संयुक्त राष्ट्र का रियो+20 सम्मेलन क्या ‘पैराडाइम शिफ्ट’ के लिये याद किया जायेगा?

प्रतिनिधियों ने कहा कि धरती पर संसाधन सीमित हैं, इसलिये उपभोक्तावाद पर अंकुश लगाना होगा। उपभोक्तावाद ने पारिस्थितिकी पर ही असर नहीं डाला है बल्कि मानवाधिकारों पर भी बुरा प्रभाव डाला है। पूंजीवादी व्यवस्था धरती के 80 फीसद संसाधनों को डकार जाती है। ऐसी व्यवस्था वाले देश स्वयं को ‘विकसित’ बताते हैं। धरती के लोगों को ग्रीन उपनिवेशवाद से बचाते हुये ग्रीन इकॉनमी अपने हिसाब से चलानी होगी।

दुनिया की पूरी आबादी की उम्मीद बना संयुक्त राष्ट्र का ऐतिहासिक रियो+20 पृथ्वी शिखर सम्मेलन उसे सुरक्षित, संरक्षित और खुशहाल भविष्य का ठोस भरोसा दिलाये बिना 22 जून को समाप्त हो गया। विभिन्न देशों के राष्ट्राध्यक्षों और शासनाध्यक्षों ने ‘“द फ्यूचर वी वांट’ नामक दस्तावेज को कुछ देशों के ‘रिजरवेशन’ के बावजूद स्वीकार कर लिया। कुछ बिंदुओं को लेकर अमेरिका, कनाडा, निकारागुआ, बोलीविआ, इत्यादि ने ‘रिजरवेशन’ व्यक्त किये हैं। सिविल सोसाइटी तो इस दस्तावेज को पूरी तरह पहले ही नकार चुकी है। छोटी-छोटी पहाड़ियों, विशाल चट्टानों, बड़ी झीलों, लम्बी सुरंगों, लगूनों और जंगलों से भरे इस खूबसूरत शहर रियो द जेनेरो में अब बस कहानियां रह जायेंगी कि यहां 1992 और 2012 में धरती को बचाने के लिये विश्व के नेताओं ने सामूहिक स्क्रिप्ट लिखी थीं पर वे न तो धरती और न इस पर रहने वालों को बचाने के ईमानदार प्रयास कर पाये।शायद ही किसी देश के प्रतिनिधि ने अच्छी बातें न कही हों पर नतीजा सबके सामने है।

दस्तावेज पारित होने से पहले खूब चर्चाएं हुईं। सबने टिकाऊ विकास, टिकाऊ विकास के लक्ष्यों, ग्रीन एकॉनमी, जलवायु परिवर्तन, ग्लोबल वार्मिंग, समान भविष्य, सामाजिक परिवेश और सुरक्षा, ग्रीन इकॉनमी अर्थात हरित आर्थिकी, एचआईवी-एड्स, महिला और पर्यावरण, तथा पारिस्थितिकी और पर्यावरण संरक्षण, सागर संरक्षण, जिम्मेदार मत्स्य उद्योग, इत्यादि के बारे में अपने-अपने हिसाब से वर्णन किया और अपनी प्राथमिकताओं और अपेक्षाओं का भी जिक्र किया। साथ ही, विकासशील देशों ने ग्रीन एकॉनमी के लिये उपयुक्त धन और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण की दरकार भी की। कहने का अर्थ यह कि विकसित देशों को ज्यादा जिम्मेदार भूमिका निभाने के लिये कहा गया। इन देशों ने आपसी सहयोग बढ़ाने पर भी बल दिया। जर्मनी के प्रतिनिधि ने अपने यहां धीरे-धीरे परमाणु ऊर्जा संयंत्र बंद करने की बात अवश्य कही, लेकिन किसी ने अंधाधुंध खनन, सैन्यीकरण और बड़े बांधों पर रोक के बारे में कोई ठोस बात नहीं रखी।

