पंडित नेहरू ने विकास के इस नए मन्दिर का शिलान्यास करने के बाद शायद ही कभी इसके बारे में सोचा होगा। आधुनिक भारत या आजादी के बाद पहला बाँध ओडिशा (तब उड़ीसा) में महानदी पर बना हीराकुण्ड बाँध था। यह नदी तत्कालीन मध्य प्रदेश (अब छत्तीसगढ़) से निकलती थी। वैसे इसके निर्माण की कहानी आजादी के पहले वर्ष 1937 से प्रारम्भ होती है। उस समय प्रसिद्ध भारतीय इंजीनियर विश्वेश्वरैया ने बाढ़ के नियंत्रण हेतु एक जलाशय के निर्माण का प्रस्ताव रखा। लेकिन इसमें अत्यधिक लागत के चलते वर्ष 1940 में गठित ‘बाढ़ जाँच समिति’ ने तटबन्ध बनाने की अनुशंसा की। इसके बाद वर्ष 1945 में ‘केन्द्रीय जल एवं ऊर्जा विभाग’ ने अतिरिक्त जाँच परख की और यहाँ सिंचाई एवं विद्युत उत्पादन के लिये बाँध बनाने की अनुशंसा की। इस तरह मार्च 1946 में उड़ीसा के ब्रिटिश राज्यपाल (गवर्नर) सर हार्थरन लेविस ने हीराकुण्ड बाँध की आधारशिला रखी। परन्तु बाँध पर वास्तविक कार्य वर्ष 1948 के मध्य से प्रारम्भ हुआ, जब भारत के प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 12 अप्रैल 1948 को इसका पुनः शिलान्यास किया। इस तरह आजाद भारत में बाँधों का निर्माण प्रारम्भ हुआ।
भारत के विकास की गाथा शायद भाखड़ा-नंगल बाँध के जिक्र के बिना पूरी नहीं होती। विशाल सिंधु घाटी सबसे शुरूआती और सबसे उन्नत इंसानी बसाहटों का पालना रही है। नदी और इसके पानी का खेती को समृद्ध करने के लिये उपयोग इसकी तरक्की की बुनियाद की अहम वजह रहा है। सिंधु घाटी सभ्यता के दौरान, नदी के कछारों में बाढ़ का पानी जमीन को पर्याप्त नमी देने में सक्षम था और उससे जमा होने वाली गाद से बसाहटों की जरूरत मुताबिक फसल बढ़ जाती थी। सिंचाई का यह तरीका सैलाब कहलाया।
भाखड़ा-नंगल का सबसे पुराना सन्दर्भ 8 नवम्बर 1908 को ‘सर लुईस डेन’ द्वारा तैयार की गई एक टिप्पणी से मिलता है। प्रस्तावित बाँध स्थल को लेकर एक विस्तृत रिपोर्ट मार्च 1910 में तैयार की गई। इसके लाभ-हानि के आँकड़ों पर विचार कर तब इसे रोक दिया गया। वर्ष 1915 में इस प्रस्ताव पर पुनः विचार हुआ और कहा गया कि पहले बहुत कम आमदनी का आकलन किया गया था। भाखड़ा पर ऊँचे बाँध की पहली समग्र रिपोर्ट वर्ष 1919 में तैयार हुई। उस वक्त इसकी ऊँचाई 395 फीट लेकिन आज इसकी ऊँचाई 740 फीट है। भाखड़ा-नगंल परियोजना पर वर्ष 1946 में कार्य प्रारम्भ हुआ। वर्ष 1954 में इससे सिंचाई प्रारम्भ हो गई थी। बाँध का कार्य वर्ष 1963 में पूरा हुआ और 22 अक्टूबर 1963 को पंडित नेहरू ने इसे राष्ट्र को समर्पित किया।
इस परियोजना से 7,206 परिवार प्रभावित हुए थे। इनमें से अधिकांश 60 वर्ष या आधी शताब्दी बाद आज भी भटक रहे हैं। भाखड़ा के अपने दौरे में जवाहरलाल नेहरू ने घोषणा की थी कि विस्थापित प्रदेश जा रहे हैं हम उन्हें पानी, बिजली, स्कूल, सड़कें सब देंगे। वे अपने गाँव भूल जाएँगे। जबकि हकीकत यह थी कि जब वे पुनर्वास गाँव पहुँचे तब पीने के पानी तक का कोई इन्तजाम नहीं था। विस्थापितों का कहना है कि हम वर्ष 1956 में यहाँ आये थे और हमें वर्ष 1972 में पुनर्वास स्थल पर बसाए जाने के 16 बरस बाद बिजली मिली और बहुत सारे तो आज तक खानाबदोश की तरह ही घूम रहे हैं। भाखड़ा-नंगल को बने 60 वर्ष हो चुके हैं। इसके जीवन का शिशिर आ चुका है और विस्थापितों की तीसरी पीढ़ी अब भी पुनर्वास की प्रतीक्षा में है।
ज्यादा विस्तार में न जाते हुए सिर्फ एक और बाँध जो कि गुजरात में है और सरदार सरोवर परियोजना से लगा हुआ है, का जिक्र जरूरी जान पड़ता है। यह है सूरत के नजदीक स्थित उकई बाँध। वैसे उकई बाँध के निर्माण की चर्चा 19वीं शताब्दी के अंत से ही प्रारम्भ हो गई थी। दूसरे विश्वयुद्ध के पश्चात इसका विस्तृत तकनीकी सर्वेक्षण हुआ। आजादी के तुरन्त बाद इस परियोजना पर कार्य प्रारम्भ हो गया था। अन्य बाँधों की सारी विशिष्टताएँ लिये हुए इस बाँध का जिक्र इसलिये अनिवार्य है, क्योंकि इसके जलाशय का नामकरण भी भारत के पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल के नाम पर वल्लभ सागर रखा गया है। इतना ही नहीं इसकी डूब में महाराष्ट्र के धूलिया जिले का एक हिस्सा आया है। गौरतलब है कि धूलिया जिले का एक हिस्सा (वर्तमान में नंदुरवार जिले में) सरदार सरोवर परियोजना की डूब में भी आया है। यानि दो बाँध और शिकार एक ही जिला।
बाँधों की लम्बी कहानी है आजादी के बाद। वैसे माना जाता है कि न तो बाँध और न ही वैज्ञानिक सिंचाई भारत के लिये कोई नई चीज है। नदी के बहते पानी को काम में लेने की आवश्यकता बहुत पहले महसूस कर ली गई थी और ऐसा माना जाता है कि आर्यों ने जब सिंधु घाटी सभ्यता पर आक्रमण किया, उस समय वृतासुर जिस पहाड़ की चौकसी कर रहा था, वह वास्तव में चट्टानों से भरा हुआ मिट्टी का एक विशाल बाँध था। अनेक इतिहासविज्ञों का यह भी मानना है कि सिंधु घाटी सभ्यता का विनाश असाधारण जलप्लावन से ही हुआ है और अब हम नर्मदा घाटी सभ्यता को बाँधों से पाट रहे हैं।
