सरदार सरोवर परियोजना के ऊपर यह कहावत कि जैसे-जैसे इलाज किया वैसे-वैसे मर्ज बढ़ता गया, पूरी तरह से खरी उतर रही है।
पहले इसके दुष्प्रभाव के बारे में मध्य प्रदेश ही सजग था और गुजरात के वासी मान रहे थे कि यह विरोध तमाम उन सुविधाओं से वंचित करा देने की साजिश है जो उन्हें बाँध पूरा होने से उपलब्ध हो पाएँगी। इसी वर्ष सितम्बर में विश्वकर्मा और नरेंद्र मोदी जयन्ती के सह-अवसर पर इस अधूरी परियोजना की पूर्णता की घोषणा ने जतला दिया कि यदि शासक चाहे तो दिन को रात और रात को दिन कहलवा सकता है। आज गुजरात में नर्मदा नदी जलग्रहण क्षेत्र में कमोबेश हाहाकार सा फैल गया है। सदानीरा नदी एक मौसमी नदी में बदल गई है। हजारों मछुआरों और लाखों किसानों की आजीविका पर संकट उतर आया है। समुद्र आगे बढ़ता आ रहा है और गुजरात सरकार अपनी अदूरदर्शिता छिपाने के लिये 60,000 करोड़ रुपये की कल्पासार योजना की आड़ ले रही है। वह यह स्वीकारोक्ति नहीं कर पा रही है कि यह विशाल धनराशि क्या वास्तव में सरदार सरोवर परियोजना की असफलता का दंड है, जिसे हम नागरिकों को अदा करना पड़ेगा। कागजों पर हासिल उपलब्धियों का बखान उत्तेजित करने वाली भाषा से कर समाज को बहलाया तो जा सकता है, लेकिन वास्तविकता तो नहीं बदली जा सकती।
वहीं दूसरी ओर मध्य प्रदेश की बात करें तो वहाँ पुनर्वास को लेकर बहुत ही निराशाजनक स्थितियाँ बरकरार हैं। सर्वोच्च न्यायालय के फरवरी 2017 के निर्णय के अनुसार पूरा डूब क्षेत्र 31 जुलाई 2017 तक खाली हो जाना था। उसके पहले पुनर्वास स्थलों को पुनर्वास नीति और न्यायाधिकरण, सर्वोच्च न्यायालय के सन 2010 के निर्णय की धारा 152,161,162 व 163 के अनुरूप सुसज्जित किया जाना भी जरूरी था। मगर सच्चाई यह है कि नवम्बर के तीसरे हफ्ते में भी सारे पुनर्वास स्थल पूरी तरह तैयार नहीं हैं। गौरतलब है कि प्रारम्भ में सभी पुनर्वास स्थलों के निर्माण की योजना थी। फिर इनकी संख्या 86 की गई और आखिर में कुल 83 पुनर्वास स्थल बने। आज की स्थिति यह है कि इनमें से एक भी, उन मानकों पर खरा नहीं उतरता है जिनके बारे में तमाम नीतियाँ और न्यायालिक फैसले इंगित करते हैं।
इसके बावजूद बाँध को पूरा घोषित कर 139 मीटर तक ऊँचे गेट लगा दिये गये और इस वर्ष इसे 130 मीटर की ऊँचाई तक भर भी दिया गया। 40 गाँव पूरी तरह से खाली हो गये और उनके पास सिर छुपाने की कोई जगह तक नहीं थी। आज जब बाँध का पानी उतरकर 126 मीटर पर आ गया है तो वे सारे गाँववासी अपने मूल गाँवों में लौट आये हैं और ध्वस्त आशियाने को ठीक-ठाक करके फिर से जीवन जीने की कोशिश कर रहे हैं। राजघाट स्थित मन्दिरों में पूजा अर्चना प्रारम्भ हो गई है और नर्मदा को पार करने वाले विशाल पुल पर यातायात प्रारम्भ हो गया है। उधर निसरपुर में भी जो 55 मकान इस वर्ष डूब में आये थे, उनमें से 35 मकानों और दुकानों में लोग फिर से बस गये हैं। इससे दो बातें स्पष्ट होती हैं, पहली यह कि जिन नये पुनर्वास स्थलों में इन्हें भेजा गया था वे रहने के लिये अनुकूल नहीं थे और दूसरा यह कि वहाँ रोजगार या आजीविका का भी कोई जरिया नहीं था एक अन्य तथ्य भी जो गौर करने लायक है, वह है कि मुख्यमंत्री ने जिस 5.80 लाख रुपये के अतिरिक्त मुआवजे की घोषणा की थी, उसकी सत्यता का उजागर हो जाना।
29 जुलाई, 2017 को प्रदेश के मुख्यमंत्री ने कहा था कि जो विस्थापित परिवार डूब क्षेत्र में रह रहे हैं, उन्हें एकमुश्त 5.80 लाख रुपये दिये जायेंगे। इसके तीसरे दिन यानी पहली अगस्त को जारी अधिसूचना में कहा गया भुगतान अब दो किश्तों में होगा। पहली किश्त तीन लाख रुपये की होगी और दूसरी किश्त 2,80,000 रुपये की। दूसरी किश्त का भुगतान अपना मकान तोड़ देने के बाद ही होगा। इस हिसाब से व्यक्ति पहले बेघर हो, भरी बरसात में खुले आसमान के नीचे रहे और उसके बाद ही दूसरी किश्त का भुगतान किया जायेगा। चालाकी सिर्फ दो किश्तों