शरणार्थियों को जिन्दगी, स्वदेशी को फांसी

शरणार्थियों को जिन्दगी, स्वदेशी को फांसी
शरणार्थियों को जिन्दगी, स्वदेशी को फांसी

नैनीताल को एक नगर के रूप में तब्दील करने का काम अभी शैशवावस्था में ही था कि 10 मई, 1857 को ईस्ट इंडिया कम्पनी के भारतीय सिपाहियों ने भारत की आजादी के लिए मेरठ से प्रथम स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत कर दी। यह सैनिक विद्रोह, भारतीय जन मानस की ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध एक चैतन्य एवं मुखर अभिव्यक्ति थी। विद्रोह पूरे उत्तर भारत में तूफान की तरह फैला। इस दौरान कुमाऊँ के कमिश्नर सर हैनरी रैमजे गढ़वाल के दौरे में थे। उन्हें 22 मई, 1857 को विद्रोह की खबर मिली। तब नैनीताल की सीमा से लगे मुरादाबाद और बरेली आदि मैदानी जिलों में विद्रोह की आग चरम पर थी।

रैमजे अल्मोड़ा के रास्ते नैनीताल पहुँचे। रैमजे के पास जिला पुलिस नहीं थी। उन्होंने विद्रोह को दबाने के लिए कुमाऊँ में मार्शल लॉ लागू कर दिया। 6 जून तक कुमाऊँ का मैदानी क्षेत्रों से सम्पर्क टूट गया। गोरखा रेजीमेंट और घुड़सवार सैनिक मंगाए गए। बाद में कुमाऊँ और नेपाल से भी सेना मंगवाई गई।

 

17 सितम्बर, 1857 को एक हजार क्रान्तिकारियों ने हल्द्वानी पर अपना अधिकार कर लिया। पर 18 सितम्बर को उन्हें पीछे हटना पड़ा। 16 अक्टूबर, 1857 को हल्द्वानी फिर अंग्रेजों के हाथ से निकल गया। अंग्रेज बड़ी मुश्किल से हल्द्वानी को पुनः हासिल कर पाए। भाबर, कोटा और तराई में लूट-पाट की घटनाएँ हुई। इस दौरान बाकी कुमाऊँ शान्त रहा। ऐसा तत्कालीन कुमाऊँ कमिश्नर सर हैनरी रैमजे की चतुराई से सम्भव हो सका। रैमजे इससे पहले 16 साल तक यहाँ सहायक कमिश्नर के रूप में कार्य कर चुके थे, पहाड़ का बच्चा-बच्चा उन्हें जानता था।

 

मैदानी जिलों के यूरोपियन ने जान बचाने के लिए नैनीताल में शरण ली। रामपुर के नवाब ने यूरोपियन को मुरादाबाद से भागने में भरपूर मदद की। हमले के डर से सर हैनरी रैमजे ने दो सौ बच्चों और महिलाओं को अल्मोड़ा भेज दिया, दो जुलाई महीने के आखिर में बकरी ईद के बाद वापस नैनीताल आए।

 

21 जनवरी, 1858 को सरकार ने कमिश्नर रैमजे का पत्र भेजा। पत्र में सभी महिलाओं और बच्चों को मसूरी भेजने के आदेश दिए गए थे। सरकार का तर्क था कि बच्चों और महिलाओं के नैनीताल में रहते अफसरों को दिक्कतें हो रही हैं। रूहेलखण्ड में विद्रोह को दबाने और शान्ति बहाली के काम में रुकावटें आ रही हैं। रैमजे ने बच्चों और महिलाओं को नैनीताल से मसूरी भेजने पर असमर्थता व्यक्त कर दी। उनका कहना था कि मौसम खराब है। यातायात के साधन नहीं हैं। इसलिए इतनी लम्बी यात्रा नहीं की जा सकती है। रैमजे ने कहा कि नैनीताल का प्राकृतिक सुरक्षा तंत्र बेहद मजबूत है। नैनीताल में घुसने के दो ही संकरे रास्ते हैं, उन रास्तों को पत्थरों के बूते ही सुरक्षित किया जा सकता है। कुमाऊँ में सुरक्षित माहौल है, डरने की बात नहीं। इस दौरान यूरोपियनों को मारने के लिए बरेली से तीन से पाँच हजार स्वतंत्रता सेनानियों का दस्ता यहाँ भेजा गया। पर वे नैनीताल घुस पाने में सफल नहीं हुए। उन्हें नैनीताल से 11 मील पहले ही रोक लिया गया।