बाँध निर्माण के उद्गम की इस यूनानी कथा पर गौर करना भी रोचक है। राजा आजियस के पास पाँच हजार बैल थे। गौशाला को कोई साफ नहीं करता था। इसलिये वह गोबर से भर गई। हरक्युलिस ने कहा कि वह एक ही दिन में सारा गोबर हटा देगा। राजा जब अपने मेहमानों के साथ दावत उड़ा रहा था, उसी दौरान हरक्युलिस ने पास ही बहने वाली दो नदियों पर बाँध बना दिया। जल्दी ही नदियाँ ऊपर तक भर गईं और फिर उनसे पानी की जो तेज धार छूटी तो अपने साथ गोबर भी बहा ले गई।
पुनः सरदार सरोवर परियोजना पर आते हैं। पचास वर्षों का इसका इतिहास न मालूम कितनी विसंगतियाँ हमारे सामने लाता है। केवड़िया की स्थिति पर अधिग्रहण के करीब 37 वर्ष बाद वर्ष 1999 में अपने आलेख ‘ग्रेटर कॉमन गुड’ में अरुंधती रॉय लिखती हैं ‘केवड़िया कॉलोनी इस दुनिया की कुंजी है। वहाँ जाइये, रहस्य अपने आप आपके सामने उद्घटित हो जाएँगे।’ देवी बेन जो कि अब विधवा हैं, से ग्यारह एकड़ भूमि अधिग्रहित कर स्वामीनारायण ट्रस्ट (एक विशाल धार्मिक ट्रस्ट) को दे दी गई। बाकी पर खेती होती है और देवी बेन कटीले-बाड़ के पार से यह सब देखती रहती हैं। यह एक कड़वी सच्चाई है। सरदार सरोवर परियोजना ऐसी तमाम गाथाओं का महाग्रंथ है, जो कि यदि लिखा जाए तो महाभारत से भी बड़ा हो सकता है। सरकारी दमन की एक और मिसाल यहाँ देखते हैं। संजय संगवई ने अपनी पुस्तक ‘दि रिवर एण्ड लाइफ’ में 22 नवम्बर 1993 को खींचा, इसमें धूलिया के जिला अस्पताल में सैकड़ों आदिवासी बैठे हैं, जो कि पुलिस की मार से घायल हैं। वैसे तो जनआंदोलनों के कार्यकर्ताओं को अक्सर पुलिस व प्रशासन की अतियों का सामना करना पड़ता है। लेकिन यह चित्र इस मायने में अत्यन्त डरावना प्रतीत होता है क्योंकि इसमें बैठे दिख रहे सभी आंदोलनकारियों को घुटने या उसके नीचे बुरी तरह से मारा गया है। उनके दोनों पैरों में पट्टियाँ बंधी हैं। आदिवासियों की संस्कृति पैदल चलने की संस्कृति है और वे हमेशा एक के पीछे एक पंक्तिबद्ध होकर ही चलते हैं। वे दिन में 30 से 50 किलोमीटर तक पैदल चल सकते हैं, और यही उनकी ताकत भी है। परन्तु पुलिस ने योजनाबद्ध तरीके से उनके घुटने तोड़ने का प्रयास किया।
इसका सीधा सा अर्थ है एक अहिंसक संस्कृति का प्रत्युत्तर हमारा तथाकथित गाँधीवादी तंत्र हिंसा से दे रहा है। हम शायद अब तक सरदार सरोवर परियोजना के क्रियान्वयन के मूलभूत हथकंडों और वैचारिक प्रतिबद्धता को ठीक से समझ नहीं पाए हैं। संस्कृति पर पड़े प्रभावों के आकलन से पहले हमें सरदार सरोवर परियोजना के निर्माण और इसके खिलाफ चल रहे निरंतर संघर्ष को भी जानना होगा। हमें यह भी समझना होगा कि डुबाने का यह कार्य निरपेक्ष भाव से किया गया था या इसमें कोई शंका की गुंजाइश है? सम्भव है यह कहानी इस उलझन को सुलझा पाए।
समुद्र तट से 1057 मीटर की ऊँचाई से मध्य प्रदेश के शहडोल जिले के अमरकंटक से निकली नर्मदा नदी मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात को पार करते हुए 1312 किलोमीटर का अपना सफर पूरा कर गुजरात में भड़ौच के पास अरब सागर में जा मिलती है। गौरतलब है कि इन राज्यों के 16 जिलों से गुजरने के बाद जब यह समुद्र में जहाँ मिलती है, वहाँ पर डेल्टा (नदी मुख भूमि त्रिकोण) नहीं बनाती। हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि नर्मदा नदी का कुल जलग्रहण क्षेत्र 98,799 वर्ग किलोमीटर है और इसका 88.02 प्रतिशत मध्य प्रदेश में, 3.31 प्रतिशत महाराष्ट्र में और बचा 8.67 प्रतिशत गुजरात राज्य की सीमा में आता है। नर्मदा के कछार में करीब 160 लाख एकड़ कृषि योग्य भूमि है और इसमें से 144 लाख एकड़ सिर्फ मध्य प्रदेश में है।
बाँधों के माध्यम से नर्मदा के पानी को उपयोग में लाने का सपना 19वीं शताब्दी के अंत में देखा जाने लगा था। भारत के पहले सिंचाई आयोग ने अपनी वर्ष 1901 की रिपोर्ट में भड़ौच के निकट के एक बैराज का उल्लेख किया था। लेकिन वहां विद्यमान काली कछारी मिटटी की वजह से इसे बहती सिंचाई (फ्लड इरीगेशन) के लिये माकूल नहीं माना गया था। साथ ही यहाँ किये जाने वाले निवेश को व्यर्थता को भी रेखांकित किया गया था। कहा जाता है कि भारत की आजादी के बाद बने या पहले गृहमंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल जो कि मध्य गुजरात की प्रभावशाली कृषक पृष्ठभूमि से आते थे, ने अपने लोगों के लिये नर्मदा के पानी के इस्तेमाल के बारे में सोचा। नेहरूयुगीन विकास नीतियों के मिलते ‘कुछ बड़ा बनाने’ की होड़ में ‘नर्मदा पर बाँध का विचार बना और आधुनिक भारत के इस नए मन्दिर’ का विचार फलीभूत हुआ।
इस सपने को धरती पर उतारने की आकांक्षा गुजरात में दिनोंदिन मजबूत होती गई। इसकी वजह बने भाई लालभाई पटेल या भाई काका जो कि सक्खर बाँध, जो कि अब पाकिस्तान में है, में इंजीनियर रहे थे और स्वतंत्र भारत में सामाजिक कार्यकर्ता का कार्य कर रहे थे। इसके बाद गुजरात के छुटभैया नेता नर्मदा के पानी को गुजरात में लाने का सपना दिखाते रहे। गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री चिमनभाई पटेल वर्ष 1970 के दशक में इंदिरा गाँधी द्वारा अपमानित या डपट दिये जाने के बाद से नर्मदा के मुद्दे पर अटक गए। उन्होंने इस मसले को दिल्ली के शासकों द्वारा बड़े भाई की तरह व्यवहार के विरुद्ध हथियार बना लिया। जब भी उनकी स्थिति कमजोर होती वे नर्मदा (परियोजना) कार्ड खेल लेते। हमें यहाँ विचार करना होगा कि इस सपने और वास्तविकता के बीच क्या कोई समानता है? इस तथ्य पर गौर करिए कि अपनी पूरी 1312 किलोमीटर की लम्बाई या प्रवाह में नर्मदा केवल 160 किमी गुजरात में बहती है और इतना ही नहीं इसमें आने वाले पानी का महज 0.5 प्रतिशत (कैचमेंट) ही गुजरात नर्मदा में योगदान करता है।
