जो भूमि केवल वर्षा के पानी से ही सींची जाती है और जहाँ वर्षा के आधार पर ही खेती हुआ करती है, उस भूमि को ‘देव मातृक’ कहते हैं। इसके विपरीत, जो भूमि इस प्रकार वर्षा पर आधार नहीं रखती, बल्कि नदी के पानी से सींची जाती है और निश्चित फ़सल देती है, उसे ‘नदी मातृक’ कहते हैं। भारतवर्ष में जिन लोगों ने भूमि के इस प्रकार दो हिस्से किए, उन्होंने नदी को कितना महत्व दिया था, यह हम आसानी से समझ सकते हैं। पंजाब का नाम ही उन्होंने सप्त-सिंधु रखा। गंगा-यमुना के बीच के प्रदेशों को अंतर्वेदी (दो-आब) नाम दिया। सारे भारतवर्ष के ‘हिन्दुस्तान’ और ‘दक्खन’ जैसे दो हिस्से करने वाले विन्ध्याचल या सतपुड़ा का नाम लेने के बदले हमारे लोग संकल्प बोलते समय ‘गोदावर्यः दक्षिणे तीरे’ या ‘रेवायाः उत्तर तीरे’ ऐसे नदी के द्वारा देश के भाग करते है। कुछ विद्वान ब्राह्मण-कुलों ने तो अपनी जाति का नाम ही एक नदी के नाम पर रखा है- सारस्वत। गंगा के तट पर रहने वाले पुरोहित और पंडे अपने-आपको गंगापुत्र कहने में गर्व अनुभव करते हैं। राजा को राज्यपद देते समय प्रजा जब चार समुद्रों का और सात नदियों का जल लाकर उससे राजा का अभिषेक करती, तभी मानती थी की अब राजा राज्य करने का अधिकारी हो गया। भगवान की नित्य की पूजा करते समय भी भारतवासी भारत की सभी नदियों को अपने छोटे से कलश में आकर बैठने की प्रार्थना अवश्य करेगा।
गंगे! च यमुने! चैव गोदावरी! सरस्वती!
नर्मदे! सिन्धु! कावेरी! ज्लेऽस्मिन! सन्निधिं कुरू।।
भारतवासी जब तीर्थयात्रा के लिए जाता है, तब भी अधिकतर वह नदी के ही दर्शन करने के लिए जाता है। तीर्थ का मतलब है नदी का पैछल या घाट। नदी को देखते ही उसे इस बात का होश नहीं रहता कि जिस नदी में स्नान करके वह पवित्र है उसे अभिषेक की क्या आवश्यकता है? गंगा का ही पानी लेकर गंगा को अभिषेक किए बिना उसकी भक्ति को संतोष नहीं मिलता। सीता जी जब रामचंद्र जी के साथ वनवास के लिए निकल पड़ी, तब वे हर नदी को पार करते समय मनौती मानती जाती थीं कि ‘वनवास से सकुशल वापस लौटने पर हम तुम्हारा अभिषेक करेंगे’। मनुष्य जब मर जाता है, तब भी उसे वैतरणी नदी को पार करना पड़ता है। थोड़े में, जीवन और मृत्यु दोनों में आर्यों का जीवन नदी के साथ जुड़ा है।
उनकी मुख्य नदी तो है गंगा। वह केवल पृथ्वी पर ही नहीं, बल्कि स्वर्ग में भी बहती है और पाताल में भी बहती है। इसीलिए वे गंगा को त्रिपथगा कहते हैं।
पाप धोकर जीवन में आमूलाग्र परिवर्तन करना हो, तब भी मनुष्य नदी में ही जाता है। और कमर तक पानी में खड़ा रहकर संकल्प करता है, तभी उसको विश्वास होता है कि अब उसका संकल्प पूरा होने वाला है। वेद काल के ऋषियों से लेकर व्यास, वाल्मीकि, शुक, कालिदास, भवभूति, क्षेमेंद्र, जगन्नाथ तक किसी भी संस्कृत कवि को ले लीजिए, नदी को देखते ही उसकी प्रतिभा पूरे वेग से बहने लगती है। हमारी किसी भी भाषा की कविताएं देख लीजिए, उनमें नदी के स्रोत अवश्य मिलेंगे और हिन्दुस्तान की भोली जनता के लोकगीतों में भी आपको नदी के वर्णन कम नहीं मिलेंगे।