 

1858 में श्रमिकों का अभाव हो गया। रैमजे ने इस कमी को पूरा करने के लिए जेल से 40 खूंखार कैदी छोड़ दिए। कहा गया कि अगर अच्छा काम किया तो उन्हें साल के आखिर में कैद से मुक्त कर दिया जाएगा। कैदियों ने कालाढूंगी में स्वतंत्रता सेनानियों की एक टुकड़ी को भी शहीद कर दिया था।

 

इस दौरान सरकारी खजाना खाली हो चुका था। नैनीताल में रह रहे यूरोपियन शरणार्थियों की व्यवस्थाएँ कर पाना भी सरकार को भारी पड़ रहा था। तब नैनीताल के मोतीराम शाह ने सरकार को 30 हजार रुपए बतौर कर्ज दिए। यूरोपियन शरणार्थियों के नैनीताल में रहने के लिए घर और दूसरी जरुरी सुविधाएँ उपलब्ध कराई। नैनीताल में रह रहे गदर प्रभावित यूरोपियन शरणार्थियों को सरकार ने जीविकोपार्जन के लिए अग्रिम धनराशि दी। उन्हें प्रत्येक माह शरणार्थी भत्ता दिया गया। ये सभी व्यवस्थाएँ कमिश्नर रैमजे ने अपने स्तर पर जुटाई।

 

1857 में नैनीताल उत्तर भारत से जान बचाने की गरज से आए यूरोपियन के लिए सुरक्षित और आरामदायक शरण स्थली बना। नैनीताल ने सैकड़ों यूरोपियन नागरिकों का जीवन बचाया। वहीं नैनीताल अनगिनत भारतीयों का कत्लगाह बन गया। अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध भड़की विद्रोह की ज्वाला के मद्देनजर भारतीयों के दिलों में दहशत पैदा करने की मंशा से 1857-58 के दौरान मैदानी क्षेत्र से डकैत के रूप में गिरफ्तार कर लाए गए अनेक भारतीयों को तल्लीताल स्थित हॉल्स डेल की पहाड़ी में पेड़ों पर लटका कर फांसी दी गई थी। इंडेक्स टू नैनीताल स्टेट प्लान्स सर्वे इन सेशन-1867 के मानचित्र में इस जगह को फांसी के गधेरे के नाम से दर्ज किया गया है। नैनीताल के पुराने मानचित्रों में इस स्थान को हैंग मैंस बे यानी मानव को फांसी देने की खाड़ी को रूप में दर्शाया गया है। कुछ मानचित्रों में इस जगह को वार ग्रेव यानी युद्ध समाधि बताया है। वर्तमान में इस जगह को फांसी गधेरे के रूप में जाना पहचाना जाता है।

 

1858 के अंत तक अंग्रेजों ने सैनिक विद्रोह को क्रूरता के साथ कुचल दिया। स विद्रोह में करीब डेढ़ लाख लोग मारे गे थे। जिनमें करीब एक लाख आम नागरिक थे। क्रान्ति की ज्वाला मद्धिम होते ही उत्तराखण्ड सहित सम्पूर्ण भारत में ब्रिटिश शासकों की जड़े और अधिक मजबूत हो गई थी। इन सबके बीच 1858 में यहाँ पहली बार ईसाई मिशनरी ने ईसाई धर्म के प्रचार के कार्य शुरु किए। इस साल नैनीताल में अमरिकन एपिस्कोपल मैथोडिस्ट मिशन ने अपनी शाखा खोली। यह संस्था लड़कों के लिए भाषा के स्कूलों को सहायता देती थीं।

 