इस तरह के दावों को उस देश के कानून ने एक प्रक्रिया के तहत पुनर्स्थापना (पुनर्वास) योजना में चिन्हित किया हो। इस तरह के अधिकार सार्वजनिक जमीनों से अतिक्रमण, बिना सरकारी जबरन कार्यवाही के प्राप्त किये जा सकते हैं। (इसका अर्थ है सरकार की अन्तर्निहित अनुमति के) या इन्हें रिवाजी एवं पारम्परिक कानूनों या प्रयोगों आदि से लिया जा सकेगा। भूमि एवं अन्य सम्पत्तियों के कानूनी हक की अनुपस्थिति अपने आप में अन्य पुनर्स्थापना सहायता या नष्ट होने वाली सम्पत्ति के मुआवजे में रुकावट नहीं है।
आजादी के तुरंत बाद से ही राज्यों के मध्य पानी के बँटवारे को लेकर विवाद प्रारम्भ हो गए थे। वर्ष 1950 के दशक में राज्यों के पुनर्गठन की प्रक्रिया के साथ ही विवादों की संख्या में भी वृद्धि होने लगी। इसके परिणामस्वरूप ‘अंतरराज्यीय जलविवाद अधिनियम 1956’ का रास्ता तैयार हो गया। इस अधिनियम ने केन्द्र सरकार को यह अधिकार है दिया कि वह राज्यों के बीच पानी के वितरण के विवाद को ट्रिब्यूनल के माध्यम से निराकरण कर सकती है। साथ ही इसमें यह भी व्यवस्था थी कि इसका निर्णय बाध्यकारी होगा। वैसे यह भी स्पष्ट था कि इन ट्रिब्यूनलों का अधिकार क्षेत्र महज पानी के हिस्से के आबंटन तक ही सीमित रहेगा।
गुजरात सरकार के अनुसार ऊर्जा एवं जल संसाधन विकास की सम्भावनाओं को लेकर पहली जाँच पड़ताल की सर्वप्रथम पहल वर्ष 1947 में की गई थी। नर्मदा नदी पर भड़ौच, तवा, बरगी और पुनासा परियोजनाओं को अतिरिक्त छानबीन हेतु प्राथमिकता दी गई थी। योजना आयोग ने सरदार सरोवर परियोजना की पूर्वगामी ‘भड़ूच सिंचाई परियोजना’ को अगस्त 1960 में 162 फीट की ऊँचाई एवं 9.97 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई हेतु अनुमति प्रदान कर दी। दूसरे तल पर बाँध की ऊँचाई को 300 फीट तक बढ़ाने का विचार था (बाद में इसे 320 फीट कर दिया गया) लेकिन योजना आयोग ने इस प्रस्ताव को हरी झंडी नहीं दी। इस दौरान गुजरात व केन्द्र सरकार के प्रस्ताव सामने आये, जिसमें सरदार सरोवर परियोजना की ऊँचाई 425 फीट करने की बात कही गई थी। लेकिन मध्य प्रदेश सरकार इस पर राजी नहीं थी।
अंततः केन्द्र सरकार ने उड़ीसा के पूर्व राज्यपाल डॉ. एएन खोसला की अध्यक्षता में नर्मदा जल संसाधन विकास समिति गठित कर दी। वर्ष 1965 में आयोग ने गुजरात के भड़ूच जिले के नवागांम के पास 500 फीट से भी ऊँचा बाँध बनाने का प्रस्ताव दे दिया। आयोग ने 13.9 एमएएफ (मिलियन - दस लाख एकड़ फीट) पानी मध्य प्रदेश और 19.9 एमएएफ पानी गुजरात को आबंटित कर दिया। मध्य प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री गोंविंदनारायण सिंह ने इस अभूतपूर्व डूब एवं गुजरात द्वारा नर्मदा के पानी को लेकर किये जा रहे असंतुलित दावों का पुरजोर विरोध किया। यहाँ तक कि उन्होंने केन्द्रीय जलसंसाधन मंत्री डॉ. केएल राव पर गुजरात की तरफदारी करने का आरोप लगाया और ऐसी किसी बैठक में बातचीत तक करने से इंकार कर दिया जहाँ पर डॉ. राव उपस्थित हों। उन्होंने इस बात की ओर भी इशारा किया कि केन्द्रीय मंत्री ने गुजरात के लिये एक विशाल बाँध के निर्माण का एकतरफा निश्चय कर लिया है। इससे मध्य प्रदेश की 140 मील भूमि डूब में आयेगी। उन्होंने इस मामले को ट्रिब्यूनल को सौंपे जाने की मुखालफत करते हुए, गुजरात, महाराष्ट्र व मध्य प्रदेश के बीच सीधी बातचीत का आह्वान किया।
वैसे मध्य प्रदेश सरकार लम्बे समय से राज्य के लिये नर्मदा के जल के न्यायपूर्ण आबंटन की वकालत कर रही थी। सिंह ने अपने इस एजेंडे की जोरदार पैरवी भी की। वर्ष 1967 में उन्होंने लिखा कि यह बहुत ही मजेदार है कि राष्ट्रहित के नाम पर नर्मदा के जल के लाभ मध्य प्रदेश के बजाए इस नदी बेसिन के बाहर के क्षेत्रों को हस्तांतरित किये जा रहे हैं। इसकी वजह से देश की सबसे उपजाऊ में से एक नदी घाटी आने वाले समय में प्यासी हो जाएगी। इस तरह की वार्ताएँ लोगों के मन अनावश्यक संशय पैदा करती हैं जो कि मेरे ख्याल से अत्यंत गंभीर मसला है। नर्मदा हमारी रक्तवाहिनी है। मध्य प्रदेश ऐसे दबावों में नहीं आयेगा। इतना ही नहीं 24 नवम्बर 1967 को राज्य विधानसभा ने इस सम्बन्ध में सर्वानुमति से एक गैर सरकारी विधेयक पारित किया, जिसमें कहा गया था, मध्य प्रदेश नर्मदा बेसिन में सिंचाई के अपने हितों के सम्बन्ध में एक इंच भूमि भी बली देने को तैयार नहीं है और तथाकथित नर्मदा जलविवाद के नाम पर किये जाने वाले किसी बंदोबस्त को नहीं स्वीकारता। मध्य प्रदेश किसी भी राज्य का कोई भी इलाका डूब में नहीं लाना चाहता और न ही किसी अन्य राज्य (की नदी) के किसी भी जल का उपयोग करना चाहता है। ठीक इसी तरह मध्य प्रदेश भी नहीं चाहता कि कोई भी राज्य ऐसी परियोजना हाथ में ले जिससे कि मध्य प्रदेश के लोगों पर विपरीत प्रभाव पड़े या इसके क्षेत्र का कोई सा भी इलाका डूब से आये।
