सरोवर के प्रहरी


पहले लोग वर्षामास के आगमन से पहले तालाब मन्दिर आदि में दर्शनों के पश्चात 8 से 10 कड़ाहियाँ मिट्टी खोदकर तालाब से निकालने का अभियान चलाते थे ताकि बारिश के समय तालाब में स्वच्छ पानी का भराव अच्छा हो सके। आज की तरह न तो किसी विज्ञप्ति की आवश्यकता थी और न कहने-सुनने की। अच्छा सा दिन देखकर मिट्टी के साथ-साथ जमा कचरा हटाना आरम्भ हो जाता था। दर्शनाभिलाषी आते और जुड़ते जाते थे। कोई टेंडर नहीं, किसी भी इंजीनियर के मार्गदर्शन की आवश्यकता नहीं, कोई समय का बन्धन नहीं, फिर भी बड़े से बड़ा तालाब एकदम साफ हो जाता था। बीकानेर में सरोवर रूपी रथ का सारथि यहाँ का स्थानीय समाज ही रहा है। यहाँ ही क्यों, व्यापक परिदृश्य में भी इस तथ्य की प्रामाणिकता देखी जा सकती है। हालांकि राजस्थान पत्रिका के बीकानेर के तालाब कॉलम में राहुल सेन ने बीकानेर के अधिसंख्य तालाबों को ओडों के कार्य से जोड़ते हुए स्वानुमानाधार पर यह स्थापित किया है कि ओडों द्वारा मुड़ निकालने के बाद छोड़े गए गड्ढे सामाजिक सार-सम्भाल के परिणामस्वरूप तालाब बन गए। लेकिन यह तथ्य सिर्फ अनुमान पर आधारित है।

वस्तुतः तालाब एक सोचे-समझे और सुविचारित कार्य का परिणाम है न कि कुछ तथ्यों के व्यवस्थित ऐक्य का। क्योंकि यहाँ पर स्थित लगभग सारे तालाब प्रथम जो जातिविशेष के हैं, दूसरे जो जाति-विशेष के नहीं हैं, वे उस समय के सेठ-साहूकारों द्वारा सार्वजनिक हेतु, तत्कालीन जलसंकट और आध्यात्मिक शान्ति हेतु खुदवाए या बनवाए गए। तीसरे, जब-जब भी राजा महाराजा किसी सेठ-साहूकार, ऋषि-मनीषी से प्रसन्न या लाभान्वित हुए, तो उनके द्वारा की गई माँग की पर्ति हेतु बनाए गए।

व्यापक छानबीन के दौरान एक भी ऐसा तालाब ध्यान में नहीं आया है कि स्वयमेव ही समाज की निगाह में चढ़ गया हो और सामाजिक कर्म के निमित्त उसका उद्धार हुआ। प्रत्युत बहुत सी ताल-तलाइयाँ तो परिजनों व जाति की स्मृति को चिरस्थायी बनाए रखने हेतु सोद्देश्य निर्मित कराई गई हैं। उदाहरण के लिये, कानोजी की स्मृति में कानोलाई, रघुनाथ मूँधड़ा की स्मृति में रघुनाथसागर (फूलनाथ), राजा रत्नसिंह की समृति में रत्नेश्वर तलाई, वृद्धिचन्द्र के नाम पर बिरधोलाई, बच्छराज व सदे के नाम बच्छिये व सदे की तलाई आदि बहुत से उदाहरण इसके प्रमाण में गिनाए जा सकते हैं।

हाँ, यह अवश्य था कि तलाई भले भादाणियों की हो या ओझाओं की अथवा व्यासों की, समाज के हर समुदाय का सदस्य इनकी देखरेख हेतु प्रतिबद्ध था। उस समय यह भावना नहीं रहती थी कि व्यासों की तलाई में रंगा जाति के लोग क्यों धन लगाएँ, बावजूद जातीय होने के, तलाई सार्वजनिक सम्पदा मानी जाती रही है।

बिना किसी नियम, कानून-कायदे के वहाँ के परिसर के अपने अघोषित किन्तु सख्ती से पालित होने वाले नियम थे, जिनका पालन समाज के सभी समुदाय परस्पर सौहार्द्र रखते हुए करते थे। संसोलाव भले ही सैसोजी ने बनवाया तथा मोहतों की सम्पत्ति है लेकिन नत्थू महाराज व्यास इसकी आगोर व अस्तित्व को बचाने के लिये किसी भी जाति व समुदाय से टकराने को तत्पर रहते थे।

