पर्वतीय फसली पैदावार की प्रगति को ध्यान में रखते हुए ओखलकांडा विकास खण्ड के अन्तर्गत बेहोश चौगड़ के गलनी, ल्वाड, क्वेराला (कालाआगर) व मल्ली गरगड़ी नाम के ग्रामों की मैंने सर्वे की। ये गाँव पूर्णरूपेण असिंचित हैं, जो कुछ है भी वह शून्य मात्र है, ये गाँव खेती पर पूर्ण आश्रित हैं।
देश को आजादी प्राप्त हुए 34 वर्ष हो चुके, पंचवर्षीय योजनाओं का जोरदार शोरगुल मचा, इन योजनाओं के अन्तर्गत पर्वतीय विकास के लिए अनेक कार्यक्रम अथवा प्रयोजनायें बनीं, चलीं और चलती रहेंगी, कार्यक्रम समायोजित हैं और थे, विकास कार्यक्रमों के अन्तर्गत पर्वतीय फसली पैदावार को बढ़ावा देना भी एक मुख्य व उपयोगी उपक्रम था।खेती की प्रगति की समीक्षा करने से यह स्पष्ट होता है कि इन चौंतीस वर्षों में जनसंख्या व सड़कों का विकास हुआ। पर्वतीय क्षेत्रों के कुटीर धन्धों को कोई प्रोत्साहन नहीं दिया गया। मकानों का निर्माण केवल शहरी क्षेत्रों में हुआ, वह भी जिनके पास नम्बर दो का रूपया था। शिक्षा का विकास डिग्री स्तर तक जरूर हुआ, पर सोचनीय यह है कि स्नातकधारी शिक्षा लेते ही भावी जीवन के लिए स्वयमेव पेट-पूजा करने में अ ससमर्थ रहे हैं। इससे स्पष्ट होता है कि वास्तविक शिक्षा अभी कोसों दूर है।
इस प्रकार योजनायें पहाड़-पहाड़ कहके दिन-रात शोरगुल किये थीं- खोखली फसली पैदावार व ग्रामीण भाइयों के जीवन स्तर का सर्वेक्षण करने से स्पष्ट होता है कि इन योजनाओं का अमूल्य कार्यकाल ऐसे गया, मानो किसी ने गंगा से सोना डाल दिया, अर्थात योजनाओं ने कोरी प्रगति कागजी आँकड़ों में दिखाई।
आज जब विश्व की हरित क्रांति विकास की चरम सीमा चूम रही है, भारत के कृषि प्रधान होते हुए भी पर्वतीय खेती के विकास में अवरोध क्या है ? हमें जितना कमाना चाहिये हम नहीं कमा पा रहें हैं, कहने का मतलब यह है कि यदि हम तराई में प्रति एकड़ गेहूँ की पैदावार 15-20 कुन्तल लेते हैं तब पर्वतीय क्षेत्रों में कम से कम 8 कुन्तल प्रति एकड़ तो होनी ही चाहिए। लेकिन पर्वतीय क्षेत्र की औसत पैदावार बहुत सोचनीय है।
पर्वतीय फसली पैदावार की प्रगति को ध्यान में रखते हुए ओखलकांडा विकास खण्ड के अन्तर्गत बेहोश चौगड़ के गलनी, ल्वाड, क्वेराला (कालाआगर) व मल्ली गरगड़ी नाम के ग्रामों की मैंने सर्वे की। ये गाँव पूर्णरूपेण असिंचित हैं, जो कुछ है भी वह शून्य मात्र है, ये गाँव खेती पर पूर्ण आश्रित हैं। फसलें लगभग सभी होती हैं। इन ग्रामों की ऊँचाई समुद्र तट से साढ़े तीन हजार फुट से 6 हजार फुट तक होगी। ये लोग बाहर से अनाज नहीं खरीदते हैं। जो लोग खरीदते भी हैं, थोड़े बहुत चावल ही। वैसे चावल यहाँ का दैनिक अनिवार्य भोजन नहीं है। कुछ लोग जाड़ों में मजदूरी व कुछ लोग ठेकेदारी किया करते हैं। लेकिन मुख्य धंधा कृषि व पशुपालन ही है।
यह ताजा सर्वेक्षण वर्ष 80-81 की फसली पैदावार के आधार पर किया गया। यह वर्ष प्राकृतिक प्रकोपों व अन्य संघर्षों से परिपूर्ण रहा। इतना होते हुए भी इन लोगों को असामान्य कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ा।