16 दिसम्बर 1967 को राज्य के सांसदों ने प्रधानमंत्री को पत्र में लिखा था कि हमारा विचार है कि नर्मदा के जल के प्रयोग को लेकर गुजरात की अनुचित मांग की स्वीकृति निश्चित तौर पर राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था और राष्ट्रीय विकास प्रयासों के हित में नहीं हैं।
इसी क्रम में मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र ने इस बात पर जोर दिया कि नवागाम बाँध (अब सरदार सरोवर परियोजना) की ऊँचाई 210 फीट रखी जाए। वहीं दूसरी ओर खोसला समिति ने अनुशंसा की थी कि बाँध की ऊँचाई 500 फीट रखी जाए। अतएव यहाँ इस बात पर गौर करना आवश्यक हो जाता है कि अंतत ऐसी क्या परिस्थितियाँ बनीं, जिनको वजह से बाँध को वर्तमान ऊँचाई (समुद्र तट से) 455 फीट की अनुमति मिल गई। इसकी एक वजह यह थी कि मध्य प्रदेश सरकार ने बाँध को अस्वीकार करने के जो कारण दिये थे, अपने आप में विरोधाभासी थे। गुजरात के नवागाम में ऊँचे बाँध के निर्माण एवं गुजरात को नर्मदा का पानी दिये जाने को लेकर आपत्ति उठाने वाली मध्य प्रदेश सरकार ने अपने यहाँ प्रस्तावित जलसिंधी और हरिणफाल परियोजनाओं का विरोध नहीं किया जो कि आदिवासी इलाकों में ही स्थित थीं और इसमें भी बड़ी मात्रा में उपजाऊ भूमि डूब में जा रही थी। इससे नीति-निर्माताओं और सरदार सरोवर परियोजना के समर्थकों को यह सिद्ध करने में आसानी हो गई कि प्रस्तावित हरिणफाल और जलसिंधी परियोजनाओं के बदले एकमात्र सरदार सरोवर परियोजना ही निर्मित कर दी जाए।
वहीं दूसरी ओर गुजरात ने सुदूर ‘अकाल प्रभावित कच्छ क्षेत्र को आधार बनाकर परियोजना और अधिक पानी देने की अनिवार्यता को रेखांकित किया। अपने इस प्रयास को फलीभूत करने की प्रक्रिया में उसने इस विवाद में राजस्थान को भी एक पक्ष बना लिया, जबकि इस राज्य का दूर-दूर तक नर्मदा से सम्बन्ध ही नहीं था। लेकिन राजस्थान की आवश्यकताओं को इसमें शामिल कर लेने से मोल-तोल में गुजरात और अधिक मजबूत हो गया। मध्य प्रदेश द्वारा खोसला आयोग की अनुशंसाओं को अस्वीकृत कर देने के पश्चात कई अंतरराज्यीय बैठकें आयोजित हुईं। अंततः जुलाई 1968 में गुजरात ने अन्तर्राज्यीय जलविवाद अधिनियम 1956 के अंतर्गत औपचारिक रूप से शिकायत दर्ज करा दी। इसी परिप्रेक्ष्य में नवम्बर 1969 में भारत सरकार ने नर्मदा जलविवाद ट्रिब्यूनल (एनडब्लूडीटी) के गठन की घोषणा कर दी।
मध्य प्रदेश सरकार ने इस ट्रिब्यूनल के समक्ष वर्ष 1956 के अधिनियम के तहत इसके गठन पर आपत्ति दर्ज की। यह आपत्ति दो बातों को लेकर थी, पहली नवागाम बाँध की ऊँचाई 530 फीट रखने के और दूसरी राजस्थान को एक पक्ष बनाने के खिलाफ। ट्रिब्यूनल ने इन आपत्तियों को रद्द कर दिया। नर्मदा में पानी की उपलब्धता आदि सम्बन्धी मध्य प्रदेश की दलीलों को भी ट्रिब्यूनल ने रद्द कर दिया। इस दौरान मध्य प्रदेश सरकार ने महसूस किया कि ट्रिब्यूनल ने उनकी धारणा को यथोचित महत्व नहीं दिया है। वर्ष 1970 के दशक के मध्य में मध्य प्रदेश के निमाड़ अंचल में इस बाँध को लेकर को स्तर पर प्रदर्शन हुए और ‘निमाड़ बचाओ, नर्मदा बचाओ’ समिति का गठन हुआ। इस समिति ने नर्मदा जलविवाद प्राधिकरण के समक्ष भी अपना पक्ष रखा। इसमें विस्थापन एवं उपजाऊ भूमि की डूब के अलावा भी कई अन्य महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाए गए थे। इसमें मांग की गई भी कि मध्य प्रदेश को अपने जलग्रहण क्षेत्र से प्राप्त पूरे पानी के उपयोग का अधिकार मिलना चाहिए। इसमें दावा किया गया था कि कुल जलग्रहण क्षेत्र का 86.8 प्रतिशत मध्य प्रदेश में है और इस नदी में आने वाले खुल जल का 99.5 प्रतिशत मध्य प्रदेश से ही आता है। साथ ही इसमें गुजरात के दावों को नकारते हुए कहा गया कि इससे कच्छ में सिंचाई होगी, समिति का कहना था कि गुजरात को मध्य प्रदेश जैसे गरीब राज्य के मुकाबले प्राथमिकता दी जा रही है। सर्वोच्च प्राथमिकता मध्य प्रदेश में सिंचाई को दी जानी चाहिए और विद्युत उत्पादन इसकी सहायक गतिविधि होनी चाहिए। साथ ही इसमें आरोप लगाया गया था कि बाँध की इतनी अधिक ऊँचाई की वजह महज विद्युत उत्पादन ही है।
इन सब वादों-प्रतिवादों को लेकर संघर्ष और विमर्श चलता रहा। ट्रिब्यूनल की कार्यशैली पर मध्य प्रदेश ने बारम्बार आपत्ति उठाई थी। लेकिन अंतत फैसला वही हुआ जिसका कि अंदेशा था। इस दौरान निमाड़ के कुछ राजनीतिक कार्यकर्ता दिल्ली में जाकर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी से मिले और इसके बाद वे वर्ष 1978 में प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई से भी मिले। लोगों को अभी भी स्मरण है कि मोरारजी ने बहुत रुखेपन से उनसे कहा कि चूँकि गुजरात को पानी की आवश्यकता है, इसलिये बाँध तो बनेगा। लोगों को शंका है कि गुजरात के पक्ष में निर्णय हेतु मोरारजी ने प्रक्रिया को तेजी प्रदान की थी। उस दौरान निमाड़ में सक्रिय अंबाराम और शोभाराम काका का कहना है कि राजनीतिक रूप से चतुर और शक्तिशाली लॉबी ने नर्मदा घाटी पर निर्णय को तेजी प्रदान की। इसे थोड़ा सा विषयान्तर माना जा सकता है।