गाय, बैल और घोड़े जैसे उपयोगी पशुओं की जातियां तय करते समय भी हमारे लोगों को नदी का ही स्मरण होता है। अच्छे-अच्छे घोड़े सिंधु के तट पर पाले जाते थे, इसलिए घोड़ों का नाम ही सैंधव पड़ गया। महाराष्ट्र के प्रख्यात टट्टू भीमा नदी के किनारे पाले जाते थे, अतः वे भीमथड़ी के टट्टू कहलाए। महाराष्ट्र की अच्छा दूध देने वाली और सुन्दर गायों को अंग्रेज आज भी ‘कृष्णावेली ब्रीड’ कहते हैं।
जिस प्रकार ग्राम्य पशुओं की जाति के नाम नदी पर रखे गये हैं, उसी प्रकार कई नदियों के नाम पशु-पक्षियों के नाम से रखे गये हैं। जैसेः गो-दा, गो-मती, साबर-मती, हाथ-मती, बाघ-मती, सरस्वती, चर्मण्यवती आदि।
महादेव की पूजा के लिए प्रतीक के रूप में जो गोल चिकने पत्थर (बाण) उपयोग में लाए जाते हैं, वे नर्मदा के ही होने चाहिए। नर्मदा का महात्म्य इतना अधिक है कि वहां के जितने कंकर उतने सब शंकर होते हैं। और वैष्णवों के शालिग्राम गंडकी नदी से आते हैं।
तमसा नदी विश्वामित्र की बहन मानी जाती है, तो कालिंदी यमुना प्रत्यक्ष काल भगवान यमराज की बहन है। प्रत्येक नदी का अर्थ है संस्कृति का प्रवाह। प्रत्येक की खूबी अलग है। मगर भारतीय संस्कृति विविधता में एकता उत्पन्न करती है। अतः सभी नदियों को हमने सागर पत्नी कहा है। समुद्र के अनेक नामों में उसका सरित्पति नाम बड़े महत्व का है। समुद्र का जल इस कारण पवित्र माना जाता है कि सब नदियां अपना-अपना पवित्र जल सागर को अर्पण करती हैं। ‘सागरे सर्वतीर्थानि’।
जहां दो नदियों का संगम होता है, उस स्थान को प्रयाग कहकर हम पूजते हैं। यह पूजा हम केवल इसलिए करते हैं कि संस्कृतियों का जब मिश्रण या संगम होता है तब उसे भी हम शुभ संगम समझना सीखें। स्त्री-पुरुष के बीच जब विवाह होता है तब वह भिन्न गोत्री ही होना चाहिए, ऐसा आग्रह रखकर हमने यही सूचित किया है कि एक ही अपरिवर्तनशील संस्कृति में सड़ते रहना श्रेयस्कर नहीं है। भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के बीच मेलजोल पैदा करने की कला हमें आनी ही चाहिए। लंका की कन्या घोघा (सौराष्ट्र) के लड़कों के साथ विवाह करती है, तभी उन दोनों में जीवन के सब प्रश्नों के प्रति उदार दृष्टि से देखने की शक्ति आती है। भारतीय संस्कृति पहले से ही संगम-संस्कृति रही है। हमारे राजपुत्र दूर-दूर की कन्याओं से विवाह करते थे। केकय देश की कैकेयी, गांधार की गांधारी, कामरूप की चित्रांगदा, ठेठ दक्षिण की मीनाक्षी मीनल देवी, बिलकुल विदेश से आयी हुई उर्वशी और माहेश्वरी, इस तरह कई मिसालें बताई जा सकती हैं। आज भी राजा-महाराजा यथासंभव दूर-दूर की कन्याओं से विवाह करते हैं। हमने नदियों से ही यह संगम संस्कृति सीखी है।
अपनी-अपनी नदी के प्रति हम सच्चे रहकर चलेंगे, तो अंततः समुद्र में पहुंच ही जाएंगे। वहां कोई भेदभाव नहीं रह सकता। सब कुछ एकाकार, सर्वाकार और निराकार हो जाता है ‘साकाष्ठा सा परा गतिः’।
गंगे! च यमुने! चैव गोदावरी! सरस्वती!
