नदी-भक्ति हम भारतीयों की असाधारण विशेषता है। नदियों को हम ‘माता’ कहते हैं। इन नदियों से ही हमारी संस्कृतियों का उद्गम और विकास हुआ है। नदी देखते ही उसमें स्नान करना, उसके जल का पान करना और हो सके तो उसके किनारे संस्कृति-संवर्धन के लिए दान देना, ये तीनों प्रवृत्तियां नदी-दर्शन के अंग हैं। स्नान, पान और दान के द्वारा ही नदी-पूजा होती है। कई नदी-भक्त पुरोहितों की मदद लेकर देवी की शास्त्रोक्त पूजा करते हैं। उसमें ‘नदी का ही पानी लेकर नदी को अभिषेक करना’ यह क्रिया भी आ जाती है।
ये नदियां या तो किसी पहाड़ से निकलती हैं या किसी सरोवर से निकलती हैं। दूसरे प्रकार की नदियों को ‘सरोजा’ कहना चाहिए। तब पहले प्रकार की नदियों को ‘गिरिजा’ ही कहना पड़ेगा। छोटी नदियां बड़ी नदियों को अपना जल देकर उनमें समा जाती हैं और बड़ी नदियां वह सारा विशाल जल समुद्र को अर्पण करके कृतार्थ होती हैं। इसीलिए समुद्र को अथवा सागर को ‘नदीपति’ कहने का रिवाज है।
हम जैसे नदी-भक्त हैं, वैसे ही पहाड़ों के पूजक भी हैं। हमारे कई उत्तमोत्तम तीरथ पहाड़ों के आश्रय में बसे हुए हैं और जब किसी नदी का उद्गम भी किसी पहाड़ में से होता है तब तो पूछना ही क्या! वह स्थान पवित्रतम गिना जाता है।
ऐसे पहाड़ों के, ऐसी नदियों के, ऐसे सरोवरों के और ऐसे समुद्रों के नाम कण्ठ करना और पूजा के समय उनका पाठ करना, यह भी बड़ा पुण्य माना गया है।
जब ऐसे स्थानों के नाम हम कण्ठ करना चाहते हैं तब उनकी संख्या भी हम केवल भक्तिभाव से निश्चित कर देते हैं। एक, तीन, पांच सात, नौ, दस बारह, बीस, एक सौ आठ, हजार ये सब हमारे अत्यन्त पुण्यात्मक पवित्र आंकड़े हैं।
हमारी सारी पृथ्वी को हम ‘सप्तखंण्डा’ कहते हैं। ‘सप्तद्वीपा वसुन्धरा’ ये शब्द धर्म-साहित्य में आपको जगह-जगह मिलेंगे।
पृथ्वी के खण्ड अगर सात हैं तो उनको घेरनेवाले समुद्र भी सात ही होने चाहिए- सप्त सागर। फिर तो भारत की प्रधान नदियां भी सात होनी चाहिए। भारत में नदियां भले ही असंख्य हों, लेकिन हम सात नदियों की ही प्रार्थना करेंगे कि हमारे पूजा के कलश में अपना-अपना पानी लेकर उपस्थित रहो, भारत में तीर्थ-क्षेत्र असंख्य हैं, किन्तु हम लोग उनमें से कण्ठ करने के लिए सात ही नाम पसन्द करेंगे और फिर कहेंगे, बाकी के सब तीर्थ-स्थान इन्हीं के पेट में समा जाते हैं।
महीने के दिन निश्चित करने का भार सूर्य और चंद्र ने अपने सिर पर ले लिया और दोनों ने मिलकर हमारा द्वादशमासिक वर्ष भी तैयार किया। हमने एक साल के बारह महीने तुरन्त मान्य किये। द्वादश आंकड़ा है ही पवित्र। फिर महीने के दिन हो गए तीस, लेकिन इसमें दिन का हिसाब थोड़ा-थोड़ा कमोबेश करके अमावस्था और पूर्णिमा के दिन संभालने ही पड़ते हैं। एक साल के बारह महीने और हरेक महीने के दो पक्ष, हमने तय नहीं किये। यह व्यवस्था कुदरत ने ही हमारे लिए तय कर दी। अब पक्ष के दो विभाग करना हमारे हाथ में था। हम लोगों ने सूर्य-चंद्र के साथ पांच ग्रहों को पसन्द करके महीने के चार ‘सप्ताह’ बना दिए।
हम पूजा में खाने-पीने की चीजें चाहे जितनी रखते होंगे, लेकिन उसके लिए सात धान्यों के ही नाम पसन्द करेंगे।
