नर्मदा नियंत्रण प्राधिकरण यानी एनसीए ने हाल ही में एकतरफा फैसला करते हुए गुजरात में स्थित सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई वर्तमान के 121.92 मीटर से बढ़ाकर 138.68 मीटर करने की मंजूरी प्रदान कर दी है। एनसीए का मानना है कि उसके इस कदम से बांध के जलाशय में, परियोजना में अपेक्षित पूरी क्षमता के साथ जल संग्रहण हो सकेगा। जिससे सिंचाई और जल विद्युत उत्पादन की क्षमता बढ़ेगी। एनसीए के इस फैसले से जहां गुजरात सरकार ने अपनी खुशी जताई है, वहीं बांध की ऊंचाई बढ़ाए जाने से डूब में आने वाले तीन राज्यों के हजारों लोगों के माथों पर चिंता की लकीरें खींच दी है। उनके सामने विस्थापन की समस्या का सवाल, फिर आन खड़ा है।
सरदार सरोवर बांध की वर्तमान ऊंचाई के चलते एक अनुमान के मुताबिक दो लाख लोग पहले से ही प्रभावित क्षेत्र में हैं। लिहाजा अगर 17 मीटर ऊंचे गेट लगाकर उसकी ऊंचाई और बढ़ाई जाती है, तो मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र के कुल मिलाकर ढाई लाख लोग पुनर्वास के अभाव में बाढ़ और तबाही का सामना करेंगे। जिसमें ज्यादातर आबादी आदिवासी समुदाय की है।
सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई और बढ़ाने से गुजरात के 19, महाराष्ट्र के 33 और मध्यप्रदेश के 193 गांव प्रभावित हो रहे हैं। जिससे कुल 51 हजार परिवार प्रभावित होंगे।सरदार सरोवर परियोजना नर्मदा नदी पर जारी अंतरराज्यीय बहुद्देश्यीय परियोजना है और इस परियोजना का शिलान्यास देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने आज से 53 साल पहले साल 1961 में किया था। इस परियोजना के तहत 1450 मेगावाट पन बिजली उत्पादन की परिकल्पना की गई थी, जिसे मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात के बीच साझा किया जाएगा। बिजली के अलावा यह परियोजना गुजरात में 17.92 लाख हेक्टेयर और राजस्थान में 2.46 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई के लिए पानी मुहैया कराएगी। इनमें गुजरात के कच्छ और सौराष्ट्र और राजस्थान के बाड़मेर और जालौर के रेगिस्तानी और सूखे की आशंका वाले क्षेत्र शामिल हैं।
यह परियोजना गुजरात के 135 शहरी केंद्रों और 8215 गांवों तथा राजस्थान के दो शहरी और 1107 गांवों में पेयजल की आपूर्ति भी करेगी। आंकड़ों के लिहाज से यदि देखें तो यह परियोजना काफी आकर्षक नजर आती है, लेकिन इस परियोजना का दूसरा पहलू और है, जिसे अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है। नर्मदा नदी पर अतीत में बनी परियोजनाओं से विस्थापित हुए लोगों के पुनर्वास पर कई तरह के सवाल उठते रहे हैं। सरकार के तमाम वादों और दावों के बाद भी विस्थापितों का अभी तक पुनर्वास नहीं हुआ है। वहीं जिनका पुनर्वास हुआ भी है, तो वह काफी असंतोषजनक है। लिहाजा यह सवाल उठना लाजिमी है कि नए डूब क्षेत्र के विस्थापितों का सरकार किस तरह से पुनर्वास करेगी?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केंद्र में राजग की सरकार बनाते समय यकीन दिलाया था कि वे विकास परियोजनाओं के बारे में फैसला करते समय, राज्यों की सहमति व सहभागिता का हमेशा ख्याल रखेंगे। लेकिन जब पहले ही बड़े फैसले लेने की बारी आई, तो यह वादा हवा-हवाई हो गया।