लेकिन किसी व्यक्ति को समझने खासकर जबकि वह देश के सर्वोच्च प्रशासनिक पद पर बैठा हो तो उसकी सोच की विवेचना भी आवश्यक हो जाती है। मोरारजी द्वारा वर्ष 1961 में पोंगबाँध (हिमाचल प्रदेश) के डूब वाले इलाके में एक आमसभा को सम्बोधित करते हुए दिये गए भाषण के अंश पर निगाह डालनी चाहिए। तब उन्होंने कहा था कि हमारा आग्रह है कि बाँध बनते ही आप अपने घरों से निकल जाएँ। घर से निकल जाना ही आपके लिये बेहतर होगा। नहीं तो हम पानी छोड़ देंगे और डुबो देंगे। ‘तब मोरारजी कर्ता-धर्ता नहीं थे। लेकिन वर्ष 1978 में वे देश के प्रधानमंत्री थे और उनके व्यवहार से कभी भी ऐसा प्रतीत नहीं हुआ कि उसमें कोई परिवर्तन आया हो। मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र को शायद इसकी कीमत भी चुकानी पड़ी है।
बहरहाल बात को थोड़ा और आगे बढ़ाते हैं। इस तरह वर्ष 1979 में नर्मदा जलविवाद ट्रिब्यूनल या न्यायाधिकरण ने अपना फैसला सुनाया। (उस समय तक मोरार जी प्रधानमंत्री पद पर आसीन थे) इस निर्णय से साफ जाहिर हो गया था कि गुजरात का पक्ष लिया गया है। न्यायाधिकरण ने जल के बँटवारे के उन स्थापित मानकों की अवहेलना की थी जिनका मूल आधार था कि सम्बन्धित राज्यों को उनके द्वारा जल के प्रवाह के अनुपात में हिस्सा दिया जाए। इस निर्णय पर बड़ौदा, गुजरात के निवासी वैज्ञानिक जशभाई पटेल जो कि नर्मदा परियोजना पर एक प्रामाणिक टिप्पणीकार थे, ने कहा था कि क्या यह एक न्यायोचित विजय है? एक नदी तटीय राज्य जो कि कुल जलग्रहण क्षेत्र का सिर्फ 0.5 प्रतिशत का योगदान देता है। वह 33 प्रतिशत जल और 16 प्रतिशत बिजली ले ले। इस सबके ऊपर यह राज्य अपने जलग्रहण क्षेत्र का 100 प्रतिशत केवल अपने इस्तेमाल के लिये आरक्षित कर ले। राज्य को नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण-एनसीए में बैठने का बराबरी का हक मिल गया है और वह दिये गए अवार्ड के हिसाब से शर्तें मनवा सकता है। यह प्रत्यक्ष अन्याय है।
इस अन्याय को और अधिक रेखांकित करते हुए उन्होंने कहा था कि मध्य प्रदेश के उपजाऊ क्षेत्र, वास्तविक बुआई क्षेत्र और कृषि पर आधारित जनसंख्या को देखते हुए प्राथमिकता मिलनी चाहिए थी, जबकि गुजरात इन श्रेणियों में नीचे है। वहीं गुजरात द्वारा अकालग्रस्त क्षेत्र और अकालग्रस्त क्षेत्र में प्रभावित जनसंख्या के आँकडों का मिथक भी सामने आया है। गुजरात में अकाल प्रभावित इलाका 173,630 एकड़ है। और इसे 73 प्रतिशत का भार या हिस्सा दिया गया है, वहीं मध्य प्रदेश में अकाल प्रभावित क्षेत्र 1,01,121 एकड़ है और उसे 27 प्रतिशत भार या हिस्सा दिया गया है। गुजरात में अकाल प्रभावितों की जनसंख्या 54,80,000 है और उन्हें 72 प्रतिशत भार या हिस्सा दिया गया है, वहीं मध्य प्रदेश में अकाल प्रभावितों की संख्या 30,70,000 है और इन्हें महज 22 प्रतिशत हिस्सेदारी दी गई है। इससे न्यायाधिकरण के अवार्ड पर शक का साया नजर आता है।
सरदार सरोवर परियोजना की यह यात्रा राजनीतिक विश्वासघात की कहानी के बिना शायद अधूरी ही रहेगी। जैसे ही अवार्ड की घोषणा हुई वैसे ही पश्चिमी निमाड़ के मैदानी इलाकों में उपजाऊ भूमि डूबने के विरोध में वर्ष 1979-80 में आंदोलन शुरू हो गया। ग्रामीण ‘निमाड़ बचाओ आन्दोलन’ के तहत तुरत-फुरत एक गम्भीर संघर्ष के लिये एकत्रित हो गए। मध्य प्रदेश के दोनों प्रमुख राजनीतिक दल कांग्रेस और जनता पार्टी इस संघर्ष पर नियंत्रण के लिये प्रयासरत हो गए। अर्जुन सिंह और मोतीलाल बोरा जैसे दमदार नेताओं ने गिरफ्तारियाँ दीं। घाटी के 5,000 लोगों ने भोपाल में प्रदर्शन किया। वीरेन्द्र कुमार सखलेचा के नेतृत्व वाली जनता पार्टी सरकार ने विधानसभा में इस अवार्ड के खिलाफ विरोध दर्ज किया और शपथ ली कि वह इसमें परिवर्तन करवाएगी। लेकिन अनेक परिस्थितियों के चलते यह संघर्ष बिखर सा गया।
इसके बाद कमोबेश हठपूर्वक अपना विरोध दर्ज करवाने के बावजूद मध्य प्रदेश की सरकार ने भारतीय राजनीतिक दलों की अखिल भारतीय राजनीति के मद्देनजर अवार्ड के साथ ही साथ बाँध को भी स्वीकृति प्रदान कर दी। अंततः 25 अगस्त 1981 को मध्य प्रदेश और गुजरात के मुख्यमंत्री क्रमश अर्जुनसिंह एवं माधवसिंह सोलंकी ने एक गुप्त समझौते पर हस्ताक्षर कर दिये। इसके अनुसार गुजरात और मध्य प्रदेश राज्य इस बात पर रजामन्द हो गए हैं कि वे ऐसी सम्भावनाएँ तलाशेंगे जिससे कि विस्थापित लोगों की मुसीबतें समाप्त हो सकें। बाद में मध्य प्रदेश सरकार ने यह दावा किया कि इस समझौते से बाँध की ऊँचाई की पुनर्समीक्षा सम्भव है बशर्ते पुनर्वास कार्य दुष्प्रयोजनीय लगने लगे। मगर ऐसा कभी नहीं हुआ।
वर्ष 1979 से विश्वबैंक ने नर्मदाघाटी परियोजनाओं में रुचि लेना प्रारम्भ कर दिया और वर्ष 1980 के दशक के आरम्भ में अपने टीमों को ऋण देने की सम्भावनाएँ तलाशने के लिये यहाँ भेजने की शुरुआत कर दी। मध्य प्रदेश और गुजरात के कुछ गैर-सरकारी संगठनों के माध्यम से उसने गुजरात सरकार पर दबाव बनाया कि यह पुनर्स्थापना को लेकर बैंक की शर्त मान ले, जिससे कि उसे ऋण देने का अंतिम निर्णय लिया जा सके। भारतीय गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) को यह विश्वास दिलाया गया कि केवल विश्वबैंक की उपस्थिति ही विस्थापितों का बेहतर पुनर्वास सुनिश्चित करा सकती है।