हम जानते हैं कि नदियों को जन्म देने वाले बड़े-बड़े आठ पहाड़ हैं। ऐसे पहाड़ों को हम ‘कुलपर्वत’ कहते हैं। अष्टकुल पर्वत को मान्य किए बिना चारा ही नहीं था, तो भी सप्तद्वीप, सप्तसरिता, सप्तसागर (उनकी ‘सप्तार्णव’ भी कहते हैं) और सप्तपाताल के साथ पहाड़ों को भी सप्तपर्वत बनना ही पड़ा। सप्तभुवन, सप्तलोक और सप्तपाताल के साथ अपने सूर्य को हमने सात घोड़े भी दिये। हमारी देवियां भी सात। यह तो ठीक, लेकिन गीता, रामायण, भागवत आदि हमारे राष्ट्रीय ग्रंथों का सार भी हमने सात-सात श्लोकों में रख दिया। सप्तश्लोकी गीता, सप्तश्लोकी रामायण और सप्तश्लोकी भागवत कण्ठ करना बड़ा आसान होता है। आसेतु-हिमाचल भारत में तीर्थ की नगरियां असंख्य हैं। ऐसी अनेकानेक नगरियों के माहात्म्य भी लिखे गए हैं। तो भी हम कण्ठ करेंगेः
अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवन्तिका।
पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः।।
(माया याने आज का हरिद्वार, पुरी याने जगन्नाथपुरी नहीं, लेकिन द्वारावती ही सातवीं पुरी है।)
भारतीय सास्कृतिक परम्परा के प्रति हार्दिक निष्ठा अर्पण करके हमने भारतीय नदियों के अपने इस स्मरण को और उनके उपस्थान को ‘सप्तसरिता’ नाम दिया है। बचपन में जब हमने पिताजी के चरणों में बैठकर भगवान की पूजा विधि के मंत्र सीख लिए, तब सात नदियों की पूजा के कलश में आकर बैठने की प्रार्थना भी सीख ली थीः
गंगे! च यमुने! चैव गोदावरी! सरस्वति!
नर्मदे! सिन्धु! कावेरि! जलेSस्मिन् सन्निधिं कुरु।।
तब नदी भक्ति के हमारे इस नये ढंग के स्रोत को ‘सप्तसरिता’ नाम दिये बिना नदियों को संतोष कैसे हो सकता है?
भारत की नदियों में कृष्णा नदी कोई छोटी नदी नहीं है। उसकी लंबाई उसके पानी की राशि और उसका सांस्कृतिक इतिहास भारत की किसी भी नदी से कम महत्त्व का नहीं है। मेरा जन्म इसी नदी के किनारे हुआ। फिर भी ऊपर की सूची में कृष्णा का नाम नहीं है और जिसका रूप और स्थान आजकल कहीं दीख नहीं पड़ता, ऐसी सरस्वती नदी का नाम ऊपर की सूची में मध्यस्थान पर है।
बचपन और युवावस्था में भी जिसके किनारे मैं खेलता रहा और खेती का परिचय पाने के लिए हल चलाने की मेरी क्रीड़ा भी जिसने देखी थी, ऐसे छोटे जलप्रवाह को भले नदी का नाम न दो। भारत की सौ-दो-सौ नदियों के नामों में भी जिसको स्थान नहीं मिलेगा, ऐसी छोटी मार्कण्डी नदी को याद किए बिना मेरा काम कैसे चलेगा? उसको याद करते, प्रारंभ ही मैंने कहा, “सब नदियों को मैं अपनी माता समझता हूं और मैं उनकी भक्ति भी करता हूं लेकिन मार्कण्डी को माता नहीं कहूंगा, सखी ही कहूंगा। वह चाहे जितनी छोटी , नगण्य हो, मेरी ओर से किये हुए उपस्थान में उसको स्थान होना ही चाहिए। नदियों की फेहरिस्त में नहीं,तो मेरी इस प्रस्तावना में ही, उसे आदर और प्रेम का स्थान दूंगा।”
यहां की कुल नदियों की संख्या बारह हो या पंद्रह, इस किताब का नाम तो ‘सप्तसरिता’ ही रहेगा और अपने सब नदी-भक्त पूर्वजों की दलील का उपयोग करके कहूंगा कि भारत की सब नदियां इन सातों के भिन्न-भिन्न अवतार ही हैं। सात की संख्या तो कायम ही रहेगी। एक दफे तो विचार हुआ था कि संख्या सत्रह करके पुस्तक का नाम रखूं- ‘सप्तदसा सरिता’। लेकिन सनातन परम्परा का मैं भक्त, मेरा हृदय ‘सप्तसरिता’ का नाम छोड़ने को तैयार नहीं हुआ, सो नहीं ही हुआ।