इस सर्वे में कुछ 6 परिवारों को लिया गया। 6 परिवारों में कुल 51 सदस्य पाये गये, जिनमें 11 छात्र थे, 3 राजकीय संस्थानों में कार्यरत, 26 कृषि कार्य में व 11 सदस्य बूढ़े व छोटे बच्चे थे, कुल 63 पालतू पशु आँके गये। कुल 13.85 एकड़ भूमि में पैदावार ली गयी, जो पूर्ण रूप से असिंचित थी, इस भूमि में कुल 130 किलो रासायनिक खाद पड़ी थी। फसलों में कोई भी कीटनाशक व रोगनाशक दवा का प्रयोग नहीं किया गया।
क्र. स. | फसल का नाम | उपज/एकड़ |
1. | गेहूँ | 4.6 |
2. | जौ | 2.2 |
3. | धान | 7.46 |
4. | मक्का | 8.00 |
5. | मडुवा | 3.9 |
6. | घौत | 25.28 |
7. | उरद | 15.28 |
8. | सेम | 6.85 |
9. | मटर | 2.85 |
10. | सोयाबीन | 10.91 |
क्र. स. | फसल का नाम | उपज/प्रति किलो बीज पर |
11. | पिनालू | 10.6 किलो |
12. | कद्दू | 1000 कुन्तल |
13. | लौकी | 900 कुन्तल |
14. | मूली | 800 कुन्तल |
15. | बैंगन | 500 कुन्तल |
16. | प्याज | 50 कुन्तल |
17. | आलू | 2.5 किलो |
18. | मिर्च | 1.5 कुन्तल |
19. | हल्दी | 5.06 किलो |
20 | अन्य | 5.00 कुन्तल |
उपरोक्त आँकड़ों से यह सिद्ध होता है कि पर्वतीय क्षेत्रों की फसलों में वर्षाकालीन फसल में आशातीत उपज ली जा सकती है, इनमें मुख्य धान, मक्का, मडुवा, घौत, उरद, सेम, सोयाबीन, व अन्य कई तरकारियाँ सम्मिलित हैं, गेहूँ की उपज से यह स्पष्ट होता है कि जौ व गेहूँ की फसल को सामान्य वर्षों में भी 8 कुन्तल प्रति एकड़ किया जा सकता है, ये आँकड़े हमारी आधुनिकता, कृषि जगत तथा पर्वतीय विकास कार्यक्रमों को अपवाद सिद्ध करते हैं।
दूसरी तरफ इन क्षेत्रों की वर्षाकालीन तरकारी की फसल, खीरा-ककड़ी व अन्य फसल को विक्रय करने का कोई साधन नहीं है, यदि वे इस शाक-भाजी को दूर ले जाते हैं, तब इनकी आय, यातायात में ही खर्च हो जाती है, इसलिए कृषि को प्रोत्साहन देने के लिये सब्जी के क्रय-विक्रय केन्द्र खोले जायें, जिससे एक साथ बहुत मात्रा में सब्जी का आयात व निर्यात किया जा सके, इससे एक ओर कृषक को शाक-भाजी से आय होगी, दूसरी ओर उसे प्रोत्साहन मिलेगा। अतः यह सर्वे रपट हमारी पर्वतीय क्षेत्रों की फसली खेती के लिये संभावनाशील होगी।
फसली पैदावार की सर्वे के उपरान्त एक दृष्टि यहाँ के निवासी के वार्षिक आर्थिक बजट पर डाली गई। सर्वे के परिणामस्वरूप अनेक प्रश्न सामने आते रहे। अफसोस है कि क्या हमारे पर्वतीय निवासी इसी बजट पर अपना जीवन निर्वाह करते रहेंगे? यदि उनकी आर्थिक व सामाजिक परिस्थिति न सुधरी तो तब आधुनिकता की सार्थकता के इतिहास को कौन सच मानेगा। कोई सच माने या न माने, पर हमारी आर्थिक, पारिवारिक परिस्थितियाँ अत्यधिक सोचनीय हैं। सही अर्थ में वह जमाना अच्छा था, जब आधुनिक साधनविहीन जनता में आपसी एकता थी, तब स्वच्छ समाजवाद था। खास तौर पर हमारे पर्वतीय क्षेत्रों में, लेकिन आज किसी के पास तो दस वर्ष तक का भोजन पर्याप्त है तो कोई एक जून तक की रोटी के लिए मुहताज है, तब आश्चर्य है कि मशीन युग में इतना बड़ा विभेद हो, क्या स्वच्छ समाजवाद का नारा बुलन्द हो सकता है ?
