भारत और नेपाल की भौगोलिक सीमाएं भले ही अलग हों, मगर उनमें गहरी सामाजिक और सांस्कृतिक एका है। पवित्र नदियाँ दोनों देश की पहचान है। इसी पहचान को समझने-बुझने के लिए सरयू से बागमती तक का एक यात्रा-वृत प्रस्तुत कर रही हैं उर्मिला शुक्ल।
सरयू के तीर पर बसी अयोध्या नगरी नें तो इतना कुछ खोया है कि इसका स्वरूप ही बदल गया है। सरयू ने अपनी धारा बदल ली है। अब वह घाट को छोड़कर बहुत दूर चली गई हैं। मानो इंसानी शिकंजे से छूट भागना चाहती हों। मगर, सीढ़ियों से नीचे दूर-दूर तक रेतीला तट उभर आया है और उस पर पंडों का राज है। उनके ठिकानों पर बछिया से लेकर कृशकाय गाएँ बंधी हुई थीं, जो मनुष्य को स्वर्ग पहुँचाने के इन्तजार में बैठी ऊँघ रही थी। ऊँघ तो पंडे भी रहे थे क्योंकि ये उनके व्यवसाय का मौसम नहीं था।यात्रा में एक ओर सरयू थीं तो दूसरी ओर बागमती। इनके बीच में थीं कोसी, काली, ताप्ती जैसी नदियाँ। अद्भुत संयोग यह भी रहा कि हमारे साथ जो लोग जुड़े उनके शहर भी नदियों के तीर पर बसे थे। यों यह यात्रा अयोध्या से प्रारम्भ होनी थी, लेकिन इससे पहले ही शुरू हो गई थी। सो मेरी इस यात्रा में मेरे साथ खारून, शिवनाथ और अरपा तो शामिल रही हीं, आगे चलकर इलाहाबाद से गंगा और यमुना के साथ हो चलीं। बनारस में तो गंगा अपनी पूरी रफ्तार से बह रही थी, मगर उसमें पहले वाली बात नहीं थी। मुझे याद आ रही थी अपने बचपन की देखी वह गंगा जो बनारस ही नहीं, पूरे भारत की आन हैं, ‘जिसके लिए किसी गीतकार ने लिखा था, गंगा तेरा पानी अमृत, झर-झर बहता जाए, युगों-युगों से इस धरती पर सबकी प्यास बुझाए।’
मगर अब यह गीत मन को नहीं छूता। कुछ धार्मिक परम्पराओं और जहरीले उद्योगों ने गंगा को जहरीला बना दिया है। हम बनारस के गंगा तट से लौटकर ट्रेन पकड़कर अयोध्या जा पहुँचे। वहाँ युगल किशोर शास्त्री जी से मुलाकात हुई। वे इस यात्रा के प्रमुख सहयोगी थे। सरयू के तीर पर बसी अयोध्या नगरी नें तो इतना कुछ खोया है कि इसका स्वरूप ही बदल गया है। सरयू ने अपनी धारा बदल ली है। अब वह घाट को छोड़कर बहुत दूर चली गई हैं। मानो इंसानी शिकंजे से छूट भागना चाहती हों। मगर, सीढ़ियों से नीचे दूर-दूर तक रेतीला तट उभर आया है और उस पर पंडों का राज है। उनके ठिकानों पर बछिया से लेकर कृशकाय गाएँ बंधी हुई थीं, जो मनुष्य को स्वर्ग पहुँचाने के इन्तजार में बैठी ऊँघ रही थी। ऊँघ तो पंडे भी रहे थे क्योंकि ये उनके व्यवसाय का मौसम नहीं था। किसी यात्री को देखते ही वे उस पर भिनभिनाने लगते।
‘कहंवा से आय हव? तोहार गुरु घराना केहके हियां हय?’