विकासशील देशों ने अपनी चिंतायें भी रखी किंतु उन्हें स्पष्ट रूप से रेखांकित शायद ही किया। संक्षेप में, विकासशील देशों पर अक्सर जो दबाव रहता है, वह यहां भी देखा गया। आर्थिक रूप से आत्म-निर्भर नहीं होने की वजह से विकासशील देश अपनी बातें खुलकर नहीं रख पाते हैं। प्रेक्षकों का कहना है कि ‘पैराडाइम शिफ्ट’ की बात कहने वाले क्या इस थिंकिंग में बदलाव कर पायेंगे? सम्मेलन की असफलता इस बात से साबित होती है कि एनजीओ सेक्टर के लोगों ने इस दस्तावेज को खारिज कर दिया है और मांग की कि दस्तावेज की भूमिका में उनके बारे में उल्लेख को हटाया जाय। यह इसलिये क्योंकि इस सेक्टर के लोगों को अपनी बात कहने के लिये पर्याप्त समय नहीं दिया गया। उनका कहना है कि इस सम्मेलन को सफल बताने के लिये खूब ड्रामा और नौटंकी की गयी है।

उच्च स्तरीय गोलमेज बैठकों में समाज के विभिन्न वर्गों के प्रतिनिधियों को अपनी बातें रखने का मौका दिया गया पर इसका कुछ खास मतलब नहीं है। किसानों के प्रतिनिधि ने कहा कि टिकाऊ विकास के लिये टिकाऊ किसानी आवश्यक है। फिलिस्तीन और तुर्की के प्रतिनिधियों ने टिकाऊ विकास की अवधारणा के परिप्रेक्ष्य में मोटापे पर चोट की और कहा कि एक ओर करोडों लोग मोटापे से परेशान हैं तो दूसरी ओर अरबों लोग भूख से जूझ रहे हैं। फिलिस्तीन के प्रतिनिधि ने कहा कि टिकाऊ विकास के लिये हमें अपनी आदतों को बदलना होगा, मसलन खान-पान और पहनावे में बदलाव लाना होगा। प्रतिनिधियों ने कहा कि धरती पर संसाधन सीमित हैं, इसलिये उपभोक्तावाद पर अंकुश लगाना होगा। उपभोक्तावाद ने पारिस्थितिकी पर ही असर नहीं डाला है बल्कि मानवाधिकारों पर भी बुरा प्रभाव डाला है। पूंजीवादी व्यवस्था धरती के 80 फीसद संसाधनों को डकार जाती है।

ऐसी व्यवस्था वाले देश स्वयं को ‘विकसित’ बताते हैं। धरती के लोगों को ग्रीन उपनिवेशवाद से बचाते हुये ग्रीन इकॉनमी अपने हिसाब से चलानी होगी। वेनेजुएला की प्रतिनिधि ने यह बात जोर देकर कही। दक्षिण सूडान के प्रतिनिधि ने कहा कि साठ, सत्तर और अस्सी के दशकों के आर्थिक मॉडल ने केवल बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को लाभ पहुंचाया है। यह बात भी सामने आयी कि स्वतंत्र और सार्वभौम विकल्पों के बिना टिकाऊ विकास की बात बेमानी है। इन प्रतिनिधियों ने कहा कि दुनिया में व्याप्त गरीबी ऐसा बम है जो कभी भी विस्फोट कर सकता है। गरीबी से निपटने में विज्ञान की विफलता का जिक्र दक्षिण अफ्रीका की प्रतिनिधि ने किया। उन्होंने कहा कि विज्ञान दुनिया भर में उपलब्ध लोकज्ञान को संचित और समाहित कर लोगों के हित में कुछ नहीं कर पाया है।

अंत में, सवाल रह गया है कि यह ‘कमजोर’ दस्तावेज क्या रियो+20 पृथ्वी शिखर सम्मेलन को ‘पैराडाइम शिफ्ट’ के लिये याद रखने लायक बना पायेगा?

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