भारतवर्ष में मानवों की महा जाति-जमातियों का महासागर उछल रहा है, इसके तट पर महान पुण्यतीर्थ में तुम धीरज धारण करके जागृत हो जाओ। आओ आर्यजन और अनार्यों, आप भी आइए, हिन्दू-मुसलमान एवं अंग्रेज लोगों आप भी आज अवश्य आइए, सभी क्रिश्चियनों को आना है आज और (यहीं पर जन्मे हुए किन्तु उच्च-नीच के भाव से मन को अपवित्र बनाने वाले) ब्राह्मण आप भी आइए, परन्तु मन को शुचिर्भूत बनाकर आइए। इन सबके साथ (अपने पतित, हीन मानने वाले) सभी पतितों (आज तक सहते आए, ढोते आए) अपमान के बोझ को मन पर से उतार कर दूर फेंकते हुए आप भी आ जाइए!
अखिल सृष्टि पर प्रभुत्व करने की मानसिकता रखकर अहंकारी साधना करते रहेंगे तो स्पर्धा अटल होती है। वसिष्ठ मुनि से ईर्ष्या करके विश्वामित्र जी ने अकारण ही बैर भावना खरीद ली थी। उनकी अवस्था कुछ-कुछ उस डॉन क्विक्जोट के जैसी हो गई थी। विरोध में कोई भी न होते हुए आघात करने की वृत्ति उठेगी तो वह अपनी स्वयं ही फजीहत करेगी। विश्वामित्र का यह सौभाग्य ही था कि वसिष्ठ जी की सज्जनता ने, साधुत्व ने उनकी आँखें खोल दीं। जीवन की एकात्मता की साधना में ज्ञान और उपासना वसिष्ठ मुनि के जैसी अपनी नहीं है, स्वयं इनमें कम पड़ते हैं इसका वैषम्य विश्वामित्र जी को लगता रहता था। उन्हें चैन से वह जीने नहीं देता था। आखिर उन्होंने वशिष्ठ जी का चुभने वाला काँटा निकाल फेंकने का सोच लिया। छिपकर वे वशिष्ठ जी के आश्रम में पहुँचे तब मुनि अपनी पत्नी अरुन्धती के साथ सहजता से बात कर रहे थे।
रात का समय, चारों ओर वन में, आँगन में चन्द्र की चाँदनी की मनोरमता शान्ति को अधिक ही गहरी बना रही थी। अरुन्धती पति से कहने लगी- कितनी सुन्दर चाँदनी सर्वत्र छिटकी है! अपनी सहज प्रसन्नता व्यक्त करते हुए वशिष्ठ जी के उद्गार निकले बिल्कुल विश्वामित्र ऋषि के साधना-जीवन के जैसी ही है यह! शान्त, मनोरम, सुखदायी! वशिष्ठ जी के मन में न ईर्ष्या थी न स्पर्धा। उन्हें सर्वत्र प्रसन्नता की शान्ति की उपलब्धि ही होती थी। उनका यह सरल अहोभाव का उद्गार सुनकर विश्वामित्र जी का हृदय भर आया। “ऐसे साधु पुरुष का मैं विद्वेष करता रहा! कैसा निर्मल मन है इनका।” उनके मन में यह बात उठी और वे अपने छिपने के स्थान से निकलकर तुरन्त वशिष्ठ जी के चरणों को पकड़ने लगे। उन्हें प्रेम से तत्काल उठाकर वशिष्ठ जी कहने लगे : “आप तो ब्रह्मर्षी हो गए हैं। यह आप क्या कर रहे हैं?” ये ही शब्द वशिष्ठ जी के मुख से सुनने के लिये ही विश्वामित्र उतावले हो गए थे अपनी साधना चलाते समय से। लेकिन जब चित्त निर्मल हो गया, नम्र हो गया तब उसी क्षण सारी स्पर्धा, सभी ईर्ष्या और मन का झगड़ा समाप्त हो गया और तब मन निरभ्र आकाश के समान सर्वत्र व्याप्त हो गया!