अतीत के तजुर्बो को यदि देखें तो चाहे गुजरात हो या फिर मध्य प्रदेश इस मामलें में दोनों ही सरकारें पूरी तरह से नाकाम रही हैं। गुजरात सरकार की तरफ से भले ही यह बात कही जा रही हो कि सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाने से प्रभावित होने वाले गांवों के पुनर्वास का काम पूरा हो चुका है, पर हकीकत यह है कि अब तक 121.92 मीटर की बांध की ऊंचाई से प्रभावित होने वाले गांवों के पुनर्वास का काम भी ठीक तरह से पूरा नहीं हो पाया है। यही हाल मध्य प्रदेश में है। सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई और बढ़ाने से गुजरात के 19, महाराष्ट्र के 33 और मध्यप्रदेश के 193 गांव प्रभावित हो रहे हैं। जिससे कुल 51 हजार परिवार प्रभावित होंगे। इनमें 1100 परिवार महाराष्ट्र व गुजरात के हैं और बाकी मध्यप्रदेश के। एनसीए के इस फैसले से मध्य प्रदेश के नीमच, खरगोन, बड़वानी और खंडवा जिले के कई गांव, जंगल और उसमें खड़ी फसल की जलसमाधि हो जाएगी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केंद्र में राजग की सरकार बनाते समय यकीन दिलाया था कि वे विकास परियोजनाओं के बारे में फैसला करते समय, राज्यों की सहमति व सहभागिता का हमेशा ख्याल रखेंगे। लेकिन जब पहले ही बड़े फैसले लेने की बारी आई, तो यह वादा हवा-हवाई हो गया। सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाने से देश के चार राज्य गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र सीधे-सीधे प्रभावित होंगे। लिहाजा फैसला लेने से पहले यह जरूरी था कि चारों राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक कर उन्हें विश्वास में लिया जाता? लेकिन इस मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दूसरे राज्यों की सहमति और सहभागिता को ताक पर रखते हुए सिर्फ अपने गृह राज्य का फायदा देखा।
फैसले के वक्त असहमतियों के सुरों को एकदम नजरअंदाज कर दिया गया। एक लिहाज से देखें तो मोदी सरकार का यह फैसला देश के संघीय ढांचे की भावनाओं के खिलाफ है। फैसला लेते समय संघीय भावना की पूरी तरह से अनदेखी की गई। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने साफ-साफ कहा कि फैसला लेने से पूर्व उनसे पूछना, यकीन में लेना तो दूर की बात है, उन्हें सूचित तक नहीं किया गया। एक और राज्य मध्य प्रदेश की यदि बात करें तो जब निर्णय लिया गया, तब राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह विदेश दौरे पर थे। राज्य की विपक्षी पार्टी कांग्रेस का इल्जाम है कि यदि एनसीए ने राज्य सरकार से सहमति ले ली थी, तो यह सहमति भी सवालों के घेरे में है। राज्य की जनता और प्रतिपक्ष को यकीन में लिए बिना कैसे कोई सरकार अपनी सहमति दे सकती है?
इतने महत्वपूर्ण मसले पर फैसला करते समय सरकार को सर्वदलीय बैठक बुलानी चाहिए थी और सर्वसम्मति से लिए गए फैसले के बाद ही यह रजामंदी दी जाती। निर्णय करते समय सरकार को इस तथ्य पर खासतौर से विचार करना चाहिए था कि बांध की ऊंचाई बढ़ने के चलते जो इलाके डूब में आ जाएंगे, वहां के लाखों लोगों का पुनर्वास कैसे होगा?
