कुछ दिन पहले जादवपुर विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ एनवायरनमेंट स्टडीज के डायरेक्टर प्रो. तरित रायचौधरी ने पश्चिम बंगाल के उत्तर 24 परगना जिले के बशीरहाट ब्लॉक-1 स्थित गाँव चक कमारडांगा के चक कमारडांगा फ्री प्राइमरी स्कूल में मौजूद दो ट्यूबवेल के पानी की जाँच की थी। जाँच का मुख्य बिन्दू था यह पता लगाना कि इन दोनों जलस्रोतों में आर्सेनिक है या नहीं। इस जाँच में चौंकाने वाले तथ्य सामने आये। इसके बाद उन्होंने उन बच्चों के घरों के जलस्रोतों की भी जाँच की। जाँच में न केवल स्कूल के जलस्रोत बल्कि बच्चों के घरों के ट्यूबवेल में भी आर्सेनिक की मात्रा सामान्य से अधिक पाई गई। मगर आश्चर्य की बात है कि सरकार को न तो इसकी जानकारी है और न ही उन्होंने कभी जानकारी लेने की कोशिश की।
चक कमारडांगा फ्री प्राइमरी स्कूल की छात्रा सहाना खातून को जब प्यास लगती है, तो वह स्कूल के दो ट्यूबवेल में से उस ट्यूबवेल का पानी पीती है जिसमें फिल्टर लगा हुआ है। उसे लगता है कि फिल्टर लगा ट्यूबवेल का पानी साफ है।
सहाना की तरह ही स्कूल में पढ़ने वाले 200 से अधिक बच्चे यही मानते हैं कि फिल्टर लगे ट्यूबवेल का पानी सुरक्षित है। लेकिन, जादवपुर विश्वविद्यालय की ओर से किये गए एक सर्वेक्षण में पता चला है कि जिस पानी को बच्चे अमृत समझ कर पी रहे हैं, वह अमृत नहीं जहर है।
जादवपुर विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ एनवायरनमेंट स्टडीज के डायरेक्टर प्रो. तरित रायचौधरी द्वारा किये गए सर्वेक्षण में पता चला है कि फिल्टर लगे ट्यूबवेल में प्रतिलीटर 40 मिलीग्राम आर्सेनिक है जो सामान्य से चार गुना अधिक है। पानी में आर्सेनिक की मात्रा 10 मिलीग्राम (प्रतिलीटर) हो, तो कोई नुकसान नहीं।
बताया जाता है कि फिल्टर लगने से पहले उक्त ट्यूबवेल से निकलने वाले पानी में 500 मिलीग्राम (प्रतिलीटर) आर्सेनिक था। फिल्टर लगने के बाद आर्सेनिक की मात्रा घटकर 40 मिलीग्राम हो गई है। पानी के दूसरे स्रोत से 350 मिलीग्राम (प्रतिलीटर) आर्सेनिक निकलता है।
पता चला है कि स्कूल के ट्यूबवेल में तीन साल पहले फिल्टर लगाया गया था। फिल्टर लगने से स्कूल टीचरों ने मान लिया कि पानी में अब आर्सेनिक नहीं रहा और इसलिये पानी की दोबारा जाँच नहीं हुई।
प्रो तरित रायचौधरी कहते हैं, ‘हमलोग अक्सर जलस्रोतों की जाँच करते रहते हैं। इसी क्रम में हम उक्त स्कूल तक पहुँचे। हमें जब ट्यूबवेल में आर्सेनिक की मात्रा सामान्य से अधिक मिली, तो हमने यह जानने का प्रयास किया कि इस स्कूल के बच्चों के शरीर में कितना आर्सेनिक फैला हुआ है।’
प्रो. रायचौधरी ने बच्चों की बायोलॉजिकल जाँच करने का निर्णय लिया। इस जाँच में जो तथ्य सामने आये हैं, वे इस ओर इशारा करते हैं कि अगर बच्चों को अभी से साफ पानी नहीं दिया गया, तो आने वाले 10 वर्षों में वे कैंसर की जद में आ जाएँगे।
प्रो. रायचौधरी कहते हैं, ‘हमने 50 बच्चों को चुना और उनके यूरिन की जाँच की। जाँच में औसतन 160 माइक्रोग्राम (प्रति लीटर) आर्सेनिक मिला है जबकि इसकी सामान्य मात्रा 3 से 26 माइक्रोग्राम होनी चाहिए।’
असल में जितना आर्सेनिक शरीर में जाता है उसका 70 प्रतिशत हिस्सा तीन दिनों में ही यूरिन के रास्ते बाहर निकल जाता है, लेकिन यूरिन में आर्सेनिक की उच्च मात्रा से पता चलता है कि बच्चों के शरीर में सामान्य से अधिक आर्सेनिक जा रहा है।
जाँच के अगले चरण में बच्चों के घरों के जलस्रोतों से पानी का नमूना लिया गया क्योंकि बच्चे ज्यादा समय अपने घरों में ही बिताते हैं। इस जाँच में मिले तथ्य से पता चलता है कि स्कूल से लेकर घरों तक बच्चे आर्सेनिकयुक्त पानी पीने को विवश हैं।
