।

इसका वार्षिक उत्पादन 2.8 से 3.5 लाख टन है और औसत उपज 650 से 700 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर है। आँकड़े बताते हैं कि पाबंदी से पहले अकेले खेसारी दाल का राष्ट्रीय उत्पादन दस लाख टन था। कहा जा रहा है कि खेसारी दाल पर सरकार का रुख बदलने के लिये जिन राज्यों ने मजबूर किया, उनमें छत्तीसगढ़ अग्रणी है। यह राज्य बीते कुछ वर्ष से खेसारी दाल की नई प्रयोगशाला बन गया है, यहाँ न केवल खेसारी दाल की नई-नई किस्मों को तैयार करने के लिये अनुसंधान कार्य चल रहे हैं, बल्कि अधिक से अधिक पैदावार बढ़ाने के लिये परियोजनाएँ भी संचालित की गई हैं। समझा जाता है कि छत्तीसगढ़ में इसकी खेती के रकबे और उत्पादन के आँकड़ों में बढ़ोतरी के बाद उत्साहित होकर सरकार ने अब इसकी खेती से प्रतिबंध हटाने पर विचार किया है। दरअसल, दालों के संकट से निपटने के लिये केंद्र सरकार जिस खेसारी की नई किस्मों को बढ़ावा देने की तैयारी कर रही है, उसके लिये छत्तीसगढ़ सबसे उपयुक्त है।

वैज्ञानिकों ने जिन तीन नई किस्मों को ईजाद किया है, उनमें प्रतीक और महातिवड़ा छत्तीसगढ़ के इंदिरा गाँधी कृषि विश्वविद्यालय ने ही तैयार की हैं। विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिकों का दावा है कि सूखे और कम पानी के बावजूद दाल की इन किस्मों की खेती से प्रति हेक्टेयर 18 क्विंटल से भी ज्यादा उत्पादन संभव है। फिलहाल अच्छी खबर यह है कि इस दाल को बाजार में आने के लिये हरी झंडी मिलने में अभी कुछ वक्त बाकी है। कृषि मंत्रालय और मैगी के प्रतिबंध में प्रसिद्धि पाने वाली एफएसएसएआई ने इस बारे में अभी कोई घोषणा नहीं की है, क्योंकि खेसारी दाल की सुरक्षा पर वैज्ञानिक समुदाय में एक राय नहीं है और बहस जारी है। जुलाई 2013 में प्रकाशित भारतीय चिकित्सा जर्नल की एक रिपोर्ट और भारतीय विषाक्तता अनुसंधान संस्थान की राय में भी एकरूपता नहीं है।

विपक्ष भी ये सवाल उठा रहा है कि अमीर लोग तो खेसारी की दाल खाएँगे नहीं, वे अरहर की दाल का ही सेवन करेंगे, जबकि गरीबों को खेसारी परोसी जाएगी। पहले से बीमार और कुपोषित भारत के लिये खेसारी से प्रतिबंध उठाना कतई सही नहीं है। बड़े पैमाने पर इसके बाजार में आने से अरहर दाल में मिलावट नहीं होगी, इसकी क्या गारण्टी? कई सामाजिक संगठनों का कहना है कि सरकार का इस तरह अचानक खेसारी की दाल पर से प्रतिबंध उठाने की सिफारिश संदेह पैदा करती है। बहरहाल अब यह देखना महत्त्वपूर्ण होगा कि फूड सेफ्टी एंड स्टैंडर्स अथॉरिटी ऑफ इंडिया इस पर आगे क्या फैसला करती है। अगर सच में यह प्रयोग सफल रहा तो जल्द ही यह दाल देश में महँगी दाल का संकट दूर कर सकती है। लेकिन इसके लिये जरूरी है कि इस पर प्रतिबंध हटाने से पहले सरकार को पर्याप्त वैज्ञानिक मंजूरी और जनता को विश्वास में लेना चाहिए।

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