सोंधवाड़ी गीत में पणिहारिन

Water
Water

आदिकाल से भारत में पनिहारिन का महत्व चला आ रहा है। यदि कोई पनिहारिन पानी से भरा बेवड़ा लेकर कार्य पर जाते हुए व्यक्ति के सामने आ जाए तो शुभ माना जाता है।

बारमासा लोक गीत में बारह महीने का उल्लेख रहता है। पर कतिपय बारहमासा में महत्वपूर्ण महीनों को ही लिया जाता है। लोकगीत ग्रामीण जीवन की अभिव्यक्ति हैं, जिसमें उनके व्यस्त दैनिक जीवन के दर्शन होते हैं। इन गीतों में व्याकरण दोष होना स्वाभाविक है। किन्तु भाषा और भाव की दृष्टि से गरिमामय होते हैं। किसी-किसी लोक गीत की भाषा इतनी क्लिष्ट होती है कि उसके भावों को समझना मुश्किल हो जाता है। इसके अतिरिक्त संगीत की दृष्टि से भी इन्हें लयबद्ध तरीके से गाया भी जा सकता है। संगीत तत्व इनमें समाहित रहता है।

लोकगीतों में प्राचीन संस्कृति का समन्वय बखूबी देखने को मिलता है कि भूतकाल में किस प्रकार अपनी दिनचर्या प्रारंभ करते थे। प्रस्तुत है- बाहरमासा पानिहारिन लोक गीत-

आज घुराऊँ धुधलो ऐ पणिहारी हे लो।
मोटो ड़ी छाँटा रो बरसे मेह, बालाजी ओ।।1।।

किणजी खुणाया नाड़ा नाड़ियाँए पणिहारी हे लो।
किणजी खुणायो ए तलाब बाला ओ।।2।।


सासु जी खुणायां से नाड़ा नाड़ियाँ ऐ पणिहारी हे लो।
सुसरो जी खुदायो ऐ तालाब बालाजी ओ।।3।।

किणसुं बंधावो ऐ नाड़ा नाड़ियां ऐ............
किणसुं बंधावो ऐ तलाब बालाजी ओ।।4।।

नारेले बंधावो ऐ नाड़ा नाड़िया से पणिहारी हे लो।
मोतीड़े बंधावो समद तलाब बालाजी ओ।।5।।

साता रे सहेल्यां रे झूलरो ऐ लो, पणिहारी हे लो
पाणिड़े ने गई रे तलाब बालाजी ओ।।6।।

घड़ो ने डूबे बेवड़ो ऐ पणिहारी हे लो।
इंढाणी रे तिर तिर जाय बालाजी ओ।।7।।

ओरा रे तो काजल टीकियाँ ऐ, पणिहारी हे लो।
थारोड़ा है फिका सा नेन बाला जी ओ।।8।।

ओरां रे पीवजी घर बसे लजा ओठी हे लो।
म्हारोड़ा बसै परदेस, बालाजी ओ।।9।।

सातो रे सहेल्याँ पाणी भर चाली रे पणिहारी हे लो।
पणिहारी रयोड़ी तलाब बालाजी ओ।।10।।

घड़ो तो पटक दैनी ताल में, पणिहारी हे लो।
चाले नी ओठीड़े री लार, बाला जी ओ ।।11।।

बेवते ओठी ने हेलो मारियो ए लंजा ओठी हे लो
घड़इयो उखणावतो जाव बाला जी ओ।।12।।

बालूं ने जालूँ थारी जीभड़ी ऐ लंजा ओठी हे लो।
डस जो थनै कालो नाग बालाजी ओ।।13।।

चालें तो घड़ाय दो तने बाडलो ऐ पणिहारी हे लो।
चाले तो घड़ावो नवसर हार बालाजी ओ।।14।।

एड़ा तो बाडलिया म्हारे घरे घणा रे लंजा ओठी हे लो।
खूंटीई ये रे टांग्या नवसर हार, बालाजी ओ।।15।।

हाले तो चीरावो थारे चुड़लो से पणिहारी हे लो।
हाले तो ओढ़ावा दखणीरोचीर, बालाजी ओ।।16।।

चूड़लो चीरा से घण को साहिबो रे लंजा ओठी हे लो।
ओढ़णियों ओड़ा से माँ जाओ वीर, बालाजी ओ।।17।।

के हेरे सासू साबकी ए पणिहारी हे लो।
के हेरे थारे पीह ररियो-परदेस बालाजी जी।।18।।

नहीं रे सासू म्हारे साबकी रे, लंजा ओठी हे लो।
नहीं रे म्हारे पीहरियो परदेस, बालाजी ओ।।19।।

घड़ो तो भरने पाछी वाली ए पणिहारी हे लो।
आवोड़ी का फल सुंवार, बालाजी ओ।।20।।

घड़ो तो पटकदाँ ऊभी चोक में रे, म्हारा सासू हे लो।
वेगो रे म्हारो घड़इयो उमराव बालाजी ओ।।21।।