इस बीच घटनाचक्र में थोड़ा परिवर्तन आया। वर्ष 1980 में केन्द्र सरकार ने पर्यावरण एवं वन मंत्रालय नामक एक नए मंत्रालय का गठन कर दिया। वर्ष 1983 में पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने केन्द्र और राज्य सरकारों के लिये नदी घाटी विकास परियोजनाओं को लेकर दिशा-निर्देश तैयार किये। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय ने सरदार सरोवर व नर्मदा सागर परियोजनाओं को अनुमति नहीं दी, क्योंकि विभाग के सचिव टीएनशेषन ने पाया था कि कई महत्त्वपूर्ण अध्ययन पूरे नहीं किये गए हैं। मंत्रालय ने बाँध का काम निलंबित कर दिया। लेकिन विश्वबैंक ने अपने कर्मचारियों से अध्ययन करवा कर 450 मिलियन डॉलर (45 करोड़ डॉलर) का ऋण स्वीकृत कर दिया और इसमें से 30 करोड़ डॉलर इंटरनेशनल बैंक और रिकंस्ट्रक्शनल डेवलपमेंट एवं 15 करोड़ डॉलर बैंक की साफ्ट लोन (आसान ऋण) शाखा इंटरनेशनल डेवलपमेंट एजेंसी के माध्यम से वितरित होना था। गौरतलब है कि विश्व बैंक ने इन ऋणों की स्वीकृति भारत सरकार द्वारा पर्यावरण एवं वन मंत्रालय एवं योजना आयोग के माध्यम से सरदार सरोवर परियोजना को स्वीकृति मिलने के पूर्व ही कर दी थी। माना जाता है विश्वबैंक द्वारा स्वीकृत ऋण को परियोजना के लिए पर्यावरण एवं वन मन्त्रालय पर दबाव डालने हेतु इस्तेमाल किया गया।
यहाँ इस कहानी के एक पक्ष पर पटाक्षेप होता है कि किस तरह से सरदार सरोवर परियोजना को अमली जामा पहनाया गया। वहीं दूसरी ओर बाँध से होने वाले नुकसान को लेकर भी जनचेतना लगातार बढ़ती जा रही थी। नर्मदा घाटी में सरदार सरोवर बाँध को लेकर विमर्श निरन्तर जारी रहे। इन सब संघर्षों के ‘नर्मदा बचाओ आन्दोलन’ में समाहित होने की यात्रा भी कम रुचिकर नहीं है। पिछले पैराग्राफों में हम निमाड़ बचाओ आन्दोलन, निमाड़ बचाओ, नर्मदा बचाओ समितियों के महत्त्वपूर्ण कार्यों को समझ चुके हैं। लेकिन इस पूरी यात्रा को एक बार सिलसिलेवार ढंग से समझने का प्रयास करते हैं।
बाँधों से विस्थापन के खिलाफ संघर्ष का भारतीय इतिहास करीब 90 वर्ष है। इसकी शुरुआत वर्ष 1921 में पूना (पुणे) के निकट स्थित समृद्ध मुल्शी घाटी के किसानों के संघर्ष से होती है जिन्होंने तब टाटा द्वारा बनाए जा रहे जलविद्युत बाँध के खिलाफ पूर्ण विरोध की घोषणा की थी। मुल्शी किसान संगठन ने महाराष्ट्र के मावल क्षेत्र में बाँध से सम्बन्धित सभी विषय विस्थापन एवं किसान समुदाय की उपजाऊ भूमि और अच्छे से बसे बसाए गाँवों की डूब की बात उठाई गई थी। उन्होंने बाँध से मिलने वाले लाभों पर भी प्रश्न उठाए थे। सेनापति बापट और विनायक मुस्कुरे जैसे मुल्शी किसानों ने टाटा जैसे ‘पूँजीपतियों’ को चेतावनी देते हुए किसानों एवं ग्रामीण अर्थव्यवस्था के हितों की रक्षा की शपथ ली थी। इतना ही नहीं बाँध के ‘सार्वजनिक उद्देश्य’ को भी उन्होंने चुनौती दी और दावे के साथ कहा कि व्यापक समुदाय के सामाजिक हितों और सांस्कृतिक अधिकारों के बरस्क मिलने वाले लाभ बहुत कम हैं। शुरुआती दौर में गाँधीजी के उनके मत के समर्थन में न होने के बावजूद उन्होंने अपना संघर्ष जारी रखा। एक समय तो बापट ने बाँध के विरोध में आत्मसमर्पण (स्वयं को नष्ट कर लेने) तक की घोषणा कर दी थी। इसे नव पूँजीवाद के संदर्भ में भारत का पहला बाँध विरोधी जन-आन्दोलन कहा जा सकता है।
आजादी के बाद इन आधुनिक मन्दिरों और उनके उच्च पुजारियों का भय और प्रभामंडल बढ़ता ही गया। लेकिन अनेक गाँधीवादी, सर्वोदयी, समाजवादी इस पूँजी आधारित, केन्द्रीकृत और बड़ी विकास परियोजनाओं का लगातार विरोध करते रहे। वर्ष 1980 के दशक में पर्यावरण को लेकर आम जनता में भी जागरुकता बढ़ी और विकास परियोजनाओं के लेकर सवाल पूछे जाने लगे। इस प्रक्रिया का चरम कमोवेश नर्मदा पर बनने वाली परियोजनाओं को लेकर उठे प्रश्नों से सामने आता है। मध्य प्रदेश में प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता, विधायक और स्थानीय नेता नवागाम में बनने वाले ऊँचे बाँध (जिसे बाद में सरदार सरोवर परियोजना नाम दिया गया) का विरोध कर रहे थे। वर्ष 1972 से 75 के मध्य नर्मदा बचाओ समिति ने हर सम्भव तरीके और मंच पर इसका विरोध किया। इस प्रकिया में उन्होंने तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इंदिरा गाँधी तक से नवागाम में निर्मित होने वाले इस बाँध के औचित्य पर सवाल-जवाब किये थे। उपजाऊ भूमि की डूब के साथ ही साथ समिति ने सांस्कृतिक विरासत और प्राकृतिक संसाधनों की हानि को लेकर भी सवाल उठाए थे। इस प्रक्रिया में उन्होंने तवा और गाँधीसागर बाँध के उदाहरण भी दिये।