घरों के ट्यूबवेल में औसतन 184 मिलीग्राम (प्रति लीटर) आर्सेनिक मिला है। कुछ ट्यूबवेल के पानी में आर्सेनिक की मात्रा 780 मिलीग्राम तक भी मिली है।
प्रो रायचौधरी कहते हैं, ‘इन जाँचों के बाद हमने यह जानने का प्रयास किया कि अब तक बच्चों के शरीर में जितना आर्सेनिक जा चुका है, उससे उन्हें कितना नुकसान हुआ है। इसके लिये हमने बच्चों के नाखून व बालों का सैम्पल लिया और उनकी जाँच की। नाखून व बालों की जाँच की रिपोर्ट बताती है कि बच्चे आर्सेनिक की चपेट में आ चुके हैं व अगर इसी तरह पानी पीते रहे, तो कैंसर उन्हें अपनी आगोश में ले लेगा।’
उन्होंने कहा, ‘बालों में औसतन 3.4 माइक्रोग्राम आर्सेनिक (प्रति ग्राम) मिला है। अधिकतम आर्सेनिक 17 माइक्रोग्राम व न्यूनतम आर्सेनिक 0.76 माइक्रो ग्राम मिला है जबकि इसकी सामान्य मात्रा 0.08 से 0.25 माइक्रोग्राम (प्रति ग्राम) होनी चाहिए। इसी तरह नाखून के सैम्पल में बच्चों में औसतन 6.5 माइक्रोग्राम (प्रति ग्राम) आर्सेनिक मिला है, जबकि इसकी सामान्य मात्रा 0.43 माइक्रोग्राम से 1.08 माइक्रोग्राम होनी चाहिए।’
प्रो रायचौधरी कहते हैं, ‘सर्वे रिपोर्ट से पता चलता है कि बच्चे लम्बे समय से आर्सेनिकयुक्त पानी पी रहे हैं क्योंकि अगर ऐसा नहीं होता, तो नाखून व बालों में आर्सेनिक नहीं मिलता है। बच्चे जिस पानी का सेवन कर रहे हैं उसमें तो आर्सेनिक है ही साथ ही जो चावल खाते हैं उसमें भी आर्सेनिक की मात्रा मिली है। बच्चों के नाखून व बालों की जाँच करने के बाद हमने उनके घरों के चावल की जाँच की, तो उसमें प्रति किलोग्राम 2.20 माइक्रोग्राम आर्सेनिक मिला। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार शरीर के वजन के हिसाब से प्रति किलोग्राम पर 2 मिलीग्राम तक आर्सेनिक नुकसानदेह नहीं है। दूसरी तरफ, स्कूल में बच्चों को मिड-डे मील भी दिया जाता है जिसे आर्सेनिकग्रस्त ट्यूबवेल के पानी से ही बनाया जाता है। इसका मतलब है कि स्कूल से लेकर घर तक व पानी से लेकर खाने तक के जरिए बच्चों के शरीर में आर्सेनिक जा रहा है।’
आर्सेनिक से होने वाले रोगों के विशेषज्ञ डॉ. कुणालकांति मजुमदार ने कहा, ‘इन बच्चों में आर्सेनिक से होने वाले रोगों के लक्षण अभी नहीं दिख रहे हैं लेकिन अगर ऐसे ही वे आर्सेनिकयुक्त पानी का सेवन करते रहे, तो आने वाले 10 सालों में ये पूरी तरह आर्सेनिक की चपेट में होंगे। बच्चों को आर्सेनिक के दुष्प्रभाव से बचाने के लिये अभी से प्रयास करना होगा।’
पौष्टिक भोजन आर्सेनिक से लड़ने में सक्षम होते हैं लेकिन इन बच्चों की आर्थिक हालत वैसी नहीं है कि वे पौष्टिक आहार ले सकें। प्रो. रायचौधरी ने कहा कि इन बच्चों के परिवार आर्थिक रूप से कमजोर हैं। उनके लिये दो जून की रोटी का जुगाड़ ही मुश्किल से हो पाता है, पौष्टिक आहार कहाँ से लाएँ।
इसमें मजे की बात यह है कि सरकार को अब तक खबर ही नहीं है कि बच्चे पढ़ने के लिये स्कूल आते हैं और अपने साथ जानलेवा आर्सेनिक ले जाते हैं। सरकार दावे करती है कि लाखों-करोड़ों रुपए से आर्सेनिक रिमूवल प्लांट बनाए गए हैं, लोगों को इसका लाभ मिल रहा है लेकिन आर्सेनिकग्रस्त इलाकों में अब भी लोग आर्सेनिकयुक्त पानी ही पी रहे हैं।
प्रो. रायचौधरी ने कहा कि रिपोर्ट उन्होंने स्थानीय पंचायत, जनस्वास्थ्य अभियांत्रिकी विभाग को भी सौंपा है ताकि जल्द-से-जल्द कोई व्यवस्था कर लोगों को राहत पहुँचाई जाय।
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