किण तने मोसो मारियो ऐ म्हारी बऊवड़ जी है लो।
किण तने दीनी गाल ऐ, बाला जी ओ।।22।।

एब ओठी म्हाने इस्यो मिल्यो, महारा सासू जी हे लो।
पूछी म्हारे मनड़े री बात बालाजी ओ।।23।।

किण जी सरीखी ओठी फूठरो-ऐ-म्हारी बऊवड़ जी हे लो।
किण जी री आवे अणेहार, बालाजी ओ।।24।।

देवरजी मरीरव खोठी फुठरो ऐ, म्हारा सासू जी हे लो।
किण नणदल बाई आवे अणेहार बाला जी ओ।।25।।

थे तो म्हारा बऊजी भोला घणा भोला बऊजी हे लो।
वे तो है थारा भरथार, बाला जी ओ।।26।।

उक्त बारहमासा का भाव सारांश इस प्रकार है कि गीत की नायिका का विवाह बाल्याकाल में हो जाने से युवावस्था होने तक वह उसे लेने नहीं आया और परदेश चला जाता है। उसे गये बहुत वर्ष व्यतीत होने पर भी नहीं आया। वर्षा ऋतु का समय है, रिमझिम-रिमझिम गाते से पानी बरस रहा है। ग्राम की नव वधुएँ नाना प्रकार के श्रृंगार कर मन में फूली नहीं समा रही है। एक युवा राही सरोवर की पाल पर खड़ा हुआ नायिका को उदास देखकर प्रश्न करता है कि हे पनिहारिन!अन्य नव वधुओं के नयनों में काजल की रेखा चमक रही है, परन्तु तुम्हारे नयन फिके क्यों हैं। नवें चरण में पनिहारिन उत्तर देती है कि हे युवक पथिक! अन्य नव वधुओं के पति तो उनके साथ रहते हैं किन्तु मेरे पति तो परदेश में है।

वह युवक गीत की नायिका का पति ही था। बहुत वर्षों के वियोग ने तथा नाबालिग आयु में विवाह हो जाने से नायिका को अपने जीवन साथी (पति) को अपरिचित सा कर दिया था। वह पति को पहचान न सकी। ग्यारहवें चरण में नायिका को ज्ञात होता है। कि पथिक नायिका को संबोधित करके कहता है। कि हे पनिहारिन! घड़े यहीं सरोवर के तट पर छोड़कर मेरे साथ हो जा। परन्तु नायिका पतिवर्त धर्म से डिगने वाली नहीं थी। पथिक के इन शब्दों ने उसके हृदय में कांति पैदा कर दी। तेरहवें चरण में वह साहसपूर्वक पथिक को उत्तर देती है कि हे पथिक! झुलसती हुई बालू के समान तेरी जीभ झुलस जाये और तुम्हें काला नाग डस लेवे। पति जो पथिक के रूप में उससे वार्तालाप कर रहा था और उसको नाना प्रकार के प्रलोभन दे रहा था, मानों वह उसकी परिक्षा ले रहा हो। पथिक उसको प्रलोभन देते हुए कहता है कि हे पनिहारिन! यदि तू मेरे साथ चलेगी तो तुझे ठुस्सी और नवलखा हार बनवा दूँगा। नायिका को मूल्यवान वस्त्रों और चूड़ों का भी लालच दिया गया है, परन्तु नायिका इन प्रलोभनों में आने वाली न थी। अर्थात फँसने वाली न थी। उसने पन्द्रहवें चरण में उत्तर दिया कि हे युवक पथिक! ऐसे मूल्यवान आभूषणों एवं वस्त्र मेरे घर में खूँटियों पर टँगे रहते हैं।


नायिका जैसे-तैसे पानी भरकर अपने घर आयी। बहू का क्रोधपूर्ण चेहरा देखकर सास बाइसवें चरण में उससे प्रश्न करती है कि हे प्यारी बहू! क्या आज तुम्हें किसी ने गाली दी अथवा ताना मारा। तेइसवें चरण में बहू उत्तर देती है कि हे सास जी! आज मुझे एक ऐसा युवक पथिक मिला, जिसने मेरे मन की सारी बांते पूछ ली। सास को तो पूर्व से ही ज्ञात था कि वह उसके पतिदेव ही हैं। परन्तु चौबीसवें चरण द्वारा वह बहू से पूछती है कि तू क्या उस पथिक का रूप रंग बता सकती है। पच्चीसवें चरण द्वारा वह उत्तर देती है कि पूजनीय सास जी! उस पथिक का रूप रंग देवरजी के रूप रंग के समान ही प्रतीत होता था। सास अपनी बहू के भोलेपन पर मुस्कुराई और अंतिम चरण छब्बीसवें में बहू से कहती है कि हे भोली बहू! वास्तव में तू बहुत भोली है, वे तो तेरे ही पति देव थे। यह सुनकर नायिका का हृदय गदगद् हो जाता है। उक्त बारहामासा में हमें प्राचीन संस्कृति के दर्शन होते हैं कि प्राचीनकालीन नारियाँ कितनी भोली, चरित्र की दृढ़ हुआ करती थीं। प्राचीन संस्कृति का इतिहास भी यही बताता है। पति धर्म का पालन करने वाली नारियों को देवता भी शीश नवाते हैं।
 

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