प्रायः कहा जाता है, 'जल ही जीवन है'। यह कोई अतिशयोक्ति न होकर जीवन का यथार्थ है क्योंकि जीवन सञ्चालन के प्रत्येक चरण में जल का महत्व है। शरीर में इसके अल्पाभाव से अनेक जैविक क्रियाएँ मंद पड़ जाती हैं। आइये देखें कि जल का शरीर की किन क्रियाओं में योगदान होता है।
ऊर्जा : शरीर में जल का आवश्यकता से कम होने से एंजाइमों की गतिविधियाँ मंद पड़ जाती हैं जिनमें से अनेक शरीर को ऊर्जा प्रदान करती हैं। इससे व्यक्ति को शीघ्र ही थकान अनुभव होने लगती है। जल के अल्पाभाव से ही शरीर की पोषण क्रिया भी मंद हो जाती है जिससे व्यक्ति को चलने-फिरने में भी कठिनाई होने लगती है।
पाचन : मानव शरीर भोजन से प्रतिदिन औसतन ७ लीटर पाचन रसों का निर्माण करता है जिनसे शरीर का पोषण होता है। जल के अल्पाभाव से ये पाचन रस पर्याप्त मात्रा में उत्पादित नहीं हो पाते जिससे शरीर में भोजन का पूर्ण उपयोग नहीं हो पाता। यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि जल की अधिकता से भी उक्त पाचन रसों की सांद्रता कम हो जाती है जिससे भी शरीर के पोषण में कमी आती है।
मल-त्याग : पाचन प्रक्रियाओं में भोजन आँतों में होकर आगे बढ़ता रहता है जिसमें से अतिरिक्त जल अवशोषित होकर रक्त में पहुंचता है और शरीर का पोषण करता है। जलाभाव से इससे आँतों में शेष मल शुष्क और कठोर होने लगता है जिससे उसका शरीर से निष्कासन मंद हो जाता है। शरीर में मल के शीघ्र त्याग न होने से उसमें सडन होने लगती है जिससे विषाणु उत्पन्न होने लगते हैं जो अनेक रोगों को जन्म देते हैं।
रक्त चाप : शरीर में दीर्घ काल तक अथवा बार-बार जलाभाव होने से रक्त की सांद्रता अधिक होने लगती है जिसके दवाब को बनाये रखने के लिए रक्त वाहिनियाँ सिकुड़ने लगती हैं। इन दोनों प्रभावों में रक्त वाहिनियों में प्रवाह को बनाए रखने के लिए ह्रदय को अधिक दवाब पर कार्य करना पड़ता है, जिसे उच्च रक्त चाप कहा जाता है। इससे ह्रदय के कार्य-कौशल पर दुष्प्रभाव पड़ता है।
उदर के घाव : उदर में भोजन अत्यधिक अम्लीय अवस्था में होता है, जिससे उदर के खोल की रक्षा हेतु उदर एक सतत झिल्ली का उत्पादन करता है जिसमें ९० प्रतिशत जल होता है। इस झिल्ली में छिद्र होने अथवा इसकी अल्पता होने से उदर के अम्ल उसकी आतंरिक त्वचा में घाव कर देते हैं जिन्हें उदर-शूल (अल्सर) कहा जाता है। इससे उदर में जलन होती रहती है। इससे उदर में अम्ल की उग्रता का भी आभास होता है जिसे हाइपर-एसिडिटी भी कहा जाता है।
श्वसन तंत्र रोग : श्वसन में निष्कासित गैसों में धूल, पराग आदि अप-द्रव्यों से तंत्र की नलिकाओं की रक्षा हेतु उनके आतंरिक तल पर एक झिल्ली बनी रहती है जो जलाभाव में शुष्क होने लगती है जिससे निष्कासित गैसों के अप-द्रव्य नलिकाओं के आतंरिक तल को नष्ट करने लगते हैं। इससे श्वसन क्रिया कष्टदायक हो जाती है।