1857 के सैनिक विद्रोह के बाद भारत में प्रेसीडेंसी आर्मी की नींव पड़ी। प्रेसीडेंसी आर्मी के बंगाल सेना, मद्रास सेना एवं बम्बई सेना नाम से तीन कमाण्ड बने। भारत के तत्कालीन वायसराय सेना के कमाण्डर-इन-चीफ होते थे। सेना के काम-काज की देख-रेख मिलिटरी विभाग करता था। प्रेसीडेंसी सेना में शामिल अंग्रेज सैनिकों को भारत के मैदानी क्षेत्रों की आबोहवा माफिक नहीं थी। मैदानी क्षेत्रों का जटिल मौसम उन्हें रास नहीं आता था। ब्रिटिश सैनिक अक्सर अनेक गम्भीर जानलेवा बीमारियों की चपेट में आ जाते थे। ज्यादातर अंग्रेज सैनिक गृह वियोग के कारण अवसाद में रहते थे। अस्वस्थ एवं गृह वियोग से त्रस्त अंग्रेज सैनिकों को लंदन भेजना अव्यवहारिक एवं जोखिम भरा कदम साबित होता था। उस दौर में समुद्री मार्ग से लंदन जाने में तकरीबन एक माह का समय लग जाता था। दूसरा, इलाज के लिए लंदन भेजे गए अंग्रेज सैनिकों की पुनः भारत वापसी असम्भव होती थी। इस समस्या से निजात पाने के लिए नैनीताल को सेना के रूहेलखण्ड डिवीजन का स्वास्थ्य-लाभ डिपो बना दिया गया। कैलाखान में सैनिकों के बैरक बनाए गए। नैनीताल की भौगोलिक संरचना एवं जलवायु इंग्लैंड से मुलती-जुलती थी। लिहाजा अस्वस्थ तथा गृह वियोग से पीड़ित अंग्रेज सैनिकों को चुस्त-दुरुस्त करने के लिए नैनीताल भेज दिया जाता था।

 

1858 में ब्रिटेन की रानी बिक्टोरिया ने भारत में प्रत्यक्ष शासन करने की जिम्मेदारी ले ली। ब्रिटिश पार्लियामेंट भारत की सरकार के लिए प्रत्यक्ष रूप से उत्तरदाई बन गई। इसी साल अमरिकन मिशन ने नैनीताल सेन्ट्रल मैथोडिस्ट चर्च का निर्माण किया। इसे बटलर विलियम ने बनाया। यह भारत में पहला मैथोडिस्ट चर्च था। 1858 में द अमरिकन एपिस्कोपल मैथाडिस्ट मिशन ने अपनी एक शाखा के तौर पर मालरोड के समीप मिशन स्कूल खोला। यह नैनीताल का पहला स्कूल था। तब शिक्षा पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता था। बच्चों को स्कूल में दाखिला लेने को प्रोत्साहित करने के लिए मिशनरी प्रति छात्र दो पैसा वजीफा देते थे। इसी साल बरसात में मैसर्स-डेविस ने खुर्पाताल में कुमाऊँ आयरन कम्पनी स्थापित की। इसके बाद कम्पनी ने सवा लाख रुपए लागत से एक भवन भी बना लिया था। इसी दरम्यान पिटरिया में दो तथा बारापत्थर में एक चूना भट्टी बन गई थी। इन चूना भट्टियों से लोहा बनाने के लिए कुमाऊँ आयरन कम्पनी को चूना सप्लाई होता था। इन्हीं चूना भट्टियों ने कई दशकों तक नैनीताल के भवनों एवं दूसरे निर्माण कामों को मजबूती और रौनक प्रदान करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

 

1859 में नैनीताल में मिशन हॉल बना। 1860 के दशक में भारत में रेलवे की लाइनें बिछाने का काम भी शुरू हो गया था। इसी साल कोलकाता के बिशप डायनियल विल्सन ने नैनीताल का दौरा किया। उन्होंने सेंट जॉन्स इन द विल्डर्नेस चर्च का निरीक्षण किया। बिशप ने चर्च की इमारत को बेहद खूबसूरत और साफ सुथरी बताया। पर चर्च में जगह की कमी बताई। 1860 में ही जनता से चंदे के रूप में जुटाई गई तीन सौ 60 रुपए की रकम से रुड़की की केनाल फाउन्ड्री से चर्च के लिए दो फीट का पीतल का घंटा बनवाया गया। घंटे में लिखा था- ‘एक आवाज! शून्य में चिल्लाना’।

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Post By: Shivendra
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