प्रस्तुति - अमरनाथ
लागत, लाभ और प्रभाव का कोई विश्वसनीय आकलन नहीं- हिमांशु ठक्कर
सरदार सरोवर परियोजना वरदान है या अभिशाप, इसका आकलन करने के लिये परियोजना पूरा हो जाने के बाद इसके सभी लागतों, लाभों और प्रभावों की पूरी गणना करनी होगी। वर्तमान स्थिति यह है कि परियोजना अभी अधूरी है। नहरों के संजाल को लगभग 18 हजार किलोमीटर छोटा करने के बाद गुजरात सरकार के आँकड़ों के अनुसार लगभग 30 हजार किलोमीटर नहरें पूरी हो चूकि हैं, लेकिन गुरूदेश्वर बाँध अभी निमार्णाधीन है जो सरदार सरोवर बाँध के नीचले बहाव क्षेत्र में है। इसका सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभाव आकलन नहीं कराया गया है।
सरदार सरोवर परियोजना के पक्ष में 1970 के दशक में नर्मदा जल विवाद ट्रिब्यूनल के दौरान गुजरात सरकार की बुनियादी दलील थी कि उत्तर गुजरात, सौराष्ट्र और कच्छ के सूखाग्रस्त इलाके के लिये सरदार सरोवर के पानी के अलावा कोई विकल्प नहीं है। लेकिन वर्तमान में अधूरी नहर परियोजनाएँ इसी क्षेत्र की हैं, जबकि बेहतर जल उपलब्धता वाले राजनीतिक सामाजिक और आर्थिक रूप से सम्पन्न केन्द्रीय गुजरात की नहरें काफी पहले बनकर तैयार हो गईं और वहाँ के लोगों को नहरों का पानी भी मिल रहा है।
मध्य गुजरात में केवल पूरब के आदिवासी क्षेत्र की नहरें बाकी हैं। मध्य गुजरात के लोगों को सरदार सरोवर योजना के अन्तर्गत आवंटित पानी से कहीं अधिक पानी मिल रहा है। इस प्रकार सरदार सरोवर योजना की बुनियादी उद्देश्य सौराष्ट्र और कच्छ को पानी देना अभी कोसों दूर है।
सामाजिक और पर्यावरणीय प्रभाव उससे कहीं अधिक हुए जिसका आकलन परियोजना को मंजूरी देते समय अस्सी के दशक में किया गया था। डूब क्षेत्र में आये और प्रभावित आबादी के 80 प्रतिशत से अधिक का पुनर्वास अधूरा है। हालांकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 17 सितम्बर 2017 को अपने जन्मदिन को परियोजना के पूर्ण होने की घोषणा कर दी। इस प्रकरण का सबसे चौंकाने वाला पहलू यह है कि देश की सर्वोच्च न्यायपालिका भी सुनिश्चित नहीं कर पाई कि विस्थापित आबादी को कानून सम्मत पुनर्वास हासिल हो जाये।
परियोजना के प्रभाव के अन्य अनेक पहलू हैं। मसलन, बाँध के नीचे करीब 150 किलोमीटर धारा साल के अधिकतर दिनों में एकदम सूखी रहती है। यह दावा किया जाता है कि 600 क्यूसेक पानी बाँध से कई किलोमीटर बाद उसमें छोड़ा जाता है। लेकिन इस दावे के पक्ष में कोई प्रमाण नहीं मिलता। वैसे पानी की यह मात्रा नर्मदा मुहाने पर समुद्री खारापन के प्रभाव का मुकाबला करने में भी सफल नहीं हो रहा है। नर्मदा मुहाने पर निर्भर करीब 10 हजार परिवारों की आजीविका नष्ट हो चुकी है। इनके पुनर्वास या मुआवजा की कोई चर्चा भी नहीं करता।