में भुगतान तक ही सीमित नहीं थी, क्योंकि इसमें पूर्व निर्धारित तमाम मदों को भी जोड़ दिया गया था। उदाहरण इसमें 20,000 रुपये भूखंड समतलीकरण अनुदान, 5000 रुपये परिवहन अनुदान, उत्पादक परिसम्पत्ति अनुदान 49,300 या 33,150 रुपये, अस्थाई व्यवस्था के लिये 60,000 रुपये, खाद्यान्न, पोषण आदि के लिये 20,000 रुपये, किराया 20,000 रुपये शामिल थे। इनका योग हुआ 1,74,000 रुपये। उपरोक्त राशि तो पूर्व निर्धारित शर्तों के हिसाब से ही देय थी। इनका नये मुआवजे में विलीनीकरण कर और बलात मकान तोड़ने को मजबूर करना सरकार की मंशा पर सन्देह पैदा करते हैं।
पुनर्वास स्थलों की वास्तविकता को देखें। इनमें आज तक ठीक प्रकार व गुणवत्ता की सड़कें भी नहीं तैयार हुई हैं। पानी की निकासी के लिये पुलिया आदि का निर्माण भी स्तरीय नहीं है। पीने के पानी की यथोचित व्यवस्था नहीं है। किन्हीं पुनर्वास स्थलों पर तो केवल दो प्लास्टिक की टंकियाँ रखी हैं, जिनमें आखिरी बार सन 2015 में पानी भरा गया था। पशुओं के लिये चरने के स्थान का प्रावधान नहीं है। उनके लिये पीने के पानी की व्यवस्था नहीं है। इन पुनर्वास स्थलों में श्मशान तक नहीं है। प्रावधान होने के बावजूद व्यवस्था न होने का कारण पूछने पर प्राधिकरण से जवाब मिला, थोड़ी ही दूरी पर नर्मदा नदी है, जहाँ पर जाकर अन्तिम संस्कार किया जा सकता है। वैसे कब्रिस्तान को लेकर अभी शासन मौन है। अधूरे कामों की फेहरिस्त में आगे है खलिहान के लिये स्थान का प्रावधन नहीं है।
प्राधिकरण का जवाब है हमने इतने बड़े-बड़े भूखंड दिये तो हैं। उसमें व्यवस्था करें। अनेक पुनर्वास स्थलों पर पंचायत या सामुदायिक एवं सांस्कृतिक भवनों का निर्माण नहीं हुआ है। इसका भी जवाब तैयार है। जवाब है, पुनर्वास स्थल मूल गाँव से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर है इसलिये अलग से बनाने की आवश्यकता नहीं है। इनके पुनर्वास बस्तियों में विद्यालय नहीं है। बच्चों के खेलने के बगीचे नहीं हैं। धार्मिक स्थल नहीं है। इसके अलावा कहीं बिजली के खम्भे हैं तो तार नहीं हैं। हर पुनर्वास स्थल के आस-पास 300 एकड़ भूमि खुली छोड़नी थी। वह नहीं है। प्रत्येक गाँव का अपना एक तालाब होना अनिवार्य था जो नहीं है। आज शायद किसी भी पुनर्वास स्थल पर तालाब तैयार नहीं किये गये हैं। इन सब कमियों के बावजूद मध्य प्रदेश सरकार सभी बाँध प्रभावितों को जोर जबरदस्ती से इन अधकचरे पुनर्वास स्थलों पर फेंक देना चाहती है। वह तो प्रभावितों का साहस व नर्मदा बचाओ आन्दोलन व उसकी वरिष्ठ कार्यकर्ता मेधा पाटकर का साहस, दूर-दृष्टि व समर्पण ही है कि इतने अत्याचारों के बावजूद वे डूब क्षेत्र में डटे हुए हैं।
एक और विरोधाभास पर भी गौर करना आवश्यक है। सरकार का मानना है कि डूब से मात्र 18,000 परिवारों को ही विस्थापित होना पड़ेगा। वास्तविकता यह है कि इससे कहीं अधिक यानी 40,000 से ज्यादा परिवार इन डूब क्षेत्रों में रह रहे हैं। दूर-दराज पहाड़ी या आदिवासी क्षेत्रों की बात तो छोड़ दें। जिला मुख्यालय बड़वानी के नजदीक स्थित ‘पिछौड़ी’ गाँव का उदाहरण लें। इस गाँव में कुल 742 परिवार हैं। (वैसे तो आँकड़ा 900 परिवार तक जाता है।) परन्तु इनमें से कुल 310 के लिये भूखंड का आवंटन हुआ है और वह भी कुल सात अलग-अलग पुनर्वास स्थलों पर। जबकि नीति के अनुसार इन्हें एक साथ एक ही स्थान पर बसाया जाना चाहिए था। इस एक गाँव के आँकड़े बता रहे हैं कि विस्थापितों की संख्या को लेकर कितनी अनियमितताएँ बरती गई हैं।
कुछ ही हफ्तों में गुजरात के चुनाव बीत जाएँगे। उधर मध्य प्रदेश के विधानसभा चुनाव नजदीक आ जायेंगे और जुबानी जमा खर्च चलता रहेगा। आवश्यकता इस बात की है कि अब सर्वोच्च न्यायालय अपने निर्णय की अवहेलना को ध्यान में रखते हुए इस मामले का संज्ञान लेकर इसे सुने और न्याय करे।
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