बांध के पर्यावरणीय असर जैसे मछली की प्रजातियाँ नष्ट होकर उनका उत्पादन घटना, जंगल डूबने से गाद से बांध की उम्र कम होना, नदी का पानी प्रदूषित होना, भूकंप और स्वास्थ्य पर मलेरिया जैसी बीमारी का असर साफ नजर आ रहे हैं और लोग इसे भुगत भी रहे हैं। लेकिन जलसंग्रहण क्षेत्र उपचार, लाभ क्षेत्र विकास, वैकल्पिक वनीकरण जैसे प्रतिबंधक और हानिपूर्ति के कार्य भी नहीं के बराबर हुए हैं। इससे पर्यावरणीय मंजूरी में रखी गई शर्तों का उल्लंघन होता है। इन शर्तों की पूर्ति न होने पर पर्यावरण मंत्रालय द्वारा काम रोककर पुनर्विचार का अपना अधिकार एवम् कानूनी ज़िम्मेदारी निभाना जरूरी है। सरदार सरोवर बांध के डूब क्षेत्र के अंतर्गत मध्य प्रदेश के बड़वानी, धार, खरगोन तथा अलीराजपुर जिलों में स्थित 193 गांव पिछले 28 सालों से अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं। नर्मदा बचाओ आंदोलन ने न केवल पुनर्वास के बल्कि पर्यावरण लाभ-हानि और प्राचीन (दुनिया की सबसे पुरानी) संस्कृति के विनाश जैसे अनेक महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए हैं। इस हेतु शासन के स्तर पर संघर्ष और संवाद भी किया। सर्वोच्च अदालत तक अपील की तथा हर नवनियुक्त समिति के सामने नर्मदा घाटी की आवाज़ उठाई। आज समय आया है कि इस परियोजना पर केंद्रीय योजना आयोग तत्काल पुनर्विचार करे। पुनर्विचार के कई कारण हैं जैसे समूची नर्मदा घाटी में निर्मित प्रत्येक बांध की डूब से प्रभावित लाखों विस्थापित यथोचित पुनर्वास नहीं होने से हैरान और संघर्षरत हैं। सरदार सरोवर के डूब क्षेत्र में तीनों राज्यों-मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र एवं गुजरात- में आज भी डूब प्रभावित 48 हजार परिवार रह रहे हैं। उनमें से 45000 म.प्र. में नर्मदा घाटी के गांव-गांव में बसे हैं। म.प्र. के गांव या बसाहटों में सिर्फ मुआवजा ही नहीं वैकल्पिक ज़मीन या जीविका देकर बसाना सन् 2000 एवं 2005 के सर्वोच्च अदालत के फ़ैसलों के और नर्मदा ट्रिब्यूनल के फैसले के अनुसार भी राज्य शासन की मुख्य ज़िम्मेदारी है।
लेकिन मध्य प्रदेश व अन्य राज्यों की सरकारें न तो ज़मीन या जीविका दे पाई और ना ही ये देना चाहती हैं। मध्य प्रदेश की तो इसे लेकर कोई राजनीतिक इच्छाशक्ति भी नहीं है। किंतु इस प्रक्रिया के नाटक में ही सैकड़ों करोड़ों रु. का भ्रष्टाचार हुआ और न्यायमूर्ति झा आयोग जिसे मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के आदेश से गठित किया गया है, के द्वारा इन सभी घोटालों की जांच सन् 2008 से चल रही है। जांच से उभरकर कुछ तथ्य सामने आ रहे हैं और अब अंतिम रिपोर्ट से इस भ्रष्टाचार की पोल खोल होने वाली है।अतः हम सबका स्पष्ट मानना है कि हजारों परिवारों का क़ानूनन पुनर्वास न होते हुए घर व खेत डुबोना ग़ैरक़ानूनी है और यदि शासन के पास वैकल्पिक ज़मीन और आजीविका के साधन नहीं हैं, तो बांध को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। अतएव इसे आज की ऊंचाई 122 मीटर पर ही रोककर इस पर पुनर्विचार किए जाने की जरूरत है। यदि बिजली की बात करें तो मध्य प्रदेश द्वारा करोड़ों के (करीबन 6 हजार करोड़) पूंजी निवेश के बावजूद नियोजित ढंग/नियोजित बिजली राज्य को न मिलने पर भी राज्य हित के बारे में कोई नहीं सोच रहा है।