उन्होंने हमें भी घेरा था मगर, ‘छोड़व हो, ई पढ़ी-लिखी हय। ई धरम-करम का जानय।’ एक ने कहा तो सब लौट गए थे। सरयू की धार तक पहुँचने के पहले गोबर, फूल, पैरा और घास के साथ मानव-मल देख कर मन घिना गया था। सो धार तक पहुँचने के पहले ही लौटना पड़ा।
सड़क मार्ग से हम आगे बढ़े और सरयू पुल पर ही बस्ती जिले की सीमा में प्रवेश किया। हमारा पहला पड़ाव कुशीनगर था, मगर हम कुछ देर मगहर में रुके। कबीर की निर्वाण भूमि, मगर फिरकापरस्तों ने उनकी सारी मेहनत पर पानी फेर दिया है और उन्हें मन्दिर और मकबरे में बाँट दिया है। मठ के महंत ने हमारे भोजन की व्यवस्था की और आस-पास के स्कूल और कॉलेज की लड़़कियों से मुलाकात भी कराई। उनसे बातचीत से हमने जाना कि अब स्थितियाँ बदली हैं, लड़कियों की पढ़ाई और नौकरी पर ध्यान दिया जाता है। मगर सामाजिकता का लोप सा होने लगा है, अब ब्याह और मरनी, हरनी में भी एका नजर नहीं आता। गीतों की बात चली तो वहाँ मौजूद पचास-साठ लड़कियों में किसी को भी लोक-गीत याद नहीं थे।
वहाँ से हम कुशीनगर पहुँचे। रात घिरने लगी थी, मगर हम पंडरी गाँव के लोगों से मिले। कुशीनगर से लगभग 20 किलोमीटर कोने पर भी विकास का एक कण भी यहाँ नहीं पहुँचा था। मगर यहाँ के युवा सजग हैं, वे स्वप्रयास से स्कूल भी चलाते हैं और हिंदू समाज के विरोधी हैं। वे सरकार से भी खफा हैं। रात को हम बौद्ध मठ में ठहरे। यह मठ किसी शानदार विश्राम गृह से कम नहीं था। सुबह हम केसिया गाँव गए। सामाजिक और पारिवारिक विघटन के इस दौर में एकमात्र संयुक्त परिवार मिला। हमने उनसे बात की। उस परिवार की सबसे बुजुर्ग महिला के पास तीज-त्योहार, गीत-गवनई की अनुपम थाती थी, मगर उनसे सीखने वाला कोई नहीं था। नई पीढ़ी लोक से विरत थी।
उन्होंने हमें कई गीत सुनाए। ‘पहले झिंझिया, झूमर, सामा चकवा, बिरहा, चैती अउर बियाह, संझा पराते, सेंदुर दिहले कय गीत, बिदा गीत। फेन अब त सब ख़तम।’ कहते हुए उनकी आँखों में एक दर्द-सा छलक आया था। गोपालगंज में रात्रि विश्राम के बाद हम मुजफ्फरपुर की ओर बढ़ चले। रास्ते में बाराचकिया शासकीय महाविद्यालय में ठहरे। हमने वहाँ की लड़कियों की सामाजिक स्थिति पर बात की तो पाया अब उनकी पढ़ाई और नौकरी पर उतना प्रतिबंध नहीं है। मगर समाज व्यवस्था में अभी भी पूरुषों का बोलबाला है। न तो दहेज प्रथा खत्म हुई है और न ही लड़कियों को सम्पत्ति में अधिकार मिला है। हमें आगे बढ़ना था, मगर हम वहीं रूक गये। कारण पास के मुसहर टोला में विवाह था और हमारे लिए कुछ जानने का अवसर। मगर वहाँ तो सबकुछ शहरी था। वैसा ही रिसेप्शन! वही बफे, दोना-पत्तल की जगह प्लास्टिक के प्लेट और गिलास! न द्वारचार, न गीत गवनई। मंडप भी बाजार की रेड़ीमेड चीजों से सजा था। गाँवों में तो हमारी संस्कृति बसती थी। मगर अब वहाँ बाजार काबिज है। जेवनार, कलेवा और कोहबर की रस्मों के बिना ही फेरों के तुरन्त बाद दुल्हन भी विदा हो गई। दूसरे दिन हम बैसरहा गाँव पहुँचे। देखा, गाँव के बाहर सूखे तालाब के किनारे मंदिर जैसी छोटी-बड़ी आकृतियाँ रखी थी। ऐसी ही आकृति मुझे देवरिया और कुशीनगर में भी नजर आई थी। सो मैंने सरपंच से पूछा तो पता चला कि इन्हें छठ पूजा के लिए बनाया जाता है। और पूजा के बाद विसर्जित किया जाता है। मगर अब तालाबों में पानी ही नहीं है तो इन्हें ऐसे ही किनारे रख दिया जाता है। यानी पानी