इसी प्रकार हर्षोलाव के उत्थान और वर्तमान में चल रहे विकासात्मक कार्यों में हर्षों के जातीय प्रन्यास के अतिरिक्त श्री घनश्याम आचार्य का अवदान प्रशंसनीय है। लेकिन दुर्भाग्यवश समय ऐसा आ गया है कि नत्थू व्यास, घनश्याम आचार्य सरीखे लोगों का प्रतिशत अब के समाज में लगभग नगण्य ही है।

यहाँ के बाल, युवा व वृद्धों की आज से तीस वर्ष पूर्व जैसी सोच वाली दिनचर्या में नियमित रूप से तालाब जाना और वहाँ उस परिसर के उत्थान हेतु जो भी बन पड़े, शारीरिक श्रम करना शामिल था।

पिछले तीस वर्षों में यह क्रम टूट-सा गया है। पहले लोग वर्षामास के आगमन से पहले तालाब मन्दिर आदि में दर्शनों के पश्चात 8 से 10 कड़ाहियाँ मिट्टी खोदकर तालाब से निकालने का अभियान चलाते थे ताकि बारिश के समय तालाब में स्वच्छ पानी का भराव अच्छा हो सके। आज की तरह न तो किसी विज्ञप्ति की आवश्यकता थी और न कहने-सुनने की। अच्छा सा दिन देखकर मिट्टी के साथ-साथ जमा कचरा हटाना आरम्भ हो जाता था। दर्शनाभिलाषी आते और जुड़ते जाते थे। कोई टेंडर नहीं, किसी भी इंजीनियर के मार्गदर्शन की आवश्यकता नहीं, कोई समय का बन्धन नहीं, फिर भी बड़े से बड़ा तालाब एकदम साफ हो जाता था।

अब तो तालाब की सफाई के बड़े-बड़े स्वचालित यंत्र भी विकसित कर लिये हैं, पर दिमाग में आये कचरे को साफ करने के साधन आज भी विकसित नहीं हो पाये हैं। पहले लोग पाल बाँधने, आगार का तला पक्का बनाने तालाब परिसर में पेड़ लगाने आदि विभिन्न कार्यों को सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना से करके आह्लाद का अनुभव करते थे। लेकिन आज अव्वल तो इस तरह के कार्य के लिये किसी के पास समय ही नहीं है और अगर भूले-भटके कोई इस प्रकार के कर्म में निरत हो तो उसे हेय दृष्टि से देखा जाता है।

यह समाज के दिमाग में आई घटिया सोच का परिणाम है कि एक समय में जो पुण्य कर्म था, वही आज के समय में वक्त जाया करने वाला अनुपयोगी कर्म हो गया है। पुण्य कर्म को करते हुए वे बड़े आह्लादित होते थे तथा उनका समय, श्रम आज की भाँति नष्ट नहीं होता था बल्कि आत्मिक प्रसन्नता का झरना फूट पड़ता था। आगोर में चप्पल तक पहन कर जाना पाप माना जाता था।

समाज के बड़े-बूढ़े सभी, यदा-कदा नहीं, वरन नियमित रूप से तालाब की आगोर पर कचरा न डालें, चप्पल-जूते पहनकर न जाएँ, पान आदि न थूकें, गन्दगी न फैलाएँ, मैला आदि न करें, इसका पूरा-पूरा ध्यान रखते थे। इस सब के लिये वहाँ कोई चेतावनी नहीं लिखी होती और न ही कोई जुर्माना तय था लेकिन इन अघोषित, अलिखित मर्यादाओं का पालन पूरी नीति-रीति के साथ होता था। आगोर की जमीन पर कृषि कर्म भी वर्जित था।

आगोर पर कब्जा करने वाले को छह मास के कारावास सहित एक हजार रुपए के अर्थदण्ड का भी प्रावधान था। साथ ही तालाबों की आगोर के सुरक्षा प्रहरियों को भी दरबार की ओर से विशेष रियायतें मिलती थी कि उन्हें आगोर को नुकसान पहुँचाने वाले की मृत्यु का दण्ड तक माफ था। नृसिंहसागर की आगोर के सुरक्षा प्रहरी हनुमान साध को तीन खून माफ थे।

