तालाब बनाने वाले कारीगरों के पास जो करनी होती, वह दो प्रकार की होती थी- बड़ी करनी, जो भारी लोहे की बनी होती थी, 8 से 10 इंच गहराई में चली जाती थी। अब की करनी सम्भवतः 4 इंच से ज्यादा नहीं जा पाती क्योंकि उस समय चिनाई रोड़ों की होती थी, तो यही काम आती थी। घुटाई के वास्ते छोटी करनी, जिसे न्याला भी कहते हैं, काम आती थी। तालाब का पख बनाने के लिये तीन प्रकार के गोले थे- एक दाँतेदार, एक त्रिभुजाकार एवं एक लगभग आयताकार।संसार- सागर के इन महानायकों के शिल्प का सौन्दर्य आज भी माथे चढ़ कर बोलता है। चाहे ये आज किसी इंजीनियरिंग कॉलेज में न पढ़ें हों या किसी आईआईटी के होनहार विद्यार्थी न रहे हों, फिर भी इनका कौशल इक्कीस ही पड़ता है, किसी भी दृष्टि से उन्नीस नहीं। एक बात तो अवश्य ही मन में उठ रही होगी कि उस जमाने में जब साधन इतने विकसित नहीं थे तो ये नायक अपने शिल्प का सौन्दर्य कैसे गढ़ते रहे होंगे? इस क्रम में सबसे पहले तो यह जान लें कि बीकानेर में चेजे का काम करने वालों का मुखिया अक्सर सुथार जाति का होता था। इसके पीछे यही प्राचीन मान्यता थी कि ये विश्वकर्मा की सन्तान हैं।
इस कार्य में वे निपुण, निष्णात एवं कौशल सम्पन्न माने जाते रहे हैं फिर भी परियोजना के दौरान जगह-जगह पूछताछ से पता चला कि सुथार ही चलवें होते थे। लेकिन कारीगरी का काम यहाँ पर राजपूत एवं माली जाति के लोग भी करते थे। बीकानेर के अधिकांश तालाबों एवं कुओं के निर्माण में इन्हीं जातियों के कारीगरों की भूमिका रही है, ऐसा बुजुर्ग बताते हैं। लेकिन अब चूँकि इस तरह का काम करने वाले नहीं रहे और समयाभाव के चलते हो सकता है मैं भी ऐसे लोगों तक पहुँच नहीं पाया हूँ लेकिन सुथारों व दर्जियों की तलाई के बीच स्वामी चौक में रहने वाले श्री मोहनसिंह पुत्र स्व. बद्रीसिंह ने तो इस शिल्प के जादू का रहस्य ही खोल दिया। उनके पास अपने स्व. पिता श्री बद्रीसिंह, जो अपने जमाने के विख्यात कारीगर थे, के औजारों का जखीरा आज भी सुरक्षित है। वे स्वयं भी तालाब व कुएँ का काम जानते हैं।
आजकल तो इस तरह के कार्य कोई करवाता ही नहीं है, अतः वे सामान्य तरह के चेजे के काम में लगे रहते हैं। तालाब की चिनाई का काम असल में सामान्य कार्य से भिन्न होता था। उसमें उलटी चिनाई की जाती थी। पाली, घाट एवं अन्य स्थान पुट्ठी बाँधकर बनाए जाते थे। निर्माण की सामग्री में राजाशाही रोड़ा, खारा चूना, बजरी के साथ सुरखी का इस्तेमाल होता था। उस जमाने में ईंट, सीमेंट का प्रचलन नहीं था तब इन्हीं से काम चलाया जाता था।
कालान्तर में सीमेंट का भी प्रयोग कई जगह देखने में आया है। रोड़ा इसलिये भी उपादेय था कि एक तो वह गलता नहीं है, दूसरे रोड़े की दीवार कभी गिरती नहीं है, क्योंकि रोड़े की बनावट में आई गोलाई उसे कहीं-न-कहीं एक रोड़े से दूसरे रोड़े से जोड़े रखती है। लोक-प्रचलित कहावत रोड़े अटकाना में भी इसी खूबी की सूचना है। और फिर यह तथ्य भी श्री मोटूलाल हर्ष ने बताया है कि गोलाई में होने के कारण उनमें मजबूती आ जाती है। इसलिये उनकी तो यह भी मान्यता है कि पृथ्वी भी चूँकि गोल है, अतः वैज्ञानिक भले ही कहते रहें, वह नष्ट नहीं होगी।