था तो आकृतियाँ भी जल प्रदूषण फैलाती थी। शायद उसी के कारण ये तालाब अब सूखा तालाब कहलाता है। अगर हम नहीं चेते तो देश की सारी नदियाँ और तालाब ऐसे ही जलरहित नजर आएँगे। फिर मुसहर टोला का स्कूल देख बाबा नागार्जुन बहुत याद आए। स्कूल के नाम पर एक छोटी सी मड़ैया थी। अधनंगे बच्चे हमें घेरकर खड़े थे। हम आगे बढ़े तो गाँव वाले अपनी समस्या लेकर सामने थे। उन्हें लगा हम चुनाव के लिए वोट बटोरने आए हैं। और वे गलत भी तो नहीं थे। अब तक यही तो होता आया है।
अगले दिन हम मुजफ्फरपुर पहुँचे। रात्रि विश्राम के बाद हमने तराई के इलाके में प्रवेश किया। वहाँ गरीबी और भ्रष्टाचार में पिसता गाँव देखा, जहाँ मिट्टी तेल की कालाबाजारी से परेशान लोग आज भी मड़ुआ की रोटी खाने और नीम के तेल का दिया जलाने को विवश हैं। ये सीमावर्ती गाँव हैं।
पूनौरा यानी सीता की जन्मस्थली होते हुए हम बरहथवा की ओर बढ़े और शाम ढलते-ढलते मंगलवा सर्लाही के रास्ते नेपाल पहुँच गए। सीमा पर लिखे, ‘नेपाल भारत मैत्रर रहोस्’ में हमारा आत्मीय स्वागत किया। बरहथवा से हम चाँदी नदी के किनारे-किनारे बेलतौतरा गाँव की बढ़े। बताया गया कि ये हर साल अपनी धारा बदल कर गाँव के गाँव निगल लेती है। वहाँ एक भी साबुत राह नहीं थी। कहीं अथाह गड्ढ़ा तो कहीं ऊँचा सा टीला। ऐसे में, सारा गाँव ऐसे झोपड़ियों में रहने को विवश था, जिसमें निहुर कर ही प्रवेश किया जा सकता था। वहाँ मुर्गी, बकरी और इंसान एक साथ रह रहे थे। झोपड़ी बहुत छोटी थी मगर दिल बहुत बड़ा था। बकरी के दूध की दही के साथ दाल भात खाकर हम फिर बरहथवा लौट चले। वहाँ रात्रि विश्राम था।
सबेरे हम अपनी मंजिल काठमांडो की ओर बढ़े। पहाड़ी खेतों में मक्के और अरहर की फसल लहरा रही थी। छोटे-छोटे गाँव और परपोटे वाले घर बहुत सुंदर लग रहे थे। शाम होते-होते हम काठमांडो पहुँच गए। आज काठमांडो पर लिखते हुए उँगलियाँ काँप रही हैं। वैसे ही जैसे 25 अप्रैल को काठमांडो की धरती काँप उठी थी। न्यूज चैनल जब धरहरा स्तंभ भहराकर गिरते दिखा रहे थे, मेरा मन बैठा जा रहा था। क्या हुआ होगा धरहरा के इर्दगिर्द फेरी चलाकर सामान बेचने वालों का? और उस बाँसुरी वादक का जिसके सुरों ने मन मोह लिया था। और वे पर्यटक जो धरहरा के संदर्भ में बिंधे उसका सौंदर्य निहारते। सबकुछ जानते हुए भी मन यही कह रहा है कि सब ठीक हो। मगर मुझे तो वही लिखना है जो मैंने देखा था। ये लिखना नहीं कर्ज उतारना है।
रात को हम बाजार गए। बाजार इलेक्ट्रॉनिक सामानों से अटा पड़ा था और दुकान की मालकिनें मुस्तैदी से सामान बेच रही थीं। हमारे हिमालयीन क्षेत्रों की तरह यहाँ भी अर्थव्यवस्था का आधार औरतें हैं। क्योंकि पहाड़ों पर पर्याप्त जमीन नहीं होती और रोजगार के साधन भी बहुत नहीं होते। सो घर के पुरुष नीचे मैदानी इलाकों में कमाने जाते हैं और घर परिवार की सारी जिम्मेदारी महिलाएँ उठाती हैं। सो यहाँ गाँव की महिलाएँ खेती और शहर की महिलाएँ व्यवसाय संभालती हैं। मैंने देखा वे बड़ी कुशलता से व्यवसायिक दाँवपेंच अपना रही थी। दूसरे दिन हम पशुपति नाथ गए। बागमती के किनारे स्थित मंदिर में छोटे-छोटे असंख्य शिवलिंग। उस नेपाल का बड़ा पर्व था, सो दर्शन के लिए जैसे सारा नेपाल ही उमर आया था। लोग परिक्रमा करते हुए छोटे शिवलिंगों पर जौ, गाजर के टुकड़े, संतरे की फांकें और पैसे चढ़ा रहे थे। हम भी