बांध के पर्यावरणीय असर जैसे मछली की प्रजातियाँ नष्ट होकर उनका उत्पादन घटना, जंगल डूबने से गाद से बांध की उम्र कम होना, नदी का पानी प्रदूषित होना, भूकंप और स्वास्थ्य पर मलेरिया जैसी बीमारी का असर साफ नजर आ रहे हैं और लोग इसे भुगत भी रहे हैं। लेकिन जलसंग्रहण क्षेत्र उपचार, लाभ क्षेत्र विकास, वैकल्पिक वनीकरण जैसे प्रतिबंधक और हानिपूर्ति के कार्य भी नहीं के बराबर हुए हैं। इससे पर्यावरणीय मंजूरी में रखी गई शर्तों का उल्लंघन होता है। इन शर्तों की पूर्ति न होने पर पर्यावरण मंत्रालय द्वारा काम रोककर पुनर्विचार का अपना अधिकार एवम् कानूनी ज़िम्मेदारी निभाना जरूरी है। सन् 1983 में बांध की लागत 4200 करोड़ रु. मानकर इसे स्वीकृत किया गया। लेकिन लाभ-हानि विश्लेषण के नज़रिए से यह लागत सन् 2012 में 70,000 करोड़ (योजना आयोग के कार्य दल का अनुमान) होने से अब इसके पुनर्मूल्यांकन की जरूरत को योजना आयोग भी नकार नहीं सकता।
लेकिन कोई निगरानी या मूल्यांकन बिना 5000 करोड़ रु. एआईबीपी कोष से मंजूर करने का ही नतीजा है कि लागत में बढ़ोतरी और नहरों का निर्माण पीछे छोड़कर बांध का काम आगे बढ़ते जा रहा है। सबसे महत्व की बात यह है कि गुजरात के मोदी शासन ने लाभ क्षेत्र से चार लाख हेक्टेयर क्षेत्र हटाकर उसे कंपनियों के लिए आरक्षित कर दिया है। कच्छ को पर्याप्त पानी न देते हुए गांधीनगर, अहमदाबाद, बड़ौदा जैसे शहरों को लबालब भर दिया गया है और नहर निर्माण पिछले 30 सालों में 30 प्रतिशत से कम होने से उपलब्ध (जलाशय के) पानी के 20 प्रतिशत से कम को उपयोग में लाया जा रहा है। इन तमाम कारणों से नर्मदा घाटी की अति उपजाऊ ज़मीन एवं मध्य प्रदेश के करोड़ों रु. के पूंजी निवेश तथा लाभ भी प्राप्त न होने को अब आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है। मध्य प्रदेश अगर दलीय राजनीतिक स्वार्थ से गुजरात हित की सोच रहा है तो भी योजना आयोग व केंद्र शासन द्वारा केवल घाटी की बल्कि राज्य की जनता की मांग पर इस परियोजना पर पुनर्विचार किया जाना जरूरी है।