बहुमुखीय विकास में बांधों के योगदान से इंकार नहीं किया जा सकता। बिजली उत्पादन और सिंचाई का रकबा बढ़ाए जाने की दृष्टि से बांध हमारे लिए बेहद उपयोगी हैं। बांध परियोजनाओं के आकार लेने से पहले, इन परियोजनाओं के चलते डूब से प्रभावित विस्थापितों के प्रति संवेदनापूर्ण कार्यवाही भी सरकार की जिम्मेदारियों में शामिल है। पुनर्वास नीति-नियम व अदालती फैसलों के मुताबिक हर हरिवार को सभी भौतिक व आर्थिक फायदे मिलें, इसकी सुनिश्चित सरकार को करना चाहिए। जमीन के बदले जमीन दी जाए, बांध विस्थापितों की यह पुरानी मांग रही है। यह मांग कहीं से नाजायज भी नहीं। जमीन ही किसान की आजीविका का प्रमुख स्त्रोत होती है। जमीन के ना होने से उसकी और परिवार की जिंदगी बेसहारा हो जाएगी। हमारी अदालतों ने भी विस्थापितों की इस वाजिब मांग का हमेशा समर्थन किया और समय-समय पर विस्थापितों के हक में फैसला दिया।
सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट निर्देश है कि बांध का जल स्तर बढ़ाए जाने से छह महीने पहले, प्रभावितों के पुनर्वास व जमीन के बदले जमीन देने की व्यवस्था की जाए। बावजूद इसके मुख्तलिफ सरकारें, अदालतों के आदेश-निर्देश की बराबर अवहेलना करती रही हैं। वह भी अवमानना की हद तक। सरदार सरोवर परियोजना के मामले में भी फैसला लेते समय एनसीए ने अदालत के आदेशों को पूरी तरह से ताक पर रख दिया है। इस परियोजना के डूब से प्रभावित हजारों लोगों के पुनर्वास का काम किए बिना, मोदी सरकार ने बांध को 138.68 मीटर ऊंचाई तक भरने का फैसला कर लिया। यह सोचे-विचारे बिना कि जलस्तर बढ़ने से डूब क्षेत्र में आ रहे, गांवों की क्या स्थिति होगी?
बांध की ऊंचाई बढ़ाने का इतना महत्वपूर्ण फैसला लेते समय होना यह चाहिए था कि केंद्र व राज्य दोनों सरकारें परियोजना से प्रभावित होने जा रही आबादी खासतौर पर जनजातीय आबादी की चिंताओं और सरोकारों को हल करने की कोशिश करतीं। जिसमें विस्थापन का सवाल एक प्रमुख सवाल है। लेकिन इस पहलू पर किसी भी सरकार ने गंभीरता से नहीं सोचा। पुनर्वास को लेकर तमाम शिकायतें पहले की तरह अब भी बरकरार हैं। शिकायतें मुआवजे, वैकल्पिक भूमि मिलने और यथोचित पुनर्वास की सुविधाओं से जुड़ी हुई हैं। जाहिर है कि इन शिकायतों का ठीक ढंग से निराकरण किए बिना, जो भी फैसला होगा वह जनविरोधी होगा। इस फैसले का नुकसान आखिरकार इन राज्यों की गरीब, वंचित आदिवासी आबादी को ही भुगतना गड़ेगा।
सरदार सरोवर बांध की वर्तमान ऊंचाई के चलते एक अनुमान के मुताबिक दो लाख लोग पहले से ही प्रभावित क्षेत्र में हैं। लिहाजा अगर 17 मीटर ऊंचे गेट लगाकर उसकी ऊंचाई और बढ़ाई जाती है, तो मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र के कुल मिलाकर ढाई लाख लोग पुनर्वास के अभाव में बाढ़ और तबाही का सामना करेंगे। जिसमें ज्यादातर आबादी आदिवासी समुदाय की है।
सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई और बढ़ाने से गुजरात के 19, महाराष्ट्र के 33 और मध्यप्रदेश के 193 गांव प्रभावित हो रहे हैं। जिससे कुल 51 हजार परिवार प्रभावित होंगे।सरदार सरोवर परियोजना नर्मदा नदी पर जारी अंतरराज्यीय बहुद्देश्यीय परियोजना है और इस परियोजना का शिलान्यास देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने आज से 53 साल पहले साल 1961 में किया था। इस परियोजना के तहत 1450 मेगावाट पन बिजली उत्पादन की परिकल्पना की गई थी, जिसे मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और गुजरात के बीच साझा किया जाएगा। बिजली के अलावा यह परियोजना गुजरात में 17.92 लाख हेक्टेयर और राजस्थान में 2.46 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में सिंचाई के लिए पानी मुहैया कराएगी। इनमें गुजरात के कच्छ और सौराष्ट्र और राजस्थान के बाड़मेर और जालौर के रेगिस्तानी और सूखे की आशंका वाले क्षेत्र शामिल हैं।