नर्मदे! सिन्धु! कावेरी! ज्लेऽस्मिन! सन्निधिं कुरू।।
भारतवासी जब तीर्थयात्रा के लिए जाता है, तब भी अधिकतर वह नदी के ही दर्शन करने के लिए जाता है। तीर्थ का मतलब है नदी का पैछल या घाट। नदी को देखते ही उसे इस बात का होश नहीं रहता कि जिस नदी में स्नान करके वह पवित्र है उसे अभिषेक की क्या आवश्यकता है? गंगा का ही पानी लेकर गंगा को अभिषेक किए बिना उसकी भक्ति को संतोष नहीं मिलता। सीता जी जब रामचंद्र जी के साथ वनवास के लिए निकल पड़ी, तब वे हर नदी को पार करते समय मनौती मानती जाती थीं कि ‘वनवास से सकुशल वापस लौटने पर हम तुम्हारा अभिषेक करेंगे’। मनुष्य जब मर जाता है, तब भी उसे वैतरणी नदी को पार करना पड़ता है। थोड़े में, जीवन और मृत्यु दोनों में आर्यों का जीवन नदी के साथ जुड़ा है।
उनकी मुख्य नदी तो है गंगा। वह केवल पृथ्वी पर ही नहीं, बल्कि स्वर्ग में भी बहती है और पाताल में भी बहती है। इसीलिए वे गंगा को त्रिपथगा कहते हैं।
पाप धोकर जीवन में आमूलाग्र परिवर्तन करना हो, तब भी मनुष्य नदी में ही जाता है। और कमर तक पानी में खड़ा रहकर संकल्प करता है, तभी उसको विश्वास होता है कि अब उसका संकल्प पूरा होने वाला है। वेद काल के ऋषियों से लेकर व्यास, वाल्मीकि, शुक, कालिदास, भवभूति, क्षेमेंद्र, जगन्नाथ तक किसी भी संस्कृत कवि को ले लीजिए, नदी को देखते ही उसकी प्रतिभा पूरे वेग से बहने लगती है। हमारी किसी भी भाषा की कविताएं देख लीजिए, उनमें नदी के स्रोत अवश्य मिलेंगे और हिन्दुस्तान की भोली जनता के लोकगीतों में भी आपको नदी के वर्णन कम नहीं मिलेंगे।
गाय, बैल और घोड़े जैसे उपयोगी पशुओं की जातियां तय करते समय भी हमारे लोगों को नदी का ही स्मरण होता है। अच्छे-अच्छे घोड़े सिंधु के तट पर पाले जाते थे, इसलिए घोड़ों का नाम ही सैंधव पड़ गया। महाराष्ट्र के प्रख्यात टट्टू भीमा नदी के किनारे पाले जाते थे, अतः वे भीमथड़ी के टट्टू कहलाए। महाराष्ट्र की अच्छा दूध देने वाली और सुन्दर गायों को अंग्रेज आज भी ‘कृष्णावेली ब्रीड’ कहते हैं।
जिस प्रकार ग्राम्य पशुओं की जाति के नाम नदी पर रखे गये हैं, उसी प्रकार कई नदियों के नाम पशु-पक्षियों के नाम से रखे गये हैं। जैसेः गो-दा, गो-मती, साबर-मती, हाथ-मती, बाघ-मती, सरस्वती, चर्मण्यवती आदि।
महादेव की पूजा के लिए प्रतीक के रूप में जो गोल चिकने पत्थर (बाण) उपयोग में लाए जाते हैं, वे नर्मदा के ही होने चाहिए। नर्मदा का महात्म्य इतना अधिक है कि वहां के जितने कंकर उतने सब शंकर होते हैं। और वैष्णवों के शालिग्राम गंडकी नदी से आते हैं।
तमसा नदी विश्वामित्र की बहन मानी जाती है, तो कालिंदी यमुना प्रत्यक्ष काल भगवान यमराज की बहन है। प्रत्येक नदी का अर्थ है संस्कृति का प्रवाह। प्रत्येक की खूबी अलग है। मगर भारतीय संस्कृति विविधता में एकता उत्पन्न करती है। अतः सभी नदियों को हमने सागर पत्नी कहा है। समुद्र के अनेक नामों में उसका सरित्पति नाम बड़े महत्व का है। समुद्र का जल इस कारण पवित्र माना जाता है कि सब नदियां अपना-अपना पवित्र जल सागर को अर्पण करती हैं। ‘सागरे सर्वतीर्थानि’।
जहां दो नदियों का संगम होता है, उस स्थान को प्रयाग कहकर हम पूजते हैं। यह पूजा हम केवल इसलिए करते हैं कि संस्कृतियों का जब मिश्रण या संगम होता है तब उसे भी हम शुभ संगम समझना सीखें। स्त्री-पुरुष के बीच जब विवाह होता है तब वह भिन्न गोत्री ही होना चाहिए, ऐसा आग्रह रखकर हमने यही सूचित किया है कि एक ही अपरिवर्तनशील संस्कृति में सड़ते रहना श्रेयस्कर नहीं है। भिन्न-भिन्न संस्कृतियों के बीच मेलजोल पैदा करने की कला हमें आनी ही चाहिए। लंका की कन्या घोघा (सौराष्ट्र) के लड़कों के साथ विवाह करती है, तभी उन दोनों में जीवन के सब प्रश्नों के प्रति उदार दृष्टि से देखने की शक्ति आती है। भारतीय संस्कृति पहले से ही संगम-संस्कृति रही है। हमारे राजपुत्र दूर-दूर की कन्याओं से विवाह करते थे। केकय देश की कैकेयी, गांधार की गांधारी, कामरूप की चित्रांगदा, ठेठ दक्षिण की मीनाक्षी मीनल देवी, बिलकुल विदेश से आयी हुई उर्वशी और माहेश्वरी, इस तरह कई मिसालें बताई जा सकती हैं। आज भी राजा-महाराजा यथासंभव दूर-दूर की कन्याओं से विवाह करते हैं। हमने नदियों से ही यह संगम संस्कृति सीखी है।
अपनी-अपनी नदी के प्रति हम सच्चे रहकर चलेंगे, तो अंततः समुद्र में पहुंच ही जाएंगे। वहां कोई भेदभाव नहीं रह सकता। सब कुछ एकाकार, सर्वाकार और निराकार हो जाता है ‘साकाष्ठा सा परा गतिः’।
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