सरकारी प्रतिबद्धता और जनसहभागिता से ही बनेगा काम

आज देश का जल प्रबंधन कम-से-कम 25 साल पिछड़ा हुआ है। मानसून में देरी, बाढ़-सूखा, आकस्मिक जलवायु परिवर्तन के कारण देश को भारी आर्थिक-सामाजिक कीमत चुकानी पड़ती है। इसका सीधा उदाहरण 2013 की उत्तराखंड त्रासदी है, जिसमें हजारों लोगों की जान व हजारों करोड़ की क्षति के साथ उत्तराखंड के कई क्षेत्रों की भौगोलिकता तक तबाह हो गई। आखिर बिना मानसून के 72 घंटे की बारिश को दैवी चमत्कार तो नहीं ही माना जा सकता। साफ है कि पृथ्वी के लगातार बढ़ते तापमान का सीधा झटका उस जलप्लावन के रूप में हिमालय के सिर पर फूटा।

स्वाभाविक है कि आज यूपी सरकार समेत अन्य सभी लोकतांत्रिक सरकारें पर्यावरणीय विधानों व अन्य कानूनों की सफलता में जनसहभागिता को प्रमुख बिंदु मान रही हैं। यूपी की अखिलेश सरकार ने अपने विकासात्मक नीतियों में पर्यावरणीय सुरक्षा-संरक्षण, निर्वहनीय विकास व हरित पट्टी विकास में जनसहभागिता को एक नीतिगत मुद्दा माना है, ताकि स्थानीय स्तर पर जल-जगंल-जमीन से आम लोगों को जोड़कर पर्यावरण संरक्षण के सामूहिक सिद्धांत को बढ़ावा दिया जा सके। आज हमारे समक्ष बहुआयामी चुनौतियां हैं।

एक तरफ विकास दर को बनाए रखना, प्रगति व कल्याण को सुनिश्चित करना, जिसमें पर्यावरणीय संसाधनों का उपभोग या दोहन सरकार की आवश्यकता व विवशता दोनों है। वहीं दूसरी ओर पहाड़, वन, मैंग्रोव वन, नदियों आदि प्राकृतिक संसाधनों के दोहन में निर्वहनीय विकास व पर्यावरणीय संतुलन बनाए रखने की चुनौती भी है, ताकि ग्लोबल वार्मिंग, जलवायु परिवर्तन, आकस्मिक सूखा, बाढ़, भूकंप, भूस्खलन आदि से होने वाले विनाश पर अंकुश लगाया जा सके।

आज अदालतें और सरकारें पर्यावरणीय पहलुओं पर पहले से कहीं ज्यादा संवेदनशील और सतर्क हैं, क्योंकि पर्यावरण हमारे सभी ढांचे को सुरक्षा प्रदान करता है। स्थानीय अर्थव्यवस्था से लेकर संस्कृति और कानून व्यवस्था को संरक्षण इन्हीं प्राकृतिक-पर्यावरणीय दशाओं में मिलता है।

आज बाजार का 70-75 प्रतिशत हिस्सा इन्हीं प्राकृतिक उत्पादों के इर्द गिर्द घूमता है। हरित क्रांति व श्वेत क्रांति की सफलता के पीछे हिमालय से निकली नदियों का बड़ा हाथ है। हिमालय 70 करोड़ लोगों के पेट से सीधा जुड़ा है। खेद है कि पर्यावरण में निरंतर मानवीय हस्तक्षेप से समस्याएं बढ़ी हैं और विकराल हुई हैं।

एक अध्ययन में आशंका जताई गई है कि 2025 तक भारत अभूतपूर्व खाद्य, ऊर्जा और जल संकट में फंस जाएगा।