वर्ष 1983 में दिल्ली स्थित संगठन कल्पवृक्ष के कार्यकर्ताओं और शोधार्थियों के समूह ने घाटी का भ्रमण किया और घाटी में प्रस्तावित महाकाय बाँधों की कटु आलोचना करते हुए एक रिपोर्ट प्रकाशित की। इन युवा शोधार्थियों ने नर्मदाघाटी परियोजनाओं के पर्यावरणीय एवं मानवीय मुद्दों पर प्रकाश डाला। वहीं गुजरात में भानुभाई जैसे कुछ सामाजिक कार्यकर्ताओं ने आदिवासियों के अधिकारों एवं बाँध की उपयुक्तता को लेकर सवाल उठाए। वर्ष 1986 में अहमदाबाद स्थित एक गैर सरकारी संगठन सेतु ने जीवित रहने पर एक सेमिनार का आयोजन किया। मेधा पाटकर जो कि उस दौरान सेतु की कार्यकर्ता थीं और गुजरात के आदिवासी क्षेत्रों में काम कर रही थीं, इसके आयोजकों में से एक थीं। इस सेमिनार में एक सत्र सरदार सरोवर परियोजना पर था। इसमें एक वरिष्ठ एवं प्रगतिशील नौकरशाह जो कि विश्वबैंक के साथ पुनर्वास एवं पुर्वस्थापना पक्ष पर वार्ताकार थे, ने इस समझौते की अंदरूनी कहानी बयाँ की। इस बैठक में ‘मार्ग’ दिल्ली वसुधा भी परियोजना की वजह से होने वाले विस्थापन से सम्बन्धित अपनी जानकारियों के साथ पहुँची थीं। उन्होंने कुछ गाँवों का भ्रमण भी किया था। लेकिन वे पुनर्वास के मुद्दे पर और अधिक खोजबीन करना चाहती थीं। इतना ही नहीं वे इस मुद्दे को लेकर न्यायालय जाने के प्रति भी अत्यन्त गम्भीर थीं। मेधा पाटकर उनके साथ महाराष्ट्र की अकरानी तहसील के गावों में गई। वहाँ उन्होंने पाया की किस प्रकार सरकारी अधिकारी आदिवासियों को जानकारियाँ देने या उनके अपने भाग्य (नियति या प्रारब्ध) के प्रति कितने उदासीन एवं हृदयहीन हैं। यहीं से मेधा पाटकर की नर्मदा घाटी के साथ की गाथा शुरू होती है।
इसी के समानान्तर मध्य प्रदेश की अलिराजपुर तहसील (अब जिला) में प्रभावित गाँवों को खेड़ुत मजदूर चेतना संगठ ने एकत्रित किया। वे भी 1980 के दशक के प्रारम्भ से आदिवासियों के भूमि एवं संसाधन सम्बन्धी अन्य अधिकारों आजीविका और स्वाभिमान के लिये कार्य कर रहे थे। इस आन्दोलन के सक्रिय कार्यकर्ता थे, शंकर तलवड़े, खजान सिंह, बाबा महरिया, अमित, राहुल बनर्जी और चित्तरूपा पालित। इनका भी मानना था कि घाटी से बाहर जाने का अर्थ है स्वयं को कमतर बनाना क्योंकि भिलाला आदिवासी हमेशा से मानते रहे हैं कि उनकी जीवनशैली बाजारियों से बेहतर है।
उधर मैदानी निमाड़ में वयोवृद्ध सर्वोदयी नेताओें काशीनाथ त्रिवेदी, प्रभाकर मांडलिक, फूलचंद पटेल, बैजनाथ महोदय, शोभाराम जाट आदि ने मिलकर घाटी नवनिर्माण समिति का गठन किया और वर्ष 1986-88 के मध्य बाँध का पुरजोर विरोध किया। वर्ष 1987 में इन्होंने नर्मदा कलश यात्रा भी निकाली। इसके बाद बाँध के खिलाफ लगातार संघर्ष चलता रहा। यह संघर्ष मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र व गुजरात में समानान्तर सक्रिय रहे। इसी दौरान देशभर के पर्यावरणविद, गाँधीवादी, वैज्ञानिक, नव वामपंथी और शोषित वर्गों के अनेक संगठन समर्थन में आते गए। 70 के दशक से चल रहे अनेक आन्दोलन अन्ततः एकजुट हो गए और यह एक नए सवरूप में वर्ष 1988 के अन्त से नर्मदा बचाओ आन्दोलन’ के रूप ने सामने आ गया। पाटकर ने इसमें समन्वयक की भूमिका ग्रहण की और घाटी से बाहर के कई लोग जैसे राकेश दीवान, श्रीपाद धर्माधिकारी, आलोक अग्रवाल, नंदिनी ओझा और हिमांशु ठक्कर इसमें शामिल हुए। स्थानीय लोगों की सक्रिय भागीदारी भी इसमें निरन्तर बनी रही। इस तरह नर्मदा बचाओ आन्दोलन एक जनआन्दोलन में परिवर्तित हुआ।
नर्मदा बचाओ आन्दोलन ने बाँध और विस्थापन के खिलाफ प्रत्येक स्तर पर अपना विरोध दर्ज करवाया। बड़े स्तर पर प्रदर्शन, घेराव, अनशन, आमरण अनशन, चक्काजाम सबकुछ किया। लेकिन कहीं से भी कोई अधिक सकारात्मक जवाब नहीं आ रहा था। अन्ततः जनहित याचिका के माध्यम से मामला सर्वोच्च न्यायालय पहुँचा। तमाम स्थगन व सुनवाई आदि के बाद फरवरी 1999 में सर्वोच्च न्यायालय का एक अन्तरिम आदेश आया जिसमें गुजरात सरकार को बाँध के निलंबित कार्य को पुनः प्रारम्भ करने और बाँध की ऊँचाई 5 मीटर बढ़ाकर 80.3 मीटर से 85 मीटर तक ले जाने की अनुमति प्रदान की गई थी। गुजरात सरकार और बाँध के ठेकेदार जयप्रकाश (जेपी) एसोसिएट्स का कहना था कि हम सुनिश्चित थे कि निर्णय केवल हमारे पक्ष में आएगा। तभी तो हमने ब्लॉक क्रमांक 35 को एकदम तैयार करके रखा था जिससे कि न्यायालय का निर्णय आने के तुरन्त बाद हम काम शुरू कर सकें। वहीं गुजरात के अधिवक्ता ने न्यायालय से आग्रह किया कि वह बाहरी विश्व के कठोर सन्देश दे कि बाँध का काम जारी है। न्यायालय में गरजते हुए उन्होंने कहा कि केवल तभी बाँध के लिये अन्तरराष्ट्रीय निवेश आ सकता है और लोग अपने गाँव से बाहर निकलेंगे। सन्देश दे दिया गया। परन्तु 6 व 7 मार्च को जलसिंधी में हुई बैठक में लोगों ने स्पष्ट कर दिया कि वे इस स्थिति का सामना करेंगे और राज्य सरकार का पर्दाफाश करेंगे जिसने पुर्नस्थापना को लेकर झूठे शपथपत्र दिये हैं और वह डूब या जलपप्लावन को एक बार पुनः चुनौती देंगे।