उनके पिछे चलने लगे, इसके बगैर पशुपति नाथ के दर्शन मुश्किल था। बड़ा अजीब सा माहौल था एक ओर तो धूप-दीप की सुगंध थी तो दूसरी ओर फैली थी बागमती के किनारे जलती चिताओं की चिरायंध। भीड़ इतनी की मंदिर के मुख्य द्वार तक पहुँचना सम्भव नहीं लग रहा था। तभी भीड़ का एक रेला आया और हम छिटक कर भीड़ से बाहर। मगर अब हमारे सामने था कलात्मक सौंदर्य। काष्ठकला का अनुपम नमूना और उसपर चढ़ी सोने की परत। मंदिर परिसर की नक्काशी से नजरें हट ही नहीं रही थी।
मंदिर से बाहर जाने के दूसरे रास्ते से हम बाहर निकल रहे थे। मगर धुएँ से राह नजर नहीं आ रही थी। यहाँ तो असंख्य चिताएँ जल रही थी। मन जाने कैसा तो होने लगा था, सो हम तेजी से आगे बढ़ रहे थे, कि एक जलती चीता सामने आ गई और मैंने देखा जलती चीता से मुर्दा उठने-सा लगा था। मुझे लगा कि वही जीवित हो रहा है, शास्त्री जी ने बताया ऊपर लकड़ियाँ कम रखी गई होंगी, इसीलिए शव ऐंठ कर उठ रहा है। बहुत देर बाद सड़क पर आ पाए मगर सांसों में अभी चिरायंध समाई हुई थी। मैं बहुत देर तक सामान्य नहीं हो पाई थी।
दूसरे दिन हमें नागरकोट जाकर एवरेस्ट पर सुबह नजारा देखना था। सर्पीली सड़क पर दौड़ती हमारी गाड़ी, जिसके एक ओर गहरी खाई और दूसरी ओर ऊँची-ऊँची चोटियाँ और खाई की ओर लगभग लटकती हुई सी असंख्य सी दुकानें और होटल। फिर हम ठीक उस जगह जा खड़े हुए जहाँ से एवरेस्ट नजर आता है। मगर अभी भोर नहीं हुई थी मगर यहाँ रात सौंदर्य भी कम नहीं था। गहरा स्याह आसमान और उसमें चमकते तारे कुछ ज्यादा ही चमकदार नजर आ रहे थे। फिर धीरे-धीरे आसमान ने रंग बदला और उसमें एक लाल रेखा उभरी और देखते ही देखते एवरेस्ट और उसके साथ सारी चोटियाँ चमक उठी और हम रोमांचक सम्मोहन में बंध गए।
अब हम पोखरा होते हुए लौट रहे थे। रास्ते भर हिमाच्छादित चोटियाँ आँख मिचौली खेलती रहीं। राह में अनेक छोटे बड़े नगर-गाँव और कस्बे आते रहे। नेपाली औरतें घरों में काम करती नजर आ रही थी। मक्का कटकर घर आ चुका था। उसके गुच्छे घर-बाहर खूंटियों के सहारे लटके नजर आ रहे थे। अब हम काली नदी के साथ-साथ चल रहे थे।
रास्ते में हम कविलासी गाँव में रुके, ताकि लोगों से मिलकर कुछ और जान सकें। गाँव में हमें औरतें, छोटे बच्चे और बुजुर्ग ही मिलें। हमने बातचीत का सिलसिला जोड़ा तो पता चला बड़े बच्चे पढ़ने गये हैं और घर के पुरुष परदेस। हम जिस घर में बैठे थे उसकी मालकिन अब हमसे खुल चली थीं। उसने बताया कि औरों की तरह ब्याह के महीने भर बाद ही उसका पति परदेश चला गया। जाये बिन गुजारा भी नहीं था। अब साल में एक बार आता है। पहले तो आना कठिन था। पैदल रास्ता ही था, मगर अब बस आती है। उसने यह भी बताया कि यहाँ दहेज नहीं चलता। मगर उपहार दिया जाता है। लड़कियों को पहले तो नहीं मगर अब पढ़ाया जाता है। दो-तीन गाँवों के बीच एक प्राइमरी स्कूल जरूर है, पर आगे की पढ़ाई के लिए दूर जाना पड़ता है। मगर लड़कियाँ जाती हैं। हम चलने को हुए तो उसने हमें भोजन करने को विवश कर दिया। हमने उसके चौके में बैठकर मक्के की रोटी और आलू की सब्जी खाई और ऐसे तृप्त हुए कि तृत्पि पेट से होकर मन तक उतरती चली गई।