गौरतलब है कि आज देश का जल प्रबंधन कम-से-कम 25 साल पिछड़ा हुआ है। मानसून में देरी, बाढ़-सूखा, आकस्मिक जलवायु परिवर्तन के कारण देश को भारी आर्थिक-सामाजिक कीमत चुकानी पड़ती है। इसका सीधा उदाहरण 2013 की उत्तराखंड त्रासदी है, जिसमें हजारों लोगों की जान व हजारों करोड़ की क्षति के साथ उत्तराखंड के कई क्षेत्रों की भौगोलिकता तक तबाह हो गई।

आखिर बिना मानसून के 72 घंटे की बारिश को दैवी चमत्कार तो नहीं ही माना जा सकता। साफ है कि पृथ्वी के लगातार बढ़ते तापमान का सीधा झटका उस जलप्लावन के रूप में हिमालय के सिर पर फूटा। यानी कहीं भी पर्यावरण में अति मानवीय हस्तक्षेप का भीषण असर पड़ता ही है।

इन सबका सीधा समाधान हमारे सरकारी मशीनरी की प्रतिबद्धता और उसमें जनजागरूकता व जनसहभागिता की आस्था से ही संभव है।

भारत में आपदा प्रबंधन के रणनीतिकार उत्तर प्रदेश सतर्कता अधिष्ठान के स्पेशल डायरेक्टर जनरल भानु प्रताप सिंह का कहना है कि पर्यावरण संरक्षण से कानून व्यवस्था, आंतरिक सुरक्षा, वाह्य सुरक्षा व अर्थव्यवस्था जुड़ी होती है।

एक तरफ जहां पर्यावरणीय क्षति, प्राकृतिक घटनाओं व प्रदूषण बढ़ने से केंद्र-राज्य सरकारों के समक्ष कानून व्यवस्था, संतुलित विकास और जनता की सहभागिता हासिल करने में चुनौती आती है, वहीं दूसरी ओर पर्यावरणीय चुनौतियां हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा को सीधे प्रभावित करती हैं।

पर्यावरण बचाओअगर पर्यावरणविदों की रिपोर्ट पर गौर करें तो इस समय देश में सात राज्यों की 27 नदियों का दम घुट रहा है। हालत यह है कि इन्हें अब नदी के मानक में नहीं रखा जा सकता। दरअसल, नदी हम उसे कहते हैं, जहां वर्षभर एक गति से साफ पानी बहता है, जो प्यासे जीवों को पानी पिला सकती हो।

बंगाल में महानंदा ही गंगा के बाद बड़ी नदी मानी जाती है। लेकिन हजारों गांवों को पालने वाली यह नदी आज स्वयं संकट में है। इसी तरह से विकास के चरम प्रसार ने पर्वतों, झीलों, मैंग्रोव वनों को अपने दायरे में लिया है, जबकि उसका सीधा नकारात्मक प्रभाव दिख रहा है।

यही कारण है कि आज शासन-सरकार पहले से ज्यादा सतर्क हैं। वरिष्ठ आईएएस अधिकारी मुकेश चंद्रा का कहना है, ‘एक जिले के प्रशासनिक मुखिया के रूप में जिलाधिकारी को यह सुनिश्चित करना होता है कि विकास और प्रगति का आशय सभी को सुस्वास्थ्य, बेहतर पर्यावरणीय दशाओं और निवर्हनीय विकास से जोड़ना है, जिसके लिए वनीकरण और प्राकृतिक संसाधनों का संतुलित उपयोग व जनजागरूकता आवश्यक है। इसीलिए यूपी सरकार आज वृक्षारोपण, हरित पट्टियों के विकास, जैव विविधता, नदियों की स्वच्छता, नगरीय ठोस अवशिष्ट निस्तारण व प्रदूषण रहित वातावरण पर बल दे रही है।’

भारत मुख्यत: 96 ओजोन क्षयकारी पदार्थो में से नौ का उत्पादन मॉन्ट्रियल प्रोटोकाल के तहत कर रहा है। ये हैं क्लोरोल्यूरोकार्बन्स यानी सीएफसी-11, सीएफसी-12, सीएफसी-113, कार्बन टेट्रा क्लोराइड यानी सीटीसी, हाइड्रोक्लोरोल्यूरो कार्बन यानी एफसीएफसी-22, हॉलन-1211, हॉलन-1301, मिथिल क्लोराफान और मिथिल ब्रोमाइड।