प्रसंगवश, सरदार सरोवर जलाशय कभी पूरा भर नहीं सकता और यह जितना भर पाएगा, वह भी नदी पर बने बिजली घरों में मानसून के दो महीनों तक बिजली उत्पादन पूरी तरह रोकने और ऊपरी बहाव क्षेत्र में इंदिरा सागर और ओमकारेश्वर बाँधों से बिजली का उत्पादन 95 प्रतिशत तक घटाने के बाद हो पाएगा। उल्लेखनीय है कि जलाशय की पूरी क्षमता 138.68 मीटर है जिसमें अधिकतम 129.68 मीटर तक भरने की उम्मीद की जा सकती है।
परियोजना की एक स्वतंत्र समीक्षा की जरूरत है। ऐसी समीक्षा पहले भी दो बार हो चुकी है। एक बार विश्व बैंक की पहल पर, दूसरी बार भारत सरकार की पहल पर। दोनों बार एक ही निष्कर्ष निकला कि परियोजना को मौजूदा रूप में आगे नहीं बढ़ाया जाना चाहिए।
(हिमांशु ठक्कर करीब दो दशकों से पानी और पर्यावरण के क्षेत्र में कार्यरत हैं। वे साउथ एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रीवर्स एंड पीपुल्स के संयोजक हैं।)
सूखाग्रस्त गुजरात की जीवनरेखा- एस.मसूद हुसैन
इस परियोजना के फायदे बहुत हैं। गुजरात में करीब 18.45 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई होगी जो किसी भी तरह से बहुत बड़ा इलाका होता है। इसके अलावा राजस्थान में भी करीब 2.46 लाख हेक्टेयर की सिंचाई होगी। इससे कृषिगत उपज में लगभग 87 लाख टन प्रति वर्ष की बढ़ोत्तरी होगी। इसके अलावा पनबिजली की स्थापित क्षमता 1450 मेगावाट है जो प्रतिवर्ष करीब 100 करोड़ यूनिट बिजली पैदा करेगी। गुजरात के 9500 गाँवों और 173 शहरों तथा राजस्थान के 124 गाँवों को पेयजल उपलब्ध कराया जाएगा।
परियोजना लगभग 30 हजार हेक्टेयर को बाढ़ सुरक्षा प्रदान करेगी। और परियोजना की वजह से ग्रामीण क्षेत्रों में लगभग दस लाख रोजगार पैदा होंगे। परियोजना के दायरे में अधिकांश सूखाग्रस्त इलाके को समेटा जाएगा। पानी के कुछ हिस्से का इस्तेमाल औद्योगिक कामों में किया जाएगा। इसके अतिरिक्त पर्यावरण के लिये भी फायदेमन्द है। शूलपनेश्वर वन्यजीव अभयारण्य का क्षेत्रफल 150 वर्ग किलोमीटर से बढ़कर 607 वर्ग किलोमीटर हो जाएगा। पर्यावरणीय सुरक्षा के दूसरे उपाय भी किये गए है। पेड़ लगाए जा रहे हैं। कुल 7 करोड़ 60 लाख पौधे लगाए गए हैं। परियोजना में डूबे प्रत्येक पेड़ के बदले 92 पेड़ रोपे गए हैं। लगभग 4650 हेक्टेयर जमीन को अनिवार्य वृक्षारोपण के लिये चिन्हित किया गया है।
फायदों की सूची बताती है कि सरदार सरोवर परियोजना किस तरह से गुजरात के सूखाग्रस्त इलाके के लिये जीवनरेखा साबित होगी। इस परियोजना का विचार 1940 के दशक में ही आया था, पर तब बाँध के निर्माण की योजना लम्बे समय तक नहीं बनाई जा सकी क्योंकि पानी के बँटवारे के बारे में कोई समझौता नहीं था। नर्मदा ट्रिब्यूनल के 1969 में गठन और 1979 में इसका फैसला आने के बाद परियोजना पर काम आरम्भ हो सका। सभी विकल्पों का आकलन करने के बाद इस परियोजना पर विचार किया गया। मेरी समझ से इसका कोई विकल्प उपलब्ध नहीं है।