हमने व्यासनगर में काली नदी को पार किया। वहाँ किन्नू खरीदे। दुकानदार ने बताया कि ये नेपाली संतरे हैं। खट्टे-मीठे संतरे खाते हुए हम आगे बढ़े तो एक झूलता हुआ पुल मिला, दो पहाड़ों को जोड़ते उस पुल से लेकर दूर तक लाल रंग की झंडियाँ फहरा रही थीं, शायद किसी देवी का मंदिर था। शाम होते-होते हम पोखरा पहुँचे। पोखरा में अपना सौंदर्य निहारी चोटियों को हम देर तक निहारते रहे, फिर अपने ठिकाने पर जा पहुँचे। अलस्सुबह हम लुम्बिनी के राह पर थे। यों नेपाल विदेश जैसा तो कभी लगा ही नहीं। सबकुछ अपना-अपना सा लगता है, मगर सीमा-रेखा तो है ही। सो हम अब हम फरेंदा, गोरखपुर होते हुए अयोध्या की ओर चले। हमारे साथ थी एक साक्षी, सांस्कृतिक विरासत की।
यह यात्रा किसी बड़े देश की नहीं थी, किसी बड़ी परियोजना का हिस्सा नहीं थी, बड़े ताम-झाम नहीं थे, हवाई यात्राएँ नहीं थी, समुद्र, सैरगाह, रिसोर्ट, होटल के फंतासियाँ से लसी नहीं थीं, लेकिन जितनी थी, उतने से हम संतुष्ट थे, अपने समाज, गाँव-घर, जमीन, मकान और सड़कों से जुड़ते हुए इसे पूरा किया। नदियों को निहारा, हवाओं से बातें की, पड़ोसी नेपाल से हाथ मिलाकर वापस लौटे।
हम पहले से कुछ ज्यादा अनुभव-सम्पन्न लौटे।
ईमेल- urmilashukla20@gmail.com
सरयू के तीर पर बसी अयोध्या नगरी नें तो इतना कुछ खोया है कि इसका स्वरूप ही बदल गया है। सरयू ने अपनी धारा बदल ली है। अब वह घाट को छोड़कर बहुत दूर चली गई हैं। मानो इंसानी शिकंजे से छूट भागना चाहती हों। मगर, सीढ़ियों से नीचे दूर-दूर तक रेतीला तट उभर आया है और उस पर पंडों का राज है। उनके ठिकानों पर बछिया से लेकर कृशकाय गाएँ बंधी हुई थीं, जो मनुष्य को स्वर्ग पहुँचाने के इन्तजार में बैठी ऊँघ रही थी। ऊँघ तो पंडे भी रहे थे क्योंकि ये उनके व्यवसाय का मौसम नहीं था।यात्रा में एक ओर सरयू थीं तो दूसरी ओर बागमती। इनके बीच में थीं कोसी, काली, ताप्ती जैसी नदियाँ। अद्भुत संयोग यह भी रहा कि हमारे साथ जो लोग जुड़े उनके शहर भी नदियों के तीर पर बसे थे। यों यह यात्रा अयोध्या से प्रारम्भ होनी थी, लेकिन इससे पहले ही शुरू हो गई थी। सो मेरी इस यात्रा में मेरे साथ खारून, शिवनाथ और अरपा तो शामिल रही हीं, आगे चलकर इलाहाबाद से गंगा और यमुना के साथ हो चलीं। बनारस में तो गंगा अपनी पूरी रफ्तार से बह रही थी, मगर उसमें पहले वाली बात नहीं थी। मुझे याद आ रही थी अपने बचपन की देखी वह गंगा जो बनारस ही नहीं, पूरे भारत की आन हैं, ‘जिसके लिए किसी गीतकार ने लिखा था, गंगा तेरा पानी अमृत, झर-झर बहता जाए, युगों-युगों से इस धरती पर सबकी प्यास बुझाए।’
मगर अब यह गीत मन को नहीं छूता। कुछ धार्मिक परम्पराओं और जहरीले उद्योगों ने गंगा को जहरीला बना दिया है। हम बनारस के गंगा तट से लौटकर ट्रेन पकड़कर अयोध्या जा पहुँचे। वहाँ युगल किशोर शास्त्री जी से मुलाकात हुई। वे इस यात्रा के प्रमुख सहयोगी थे। सरयू के तीर पर बसी अयोध्या नगरी नें तो इतना कुछ खोया है कि इसका स्वरूप ही बदल गया है। सरयू ने अपनी धारा बदल ली है। अब वह घाट को छोड़कर बहुत दूर चली गई हैं। मानो इंसानी शिकंजे से छूट भागना चाहती हों। मगर, सीढ़ियों से नीचे दूर-दूर तक रेतीला तट उभर आया है और उस पर पंडों का राज है। उनके ठिकानों पर बछिया से लेकर कृशकाय गाएँ बंधी हुई थीं, जो मनुष्य को स्वर्ग पहुँचाने के इन्तजार में बैठी ऊँघ रही थी। ऊँघ तो पंडे भी रहे थे क्योंकि ये उनके व्यवसाय का मौसम नहीं था। किसी यात्री को देखते ही वे उस पर भिनभिनाने लगते।
‘कहंवा से आय हव? तोहार गुरु घराना केहके हियां हय?’
