सरकारी भूमि अधिग्रहण का आधार ​हिंसा : शुभमूर्ति

Nitish Kumar
Nitish Kumar
वर्तमान का भूमि-अधिग्रहण बिल अमेरिकी पैटर्न पर बना है। अमेरिका में सिर्फ दो फीसदी किसान हैं। सरकार की मंशा निरंतर किसानों की संख्या घटाकर कारपोरेट फारमिंग की है। नई कृषि नीति से यह स्पष्ट है। 2013 का भूमि अधिग्रहण कानून विश्व बैंक की अनुशंसा के आधार पर बना है। इसका मकसद भूमि के बाजार का विस्तार करना है। उन्होंने कहा कि ऐसा कानून बनना चाहिए, जिससे जमीन जोतने वाले का आर्थिक सुरक्षा का आधार सुनिश्चित होना चाहिए।बिहार भू-दान यज्ञ कमेटी के अध्यक्ष शुभभूर्ति ने कहा है कि आज विकास के मौजूदा मॉडल पर फिर से सोचने की आवश्यकता है। सरकारें जनता का हित नहीं समझ रही है। सरकारी आधार हिंसा रहा है। हिंसा सिर्फ बंदूक की हिंसा नहीं होती है बल्कि ढाँचागत हिंसा भी। ढाँचागत हिंसा के शिकार देश में अनेक भागों के लोग हो रहे हैं। गाँवों की दशा दिन-प्रतिदिन बिगड़ती जा रही है। वेे अनुग्रह नारायण सिहं सामाजिक अध्ययन संस्थान, बिहार सरकार द्वारा भूमि सुधार को लेकर गठित कोर कमेटी और एसोसिएशन फॉर स्टडी एंड एक्शन की ओर से आयोजित 'भूमि अधिग्रहण बिल' विषय पर परिचर्चा को सम्बोधित कर रहे थे।

उन्होंने कहा नवउदारवादी व्यवस्था में देश के 22 फीसदी लोग जिसकी जीविका प्राकृतिक संसाधनों पर आश्रित है, उनके अस्तित्व पर संकट उत्पन्न हो गया है। उन्होंने कहा कि समुदाय की शक्ति को जागृत करना होगा। उन्होंने कहा कि शक्ति का केन्द्रीकरण आज सबसे बड़ा खतरा है। इस बिल के साथ-साथ न्यायिक प्रक्रिया पर भी गौर करना होगा। यह देखना और समझना जरूरी होगा कि वास्तविक जरूरत को पूरा करने के लिए जमीन माँगी जा रही है या नहीं। उन्होंने कहा कि विकास के संदर्भ में गाँधी का मॉडल ही देश के लिए कारगर हो सकता है।

इससे पूर्व राजस्व और भूमि सुधार विभाग के प्रधान सचिव व्यास जी ने कहा कि अब तक 1884 के कानून के तहत भूमि अधिग्रहण होता आया था। लम्बे संघर्ष के बाद भूमि अधिग्रहण कानून 2013 में लाया गया। उन्होंने कहा कि सरकार को अधिकार है कि वह निजी सम्पत्ति का अधिग्रहण कर सकती है। भूमि अधिग्रहण कानून 2013 के कानून में अधिग्रहण के साथ-साथ पुर्नवास की पारदर्शी व्यवस्था की बात कही गयी है। 1 जनवरी 2014 से पुनर्वास एवं पुर्नव्यवस्थापन कानून 2013 प्रभावी हो गया। इसमें 13 अध्याय और चार अनुसूची है। प्रथम से लेकर तृतीय अनुसूची में मुआवजे और चौथी अनुसूची में भूमि अधिग्रहण के 13 कानूनी प्रावधानों का उल्लेख है। उन्होंने 2015 के बिल और इस कानून का तुलनात्मक अध्ययन भी प्रस्तुत किया।

