सरकारी व्यवस्था में खामी


सूखा कभी भूकम्प या सुनामी की तरह अचानक नहीं आता। उसकी एक लम्बी प्रक्रिया है। महाराष्ट्र में आज के ऐतिहासिक सूखे की भविष्यवाणी दो साल पहले ही कर दी गई थी। लेकिन सरकारों ने समय पर कोई कदम नहीं उठाया और स्थिति लगातार बदतर होती चली गई। इससे निपटने के लिये हमें दीर्घकालीन और मध्यकालीन नीतियाँ बनाने की जरूरत है।

पानी सबकी मूलभूत जरूरत है। यह बात सही है कि हमारी संस्कृति, धर्मग्रन्थों व प्रार्थनाओं में और हमारे त्योहारों में पानी का, और उससे भी ज्यादा उसके स्रोत नदियों का महात्म्य बहुत है, लेकिन यह कम ताज्जुब की बात नहीं है कि इसके बावजूद हमारे देश में नदियों की स्थिति दुनिया में सबसे बदतर है!

यह जो विरोधाभास है उसमें हमारी सरकारों का भी बड़ा हाथ है। इसकी गहराई में जाएँ, तो समझ में आता है कि अंग्रेज काल से ही पानी की सरकारीकरण हो गया है और समाज का पानी के साथ जो रिश्ता था वह टूट गया है।

इसकी वजह से आज समाज को यह लगता है कि पानी का काम, नदियों का काम सरकार का है। दूसरी तरफ सरकार जिस तरह से पानी की व्यवस्था, गवर्नेंस करती है उसमें यह देखा गया है कि सरकार का ध्यान बड़ी-बड़ी योजनाओं में है जैसे बड़े बाँध, बड़ी सिंचाई योजनाएँ, बड़ी जल विद्युत परियोजनाएँ, नदी जोड़ योजना इत्यादि।

इनमें कई महत्व की चीजें छूट जाती हैं जैसे वर्षाजल का संग्रहण, छोटे तालाब, पोखर, वेटलेंस, नदियाँ, भूजल और सबसे महत्त्व की बात की पानी के प्रबन्धन और गवर्नेंस से समाज का जुड़ाव। ये सब आज के बाजारीकरण, निजीकरण और भूमण्डलीकरण के दौर में और भी दिक्कतें पैदा करते हैं।

वैसे तो भारत देश को पानी की दृष्टि से कई वरदान प्राप्त हैं, जैसे कि नदियाँ, हमारी वर्षा ऋतु जो इतना पानी हर साल समय पर लाती है जो दुनिया के बहुत कम देशों में होता है। हमारे भूजल की उपलब्धता जो जहाँ पानी की जरूरत है वहीं उपलब्ध कराता है। हमारे समाज में पानी के प्रबन्धन और तकनीकों के बारे में काफी समृद्ध ज्ञान था। सामाजिक विषमता भी इसी पारम्परिक ज्ञान का एक भाग थी। हालांकि आज स्थिति यह है कि हम इन वरदानों का उपयोग करने की स्थिति में नहीं रहे हैं।

आज हमारी पानी की समस्याएँ गम्भीर होती जा रही हैं। सामाजिक विषमताएँ बढ़ी हैं और जैसा कि विश्व बैंक ने हाल ही में कहा था कि यदि हम जल्दी से इस स्थिति को बदलने की दिशा में पहल नहीं करेंगे, तो हमारे समाज या अर्थतंत्र दोनों को पानी की जो जरूरत है वह पूरी नहीं हो पाएगी।

अब जरा हम भारत में इस साल पड़े सूखे की बात कर लें। बहुत कम लोगों को इसका अहसास है कि इस साल भारत में सूखा पड़ा है वह आजादी के बाद का अब तक का सबसे भीषण सूखा है, लेकिन न केन्द्र सरकार और न ही राज्य सरकारें इससे निपटने का कोई तरीका निकाल पाई हैं।

पानी की कमी के कारण ही एनटीपीसी-जैसी संस्था को अपना पॉवर प्लांट बन्द करना पड़ा है, राष्ट्रीय जलमार्ग एक से जाने वाला सामान रास्ते में ही फँसा पड़ा है। ऐसा पहले कभी नहीं हुआ था। गोदावरी नदी को ही लीजिए। भारत की वह तीसरी सबसे बड़ी नदी है, लेकिन यह नासिक, आदिलाबाद और तेलंगाना में सूख गई है।

ऐसा पिछले पचास सालों में कभी नहीं सुना गया। यह ठीक है कि पिछले दो सालों में मानसून 14 से घटकर 12 प्रतिशत हो गया, लेकिन सूखे की इतनी बुरी हालत के पीछे सिर्फ यही कारण नहीं है। गर्मियों के मौसम में होने वाला बदलाव भी इसके लिये जिम्मेदार है। धरती के जलस्तर का लगातार गिरना और सतह और भूजल में प्रदूषण भी इसका बहुत बड़ा कारण है। इससे बचने के लिये देश के बड़े हिस्से में कोई तकनीक हमारे पास नहीं है।