यह परियोजना गुजरात के 135 शहरी केंद्रों और 8215 गांवों तथा राजस्थान के दो शहरी और 1107 गांवों में पेयजल की आपूर्ति भी करेगी। आंकड़ों के लिहाज से यदि देखें तो यह परियोजना काफी आकर्षक नजर आती है, लेकिन इस परियोजना का दूसरा पहलू और है, जिसे अक्सर नजरअंदाज कर दिया जाता है। नर्मदा नदी पर अतीत में बनी परियोजनाओं से विस्थापित हुए लोगों के पुनर्वास पर कई तरह के सवाल उठते रहे हैं। सरकार के तमाम वादों और दावों के बाद भी विस्थापितों का अभी तक पुनर्वास नहीं हुआ है। वहीं जिनका पुनर्वास हुआ भी है, तो वह काफी असंतोषजनक है। लिहाजा यह सवाल उठना लाजिमी है कि नए डूब क्षेत्र के विस्थापितों का सरकार किस तरह से पुनर्वास करेगी?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केंद्र में राजग की सरकार बनाते समय यकीन दिलाया था कि वे विकास परियोजनाओं के बारे में फैसला करते समय, राज्यों की सहमति व सहभागिता का हमेशा ख्याल रखेंगे। लेकिन जब पहले ही बड़े फैसले लेने की बारी आई, तो यह वादा हवा-हवाई हो गया।अतीत के तजुर्बो को यदि देखें तो चाहे गुजरात हो या फिर मध्य प्रदेश इस मामलें में दोनों ही सरकारें पूरी तरह से नाकाम रही हैं। गुजरात सरकार की तरफ से भले ही यह बात कही जा रही हो कि सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाने से प्रभावित होने वाले गांवों के पुनर्वास का काम पूरा हो चुका है, पर हकीकत यह है कि अब तक 121.92 मीटर की बांध की ऊंचाई से प्रभावित होने वाले गांवों के पुनर्वास का काम भी ठीक तरह से पूरा नहीं हो पाया है। यही हाल मध्य प्रदेश में है। सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई और बढ़ाने से गुजरात के 19, महाराष्ट्र के 33 और मध्यप्रदेश के 193 गांव प्रभावित हो रहे हैं। जिससे कुल 51 हजार परिवार प्रभावित होंगे। इनमें 1100 परिवार महाराष्ट्र व गुजरात के हैं और बाकी मध्यप्रदेश के। एनसीए के इस फैसले से मध्य प्रदेश के नीमच, खरगोन, बड़वानी और खंडवा जिले के कई गांव, जंगल और उसमें खड़ी फसल की जलसमाधि हो जाएगी।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने केंद्र में राजग की सरकार बनाते समय यकीन दिलाया था कि वे विकास परियोजनाओं के बारे में फैसला करते समय, राज्यों की सहमति व सहभागिता का हमेशा ख्याल रखेंगे। लेकिन जब पहले ही बड़े फैसले लेने की बारी आई, तो यह वादा हवा-हवाई हो गया। सरदार सरोवर बांध की ऊंचाई बढ़ाने से देश के चार राज्य गुजरात, मध्य प्रदेश, राजस्थान और महाराष्ट्र सीधे-सीधे प्रभावित होंगे। लिहाजा फैसला लेने से पहले यह जरूरी था कि चारों राज्यों के मुख्यमंत्रियों की बैठक कर उन्हें विश्वास में लिया जाता? लेकिन इस मामले में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दूसरे राज्यों की सहमति और सहभागिता को ताक पर रखते हुए सिर्फ अपने गृह राज्य का फायदा देखा।
फैसले के वक्त असहमतियों के सुरों को एकदम नजरअंदाज कर दिया गया। एक लिहाज से देखें तो मोदी सरकार का यह फैसला देश के संघीय ढांचे की भावनाओं के खिलाफ है। फैसला लेते समय संघीय भावना की पूरी तरह से अनदेखी की गई। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री ने साफ-साफ कहा कि फैसला लेने से पूर्व उनसे पूछना, यकीन में लेना तो दूर की बात है, उन्हें सूचित तक नहीं किया गया। एक और राज्य मध्य प्रदेश की यदि बात करें तो जब निर्णय लिया गया, तब राज्य के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह विदेश दौरे पर थे। राज्य की विपक्षी पार्टी कांग्रेस का इल्जाम है कि यदि एनसीए ने राज्य सरकार से सहमति ले ली थी, तो यह सहमति भी सवालों के घेरे में है। राज्य की जनता और प्रतिपक्ष को यकीन में लिए बिना कैसे कोई सरकार अपनी सहमति दे सकती है?