इससे पूर्व पटना उच्च न्यायालय के वरीय अधिवक्ता बसंत चौधरी ने कहा कि भूमि अधिग्रहण की बात तो की जा रही है लेकिन गरीबों के घर की बात नहीं की जा रही है। विकास के नाम पर अब तक 45 लाख लोगों का विस्थापन हुआ है। कृषि योग्य भूमि का रकवा घटता जा रहा है। बड़े पैमाने पर उद्योगों के लिए जमीन अधिगृहित की जा रही है। देश में भूमि सुधार के लिए कोई नीति ही नहीं बनी। बड़े पैमाने पर जमीन का अधिग्रहण तो किया जा रहा है, लेकिन उसका उपयोग नहीं हो रहा है। उद्योग के लिए सिर्फ 65 लाख एकड़ जमीन अधिगृहित की गयी है। पूरा खेल पूँजीवाद का चल रहा है। उन्होंने कहा बहुफसली जमीन लिए जाने का विरोध करना चाहिए। उन्होंने कहा कि नये अध्यादेश में तो पुनर्वासन की समय-सीमा निर्धारित नहीं की गयी है। सामाजिक कार्यकर्ता अर्जुन जी ने कहा कि जमीन का सवाल आजीविका से जुड़ा है।

वर्तमान का भूमि-अधिग्रहण बिल अमेरिकी पैटर्न पर बना है। अमेरिका में सिर्फ दो फीसदी किसान हैं। सरकार की मंशा निरंतर किसानों की संख्या घटाकर कारपोरेट फारमिंग की है। नई कृषि नीति से यह स्पष्ट है। 2013 का भूमि अधिग्रहण कानून विश्व बैंक की अनुशंसा के आधार पर बना है। इसका मकसद भूमि के बाजार का विस्तार करना है। उन्होंने कहा कि ऐसा कानून बनना चाहिए, जिससे जमीन जोतने वाले का आर्थिक सुरक्षा का आधार सुनिश्चित होना चाहिए। आज किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं। खेती का निगमीकरण किया जा रहा है। 10 करोड़ से ज्यादा लोग विस्थापित हुए हैं। ग्रामसभा प्रभावी तरीके से काम नहीं कर रही है। ग्राम सभा की बैठक गाँव में न होकर समारहणालय यानी कलेक्ट्रियेट में हो रही है।

अनुग्रह नारायण सिंह सामाजिक अध्ययन संस्थान के निदेशक डीएम दिवाकर ने कहा कि भूमि अधिग्रहण अध्यादेश 2014 के पक्ष में जिस तरह भूमि अधिग्रहण कानून 2013 के प्रावधानों की आलोचना की जा रही हैं वे न केवल हास्यास्पद हैं, बल्कि निराधार भी हैं। भूमि अधिग्रहण कानून 2013 को पारित करने में उनकी भी भूमिका और सहमति रही है। यह गँवारा नहीं कि जमीन अधिग्रहण के लिए किसानों और ग्रामीण जनता से पूछना पड़े। उनकी सहमति लेनी पड़े। यहाँ तक कहा जा रहा है कि देश की सुरक्षा के लिए उद्योग लगाने के लिए सामाजिक असर का मूल्यांकन और सार्वजनिक उद्देश्य साबित करने के लिए किसान और मजदूर से पूछने की क्या जरूरत है ? भूमि अधिग्रहण अध्यादेश लाकर केन्द्र सरकार ने अपनी निष्ठा कार्पोरेट घरानों के पक्ष में साफ़ कर दिया है। सरकार कह रही है कि विपक्ष भरम फैला रही है।

क्या अध्यादेश की धारा 3 (i) में मूल कानून की धारा 2 (1) (बी) (i) में निजी अस्पताल, शिक्षण संस्थान और होटल को आधारभूत संरचना के लिए जमीन अधिग्रहण करने से अलग रखने के प्रावधान को खत्म नहीं कर दिया गया है? क्या अध्यादेश की धारा 3 (ii) में मूल कानून की धारा 2 में दूसरे प्रावधान के तहत धारा 10A के अनुसार मूल कानून के अध्याय 2 में प्रावधानित सामाजिक प्रभाव मूल्यांकन और सार्वजनिक उद्देश्य की जाँच के प्रावधान और मूल कानून के अध्याय 3 में खाद्य सुरक्षा के विशेष प्रावधानों को सुनिश्चित करने हेतु सिंचित बहु फसली जमीन को अधिग्रहित नहीं करने के प्रावधानों को समाप्त नहीं कर दिया गया है? कौन भरमा रहा है, इस पर गौर करना होगा। उन्होंने कहा अहम सवाल है गरीब को संसद कब देगी लोकतंत्र का हक़? पहचान का हक़?

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