सप्तसरिता की इस आवृत्ति में मेरी भारत-भक्ति ने एक नये विचार का स्वीकार किया है। ये नदियां जब पहाड़ की लडकियां हैं तो उनके उपस्थान में उनके पिता को भी श्रद्धांजलि मिलनी ही चाहिए।
पुराणों में अष्टकुल पर्वतों की नामावली और उनकी कन्याओं की फेहरिस्त भी दी है। उनका उल्लेख परिशिष्ट में देकर प्रधानतया (1) हिमालय, (2) विंध्य, सतपुड़ा और (3) सह्याद्रि, इन तीन पहाड़ों को ही यहां स्थान दूंगा। (हालांकि महात्मा गांधी का पवित्र सहवास प्राप्त करने के लिए जिस साबरमती नदी के किनारे मैं वर्षों तक रहा, उसके उद्गम का पहाड़ पारियात्न (या अरावली) का नाम-निर्देश किए बिना चारा ही नहीं।
यह कोई भूगोल की किताब नहीं है, न कोई भारत की नदियों और भारत के पहाड़ों के उपलक्ष्य में लिखी गई निबन्धमाला है। यह तो सिर्फ अपने देश की प्रतिनिधि रूप लोक-माताओं को भक्तिपूर्वक किया हुआ एक तरह का उपस्थान-मात्र है और इन नदियों को संतोष हो सके, इस हेतु उनके पिता स्वरूप भारत के प्रधान तीन-चार पहाड़ों का भक्तिपूर्ण उल्लेख मात्र है।
हमारे पूर्वजों की नदी भक्ति आज भी क्षीण नहीं हुई है। आज भी यात्रियों की छोटी-बड़ी मानव-नदियां अपने-अपने स्थान से इन नदियों के उद्गम, संगम और समुद्र मिलन की ओर बह-बहकर उसी प्राचीन भक्ति के उतने ही ताजे, सजीव और जागृत होने का प्रमाण दे रही हैं।
हम हृदय से चाहते हैं कि हरेक भक्त-हृदय इन भक्ति के उद्गारों को सुनकर प्रसन्न हो और देश के युवकों में अपनी लोकमाताओं का दुग्धपान करके अपनी समृद्ध संस्कृति को, और भी पुष्ट करने की अभिलाषा जाग उठे।
सर्वधर्मा एकादशी
13.04.1973
सरिता-पूजक काका कालेलकर के भक्तिपूर्ण वंदेमातरम्
नोटः ‘सप्त सरिता’ के लेखों का समावेश ‘जीवन लीला’ में कर लिया है- संपादक मंडल)
ये नदियां या तो किसी पहाड़ से निकलती हैं या किसी सरोवर से निकलती हैं। दूसरे प्रकार की नदियों को ‘सरोजा’ कहना चाहिए। तब पहले प्रकार की नदियों को ‘गिरिजा’ ही कहना पड़ेगा। छोटी नदियां बड़ी नदियों को अपना जल देकर उनमें समा जाती हैं और बड़ी नदियां वह सारा विशाल जल समुद्र को अर्पण करके कृतार्थ होती हैं। इसीलिए समुद्र को अथवा सागर को ‘नदीपति’ कहने का रिवाज है।
हम जैसे नदी-भक्त हैं, वैसे ही पहाड़ों के पूजक भी हैं। हमारे कई उत्तमोत्तम तीरथ पहाड़ों के आश्रय में बसे हुए हैं और जब किसी नदी का उद्गम भी किसी पहाड़ में से होता है तब तो पूछना ही क्या! वह स्थान पवित्रतम गिना जाता है।
ऐसे पहाड़ों के, ऐसी नदियों के, ऐसे सरोवरों के और ऐसे समुद्रों के नाम कण्ठ करना और पूजा के समय उनका पाठ करना, यह भी बड़ा पुण्य माना गया है।
जब ऐसे स्थानों के नाम हम कण्ठ करना चाहते हैं तब उनकी संख्या भी हम केवल भक्तिभाव से निश्चित कर देते हैं। एक, तीन, पांच सात, नौ, दस बारह, बीस, एक सौ आठ, हजार ये सब हमारे अत्यन्त पुण्यात्मक पवित्र आंकड़े हैं।