पूरा होने के बाद इस परियोजना से गुजरात, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश के 230 गाँव प्रभावित होंगे जिनमें से चार गाँव पूरी तरह डूब जाएँगे। बाकी गाँव केवल तभी प्रभावित होंगे जब पानी का स्तर बढ़ेगा। डूब -क्षेत्र के लगभग 32,600 परिवार प्रभावित होंगे। नर्मदा नियंत्रण प्राधिकार द्वारा राहत और पुनर्वास कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। राहत के पैकेज को अभी तक सर्वोत्तम माना जा रहा है।
जल सुरक्षा का तत्व
हमें ध्यान रखना चाहिए कि देश की जलसुरक्षा जल भण्डारण क्षमता पर निर्भर करती है। हमारी जल भण्डारण क्षमता अन्य देशों की तुलना में बहुत कम है। रूस (प्रति व्यक्ति भण्डारण 6100 घन मीटर), अमेरिका (1960 घन मीटर) चीन (1100) की तुलना में भारत की भण्डारण क्षमता लगभग 200 घनमीटर है। जब तक हमारे पास जल भण्डारण नहीं हो, हमें जल सुरक्षा हासिल नहीं हो सकती।
1999 की राष्ट्रीय आयोग की रिपोर्ट के अनुसार हमारे पास लगभग 450 बिलियन घनमीटर भण्डारण क्षमता होनी चाहिए, जबकि अभी तक बाँध और जलाशय सब मिलाकर केवल 253 बिलियन घनमीटर की क्षमता है। करीब 50 बिलियन घनमीटर भण्डारण क्षमता निर्माणाधीन है। हमारी खाद्य सुरक्षा और उर्जा सुरक्षा भी जल सुरक्षा पर निर्भर करती है।
(एस. मसूद हुसैन, केन्द्रीय जल आयोग के वाटर प्लानिंग एंड प्रोजेक्ट्स के सदस्य और राष्ट्रीय जल विकास एजेंसी के महानिदेशक हैं।)
फिर से सोचने की जरूरत- तुषार षाह
सरदार सरोवर परियोजना 35 वर्षों से काम, 48 हजार करोड़ के खर्च, 45 हजार परिवारों के विस्थापन, 245 गाँवों के डूबने और ढाई लाख हेक्टेयर जमीन के अधिग्रहण के बाद भी गुजरात के लिये एक लुभावना वायदा ही बना हुआ है।
गुजरात में इस परियोजना से 11 अरब घनमीटर पानी मिलने की उम्मीद थी जिससे 18 लाख हेक्टेयर सूखी जमीन की सिंचाई होती। पर दुखद है कि परियोजना से एक चौथाई से भी कम जमीन की सिंचाई हो पाती है जो परियोजना के निर्माण के लिये अधिग्रहित जमीन से थोड़ा ही अधिक है। लागत के मुकाबले लाभ का यह कैसा अनुपात है?
यही नहीं, गुजरात में 1990 से ही करीब 800 करोड़ रुपए खर्च करके लाखों चेकडैम का निर्माण और पुराने तालाबों, जलाशयों की मरम्मत कराई गई है, जिससे राज्य को कहीं अधिक फायदा हुआ है। केन्द्रीय भूजल बोर्ड के आँकड़ों के अनुसार, गुजरात इकलौता राज्य है जिसका भूजल स्तर सन 2000 के बाद लगातार बेहतर हुआ है। कुछ लोग इसका श्रेय भी सरदार सरोवर परियोजना को देना चाहते हैं। पर परियोजना का पानी गुजरात के 196 लाख हेक्टेयर भूमि में से केवल 3 लाख भूमि पर पहुँच पाता है और इसका राज्य के भूजल-पुनर्भरण में सहायक होना सम्भव नहीं। यह काम राज्य भर में फैले चेकडैम और गाद मुक्त तालाबों ने किया है। गुजरात की कृषि में सन 2000 से प्रतिवर्ष 9 प्रतिशत की दर से विकास हुआ है, यह मोटे तौर पर भूजल पुनर्भरण में सुधार होने की वजह से हुआ है।