सावाबही सुजानगढ़ में आया उल्लेख इस प्रकार के तथ्य की पुष्टि भी करता है कि प्रत्येक तालाब पर सुरक्षा प्रहरी होता था। सावाबही नं. 7, वि.सं. 1908, फोलियों 27(ए) में वर्णन आता है कि सुरक्षा प्रहरी को मासिक वेतन के साथ दोऊटी (धोती) दी जाती थी। उसे काँसी की थाली में भोजन भी कराया जाता था।

बारिश के दिनों में जब तालाब लबालब भर होते थे, तब तालाबों के प्रन्यास अपने खर्चे से एक सुरक्षा प्रहरी तैनात करते थे जो तालाब में कोई दुर्घटना न घटे- इस हेतु चौकस रहा करता था। साथ ही आगोर की रखवाली का जिम्मा भी उसी का होता था। संसोलाव में ईसरलाट, हर्षोलाव में मंगलचन्द हर्ष, गोविन्द हर्ष आदि लोग दिन-रात वहाँ रहकर सामाजोत्थान की साधना में निरत रहा करते थे।

यही नहीं, राज का समाज के इस कार्य में पूरा सहयोग था। आगोर पर कब्जा नहीं किया जा सकता था। आगोर का पानी रोकने वाले को भी दण्डित किये जाने के उल्लेख मिलते हैं। तालाब की क्षति को समाज अपनी क्षति समझ कर भरपाई का यत्न करता था। सावाबही हनुमानगढ़ नं. 7, वि.सं. 1902-04, फोलियों 18(ए) में आये उल्लेखानुसार वहाँ के पक्का सारणा तालाब से गाद-कचरा (सिल्ट) निकालने के लिये रुपए 50 रतनसाही देने का उल्लेख है। जो यह बताता है कि राज्य तालाब की सफाई के लिये भी सजग रहते थे। आज की तरफ बेफिक्र एवं उदासीन नहीं।

आगोर जहाँ से शुरू होती है, वहाँ पत्थर की शक्ल में स्तम्भ या गोलाकार पाइए मिलते हैं और ठीक वैसे ही पाइए जहाँ पर आगोर खत्म होती है वहाँ आज भी विभिन्न तालाबों पर देखे जा सकते हैं। इन पर आगोर का माप मय दिशा अंकित होता था। नृसिंहसागर की आगोर आकार में बड़ी होने के कारण 958 बीघा 15 बिस्वा थी, वहीं रंगोलाई की आगोर 13 बीघा ही थी, क्योंकि वह आकार में छोटी थी।इसी तरह सावाबही सूरतगढ़ नं. 5 वि.सं. 1885-89 में एक उल्लेख मिलता है कि वैशाख बदी 13 को गुलाफर जोईया नामक मजदूर को सूरतगढ़ प्रशासन द्वारा तालाब की मिट्टी निकालने हेतु नियुक्त किया गया। कालान्तर में इस सोच का दायरा घटा और समाज स्वनिर्मित संकटों की राह पर चल पड़ा। नृसिंह सागर की आगोर हेतु तत्कालीन शासक का एक आदेश प्रमाणस्वरूप प्रस्तुत है-

इण जमी सू बांधा पोणी नहीं रोकसी। पोणी उवे
जमी रो तालाब में आवे छै ते मुजब आसी। जमी बीघा
406 बिस्वा पड़त राज की छै। वो बदस्तूर पड़त ही रहसी
उवैने कोई आदमी नहीं जोड़सी।


यानी इस जमीन का पानी कोई भी नहीं रोकेगा। पानी बहकर तालाब में आएगा। पानी रोकने वाले को दरबार की ओर से कड़े दण्ड का प्रावधान भी था। चूँकि समय धीमी गति का था, लोग गम्भीर एवं आध्यात्मिक वृत्ति के थे, अतः आगोर को पवित्र दृष्टि से देखा जाता था। लेकिन कहते हैं समय बदलते देर नहीं लगती और यह सत्य भी है कि हम उन्हीं पूर्वजों की सन्तानें हैं, लेकिन हमारी वृत्ति में आध्यात्मिकता का स्थान भौतिकता ने ले लिया है और हम अपनी माँ, प्रकृति के साथ भी छेड़छाड़ से चूक नहीं रहे हैं। जबकि हम यह बेहतर समझ रहे हैं कि प्रकृति से छेड़छाड़ अन्ततः और अनिवार्यतः अपने अस्तित्व के साथ किया जा रहा एक खिलवाड़ है। लेकिन अबोधों की भाँति इस उच्छृंखलता से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। दिन-ब-दिन यह उच्छृंखलता हमें विनाश के कगार की ओर ले जा रही है और हम हैं कि हमारी आँखें खुलती ही नहीं, कानों पर जूँ रेंगती ही नहीं।