आज कुछ लोग सोचते हैं कि हम बहुत आगे बढ़ गये हैं और कुछ गाँव वाले कहते हैं कि हम बहुत पीछे रह गये, पर आगे-पीछे की कहावत में कहाँ तक सत्यता है, इसी को आधार मानकर प्रति व्यक्ति वार्षिक बजट पर एक सर्वे की गई, यह सर्वे केवल पर्वतीय क्षेत्र की है, इस क्षेत्र पर अनेक सरकारी संस्थान कार्यरत हैं। लेकन खुद ग्रामवासी सम्पूर्ण आधुनिक साधनों से शून्य हैं। यह क्षेत्र कृषि व पशुपालन पर निर्भर है। अभी इस क्षेत्र में बहुत सारे सम्भावनाशील कार्य यहाँ की आर्थिक परिस्थिति को सुधार सकते हैं।
सर्वेक्षण के आधार पर यहाँ की स्थानीय जनता के लिए वर्ष भर के खाने को अनाज, दाल व सब्जी गाँव में ही विनिमय करके हो जाता है। दूध-दही के लिये उनकी अपनी गाय-भैंस हैं, फिर भी प्रति व्यक्ति दूध की मात्रा 26.41 मिली लीटर ही आती है, ये लोग कुछ अनाज अवश्य बाहर से खरीदते हैं, जिसका प्रति व्यक्ति आँकड़े लिये गये हैं। शेष वस्तुएँ उन्हें बाजार से ही मोल लेनी पड़ती है। आज के साधन सरकारी नौकरी, ठेकेदारी, दुकानदारी, मजदूरी तथा कुछ स्थानीय वस्तुओं का विक्रय करके होता है।
सर्वेक्षण तालिका - 2
क्र. स. | व्यय मदें (क्रय) | लागत धनराशि (रू.) |
1. | कपड़ा | 196.07 |
2. | चाय | 16.46 |
3. | मीठा | 50.82 |
4. | साबुन | 15.20 |
5. | शिक्षा | 139.40 |
6. | खाने का तेल | 33.90 |
7. | मिट्टी का तेल | 6.00 |
8. | मेलादि | 10.33 |
9. | चिकित्सा | 34.51 |
10 | यात्रा | 24.11 |
11. | मोलादि वस्तु | 26.46 |
12 | दान | 2.00 |
कुल व्यय 555.26 |
क्र. स. | आय मदें (क्रय) | लागत धनराशि (रू.) |
1. | सरकारी व गैर सरकारी संस्थानों में कार्य से प्राप्त धन | 305.83 |
2. | बचत | 17.25 |
3. | अन्य स्रोतों से आय | 104.73 |
4. | कर्जा (सरकारी व गैर सरकारी) | 127.45 |
कुल आय 555.26 |
सर्वेक्षण के आधार ग्राम ल्वाड़, गलनी, कालाआगर, क्वेराला व मल्ला गरगड़ी पर्वतीय ग्राम हैं, जो विकास खण्ड ओखलकाण्डा बेहोश चौगड़ उप क्षेत्र के अन्तर्गत है। प्रति व्यक्ति 127 रू. 45 पैसा कर्ज एक महामारी के समतुल्य है, इसकी रोकथाम नितान्त जरूरी है। यदि इसे न रोका गया तो फिर वही कहावत चरितार्थ होगी कि कृषक का लड़का कर्ज में जन्म लेता और उसी में पलता है। अब प्रश्न यह है कि आर्थिक स्थिति कैसे सुधारी जाय। यदि मोलादि व आवश्यक वस्तु को न खरीदा जाये, तब हमारा समाज आधुनिकता को दूषित कर देगा और जीते-जागते मानव समाज की हत्या के समतुल्य होगा।
अतः प्रत्येक वर्ष ग्रामीणों की आर्थिक व सामाजिक परिस्थितियों का अध्ययन होना चाहिये। विकास कार्यों का उचित मूल्यांकन करके कर्तव्यनिष्ठा का पालन करना चाहिये।
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