अम्ल-क्षार संतुलन : शरीर में पाचन प्रक्रिया अम्लीय होती है किन्तु शेष जैविक क्रियाएं उदासीन वातावरण में संपन्न होती हैं, जिसके लिए अम्लों को त्वचा तथा किडनी में उत्पन्न क्षारों के सम्मिश्रण से उदासीन किया जाता है। इन क्सरों के उत्पादन के लिए जल की सतत आवश्यकता होती है। शरीर में जलाभाव से अम्ल-क्षार संतुलन नहीं हो पाता और अम्ल कोशिका स्तर पर पहुँचने लगता है जिससे शरीर में जलन जैसी अनुभूति और अनेक रोग होने लगते हैं।
मोटापा : शरीर में जलाभाव के कारण उसे ऊर्जा की समुचित मात्रा नहीं मिल पाती जिससे उसे पोषण का अभाव प्रतीत होने लगता है और मनुष्य को अधिक भूख लगने लगती है जिसके कारण वह आवश्यकता से अधिक भोजन ग्रहण करने लगता है जिसका वह शरीर के पोषण में उपयोग नहीं कर पाता। यह अतिरिक्त भोजन शरीर में वसा के रूप में जमा होने लगता है जिससे मोटापा पनपने लगता है, जो एक रोग है।
त्वचा-रोग : मनुष्य का शरीर अपने सतत शोधन हेतु औसतन ७२० ग्राम पसीने का उत्पादन करता है जिसके लिए शरीर में पर्याप्त जल की मात्रा उपस्थित रहनी चाहिए। शरीर में जलाभाव से पर्याप्त मात्रा में पसीना उत्पन्न नहीं हो पाता जिससे शरीर में उत्पन्न विषाणुओं का निष्कासन नहीं हो पाता, जो दाद-खाज, फोड़े-फुंसी जैसे त्वचा रोगों को जन्म देता है।
कोलेस्टीरोल की अधिकता : शरीर की कोशिकाओं की संरचना में कोलेस्टीरोल का उपयोग होता है। शरीर में जलाभाव की स्थिति में कोशिकाओं से जल का अवशोषण तीव्र होने लगता है जिसके अवरोधन के लिए कोशिकाओं को अधिक कोलेस्टीरोल की आवश्यकता अनुभव होने लगती है जिसके प्रभाव में शरीर में कोलेस्टीरोल का उत्पादन अधिक होने लगता है, जो रक्त वाहिनियों के माध्यम से कोशिकाओं को भेजा जाता है किन्तु इसमें से कुछ कोलेस्टीरोल रक्त वाहिनियों में जमा होकर उनमें रक्त प्रवाह को अवरोधित करने लगता है। इससे रक्त चाप उच्च होने लगता है तथा ह्रदय पर अधिक कार्यभार पड़ता है।
मूत्र रोग : शरीर के सतत शोधन हेतु मनुष्य की किडनी रक्त में से विषाक्त द्रव्यों को विलग करती हैं और उन्हें मूत्र मार्ग से शरीर से निष्कासित करती हैं। शरीर में जलाभाव से पर्याप्त मूत्र का उत्पादन नहीं हो पाता जिससे शरीर का शोधन बाधित होता है तथा मूत्र में विषाक्त द्रव्यों की अधिलता होने लगती है जिससे अनेक मूत्र रोग उत्पन्न होते हैं।
वातरोग : शरीर में जलाभाव से मांसपेशियां शुष्क एवं कठोर होकर भंगुरित होने लगती हैं। जलाभाव के कारण इनमें से विषाक्त द्रव्यों का निष्कासन न होने से इनमें जलन अनुभव होने लगती है। इन दोनों दुष्प्रभावों से शरीर के जोड़ों में वातरोग हो जाते हैं।
असमय जरावस्था : शरीर की कोशिकां में सिकुडन और उनमें जल का असंतुलन जरावस्था के द्योतक हैं, जो शरीर में जलावस्था की स्थिति में उचित समय से पूर्व ही प्रतीत हो सकती है।
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