आगोर जहाँ से शुरू होती है, वहाँ पत्थर की शक्ल में स्तम्भ या गोलाकार पाइए मिलते हैं और ठीक वैसे ही पाइए जहाँ पर आगोर खत्म होती है वहाँ आज भी विभिन्न तालाबों पर देखे जा सकते हैं। इन पर आगोर का माप मय दिशा अंकित होता था। नृसिंहसागर की आगोर आकार में बड़ी होने के कारण 958 बीघा 15 बिस्वा थी, वहीं रंगोलाई की आगोर 13 बीघा ही थी, क्योंकि वह आकार में छोटी थी।

साथ ही आगोर में पीपल, नीम, बरगद एवं अन्यान्य प्रजाति के पेड़ व वनस्पतियाँ उगाई जाती थीं। कई जगह नाना प्रकार के फूलों की बाड़ियाँ भी देखी जा सकती हैं, तो कई जगह फलों की भी। आगोर का महत्त्व केवल तालाब में पानी आने की वजह से ही नहीं था वरन इसी आगोर में आयुर्वेद के कई रत्न प्रकृति प्रदत्त थे, जिनमें चिड़ीयाखेतिया, चमघास, वनतुलसी, शंखपुष्पी, मोरसखा, दूधी, गूँदी, कैर-निम्बोलिया, फोगला, खींप, सीणिया, सेवण, बुई, भुरट, काँगसिया, बजरदन्ती (बोरटी), अडूसा आदि नाना प्रकार की जड़ी-बूटियाँ शमिल थी।

चूँकि शहर में उस समय अंग्रेजी चिकित्सा का प्रचलन थ फिर भी लोग अंग्रेजी दवाइयाँ लेने से कतराते थे। चिड़ीखेतिया अक्सर तालाब के नेष्टे के पास कोमल मृदा में अजवायन के दानों की तरह बहुत ही महीन पौधे की शक्ल में होती थी जो संसोलाव की क्षत-विक्षत आगोर में बारिश के कुछ समय बाद आज भी देखी पाई जाती है। यह शरीर को शक्ति प्रदान करने वाली औषधि थी। इसी प्रकार चमघास भी आगोर में ही उगती थी। यह बहुत गहरी हरी पत्तियों वाला पौधा होता है।

मस्तिष्क को तरोताजा रखने के वास्ते यह काम में लाई जाती थी। इसी प्रकार कांगसिया के पौधों से ही पुराने शहर के लोग दातुन किया करते थे। उनके पास कांगसिया या बजरदन्ती (बोरटी) ही ब्रश का विकल्प थे जो निःशुल्क तो प्राप्त होते ही थे, फायदेमन्द भी ज्यादा रहते थे। आज के ब्रश की तरह सेप्टिक का खतरा उन्हें इसके इस्तेमाल से नहीं रोकता था। खाँसी के लिये अडूसा दी जाती थी। इसकी गोल, हलकी पीली-हरी पत्तियाँ खाँसी में किसी अन्य औषधि से ज्यादा कारगर रहती है।

इन औषधियों की आगोर परिसर में उपलब्धता के सम्बन्ध में यही कहा जा सकता है कि ये आगोर आबादी से दूर, विशुद्ध प्राकृतिक वातावरण में होती थी, अतः प्रकृति की भूमिका लाभ उन्हें वहाँ पूरा मिलता था। दूसरे, तालाबों में पानी आने के रास्ते आगोर ही थे। आगोर का होना ही इसी उद्देश्य से था कि तालाब में निर्विघ्न पानी आता रहे। ऐसे में जल, जो वनस्पतियों के लिये महत्त्वपूर्ण कारक तत्व है, उन्हें पूरी-पूरी मात्रा में मिल जाया करता था।