उन्होंने हमें भी घेरा था मगर, ‘छोड़व हो, ई पढ़ी-लिखी हय। ई धरम-करम का जानय।’ एक ने कहा तो सब लौट गए थे। सरयू की धार तक पहुँचने के पहले गोबर, फूल, पैरा और घास के साथ मानव-मल देख कर मन घिना गया था। सो धार तक पहुँचने के पहले ही लौटना पड़ा।
सड़क मार्ग से हम आगे बढ़े और सरयू पुल पर ही बस्ती जिले की सीमा में प्रवेश किया। हमारा पहला पड़ाव कुशीनगर था, मगर हम कुछ देर मगहर में रुके। कबीर की निर्वाण भूमि, मगर फिरकापरस्तों ने उनकी सारी मेहनत पर पानी फेर दिया है और उन्हें मन्दिर और मकबरे में बाँट दिया है। मठ के महंत ने हमारे भोजन की व्यवस्था की और आस-पास के स्कूल और कॉलेज की लड़़कियों से मुलाकात भी कराई। उनसे बातचीत से हमने जाना कि अब स्थितियाँ बदली हैं, लड़कियों की पढ़ाई और नौकरी पर ध्यान दिया जाता है। मगर सामाजिकता का लोप सा होने लगा है, अब ब्याह और मरनी, हरनी में भी एका नजर नहीं आता। गीतों की बात चली तो वहाँ मौजूद पचास-साठ लड़कियों में किसी को भी लोक-गीत याद नहीं थे।
वहाँ से हम कुशीनगर पहुँचे। रात घिरने लगी थी, मगर हम पंडरी गाँव के लोगों से मिले। कुशीनगर से लगभग 20 किलोमीटर कोने पर भी विकास का एक कण भी यहाँ नहीं पहुँचा था। मगर यहाँ के युवा सजग हैं, वे स्वप्रयास से स्कूल भी चलाते हैं और हिंदू समाज के विरोधी हैं। वे सरकार से भी खफा हैं। रात को हम बौद्ध मठ में ठहरे। यह मठ किसी शानदार विश्राम गृह से कम नहीं था। सुबह हम केसिया गाँव गए। सामाजिक और पारिवारिक विघटन के इस दौर में एकमात्र संयुक्त परिवार मिला। हमने उनसे बात की। उस परिवार की सबसे बुजुर्ग महिला के पास तीज-त्योहार, गीत-गवनई की अनुपम थाती थी, मगर उनसे सीखने वाला कोई नहीं था। नई पीढ़ी लोक से विरत थी।
उन्होंने हमें कई गीत सुनाए। ‘पहले झिंझिया, झूमर, सामा चकवा, बिरहा, चैती अउर बियाह, संझा पराते, सेंदुर दिहले कय गीत, बिदा गीत। फेन अब त सब ख़तम।’ कहते हुए उनकी आँखों में एक दर्द-सा छलक आया था। गोपालगंज में रात्रि विश्राम के बाद हम मुजफ्फरपुर की ओर बढ़ चले। रास्ते में बाराचकिया शासकीय महाविद्यालय में ठहरे। हमने वहाँ की लड़कियों की सामाजिक स्थिति पर बात की तो पाया अब उनकी पढ़ाई और नौकरी पर उतना प्रतिबंध नहीं है। मगर समाज व्यवस्था में अभी भी पूरुषों का बोलबाला है। न तो दहेज प्रथा खत्म हुई है और न ही लड़कियों को सम्पत्ति में अधिकार मिला है। हमें आगे बढ़ना था, मगर हम वहीं रूक गये। कारण पास के मुसहर टोला में विवाह था और हमारे लिए कुछ जानने का अवसर। मगर वहाँ तो सबकुछ शहरी था। वैसा ही रिसेप्शन! वही बफे, दोना-पत्तल की जगह प्लास्टिक के प्लेट और गिलास! न द्वारचार, न गीत गवनई। मंडप भी बाजार की रेड़ीमेड चीजों से सजा था। गाँवों में तो हमारी संस्कृति बसती थी। मगर अब वहाँ बाजार काबिज है। जेवनार, कलेवा और कोहबर की रस्मों के बिना ही फेरों के तुरन्त बाद दुल्हन भी विदा हो गई। दूसरे दिन हम बैसरहा गाँव पहुँचे। देखा, गाँव के बाहर सूखे तालाब के किनारे मंदिर जैसी छोटी-बड़ी आकृतियाँ रखी थी। ऐसी ही आकृति मुझे देवरिया और कुशीनगर में भी नजर आई थी। सो मैंने सरपंच से पूछा तो पता चला कि इन्हें छठ पूजा के लिए बनाया जाता है। और पूजा के बाद विसर्जित किया जाता है। मगर अब तालाबों में पानी ही नहीं है तो इन्हें ऐसे ही किनारे रख दिया जाता है। यानी पानी था तो आकृतियाँ भी जल प्रदूषण फैलाती थी। शायद उसी के कारण ये तालाब अब सूखा तालाब कहलाता है। अगर हम नहीं चेते तो देश की सारी नदियाँ और तालाब ऐसे ही जलरहित नजर आएँगे। फिर मुसहर टोला का स्कूल देख बाबा नागार्जुन बहुत याद आए। स्कूल के नाम पर एक छोटी सी मड़ैया थी। अधनंगे बच्चे हमें घेरकर खड़े थे। हम आगे बढ़े तो गाँव वाले अपनी समस्या लेकर सामने थे। उन्हें लगा हम चुनाव के लिए वोट बटोरने आए हैं। और वे गलत भी तो नहीं थे। अब तक यही तो होता आया है।