हमारी सारी पृथ्वी को हम ‘सप्तखंण्डा’ कहते हैं। ‘सप्तद्वीपा वसुन्धरा’ ये शब्द धर्म-साहित्य में आपको जगह-जगह मिलेंगे।
पृथ्वी के खण्ड अगर सात हैं तो उनको घेरनेवाले समुद्र भी सात ही होने चाहिए- सप्त सागर। फिर तो भारत की प्रधान नदियां भी सात होनी चाहिए। भारत में नदियां भले ही असंख्य हों, लेकिन हम सात नदियों की ही प्रार्थना करेंगे कि हमारे पूजा के कलश में अपना-अपना पानी लेकर उपस्थित रहो, भारत में तीर्थ-क्षेत्र असंख्य हैं, किन्तु हम लोग उनमें से कण्ठ करने के लिए सात ही नाम पसन्द करेंगे और फिर कहेंगे, बाकी के सब तीर्थ-स्थान इन्हीं के पेट में समा जाते हैं।
महीने के दिन निश्चित करने का भार सूर्य और चंद्र ने अपने सिर पर ले लिया और दोनों ने मिलकर हमारा द्वादशमासिक वर्ष भी तैयार किया। हमने एक साल के बारह महीने तुरन्त मान्य किये। द्वादश आंकड़ा है ही पवित्र। फिर महीने के दिन हो गए तीस, लेकिन इसमें दिन का हिसाब थोड़ा-थोड़ा कमोबेश करके अमावस्था और पूर्णिमा के दिन संभालने ही पड़ते हैं। एक साल के बारह महीने और हरेक महीने के दो पक्ष, हमने तय नहीं किये। यह व्यवस्था कुदरत ने ही हमारे लिए तय कर दी। अब पक्ष के दो विभाग करना हमारे हाथ में था। हम लोगों ने सूर्य-चंद्र के साथ पांच ग्रहों को पसन्द करके महीने के चार ‘सप्ताह’ बना दिए।
हम पूजा में खाने-पीने की चीजें चाहे जितनी रखते होंगे, लेकिन उसके लिए सात धान्यों के ही नाम पसन्द करेंगे।
हम जानते हैं कि नदियों को जन्म देने वाले बड़े-बड़े आठ पहाड़ हैं। ऐसे पहाड़ों को हम ‘कुलपर्वत’ कहते हैं। अष्टकुल पर्वत को मान्य किए बिना चारा ही नहीं था, तो भी सप्तद्वीप, सप्तसरिता, सप्तसागर (उनकी ‘सप्तार्णव’ भी कहते हैं) और सप्तपाताल के साथ पहाड़ों को भी सप्तपर्वत बनना ही पड़ा। सप्तभुवन, सप्तलोक और सप्तपाताल के साथ अपने सूर्य को हमने सात घोड़े भी दिये। हमारी देवियां भी सात। यह तो ठीक, लेकिन गीता, रामायण, भागवत आदि हमारे राष्ट्रीय ग्रंथों का सार भी हमने सात-सात श्लोकों में रख दिया। सप्तश्लोकी गीता, सप्तश्लोकी रामायण और सप्तश्लोकी भागवत कण्ठ करना बड़ा आसान होता है। आसेतु-हिमाचल भारत में तीर्थ की नगरियां असंख्य हैं। ऐसी अनेकानेक नगरियों के माहात्म्य भी लिखे गए हैं। तो भी हम कण्ठ करेंगेः
अयोध्या मथुरा माया काशी कांची अवन्तिका।
पुरी द्वारावती चैव सप्तैता मोक्षदायिकाः।।
(माया याने आज का हरिद्वार, पुरी याने जगन्नाथपुरी नहीं, लेकिन द्वारावती ही सातवीं पुरी है।)
भारतीय सास्कृतिक परम्परा के प्रति हार्दिक निष्ठा अर्पण करके हमने भारतीय नदियों के अपने इस स्मरण को और उनके उपस्थान को ‘सप्तसरिता’ नाम दिया है। बचपन में जब हमने पिताजी के चरणों में बैठकर भगवान की पूजा विधि के मंत्र सीख लिए, तब सात नदियों की पूजा के कलश में आकर बैठने की प्रार्थना भी सीख ली थीः
गंगे! च यमुने! चैव गोदावरी! सरस्वति!
नर्मदे! सिन्धु! कावेरि! जलेSस्मिन् सन्निधिं कुरु।।
तब नदी भक्ति के हमारे इस नये ढंग के स्रोत को ‘सप्तसरिता’ नाम दिये बिना नदियों को संतोष कैसे हो सकता है?