साथ ही उसमें साथ बहकर आये मैले आदि से खाद यूरिया के हितरक्षण में निश्छल सहयोगी वृत्ति के आधार पर काम आती रही और समाज के विकासक्रम में बिना बाधा किये ये प्रकृति के विभिन्न उपहार अपनी उपादेयता से समाज रूप बगिया को सरसाते-महकाते रहे हैं। आगोर में परोपकार व पुण्य के कार्य ही हो सकते थे, दुराचरा व कदाचार आदि नहीं। आज भी आगोरों के मौकास्थलों पर पीपल के पेड़ों की पूजा होती है, वहाँ कीड़ीनगरे की सिंचाई होते और यज्ञादि कर्म-अनुष्ठान होते देखे जा सकते हैं।

यहाँ एक तथ्य यह भी गौर करने योग्य है कि पुष्टिकर समाज के प्रायः तालाबों पर या उनकी आगोर के परिसर में सालें बनी थी क्योंकि जो चौपटा आज नत्थूसर दरवाजे के बाहर स्थित है, वह पहले नहीं था। पुष्टिकर ब्राह्मणों में मृत्यु-संस्कार में दाहकर्म के बाद 12 दिन चलने वाले धर्मशास्त्रियों कार्यों में नारायण बलि का प्रावधान है। इस बलि विधान में चार बार स्नान की आवश्यकता होती है, अतः ये सालें तालाब परिसर या उसकी आगोर में ही निर्मित होती थी ताकि क्रिया-कर्म में आसानी हो सके और मृतात्मा की आत्मिक शान्ति का कर्म बिना किसी सांसरिक बाधा के एकान्तिक माहौल में सम्पन्न हो सके।

आध्यात्मिक प्रवृत्ति के लोग दिन में साथ बैठकर दुख-सुख बाँटते व एक दूसरे की समस्या को ध्यानपूर्वक सुनकर उसके निदान हेतु सम्यक प्रयत्न करते थे। समाज ने प्रकृति द्वारा दी हुई सुविधा को सदैव सुविधा के दृष्टिकोण से देखा और व्यवहार किया, दुविधा नहीं समझा। लेकिन आज की पीढ़ी ने सुविधा को दुविधा में बदलना शुरू कर दिया है।

सुविधा के दुविधा बन जाने के फलस्वरूप जो खामियाजा उठाना पड़ता है, समाज उठा रहा है। कमठाणा बही नं. 15, वि. सं. 1855/1798 में आये उल्लेख के अनुसार आगोर परिसर में एक रसोई भी होती थी जो सामूहिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक आयोजनों के समय आगोर परिसर में भोजन आदि कार्यों के लिये काम में आती थी।

आज का आदमी अपने ही बनाए मकड़जाल में इस तरह से उलझ गया है कि वह चाहते हुए भी निकल नहीं पा रहा है और तालाब जैसी जनसंस्कृति को मजबूत बनाने वाले चीजों का ह्रास होता जा रहा है। अतीत के गवाक्ष से झाँकने पर मालूम होता है कि तत्कालीन तालाबप्रेमी भले ही पारिस्थितिक विज्ञान और संस्कृति की नृवंशविज्ञान की अवधारणाओं को नहीं समझते थे लेकिन इनके द्वारा बहुत बाद में की गई स्थापनाओं को विचार रूप में संरक्षित रखते हुए व्यवहार में अंगीकृत कर चुके थे।उस समाज में सामाजिक चेतना ही वह मूल सूत्र था जिसके सहारे समाज प्राकृतिक आपदा से लड़ता हुआ अपने अस्तित्व को सुरक्षित रखे हुए था। मुक्तिबोध की एक पंक्ति इस समाज के व्यवहार में संस्कारस्वरूप पैठी हुई थी। मुक्तिबोध ने अपनी प्रसिद्ध कविता चंबल की घाटी में एक स्थान पर लिखा है :

कभी अकेले में मुक्ति नहीं मिलती,
यदि वह है तो सबसे साथ ही।


उस समय के समाज ने तो इस पंक्ति के लिखे जाने से पूर्व ही पीढ़ियों से अपने व्यवहार में इस विचार की प्रतिष्ठापना कर रखी थी। ऐसे में तनाव रक्तचाप, अवसाद जैसी बीमारियाँ, जो आज बहुतायत में देखने मे आ रही हैं, देखने-सुनने को भी नहीं मिलती थी। क्योंकि लोग संतोषीवृत्ति के थे, अतः सुबह मन्दिर जाना, तालाब में तैरना, आगोर पर श्रमदान करना, फिर दैनन्दिन कर्म और पुनः शाम को प्रकृति के साथ विचरण को उद्दत रहते थे।