लेकिन मध्य प्रदेश व अन्य राज्यों की सरकारें न तो ज़मीन या जीविका दे पाई और ना ही ये देना चाहती हैं। मध्य प्रदेश की तो इसे लेकर कोई राजनीतिक इच्छाशक्ति भी नहीं है। किंतु इस प्रक्रिया के नाटक में ही सैकड़ों करोड़ों रु. का भ्रष्टाचार हुआ और न्यायमूर्ति झा आयोग जिसे मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय के आदेश से गठित किया गया है, के द्वारा इन सभी घोटालों की जांच सन् 2008 से चल रही है। जांच से उभरकर कुछ तथ्य सामने आ रहे हैं और अब अंतिम रिपोर्ट से इस भ्रष्टाचार की पोल खोल होने वाली है।अतः हम सबका स्पष्ट मानना है कि हजारों परिवारों का क़ानूनन पुनर्वास न होते हुए घर व खेत डुबोना ग़ैरक़ानूनी है और यदि शासन के पास वैकल्पिक ज़मीन और आजीविका के साधन नहीं हैं, तो बांध को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता। अतएव इसे आज की ऊंचाई 122 मीटर पर ही रोककर इस पर पुनर्विचार किए जाने की जरूरत है। यदि बिजली की बात करें तो मध्य प्रदेश द्वारा करोड़ों के (करीबन 6 हजार करोड़) पूंजी निवेश के बावजूद नियोजित ढंग/नियोजित बिजली राज्य को न मिलने पर भी राज्य हित के बारे में कोई नहीं सोच रहा है।
बांध के पर्यावरणीय असर जैसे मछली की प्रजातियाँ नष्ट होकर उनका उत्पादन घटना, जंगल डूबने से गाद से बांध की उम्र कम होना, नदी का पानी प्रदूषित होना, भूकंप और स्वास्थ्य पर मलेरिया जैसी बीमारी का असर साफ नजर आ रहे हैं और लोग इसे भुगत भी रहे हैं। लेकिन जलसंग्रहण क्षेत्र उपचार, लाभ क्षेत्र विकास, वैकल्पिक वनीकरण जैसे प्रतिबंधक और हानिपूर्ति के कार्य भी नहीं के बराबर हुए हैं। इससे पर्यावरणीय मंजूरी में रखी गई शर्तों का उल्लंघन होता है। इन शर्तों की पूर्ति न होने पर पर्यावरण मंत्रालय द्वारा काम रोककर पुनर्विचार का अपना अधिकार एवम् कानूनी ज़िम्मेदारी निभाना जरूरी है। सन् 1983 में बांध की लागत 4200 करोड़ रु. मानकर इसे स्वीकृत किया गया। लेकिन लाभ-हानि विश्लेषण के नज़रिए से यह लागत सन् 2012 में 70,000 करोड़ (योजना आयोग के कार्य दल का अनुमान) होने से अब इसके पुनर्मूल्यांकन की जरूरत को योजना आयोग भी नकार नहीं सकता।
लेकिन कोई निगरानी या मूल्यांकन बिना 5000 करोड़ रु. एआईबीपी कोष से मंजूर करने का ही नतीजा है कि लागत में बढ़ोतरी और नहरों का निर्माण पीछे छोड़कर बांध का काम आगे बढ़ते जा रहा है। सबसे महत्व की बात यह है कि गुजरात के मोदी शासन ने लाभ क्षेत्र से चार लाख हेक्टेयर क्षेत्र हटाकर उसे कंपनियों के लिए आरक्षित कर दिया है। कच्छ को पर्याप्त पानी न देते हुए गांधीनगर, अहमदाबाद, बड़ौदा जैसे शहरों को लबालब भर दिया गया है और नहर निर्माण पिछले 30 सालों में 30 प्रतिशत से कम होने से उपलब्ध (जलाशय के) पानी के 20 प्रतिशत से कम को उपयोग में लाया जा रहा है। इन तमाम कारणों से नर्मदा घाटी की अति उपजाऊ ज़मीन एवं मध्य प्रदेश के करोड़ों रु. के पूंजी निवेश तथा लाभ भी प्राप्त न होने को अब आगे नहीं बढ़ाया जा सकता है। मध्य प्रदेश अगर दलीय राजनीतिक स्वार्थ से गुजरात हित की सोच रहा है तो भी योजना आयोग व केंद्र शासन द्वारा केवल घाटी की बल्कि राज्य की जनता की मांग पर इस परियोजना पर पुनर्विचार किया जाना जरूरी है।
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