भारत की नदियों में कृष्णा नदी कोई छोटी नदी नहीं है। उसकी लंबाई उसके पानी की राशि और उसका सांस्कृतिक इतिहास भारत की किसी भी नदी से कम महत्त्व का नहीं है। मेरा जन्म इसी नदी के किनारे हुआ। फिर भी ऊपर की सूची में कृष्णा का नाम नहीं है और जिसका रूप और स्थान आजकल कहीं दीख नहीं पड़ता, ऐसी सरस्वती नदी का नाम ऊपर की सूची में मध्यस्थान पर है।
बचपन और युवावस्था में भी जिसके किनारे मैं खेलता रहा और खेती का परिचय पाने के लिए हल चलाने की मेरी क्रीड़ा भी जिसने देखी थी, ऐसे छोटे जलप्रवाह को भले नदी का नाम न दो। भारत की सौ-दो-सौ नदियों के नामों में भी जिसको स्थान नहीं मिलेगा, ऐसी छोटी मार्कण्डी नदी को याद किए बिना मेरा काम कैसे चलेगा? उसको याद करते, प्रारंभ ही मैंने कहा, “सब नदियों को मैं अपनी माता समझता हूं और मैं उनकी भक्ति भी करता हूं लेकिन मार्कण्डी को माता नहीं कहूंगा, सखी ही कहूंगा। वह चाहे जितनी छोटी , नगण्य हो, मेरी ओर से किये हुए उपस्थान में उसको स्थान होना ही चाहिए। नदियों की फेहरिस्त में नहीं,तो मेरी इस प्रस्तावना में ही, उसे आदर और प्रेम का स्थान दूंगा।”
यहां की कुल नदियों की संख्या बारह हो या पंद्रह, इस किताब का नाम तो ‘सप्तसरिता’ ही रहेगा और अपने सब नदी-भक्त पूर्वजों की दलील का उपयोग करके कहूंगा कि भारत की सब नदियां इन सातों के भिन्न-भिन्न अवतार ही हैं। सात की संख्या तो कायम ही रहेगी। एक दफे तो विचार हुआ था कि संख्या सत्रह करके पुस्तक का नाम रखूं- ‘सप्तदसा सरिता’। लेकिन सनातन परम्परा का मैं भक्त, मेरा हृदय ‘सप्तसरिता’ का नाम छोड़ने को तैयार नहीं हुआ, सो नहीं ही हुआ।
सप्तसरिता की इस आवृत्ति में मेरी भारत-भक्ति ने एक नये विचार का स्वीकार किया है। ये नदियां जब पहाड़ की लडकियां हैं तो उनके उपस्थान में उनके पिता को भी श्रद्धांजलि मिलनी ही चाहिए।
पुराणों में अष्टकुल पर्वतों की नामावली और उनकी कन्याओं की फेहरिस्त भी दी है। उनका उल्लेख परिशिष्ट में देकर प्रधानतया (1) हिमालय, (2) विंध्य, सतपुड़ा और (3) सह्याद्रि, इन तीन पहाड़ों को ही यहां स्थान दूंगा। (हालांकि महात्मा गांधी का पवित्र सहवास प्राप्त करने के लिए जिस साबरमती नदी के किनारे मैं वर्षों तक रहा, उसके उद्गम का पहाड़ पारियात्न (या अरावली) का नाम-निर्देश किए बिना चारा ही नहीं।
यह कोई भूगोल की किताब नहीं है, न कोई भारत की नदियों और भारत के पहाड़ों के उपलक्ष्य में लिखी गई निबन्धमाला है। यह तो सिर्फ अपने देश की प्रतिनिधि रूप लोक-माताओं को भक्तिपूर्वक किया हुआ एक तरह का उपस्थान-मात्र है और इन नदियों को संतोष हो सके, इस हेतु उनके पिता स्वरूप भारत के प्रधान तीन-चार पहाड़ों का भक्तिपूर्ण उल्लेख मात्र है।
हमारे पूर्वजों की नदी भक्ति आज भी क्षीण नहीं हुई है। आज भी यात्रियों की छोटी-बड़ी मानव-नदियां अपने-अपने स्थान से इन नदियों के उद्गम, संगम और समुद्र मिलन की ओर बह-बहकर उसी प्राचीन भक्ति के उतने ही ताजे, सजीव और जागृत होने का प्रमाण दे रही हैं।
हम हृदय से चाहते हैं कि हरेक भक्त-हृदय इन भक्ति के उद्गारों को सुनकर प्रसन्न हो और देश के युवकों में अपनी लोकमाताओं का दुग्धपान करके अपनी समृद्ध संस्कृति को, और भी पुष्ट करने की अभिलाषा जाग उठे।
सर्वधर्मा एकादशी
13.04.1973
सरिता-पूजक काका कालेलकर के भक्तिपूर्ण वंदेमातरम्
नोटः ‘सप्त सरिता’ के लेखों का समावेश ‘जीवन लीला’ में कर लिया है- संपादक मंडल)
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