जल कुंडियां (एक्विफर्स) सर्वव्यापी हैं। किसान कुओं और नलकूपों के जरिए उस तक पहुँचते हैं। जलकुंडियों में भण्डारण अधिक होने का उपयोगकर्ता को तत्काल और प्रत्यक्ष लाभ होता है। बाँधों के साथ ऐसा नहीं है। सरदार सरोवर परियोजना से भी नहीं हुआ। उनका फायदा कारगर वितरण व्यवस्था पर निर्भर करता है। सरदार सरोवर परियोजना वितरण व्यवस्था की असफलता के लिये जानी जाएगी।
सरदार सरोवर परियोजना के योजनाकारों ने 1980 के दशक में प्रस्ताव दिया कि इससे लाभान्वित होने वाले किसान नहरों का पानी अपने खेतों तक पहुँचाने की नालियों के आखिरी किलोमीटर का निर्माण करने के लिये जमीन और अपना श्रम देंगे। यह प्रस्ताव 1980 में मान्य हो सकती थी, पर आज नहीं। उस समय और आज के बीच गुजरात की खेती का स्वरूप बदल गया है।
रियायती दर पर प्राप्त बिजली आधारित नलकूपों से सिंचाई आज वहाँ की खेती की वास्तविकता बन गई है। नहरों के कमान क्षेत्र में भी किसान नलकूपों से सिंचाई करना पसन्द करते हैं क्योंकि यह जब चाहो उपलब्ध हो सकता है जबकि नहरों के पानी के लिये इन्तजार करना होता है। आश्चर्य नहीं कि किसानों ने नहरों के आखिरी छोर के निर्माण के लिये जमीन देने से मना कर दिया। इसके बजाय उन्होंने निजी पम्प लगाए और भूमिगत और जमीन के ऊपर पाइप लगाकर नहरों का पानी अपने खेतों तक पहुँचाने का रास्ता अपना लिया। इस तरह के एक लाख से अधिक पम्प लग गए हैं।
निजी पाइप लाइनों के आधिक्य को जल वितरण व्यवस्था में किसानों की हिस्सेदारी सुनिश्चित करने के लिहाज से वरदान माना जाना चाहिए। इसके बजाय गुजरात सरकार पाइप लगाकर पानी खींचने वाले उद्यमी किसानों को ‘पानी की चोरी करने वाला माना और उनके खिलाफ पुलिस कार्रवाई आरम्भ हुई। लेकिन दशक भर की कोशिश के बाद भी खेतों तक पानी पहुँचाने के लिये नालियाँ बनाने में सफल नहीं होने पर सरकार ने जल वितरण के लिये भूमिगत पाइप लाइनों को सही मान लिया। लेकिन किसानों को यह काम नियमित और योजनाबद्ध तरीके से करने देने के बजाय उसने ठेकेदारों को लगा दिया जो स्थानीय हकीकतों को नहीं जानते। अभी आरम्भिक दौर है लेकिन इसके फलप्रद होने की उम्मीद कम ही है।
दरअसल, सरदार सरोवर परियोजना पर आज के सन्दर्भ में पुनर्विचार करने की जरूरत है। गुजरात में सिंचाई की चुनौती आज रियायती बिजली आपूर्ति पर सालाना 10 हजार करोड़ रुपए का खर्च है। परियोजना के पानी को सूखी जलकुंडियों तक पहुँचाकर उनके पुनर्भरण का इन्तजाम करने से यह खर्च चौथाई हो सकता है।
भूजल में फ्लोराइड मिले होने से कई इलाकों में जन स्वास्थ्य पर गम्भीर खतरा उत्पन्न हो गया है, इसका मुकाबला घर-घर में सरदार सरोवर का पानी पहुँचाकर किया जा सकता है। अगर 11 अरब घनमीटर जल भण्डारण सदा उपलब्ध रहे तो गुजरात के लोग और मवेशी लगातार दो सूखा का आसानी से मुकाबला कर सकते हैं। पर यह तभी हो सकता है जब वितरण व्यवस्था ऐसी हो जो पानी को हर घर और हर खेत तक पहुँचा सके।
(तुषार शाह इंटरनेशनल वाटर मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट के वरीय फेलो हैं।)
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