स्वतंत्रता के बाद एक नए प्रकार का शासन प्रशासन पनपा। सब आजाद हो गए। भय का नाम नहीं रहा। इसी का लाभ उठाकर लोगों ने सरकारी भूमियों पर कब्जें शुरू किए। अधिकारियों को भी अपने अपराध में शामिल कर लिया। परिणाम उन कब्जाधारियों और अफसरों की मिलीभगत से न तालाब बचे और न पयातन। प्लांट काटकर बेच दिए और भवन बन गए। बाकी पर कब्जे हो गए। अब पानी को तरसते लोगों के लिए प्रशासन अखबारों और टीवी पर विज्ञापनों से पेयजल का प्रबन्ध कर रहा है।
आदिकाल से हमारे पूर्वजों ने जहाँ भी बस्तियाँ बसाई वहाँ पहले पानी की व्यवस्था की, यहाँ तक कि जहाँ भी रुके पहले तालाब खोदे। कुए खोदें। बावड़ियों का निर्माण किया। उसके बाद ही वहाँ पर अपने आवास बनाए। राजा महाराजाओं का अस्तित्व जनता से था और जनता को सर्वप्रथम पानी उपलब्ध कराना होता था। मेड़ता भी एक पुराना राज्य था और यहाँ के शासकों ने भी पानी का समुचित और स्थाई प्रबन्ध किया था।
थिरराज डांगा चैधरी ने डॉगोलाई तालाब खोदा। वहीं एक पुरोहित बैजनाथ ने भूतों से बेझपां और कुंडल तालाब खुदवाए। हालांकि कुंडल के बारे में कहा जाता है कि जब मारवाड़ के महाराजा राव मालदेव ने मेड़ता पर युद्ध किया तब जयमलजी चारभुजा की पूजा में बैठे थे और खुद चारभुजा जयमल बनकर युद्ध भूमि में गए और वहाँ उनका कुंडल कान का श्रृंगार खो गया था। उसे खोजने के लिए की गई खुदाई से कुंडल बना। जो भी हो कुंडल पानी का बहुत बड़ा स्रोत था। दुदासागर, विष्णु सागर, देराणी, जेठानी आदि अनेक तालाब शहर के चारों ओर हैं। एक बार बारिश से भरने पर कई बार तो दो तीन साल तक खाली नहीं होते थे। यहाँ तक कि चारों ओर से बीस-बीस कोस तक पानी ले जाया जाता था।
व्यवस्था ऐसी थी कि इन तालाबों में कोई किसी प्रकार की गन्दगी करता तो उसे दंडित किया जाता था। इन तालाबों के पायतान याने कैचमेंट एरिया में रास्ते चलते लघु शंका करना भी अपराध की श्रेणी में आता था। स्वतंत्रता के बाद एक नए प्रकार का शासन प्रशासन पनपा। सब आजाद हो गए। भय का नाम नहीं रहा। इसी का लाभ उठाकर लोगों ने सरकारी भूमियों पर कब्जे शुरू किए। अधिकारियों को भी अपने अपराध में शामिल कर लिया। परिणाम उन कब्जधारियों और अफसरों की मिली भगत से न तालाब बचे और न पायतान। प्लांट काटकर बेच दिए और भवन बन गए। बाकी पर कब्जे हो गए। अब पानी को तरसते लोगों के लिए प्रशासन अखबारों और टीवी पर विज्ञापनों से पेयजल का प्रबन्ध कर रहा है। अगर स्थाई समाधान करना है तो प्रशासन इन तालाबों और उसके कैचमेंट एरिया को खाली कराए। जिन अधिकारियों की मिली भगत से ये कब्जे हुए उनको कठघरे में खड़ा किया जाए। बुलडोजर चलाकर इन अवैध कब्जों को मिट्टी में मिलाया जाए और दंडित किया जाए। तालाबों की भूमि की आसानी से किस्म नहीं बदलती है। अब तो यह बीमारी कस्बों और गाँवों में भी घर कर गई है। यह तो मात्र एक मेड़ता का उदाहरण है। प्रत्येक शहर की यही स्थिति है और सुस्त प्रशासन कभी भी अपना असली रंग नहीं दिखा सकता। तब तक पानी टीवी में दिखाते रहो।
अब्दुल रहमान बनाम सरकार में राजस्थान उच्च न्यायालय ने पूरे प्रदेश के लिए आदेश पारित किया था कि राजस्व रिकॉर्ड के अनुसार तालाबों के पायतान यानी कैचमेंट एरिया को तुरन्त 1947 की स्थिति में लाया जाए। मगर कई सरकारें आई और गईं, मगर उच्च न्यायालय के आदेशों पर कोई कार्यवाही अमल में नहीं लाई जा सकी। सरकार की क्या मजबूरी है यह तो सरकार जाने। मगर जल के प्रारम्भिक स्रोतों की बहाली के बिना पानी की समस्या का कोई समाधान नहीं हो सकता। पानी की समस्या का स्थाई हल पुराने तालाबों की बहाली और उनका संरक्षण ही है। हर साल होने वाली वर्षा का पानी फालतू बह जाता है और तालाबों में बहुमंजिली इमारतें खड़ी हैं।
दबंग अधिकारी ऐसे अतिक्रमण अवश्य हटा सकते हैं। बड़े शहरों की तो छोड़िए गाँवों में भी तालाबों पर गुंडा तत्वों के अवैध कब्जे हैं और उनको हटाए कौन। बीकानेर में अवैध कब्जा तोड़ने के लिए खुद कलक्टर आरएन मीणा गए थे। घोड़े पर चढ़कर पास में खड़े रहकर भूमाफियाओं से जा भिड़े थे। काश सभी जिलों के कलक्टर पानी के लिए तालाबों को कब्जा मुक्त कर सके, तो राजस्थान का कल्याण हो सकता है। मगर होगा नहीं क्योंकि ऐसे भूमाफियाओं के सम्बन्ध दोनों दलों के उच्च पदाधिकारियों तक हैं और कोई कलक्टर मुख्यमंत्री की अवमानना कर अपना भविष्य बर्बाद नहीं करेगा। काश, सरकार स्वयं कलक्टरों को नैतिक समर्थन देकर कार्यवाही कराए, तो प्रदेश में पानी की कोई कमी नहीं होगी। मगर शासन तो केवल बैठके कर सकता है। तुलसीदास जी ने रामायण में लिखा है ‘‘भय बिन होय न प्रीति।’’ सरकार एक बार डंडा चलाकर तो देखे मगर अधिकारियों की जेबें गर्म हो जाएँगी तथा तालाबों के कब्जे ज्यों के त्यों रह जाएँगे। सरकार अगर कठोर निर्णय ले तो पानी पर खरबों रुपए बच जाएँगे, अन्यथा पानी की चिन्ता भी मात्र दिखावा ही रह जाएगा।
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