आज का आदमी अपने ही बनाए मकड़जाल में इस तरह से उलझ गया है कि वह चाहते हुए भी निकल नहीं पा रहा है और तालाब जैसी जनसंस्कृति को मजबूत बनाने वाले चीजों का ह्रास होता जा रहा है। अतीत के गवाक्ष से झाँकने पर मालूम होता है कि तत्कालीन तालाबप्रेमी भले ही पारिस्थितिक विज्ञान और संस्कृति की नृवंशविज्ञान की अवधारणाओं को नहीं समझते थे लेकिन इनके द्वारा बहुत बाद में की गई स्थापनाओं को विचार रूप में संरक्षित रखते हुए व्यवहार में अंगीकृत कर चुके थे। इसलिये प्रकृति द्वारा स्थापित जीवनचक्र का सन्तुलन निरन्तर कायम रहा है। पहले जीवन में आने वाले संकटों में प्राकृतिक आपदाएँ ही रही, लेकिन अब हमने अपने कृत्यों से प्राकृतिक आपदाओं के साथ मनुष्यकृत आपदाओं का व्यापार बढ़ाकर जीवन में आने वाले संकटों की सूची केवल संख्या में ही नहीं बढ़ाई है वरन उसे और ज्यादा गहरा भी दिया है।

यही नहीं, आगोर की सुरक्षा एवं तालाब के निर्माण की प्रक्रिया से लेकर इसके रख-रखाव तक में महिलाएँ भी पुरुषों से पीछे नहीं रहती थी। हालांकि वे अनपढ़, गँवार और नितान्त सामन्ती परिवेश से प्रतिबद्ध समझी जाती थी लेकिन धर्मकथाओं का ये मर्म वे भलीभाँति जानती थी कि तालाब के निमित्त किया गया कार्य परमात्मा के निमित्त किये किसी भी कार्य से कम महत्त्वपूर्ण नहीं है, अतः जब-जब भी नए तालाब खुदते या पालें बाँधी जाती अथवा तालाब की सफाई का प्रसंग आता तो आसपास की महिलाएँ देव दर्शन आदि के बाद 5-7 तगारियाँ मिट्टी अवश्य बाहर फेंकतीं।

इस तरह सामूहिक श्रमविभाजन के सिद्धान्त से तालाब का रख-रखाव चलता था। इस उपक्रम का प्रभार किसी जातिविशेष या समुदायविशेष पर नहीं आता था क्योंकि यह सामूहिक जिम्मेदारी का कार्य था। इसक नफा-नुकसान भी सामूहिक ही था अतः इसमें अन्य किसी दृष्टि से हस्तक्षेप नहीं था। विश्वकर्मासागर समेत शहर के कई तालाबों की आगोर पर तो रात के समय पहरा दिया जाता था। यह सब निष्काम कर्मयोग की अवधारणा की जीवन्त मिसाल था।

गीता के ज्ञान का जीवन के व्यवहार में इतना जबरदस्त समावेश निश्चय ही मन को सोचने पर मजबूर करने वाला है कि आखिर हम क्या थे और क्या हो गए? तालाब संस्कृति के प्रेमीजन आगोर के लिये क्या और कैसे की बजाय आगोर के लिये ऐसे और इस तरह करने में अधिक विश्वास रखते थे। फलतः यह संस्कृति सदियों तक जीवित रही और साथ ही जीवित रहा मानवता का भाव। अब समय के परिवर्तन की लहर व भोगों व भोगवादी दृष्टिकोण के चलते इन सबका महत्त्व ही नहीं रह गया इसीलिये इन पर किसी का ध्यान भी नहीं जाता।

कई समाजों में तो आगोर के रख-रखाव हेतु एक पृथक कर का भी प्रावधान था। यथा कसाई समाज की तलाई के रख-रखाव हेतु इनके यहाँ विवाह-शादी या अन्य किसी खुशी के मौके पर समाज के लोग लाग देते थे। इसी से तालाब व उसकी आगोर का रख-रखाव किया जाता था। इतना ही नहीं, कसाई समाज ने तालाब की निगरानी के लिये एक फकीर भी तैनात कर रखा था जो तालाब व आगोर परिसर की पूरी चौकसी से देखभाल करता था। ईद के दिन हर घर से इसे भेंट दी जाती थी।