सूखा, भूकम्प या सुनामी की तरह अचानक नहीं आता। सूखे का यह खतरा जुलाई, 2015 से ही शुरू हो चुका था। हमने 14 जुलाई, 2015 को इसकी चेतावनी भी दी थी। यहाँ तक कि मानसून के अन्त में भी जब वर्षा के स्तर में इतनी कमी पाई गई थी, तब भी सरकारें चेत जातीं और जरूरी कदम उठा लेतीं, तो हालात इतने नाजुक न होते।

महाराष्ट्र का ही उदाहरण लेते हैं जहाँ इस साल सबसे बुरी हालत है। सरकार चाहती तो सूखाग्रस्त इलाके कृष्णा और भीमा बेसिन से ज्यादा बारिश वाले कोंकण के इलाके की ओर जाने वाले पानी को रोक सकती थी। सरकार चाहती तो गन्ने की खेती रोक सकती थी। सरकार चाहती तो सरकारी जलस्रोतों का एक सर्वे करा सकती थी और उन्हें पाँच सौ मीटर के दायरे में ला सकती थी जैसा कि सोलापुर जिले में हुआ है।

सरकार पानी के टैंकर माफिया के साथ-साथ बोतलबन्द पानी पर भी रोक लगा सकती थी और साथ ही सूखाग्रस्त इलाके में ठंडे पानी की निर्माण इकाइयों को रोक सकती थी। दुर्भाग्य से महाराष्ट्र सरकार ने इनमें से कुछ भी नहीं किया। हालांकि जलयुक्त शिविर योजना का राज्य में स्वागत हुआ, लेकिन सोलापुर को छोड़कर ज्यादातर जगह वह असफल रहा। आईपीएल मैचों और गोल्फ कोर्सों में पानी की बर्बादी पर भी कोई कदम नहीं उठाया गया।

दरअसल, महाराष्ट्र में इस साल सूखे के हालात न केवल राज्य सरकार की असफलता बताते हैं, बल्कि जल संसाधन के विकास का जो मॉडल है उसकी भी असफलता साबित करते हैं। यह इस तथ्य से भी साबित होता है कि भारत के कुल 5174 बड़े बाँधों में से 1845 बाँध अकेले इसी राज्य में हैं। यानी कुल बड़े बाँधों का 36 प्रतिशत इसी एक राज्य में है। इसके बाद भी यह स्थिति पैदा हुई।

हालांकि हालिया आर्थिक सर्वे में यह बात निकलकर आई है कि महाराष्ट्र में कुल पानी का 15.5 प्रतिशत ही सिंचाई के काम में आता है और जब से यह सरकार सत्ता में आई है तब से सिंचाई घोटाला बड़ा घोटाला बन चुका है। बजाय ऐसी घटनाओं से सबक सीखने के सरकार ने ऐसे प्रोजेक्ट और ठेकेदार लॉबी को लाभ पहुँचाने का ही काम ज्यादा किया है।

सूखाग्रस्त इलाकों के लोगों को पानी, खाना और रोजगार चाहिए। ‘मनरेगा’ इस तरह का रोजगार मुहैया करा सकती थी, लेकिन केन्द्र सरकार ने 2016-17 के बजट में भी कटौती कर दी है। ऊपर से बारह हजार करोड़ अभी पिछले वित्तीय वर्ष का ही बकाया है। इसका मतलब यह हुआ कि अगले छह महीने तक इन इलाकों में रहने वाले लाखों परेशान हाल लोगों को कोई रोजगार मिलने नहीं जा रहा।

इस असफलता का एक बड़ा संकेत अप्रैल, 2016 के शुरुआत में देखने को आया जब वार्षिक भारत जल सप्ताह कार्यक्रम चला और उसमें केन्द्रीय जल संसाधन मंत्री ने सूखाग्रस्त इलाकों की दुर्दशा का जिक्र तक नहीं किया, न यह बताया कि इससे निपटने की उनकी योजना क्या है?

दरअसल, हमें अपनी जल संरक्षण नीति, प्रोजेक्ट और कार्यक्रमों में मध्यकालीन और दीर्घकालीन बदलाव लाने की जरूरत है जिसका फोकस भूजल संरक्षण पर हो। भूजल के संरक्षण पर जोर देकर हम सूखे की आपदा और दूसरी समस्याओं से निपट सकते हैं, लेकिन दुर्भाग्यवश इस दिशा में कहीं कोई कदम उठता नहीं दिखता। हमें सबसे पहले इस दिशा में कदम उठाने होंगे कि समाज कैसे पानी का मुद्दा अपना मुद्दा समझे।

(लेखक प्रसिद्ध पर्यावरणविद हैं)

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