चित्त ऐसा व्यापक हो तो समूचे विश्व का स्वागत कर सकता है वह। विश्व की अनेकता में स्वयं को बिखेर कर उसके साथ एकरूप होना सहज सधता है और जो आएँगे उन सबको अपने में समा लेना ही स्वाभाविक हो जाता है। भारत में विकसित हुए अध्यात्म ने प्राचीन काल से जहाँ जीवन की तरफ देखने की एक सख्य की, मित्रता की दृष्टि खोल दी है। उसका विश्लेषण रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने किया है। सृष्टि और मानव इनके सम्बन्ध में यहाँ द्वैत को स्थान नहीं दिया गया। कहीं भी द्वैत की, एकदम सम्बन्धहीन द्वित्व की, दोपन की सत्ता मान्य नहीं की गई। इसी वजह से समन्वय की वृत्ति, समानता खोजकर दूसरों के साथ जुड़ जाने, एकत्व साधने की वृत्ति इस देश में धर्म ही बन गई।
इस भूमिका का विश्लेषण करते हुए रवीन्द्रनाथ कहते हैं कि मनुष्य को दो प्रकारों से अपना महत्व प्रकट करना आता है। पहला प्रकार यह है कि सबसे स्वयं दूर रहकर, सबसे अलग होकर अपना प्रभुत्व, श्रेष्ठत्व स्थापित करने की वृत्ति का पोषण करना। दूसरी पद्धति है सबके साथ एकरूप होकर, सभी में हिल-मिलकर अपना महत्व प्रकट करना। दुनिया पर प्रभुत्व करने का मार्ग भारत ने स्वीकारा नहीं, दुनिया को प्रेम से आलिंगन में लेने का, मिलन का मार्ग यहाँ प्रशस्त किया गया है। यह मिलन मूढ़ता में से प्रस्फुटित नहीं हुआ, यह है चित्त का मिलन आनन्दपूर्ण और समावेशक।
एकात्मता के प्रत्यय में से खिली हुई सर्व-समावेशक वृत्ति अखिल सृष्टि को और सृष्टि-निर्माता ईश्वर को भी अपने सख्यत्व के प्रेम बन्धन में समा लेता आया है यहाँ। इसी वजह से दूसरों को गुलाम बनाने की साम्राज्यवादी व्यवस्था अपना आसन यहाँ जमा नहीं सकी कभी। वृद्धिगत हुई सख्यत्व की, समन्वय की भूमिका ही। भारत की यही पहचान रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने अपने काव्य में विशद की और इसी भूमिका का स्वीकार किये बिना आज मानव जाति को तरणोपाय नहीं है। सब ओर से घिर आई संकट-परम्परा को टालने के लिये नई दृष्टि, वृत्ति और प्रत्यक्ष व्यवहार पद्धति आज विकसित करनी होगी।
चित्त की व्यापकता और मित्रता इन मूल्यों का आह्वान करने वाली रवि बाबूजी की कविता का कुछ अंश यहाँ हम देखेंगे।
ओ मोर चित्त, पुण्यतीर्थ, जागोरे धीरे।
एई भारतेर महामानवेर सागर तीरे।।
एसो हे आर्य, एसो अनार्य
हिन्दु-मुसलमान।
एसो, एसो आज
तुमी अंराज
एसो एसो खृस्टान
एसो ब्राह्मण, शुचि करि मन
धरो हात सबाकार।
एसो है पतित, करो अपनीत
सब अपमान भार।
मार अभिषेक, एसो एसो त्वरा,
मंगल घट हयनि जेभर।
सबार-परशे-पवित्र कर
तीर्थनीरे।
आजि भारतेर महामानवेर
सागर तीरे।
हे मेरे चित्त, भारतवर्ष में मानवों की महा जाति-जमातियों का महासागर उछल रहा है, इसके तट पर महान पुण्यतीर्थ में तुम धीरज धारण करके जागृत हो जाओ। आओ आर्यजन और अनार्यों, आप भी आइए, हिन्दू-मुसलमान एवं अंग्रेज लोगों आप भी आज अवश्य आइए, सभी क्रिश्चियनों को आना है आज और (यहीं पर जन्मे हुए किन्तु उच्च-नीच के भाव से मन को अपवित्र बनाने वाले) ब्राह्मण आप भी आइए, परन्तु मन को शुचिर्भूत बनाकर आइए। इन सबके साथ (अपने पतित, हीन मानने वाले) सभी पतितों (आज तक सहते आए, ढोते आए) अपमान के बोझ को मन पर से उतार कर दूर फेंकते हुए आप भी आ जाइए!
किसलिये? “माता के मंगल अभिषेक में शामिल होने के लिये आइए, दौड़कर आ जाइए। अभिषेक का मंगल घट जब तक पूरा भर नहीं गया है, तभी तक आप सब त्वरा करके पहुँच जाइए। सभी के स्पर्श से पवित्र हुए तीर्थ जल से यह मंगल घट भर देना है। आज भारतवर्ष के महामानवों के सागर-तट पर विश्व-जननी का अभिषेक होने वाला है। मानव-जाति में बन्धुत्व स्थापन होने का अभिषेक होगा यह। इस समारोह के लिये दौड़ते हुए आइए, क्योंकि इस अभिषेक-घट को सभी के हाथ लगना आवश्यक है।”
भारतीय संस्कृति की यह सख्य-योग की सिखावन रवीन्द्रनाथ ने उद्घोषित की आधुनिक काल में। क्योंकि जाति-पाँति, धर्म-अधर्म, इनके बीच की उच्च-नीचता की, कलह की मनोवृत्ति पनपने से ही गुलामी आ गई यहाँ। सभी में जो अच्छाइयाँ हैं, उनको एकत्रित आने दो, ऐसा कहने वाली समन्वयी वृत्ति व्यास जी के काल से भारत में चलती आई है। इसमें फिर गुलामी ढाने वाले ब्रिटिश भी समाए जा सकते हैं। आक्रमणकारी भी मित्र बनकर रहेंगे। ऐसा समन्वय तीर्थ प्राचीन काल से भारत रहता आया है। इसका कारण यही है कि जीवन की एकात्मता यहाँ गहरी पैठी हुई है। यह आत्मविश्वास रविबाबू के शब्दों में व्यक्त हुआ है।
सन्तुलित पर्यावरण और जागृत अध्यात्म
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