20 जून 1999 से डोमखेड़ी (महाराष्ट्र) और जलसिंधी (मध्य प्रदेश) अन्यायपूर्ण डूब और विस्थापन के खिलाफ सत्याग्रह के दो केन्द्र बन गए। लोगों ने न केवल घाटी से बाहर जाने से इन्कार कर दिया बल्कि और अधिक लोग घाटी में आ गए। इतना ही नहीं यहाँ नए मकान भी बनने लगे। मगर तीनों प्रदेशों की सरकारें आँख, कान बंद करे रहीं, और अगस्त में नर्मदा के बैकवाटर का स्तर बढ़ने लगा और इसने 10-11 अगस्त को डोमखेड़ी के प्रथम सत्याग्रह-घर में पानी ने प्रवेश कर लिया। सत्याग्रही वहीं जमे रहे, पानी कमर और सीने तक पहुँच गया। भंवर खाता पानी 18 सितम्बर को बहुत खतरनाक तरीके से पीपलचोप में बढ़ा और 21 सितम्बर को डोमखेड़ी, सिक्का, भरड और जलसिंधी में। डोमखेड़ी में सत्याग्रही 30 घंटे से भी ज्यादा समय से पानी में खड़े थे। सीताराम भाई, मेधा पाटकर, देवराम भाई व अन्य लोगों का प्रथम ‘समर्पित’ दल गले-गले तक खून जमा देने वाले ठंडे पानी में खड़ा था। वहीं सरकार इसका जवाब बजाए संवाद के गिरफ्तारियों, जबरन वहाँ से हटाने एवं जेल भेजकर दे रही थी।
यहीं से शुरू होती है डूब की गाथा! डूब प्रभावितों के लिये नई शताब्दी एक ऐसी त्रासदी से शुरू हुई जिसने हजारों शताब्दियों की सभ्यता और संस्कृति को अपने में समेट लिया। यहाँ एक और तथ्य पर गौर करना आवश्यक है, वर्ष 1979 में अनुमान लगाया गया था कि सरदार सरोवर जलाशय की वजह से तकरीबन 6000 परिवार विस्थापित होंगे। वर्ष 1987 में वह संख्या बढ़कर 12,000 तक पहुँच गई। चार वर्ष बाद 1991 में कहा गया कि डूब में आये परिवारों की संख्या 27,000 हो सकती है। एक साल पश्चात ही सरकार ने स्वीकारा कि कुल 40,000 परिवार प्रभावित होंगे। वैसे अभी भी सरकारी आँकड़ा 40,000 से 41,500 के बीच अटका हुआ है। वहीं दूसरी ओर नर्मदा बचाओ आन्दोलन का मानना है कि वास्तविक संख्या 85,000 परिवार है यानि करीब 5 लाख लोग।
18 सितम्बर 1999 यानि करीब 14 बरस पहले 80 मीटर की ऊँचाई पर पहला गाँव डूबा। आज बाँध 121 मीटर तक बन चुका है। इस 30 मीटर ऊँचाई में न मालूम कितने परिवार बेघर हुए हैं और उपजाऊ जमीन जलमग्न हो गई। नर्मदा घाटी के निवासियों के संघर्ष को भी 40 बरस होने आये मगर वे अभी भी लड़ रहे हैं। इस पर अरुंधती राय लिखती हैं ‘भारतीय राज्य धूर्तता के साथ लड़ता है। अपनी ऊपरी शराफत से अलग इसका दूसरा हथियार इंतजार करने की इसकी सामर्थ्य है। लड़ाई को खींचते रहने की। विरोधी को थका देने की। राज्य कभी नहीं थकता है, कभी बुढ़ाता नहीं है, उसे कभी आराम नहीं चाहिए। यह एक अंतहीन दौड़ दौड़ता है। मगर लड़ते हुए लोग थक जाते हैं। वे बीमार और बूढ़े हो जाते हैं। लगभग बीस साल (यह बात उन्होंने 1999 में कही थी) से, पंचाट के फैसले के बाद, घाटी की यह अनगढ़ सेना बेदखली के डर के साथ जीती रही है। बीस साल से ज्यादातर इलाकों में विकास के कोई चिन्ह नहीं हैं, सड़क नहीं है, स्कूल नहीं, कुएँ नहीं, चिकित्सा सहायता नहीं। बीस साल से यह ‘डूब के लिये निर्धारित’ का धब्बा ढो रही है। वे आगे कहती हैं “आधुनिक विकास के फल जब आखिरकार आये तो अपने साथ सिर्फ दहशत लाए। सड़कों से सर्वे करने वाले आए। ट्रकों में पुलिस आई। पुलिस गोलियाँ और पिटाई और बलात्कार और हिरासत और एक मामले में कत्ल तक लाई। आधुनिक विकास का बस एक ही सच्चा फल उन तक पहुँचा, गलती से पहुँचा अपनी आवाज उठाने का अधिकार, सुने जाने का अधिकार। लेकिन अब वे बीस साल लड़ चुके। कब तक टिकेंगे वे?”
कब तक टिकेंगे वे? यहीं से हम अपनी बात कहना और उनकी बात रखना शुरू कर सकते हैं। अपने इस अध्ययन या यात्रा में हम उनसे मिले जो अभी तक टिके हैं और उनसे भी मिले जो विस्थापित होकर नई पुनर्वास बस्तियों में रह रहे हैं। हम उनसे भी मिले जो रह तो अपने गाँव में रहे हैं लेकिन कमोबेश विस्थापितों जैसा अनिश्चित जीवन जी रहे हैं। हम उनसे मिले जो संघर्ष के पुराने साथी रहे हैं, हम उनसे भी मिले जो आज भी साथ हैं। उन सबने क्या कहा वह आपके सामने है। बात विस्थापन से होने वाले सांस्कृतिक प्रभावों के अध्ययन से शुरू हुई थी। मगर चर्चा से महसूस हुआ कि संस्कृति से बाहर क्या कुछ भी अस्तित्वमान है? ऐसे ही कुछ प्रश्न हमने पूछे। कुछ के उत्तर मिले भी। लेकिन अधिकांशतः तो प्रति प्रश्न का ही सामना करना पड़ा।
मुख्यधारा पर आने से पहले विश्व बैंक द्वारा दी गई विस्थापित व्यक्ति की परिभाषा पर गौर करते हैं। इससे विश्व बैंक की मंशा और क्रियान्वयन करने वाले संस्थानों की नीयत भी हमारे सामने आयेगी। ऐसे लोग जिनके पास भूमि एवं अन्य सम्पत्तियों का औपचारिक अधिकार है। इसमें देश में मान्यता प्राप्त रिवाजी और पारम्परिक अधिकार भी शामिल हैं और वे लोग जिनके पास जनगणना के प्रारम्भ होने के समय भूमि या अन्य सम्पत्तियों से सम्बन्धित औपचारिक कानूनी अधिकार नहीं हैं या परियोजना प्रभावित क्षेत्र की रूपरेखा बनने या प्रभावशाली सार्वजनिक उद्घोषणा के समय, इन दोनों में से जो भी पहले विद्यमान हो, इस तरह के कानूनी अधिकार का दावा कर सकता है। बशर्ते इस तरह के दावों को उस देश के कानून ने एक प्रक्रिया के तहत पुनर्स्थापना (पुनर्वास) योजना में चिन्हित किया हो। इस तरह के अधिकार सार्वजनिक जमीनों से अतिक्रमण, बिना सरकारी जबरन कार्यवाही के प्राप्त किये जा सकते हैं। (इसका अर्थ है सरकार की अन्तर्निहित अनुमति के) या इन्हें रिवाजी एवं पारम्परिक कानूनों या प्रयोगों आदि से लिया जा सकेगा। भूमि एवं अन्य सम्पत्तियों के कानूनी हक की अनुपस्थिति अपने आप में अन्य पुनर्स्थापना सहायता या नष्ट होने वाली सम्पत्ति के मुआवजे में रुकावट नहीं है।
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