अगले दिन हम मुजफ्फरपुर पहुँचे। रात्रि विश्राम के बाद हमने तराई के इलाके में प्रवेश किया। वहाँ गरीबी और भ्रष्टाचार में पिसता गाँव देखा, जहाँ मिट्टी तेल की कालाबाजारी से परेशान लोग आज भी मड़ुआ की रोटी खाने और नीम के तेल का दिया जलाने को विवश हैं। ये सीमावर्ती गाँव हैं।
पूनौरा यानी सीता की जन्मस्थली होते हुए हम बरहथवा की ओर बढ़े और शाम ढलते-ढलते मंगलवा सर्लाही के रास्ते नेपाल पहुँच गए। सीमा पर लिखे, ‘नेपाल भारत मैत्रर रहोस्’ में हमारा आत्मीय स्वागत किया। बरहथवा से हम चाँदी नदी के किनारे-किनारे बेलतौतरा गाँव की बढ़े। बताया गया कि ये हर साल अपनी धारा बदल कर गाँव के गाँव निगल लेती है। वहाँ एक भी साबुत राह नहीं थी। कहीं अथाह गड्ढ़ा तो कहीं ऊँचा सा टीला। ऐसे में, सारा गाँव ऐसे झोपड़ियों में रहने को विवश था, जिसमें निहुर कर ही प्रवेश किया जा सकता था। वहाँ मुर्गी, बकरी और इंसान एक साथ रह रहे थे। झोपड़ी बहुत छोटी थी मगर दिल बहुत बड़ा था। बकरी के दूध की दही के साथ दाल भात खाकर हम फिर बरहथवा लौट चले। वहाँ रात्रि विश्राम था।
सबेरे हम अपनी मंजिल काठमांडो की ओर बढ़े। पहाड़ी खेतों में मक्के और अरहर की फसल लहरा रही थी। छोटे-छोटे गाँव और परपोटे वाले घर बहुत सुंदर लग रहे थे। शाम होते-होते हम काठमांडो पहुँच गए। आज काठमांडो पर लिखते हुए उँगलियाँ काँप रही हैं। वैसे ही जैसे 25 अप्रैल को काठमांडो की धरती काँप उठी थी। न्यूज चैनल जब धरहरा स्तंभ भहराकर गिरते दिखा रहे थे, मेरा मन बैठा जा रहा था। क्या हुआ होगा धरहरा के इर्दगिर्द फेरी चलाकर सामान बेचने वालों का? और उस बाँसुरी वादक का जिसके सुरों ने मन मोह लिया था। और वे पर्यटक जो धरहरा के संदर्भ में बिंधे उसका सौंदर्य निहारते। सबकुछ जानते हुए भी मन यही कह रहा है कि सब ठीक हो। मगर मुझे तो वही लिखना है जो मैंने देखा था। ये लिखना नहीं कर्ज उतारना है।
रात को हम बाजार गए। बाजार इलेक्ट्रॉनिक सामानों से अटा पड़ा था और दुकान की मालकिनें मुस्तैदी से सामान बेच रही थीं। हमारे हिमालयीन क्षेत्रों की तरह यहाँ भी अर्थव्यवस्था का आधार औरतें हैं। क्योंकि पहाड़ों पर पर्याप्त जमीन नहीं होती और रोजगार के साधन भी बहुत नहीं होते। सो घर के पुरुष नीचे मैदानी इलाकों में कमाने जाते हैं और घर परिवार की सारी जिम्मेदारी महिलाएँ उठाती हैं। सो यहाँ गाँव की महिलाएँ खेती और शहर की महिलाएँ व्यवसाय संभालती हैं। मैंने देखा वे बड़ी कुशलता से व्यवसायिक दाँवपेंच अपना रही थी। दूसरे दिन हम पशुपति नाथ गए। बागमती के किनारे स्थित मंदिर में छोटे-छोटे असंख्य शिवलिंग। उस नेपाल का बड़ा पर्व था, सो दर्शन के लिए जैसे सारा नेपाल ही उमर आया था। लोग परिक्रमा करते हुए छोटे शिवलिंगों पर जौ, गाजर के टुकड़े, संतरे की फांकें और पैसे चढ़ा रहे थे। हम भी उनके पिछे चलने लगे, इसके बगैर पशुपति नाथ के दर्शन मुश्किल था। बड़ा अजीब सा माहौल था एक ओर तो धूप-दीप की सुगंध थी तो दूसरी ओर फैली थी बागमती के किनारे जलती चिताओं की चिरायंध। भीड़ इतनी की मंदिर के मुख्य द्वार तक पहुँचना सम्भव नहीं लग रहा था। तभी भीड़ का एक रेला आया और हम छिटक कर भीड़ से बाहर। मगर अब हमारे सामने था कलात्मक सौंदर्य। काष्ठकला का अनुपम नमूना और उसपर चढ़ी सोने की परत। मंदिर परिसर की नक्काशी से नजरें हट ही नहीं रही थी।