जलवायु परिवर्तन को एक वैश्विक घटना के रूप में देखते हुए चौथे मूल्यांकन रिपोर्ट में जलवायु परिवर्तन पर अंतरसरकार का गठन 2007 में हुआ, जिसमें मानव को भी जलवायु परिवर्तन का भागीदार माना गया। एक सरकारी अनुमान के मुताबिक, 21वीं सदी के अंत तक भारत में 15.40 प्रतिशत वर्षा बढ़ सकती है, जिससे क्षेत्रीय भिन्नता उत्पन्न हो सकती है।

लंबे समय से पर्यावरण सुरक्षा को जनजागरूकता का मुद्दा बनाने तथा सरकारी प्रतिबद्धता में जनसहभागिता को शामिल कराने के प्रयासों से जुड़े अपर जिलाधिकारी वित्त व राजस्व आगरा चंद्र प्रकाश सिंह कहते हैं कि पर्यावरण संरक्षण की सफलता सरकारी प्रयासों में जनअभियानों को साथ लेकर ही हो सकती है।

जिन मजबूत स्तंभों पर हमारे देश का पर्यावरण टिका है, उनमें पहाड़, नदियों व वन आदि का संरक्षण पर्यावरणीय शिक्षा के व्यवहार से ही संभव है। इसमें युवाओं की भूमिका रचनात्मक और दमदार होगी। गौरतलब है कि सूचना एवं जनसंपर्क विभाग, उत्तर प्रदेश के अनुसार, वर्तमान यूपी सरकार के निर्देशन में पिछले दो वर्षों में चार हजार 53 हेक्टेयर क्षेत्र में 25.63 लाख ऊंचे पौधों का रोपण कर 839 हरित पट्टियां विकसित की गई हैं।

इसी अवधि में उत्तर प्रदेश में 10.90 करोड़ पौधों का रोपण किया गया और प्रदेश में बहने वाली नदियों व नालों के शुद्धीकरण व शुद्ध पर्यावरण हेतु 15 शहरों में नगरीय ठोस अवशिष्ट के सुरक्षित निस्तारण की व्यवस्था की गई है। वर्ष 2014-15 में प्रदेश सरकार का 49 हजार 582 हेक्टेयर क्षेत्र में 3.22 करोड़ पौधों के रोपित करने का लक्ष्य है।

मैंग्रोव वनआज पर्यावरण क्षेत्र में अंतरराष्ट्रीय ख्ताति अर्जित कर चुके संगठन टेरी ने आठ शहरों के अपने अध्ययन में पाया है कि 86 फीसदी लोग पॉलीथिन की थैलियों पर रोक लगाने के पक्षधर हैं, जबकि 90 प्रतिशत शहरियों ने जलवायु परिवर्तन में मानव हस्तक्षेप को एक प्रमुख कारण माना है।

पर्यावरणविद अनिल जोशी कहते हैं कि जल-जंगल-जमीन के प्रति पर्यावरणीय सफलता केंद्र और राज्य सरकारों के पारस्परिक तालमेल, विश्वास व राष्ट्रीय प्रतिबद्धता की रणनीतिक तैयारी से ही संभव है। हिमालय-हमारा रक्षक, नदियां-हमारी माता, वन-हमारे पोषक होने के साथ-साथ सौंदर्य, संस्कृति, सभ्यता व संरक्षण की विरासत हैं। यह तभी संभव है, जब हम भविष्य की पीढ़ियों के लिए पर्यावरण संरक्षण को अपनी जीवनशैली में आत्मसात कर सरकारी प्रयासों को जनसहभागिता से जोड़ सकेंगे।

(लेखक आगरा में जिला खाद्य विपणन अधिकारी हैं)

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