चूना उन दिनों हरिजन व नायक मिलकर पकाते थे। उन्हीं के द्वारा दक्षता से पकाये खारे चूने को तालाब निर्माण के काम में लिया जाता था। बाद में कच्ची ईंटों का प्रचलन भी शुरू हुआ। आज की तरह मिक्सर तो थे नहीं, वरन घरट होता था जिसे भैंसे से चलाया जाता था। उसी में रोड़ा, खारा चूना, बजरी और सुरखी आदि मिलाकर मसाला तैयार किया जाता था कारीगरों के पास साजनी, गुणिया, सावल (पत्थर का बना लकड़ी के हत्थे का), रूसी, गुरमाला, करनी, न्याला, गोला, गज, लेवल ही होते थे।
तालाब बनाने वाले कारीगरों के पास जो करनी होती, वह दो प्रकार की होती थी- बड़ी करनी, जो भारी लोहे की बनी होती थी, 8 से 10 इंच गहराई में चली जाती थी। अब की करनी सम्भवतः 4 इंच से ज्यादा नहीं जा पाती क्योंकि उस समय चिनाई रोड़ों की होती थी, तो यही काम आती थी। घुटाई के वास्ते छोटी करनी, जिसे न्याला भी कहते हैं, काम आती थी।
तालाब का पख (किनारा) बनाने के लिये तीन प्रकार के गोले थे- एक दाँतेदार, एक त्रिभुजाकार एवं एक लगभग आयताकार। इनसे वांछित आकार-प्रकार में, किनारे की गोलाई तैयार की जाती थी। पख की मोटाई ताल-तलाई के औसार से मोटी होती थी, साथ ही गोलाई में भी किनारों के नीचे तल पर पहले बाटिया जरूर बनाया जाता ताकि मजबूती बनी रहे और पानी थपेड़ों से दीवारों पर अधिक दबाव नहीं पड़े। लेवल लेने के वास्ते भी लम्बी आयताकार किन्तु बीच में वृत्ताकार शक्ल की जगह छोड़ते पुरानी तरह के लेवल होते थे जो एल्यूमीनियम एवं लकड़ी के बने होते थे। बीच में छोड़ी लम्बी वृत्ताकार खाली जगह में काँच की पतली शीशी रखकर तालाब के लेवल को देखा जाता और ढलान आदि का निर्धारण भी इसी से होता था।
घाट के कोनों के निर्माण के वास्ते साजनी काम में लाई जाती थी, जो क्रमशः लोहे और लकड़ी की बनी होती थी। पूर्व में साजनी लकड़ी की बनी होती थी, फिर लोहे की बनाई जाने लगी। लोहे की इसलिये बनाई जाती थी ताकि पतली होने के कारण केन्द्र सही आ जाता था। तालाब की लम्बाई की माप लेने हेतु गज होते थे। पुरानी तरह के 1 गज = 2 फुट वाली गज का इस्तेमाल होता था।
लेकिन कई बार लम्बा तालाब जब बनाया जाता तो माँचे (चारपाई) की ईश के माप की रस्सी के टुकड़े पर निश्चित माप के बाद गाँठ छोड़ी जाती थी। उससे लम्बी-से-लम्बी माप आसानी व शीघ्रता से हो जाती थी। इसके अलावा अंगुलियाँ भी नाप के तौर पर प्रचलन में थी। गुरमाला पलस्तर की घुटाई में काम आती थी लेकिन उससे पहले रूसी का प्रयोग करते हुए पलस्तर को दबाया जाता था। तत्पश्चात करनी व न्याले से फिनिशिंग व घुटाई का काम आरम्भ होता था। तालाब या तलाई की चिनाई पैठ छोड़ते हुए की जाती थी ताकि मजबूती रहे व तालाब-तलाई दरके नहीं। खारे चूने की मात्रा भी तेज दी जाती थी, फिर उसे टापकर छोटी करनी से घुटाई की जाती, जिससे और अधिक मजबूती आ जाती थी।
सावल तालाब के चारों ओर बनने वाली पैठ व दीवार की एकसारता हेतु काम में लाया जाता क्योंकि कई बार चिनाई के दौरान रोड़े आगे-पीछे रह जाते थे, अतः सावल उन्हें एकसारता बताने में मदद करता था। यह पत्थर का बना होता था और इसका हत्था लकड़ी का बना होता था।
रूसी व गुरमाला पलस्तर में काम आते थे। निर्माण के दौरान काम आने वाला पानी पास के कुओं से मशक अथवा पखालों में भरकर, कमर पर रखकर लाते थे। खाले या नाले के पानी का इस्तेमाल नहीं होता था क्योंकि तालाब पवित्रता के प्रतीक थे। औजारों में जो लकड़ी काम में ली जाती, वह बेरी की होती थी, जो बहुत ज्यादा मजबूत वजन में हल्की रहती है।
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