मंदिर से बाहर जाने के दूसरे रास्ते से हम बाहर निकल रहे थे। मगर धुएँ से राह नजर नहीं आ रही थी। यहाँ तो असंख्य चिताएँ जल रही थी। मन जाने कैसा तो होने लगा था, सो हम तेजी से आगे बढ़ रहे थे, कि एक जलती चीता सामने आ गई और मैंने देखा जलती चीता से मुर्दा उठने-सा लगा था। मुझे लगा कि वही जीवित हो रहा है, शास्त्री जी ने बताया ऊपर लकड़ियाँ कम रखी गई होंगी, इसीलिए शव ऐंठ कर उठ रहा है। बहुत देर बाद सड़क पर आ पाए मगर सांसों में अभी चिरायंध समाई हुई थी। मैं बहुत देर तक सामान्य नहीं हो पाई थी।
दूसरे दिन हमें नागरकोट जाकर एवरेस्ट पर सुबह नजारा देखना था। सर्पीली सड़क पर दौड़ती हमारी गाड़ी, जिसके एक ओर गहरी खाई और दूसरी ओर ऊँची-ऊँची चोटियाँ और खाई की ओर लगभग लटकती हुई सी असंख्य सी दुकानें और होटल। फिर हम ठीक उस जगह जा खड़े हुए जहाँ से एवरेस्ट नजर आता है। मगर अभी भोर नहीं हुई थी मगर यहाँ रात सौंदर्य भी कम नहीं था। गहरा स्याह आसमान और उसमें चमकते तारे कुछ ज्यादा ही चमकदार नजर आ रहे थे। फिर धीरे-धीरे आसमान ने रंग बदला और उसमें एक लाल रेखा उभरी और देखते ही देखते एवरेस्ट और उसके साथ सारी चोटियाँ चमक उठी और हम रोमांचक सम्मोहन में बंध गए।
अब हम पोखरा होते हुए लौट रहे थे। रास्ते भर हिमाच्छादित चोटियाँ आँख मिचौली खेलती रहीं। राह में अनेक छोटे बड़े नगर-गाँव और कस्बे आते रहे। नेपाली औरतें घरों में काम करती नजर आ रही थी। मक्का कटकर घर आ चुका था। उसके गुच्छे घर-बाहर खूंटियों के सहारे लटके नजर आ रहे थे। अब हम काली नदी के साथ-साथ चल रहे थे।
रास्ते में हम कविलासी गाँव में रुके, ताकि लोगों से मिलकर कुछ और जान सकें। गाँव में हमें औरतें, छोटे बच्चे और बुजुर्ग ही मिलें। हमने बातचीत का सिलसिला जोड़ा तो पता चला बड़े बच्चे पढ़ने गये हैं और घर के पुरुष परदेस। हम जिस घर में बैठे थे उसकी मालकिन अब हमसे खुल चली थीं। उसने बताया कि औरों की तरह ब्याह के महीने भर बाद ही उसका पति परदेश चला गया। जाये बिन गुजारा भी नहीं था। अब साल में एक बार आता है। पहले तो आना कठिन था। पैदल रास्ता ही था, मगर अब बस आती है। उसने यह भी बताया कि यहाँ दहेज नहीं चलता। मगर उपहार दिया जाता है। लड़कियों को पहले तो नहीं मगर अब पढ़ाया जाता है। दो-तीन गाँवों के बीच एक प्राइमरी स्कूल जरूर है, पर आगे की पढ़ाई के लिए दूर जाना पड़ता है। मगर लड़कियाँ जाती हैं। हम चलने को हुए तो उसने हमें भोजन करने को विवश कर दिया। हमने उसके चौके में बैठकर मक्के की रोटी और आलू की सब्जी खाई और ऐसे तृप्त हुए कि तृत्पि पेट से होकर मन तक उतरती चली गई।
हमने व्यासनगर में काली नदी को पार किया। वहाँ किन्नू खरीदे। दुकानदार ने बताया कि ये नेपाली संतरे हैं। खट्टे-मीठे संतरे खाते हुए हम आगे बढ़े तो एक झूलता हुआ पुल मिला, दो पहाड़ों को जोड़ते उस पुल से लेकर दूर तक लाल रंग की झंडियाँ फहरा रही थीं, शायद किसी देवी का मंदिर था। शाम होते-होते हम पोखरा पहुँचे। पोखरा में अपना सौंदर्य निहारी चोटियों को हम देर तक निहारते रहे, फिर अपने ठिकाने पर जा पहुँचे। अलस्सुबह हम लुम्बिनी के राह पर थे। यों नेपाल विदेश जैसा तो कभी लगा ही नहीं। सबकुछ अपना-अपना सा लगता है, मगर सीमा-रेखा तो है ही। सो हम अब हम फरेंदा, गोरखपुर होते हुए अयोध्या की ओर चले। हमारे साथ थी एक साक्षी, सांस्कृतिक विरासत की।
यह यात्रा किसी बड़े देश की नहीं थी, किसी बड़ी परियोजना का हिस्सा नहीं थी, बड़े ताम-झाम नहीं थे, हवाई यात्राएँ नहीं थी, समुद्र, सैरगाह, रिसोर्ट, होटल के फंतासियाँ से लसी नहीं थीं, लेकिन जितनी थी, उतने से हम संतुष्ट थे, अपने समाज, गाँव-घर, जमीन, मकान और सड़कों से जुड़ते हुए इसे पूरा किया। नदियों को निहारा, हवाओं से बातें की, पड़ोसी नेपाल से हाथ मिलाकर वापस लौटे।
हम पहले से कुछ ज्यादा अनुभव-सम्पन्न लौटे।
ईमेल- urmilashukla20@gmail.com
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