ऐसा नहीं है कि यह व्यवस्था केवल कसाई समाज में ही थी। हाँ, यह अवश्य कहा जा सकता है कि कसाई समाज में यह व्यवस्था प्रत्यक्ष थी और पुष्टिकर समाज सहित अन्य समाजों में अप्रत्यक्ष। यह भी तथ्य है कि लगभग हर तालाब की आगोर में एक शिवमन्दिर मय बगीची अवश्य ही बना है। बुजुर्ग बताते हैं कि विवाह होने पर दूल्हे-दुलहिन को जात के लिये विभिन्न समाजों के लोग अपने-अपने ताल-तलाई अवश्य ही भेजते थे।

जात की इस सामाजिक रस्म अदायगी के दौरान नवदम्पती की ओर से अथवा उनके परिवार की ओर से बगीची में रहने वाले परिवार को तालाब पेटे दक्षिणा अवश्य ही दी जाती थी। इसी प्रकार मेले-मगरियों के दिन भी लोग तालाब पर चढ़ावा व दान-दक्षिणा चढ़ाया करते थे और इसी धन का उपयोग आगोर सहित तालाब परिसर और उसकी रखवाली करने वाले के हित में होता था।

हालांकि ब्राह्मण बाहुल्य क्षेत्र होने के कारण नगर में मुसलमान बहुत कम संख्या में थे, अतः जाहिर है उनके तालाब भी दो-तीन ही थे। इस्लामी संस्कृति के लोग पानी की समस्या से भली-भाँति वाकिफ थे, अतः उन्होंने अपने ताल-तलाइयों को हिन्दुओं की भाँति मनोरंजनार्थ उपयोग में नहीं लिया वरन वे इनके जल का उपयोग केवल पेयजल के रूप में तथा वुजू में ही करते थे। तालाब के प्रति समाज का दृष्टिकोण ब्रह्मसागर पर लगे शिलालेख के मूलपाठ से स्पष्ट है :

तालाब के पुण्य की महिमा सब शास्त्रों में पढ़ी जाती है और मरुप्रदेश में इसकी विशेष महिमा कही गई है। तालाब बनाने वालों के हमेशा धन, सम्पत्ति, आयु, बल, वीर्य बढ़ता है ऐसा विचार कर पुण्य का संचय करना चाहिए, ऐसा कवियों ने कहा है। कहा जा सकता है कि समाज कृतघ्नी नहीं था वरन कृतज्ञ था। अपने अस्तित्व के निमित्त तालाबों की उपादेयता के प्रति उसका यह श्रद्धाभाव ही सरोवर रूप रथ को तत्कालीन संस्कृति के अपने पथ पर पथारूढ़ किये रहा जो मानवीय व्यवहार के अप्रतिम उदाहरणों में से एक है, जिसकी महत्ता किसी भी सांस्कृतिक कर्म से कम नहीं है। इसीलिये किसी कवि ने इसके महत्त्व को ज्ञापित करते हुए लिखा है:

सरवर, तरवर, सन्त जन चौथा बरसे मेह।
परमारथ के कारणे, चारों धारी देह।।


1. वुजू नमाज से पहले होने वाली इस्लामी धार्मिक क्रिया है जिसमें पानी हाथ में लेकर हाथ, कुहनी एवं पैर के निचले हिस्से पर लगाते हुए मुँह साफ किया जाता है। यह इस्लामिक आध्यात्मिक अनुष्ठान बहुत कम जल के प्रयोग से ही सम्पन्न होता है।

 

जल और समाज

(इस पुस्तक के अन्य अध्यायों को पढ़ने के लिए कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्र.सं.

अध्याय

1

जल और समाज

2

सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास

3

पुरोवाक्

4

इतिहास के झरोखों में बीकानेर के तालाब

5

आगोर से आगार तक

6

आकार का व्याकरण

7

सृष्टा के उपकरण

8

सरोवर के प्रहरी

9

सांस्कृतिक अस्मिता के सारथी

10

जायज है जलाशय

11

बीकानेर के प्रमुख ताल-तलैया

 


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