इतने महत्वपूर्ण मसले पर फैसला करते समय सरकार को सर्वदलीय बैठक बुलानी चाहिए थी और सर्वसम्मति से लिए गए फैसले के बाद ही यह रजामंदी दी जाती। निर्णय करते समय सरकार को इस तथ्य पर खासतौर से विचार करना चाहिए था कि बांध की ऊंचाई बढ़ने के चलते जो इलाके डूब में आ जाएंगे, वहां के लाखों लोगों का पुनर्वास कैसे होगा?
बहुमुखीय विकास में बांधों के योगदान से इंकार नहीं किया जा सकता। बिजली उत्पादन और सिंचाई का रकबा बढ़ाए जाने की दृष्टि से बांध हमारे लिए बेहद उपयोगी हैं। बांध परियोजनाओं के आकार लेने से पहले, इन परियोजनाओं के चलते डूब से प्रभावित विस्थापितों के प्रति संवेदनापूर्ण कार्यवाही भी सरकार की जिम्मेदारियों में शामिल है। पुनर्वास नीति-नियम व अदालती फैसलों के मुताबिक हर हरिवार को सभी भौतिक व आर्थिक फायदे मिलें, इसकी सुनिश्चित सरकार को करना चाहिए। जमीन के बदले जमीन दी जाए, बांध विस्थापितों की यह पुरानी मांग रही है। यह मांग कहीं से नाजायज भी नहीं। जमीन ही किसान की आजीविका का प्रमुख स्त्रोत होती है। जमीन के ना होने से उसकी और परिवार की जिंदगी बेसहारा हो जाएगी। हमारी अदालतों ने भी विस्थापितों की इस वाजिब मांग का हमेशा समर्थन किया और समय-समय पर विस्थापितों के हक में फैसला दिया।
सुप्रीम कोर्ट का स्पष्ट निर्देश है कि बांध का जल स्तर बढ़ाए जाने से छह महीने पहले, प्रभावितों के पुनर्वास व जमीन के बदले जमीन देने की व्यवस्था की जाए। बावजूद इसके मुख्तलिफ सरकारें, अदालतों के आदेश-निर्देश की बराबर अवहेलना करती रही हैं। वह भी अवमानना की हद तक। सरदार सरोवर परियोजना के मामले में भी फैसला लेते समय एनसीए ने अदालत के आदेशों को पूरी तरह से ताक पर रख दिया है। इस परियोजना के डूब से प्रभावित हजारों लोगों के पुनर्वास का काम किए बिना, मोदी सरकार ने बांध को 138.68 मीटर ऊंचाई तक भरने का फैसला कर लिया। यह सोचे-विचारे बिना कि जलस्तर बढ़ने से डूब क्षेत्र में आ रहे, गांवों की क्या स्थिति होगी?
बांध की ऊंचाई बढ़ाने का इतना महत्वपूर्ण फैसला लेते समय होना यह चाहिए था कि केंद्र व राज्य दोनों सरकारें परियोजना से प्रभावित होने जा रही आबादी खासतौर पर जनजातीय आबादी की चिंताओं और सरोकारों को हल करने की कोशिश करतीं। जिसमें विस्थापन का सवाल एक प्रमुख सवाल है। लेकिन इस पहलू पर किसी भी सरकार ने गंभीरता से नहीं सोचा। पुनर्वास को लेकर तमाम शिकायतें पहले की तरह अब भी बरकरार हैं। शिकायतें मुआवजे, वैकल्पिक भूमि मिलने और यथोचित पुनर्वास की सुविधाओं से जुड़ी हुई हैं। जाहिर है कि इन शिकायतों का ठीक ढंग से निराकरण किए बिना, जो भी फैसला होगा वह जनविरोधी होगा। इस फैसले का नुकसान आखिरकार इन राज्यों की गरीब, वंचित आदिवासी आबादी को ही भुगतना गड़ेगा।
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Post By: pankajbagwan