समीर जी ने भगीरथ की तरह संथाली भाषा और साहित्य की गंगा को संथाली भाषी लोगों के घर-घर तक पहुंचाया। आज के संथाली साहित्य का रूप देखकर हम तो इसके अतीत का अनुमान हो नहीं कर सकते। आज संथाली प्राथमिक विद्यालयों से लेकर बिहार तथा झारखण्ड के कतिपय विश्वविद्यालयों में स्नातकोत्तर स्तर तक पढ़ायी जा रही है।
राष्ट्रभाषा हिन्दी ने समस्त भारतीय भाषाओं की अग्रजा के रूप में अपने दायित्व का निर्वाह करते हुए उनकी सेवा में अपने अनेक यशस्वी एवं कर्मठ सपूतों को लगाया है। इतना ही नहीं, उसने इस देश की अनेक अविकसित तथा अर्द्धविकसित भाषाओं एवं बोलियों के विकास को भी अनदेखा नहीं रहने दिया। ऐसी ही एक भाषा है संथाली जो संथाल परगना एवं उसके आस-पास के क्षेत्रों में संथाल नामक जनजाति द्वारा बोली जाती है। इस जनजातीय भाषा के विकास का श्रेय जिस व्यक्ति को जाता है वह है डा. डोमन साहू 'समीर'। डा. समीर मूलत: हिन्दी भाषी थे, परन्तु हिन्दी के विशाल क्षेत्र को छोड़कर उन्होंने इस जनजातीय भाषा एवं साहित्य को अपनी बहुमूल्य सेवायें अर्पित कर दीं। इस काम में वे पिछले पाँच दशकों से भी अधिक समय से लगे हुए थे।
संथाली भाषा और साहित्य के क्षेत्र में डा. समीर के योगदानों पर जब हम दृष्टिपात करते हैं तथा उनका मूल्यांकन करने बैठते हैं तो सहज ही हमें आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की याद आ जाती है। इन दोनों महानुभावों में तुलना करने पर यह भी स्पष्ट हो जाता है कि आचार्य द्विवेदी ने जिस प्रकार और जितना 'सरस्वती' के माध्यम से हिन्दी के लिये किया, उससे कुछ अधिक ही डा. समीर ने 'होड़ सोम्बाद' नामक संथाली साप्ताहिक के माध्यम से संथाली के लिये किया है। इनके विषय में यदि कोई यह कहे कि ये संथाली के क्षेत्र में नहीं आते तो हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में गुमनाम ही रह जाते, तो यह उक्ति डा. समीर की प्रतिभा का अपमान करने वाली ही सिद्ध होगी। इनमें साहित्यिक प्रतिभा कूट-कूटकर भरी पड़ी थी तथा यदि वे चाहते तो सहज ही हिन्दी साहित्याकाश में अपनी कीर्ति पताका फहरा कर अक्षय यश के भागी बन सकते थे। परन्तु इन्हें इस उपेक्षित, तिरस्कृत और विस्मृत संथाली भाषा की सेवा करना ही भाया और इन्होंने अपने जीवन के सारे अनमोल वर्ष इसी काम में खर्च कर दिये। इस प्रकार ये स्वतः ही त्यागमूर्ति महर्षि दधीचि के समकक्ष जा बैठे। इन्होंने सेवा, त्याग, लगन एवं स्पृहा का एक ऐसा उदाहरण हमारे सामने प्रस्तुत कर दिया जो आज के युग में एकदम दुर्लभ तो नहीं, विरल अवश्य है।
हिन्दी साहित्य के इस एकांतप्रिय मनीषी का जन्म झारखण्ड राज्य के वर्तमान गोड्डा जिले के पंदाहा नामक गाँव में एक सामान्य कृषक परिवार में 30 जून, 1924 को हुआ। 1942 में पटना विश्वविद्यालय से मैट्रिकुलेशन की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण करने के बाद वे भागलपुर के टी.एन.बी कॉलेज में पढ़ने लगे, परन्तु 1942 के राष्ट्रीय आन्दोलन में भाग लेने के कारण इनकी उच्च शिक्षा अधूरी ही रह गयी। पारिवारिक परिस्थितियों से बाध्य होकर इन्हें 1944 में एक छोटी-सी सरकारी नौकरी में आ जाना पड़ा। बिहार के तत्कालीन ख्यातिलब्ध नेता पं. विनोदानंद झा की प्रेरणा और सलाह से ये जनवरी, 1947 से ‘होड़ सोम्बाद’ (संथाली साप्ताहिक) के संपादक बन गये। इस प्रकार इनके सबल एवं सुदृढ़ हाथों में संथाली भाषा एवं साहित्य को सजाने तथा संवारने का भार आ गया था, जिसे इन्होंने बड़ी लगन और ईमानदारी से निभाया।
इस समय संथाली भाषा शैशवावस्था में थी। ईसाई मिशनरी वाले धर्म-प्रचार के लिये इस भाषा का उपयोग करते थे तथा इसे रोमनलिपि में लिखते थे। उस समय तक संथाली का कोई साहित्य उपलब्ध नहीं था। ईसाई धर्म संबंधी साहित्य ही तब संथाली में छपा करता था और वह भी बड़े ही सीमित रूप में। समीर जी ने ‘होड़ सोम्बाद' का भार संभालने के बाद संथाली के लिये देवनागरी लिपि का प्रयोग शुरू किया। इन्होंने संथाली की कतिपय विशेष ध्वनियों के लिये देवनागरी लिपि में कुछ नये ध्वनि चिह्न जोड़े। इन ध्वनि चिन्हों के कारण संथाली भाषा में छपाई का काम भी बड़ा कठिन था। इसे सहज-सरल बनाने के लिये समीर जी ने कलकत्ते की एक टाइप फाउण्ड्री से इन विशेष ध्वनि चिन्हों के टाइप बनवाये तथा उन्हें लाकर स्थानीय प्रेसों को दिया। तब कहीं जाकर संथाली में छपाई का काम सुचारु रूप से होने लगा।
समस्या इतनी ही नहीं थी। संथाल जनजाति में उस समय तक शिक्षा का प्रसार नाम मात्र का ही हो पाया था। गैर संथाल भी इस भाषा में तब कोई खास दिलचस्पी नहीं रखते थे। जो थोड़ी-बहुत रचनायें 'होड़ सोम्बाद' में प्रकाशनार्थ आतीं वे प्रायः सब की सब अनगढ़ ही होती थीं। समीर जी अकेले ही उन सारी रचनाओं को संशोधित और परिवर्तित करके अपनी पत्रिका में प्रकाशित किया करते। इसी क्रम में ऐसे अनेक अवसर आये जब इन्हें पूरी की पूरी रचना को नये सिरे से लिखना पड़ता था। इस तरह संथाली भाषा और साहित्य के विकास की यात्रा शुरू हुई। समीर जी संहस्राबाहु बनकर तन-मन-धन से इसके विकास के मार्ग को प्रशस्त करने लगे।
संथालों ने जब अपनी भाषा में अपने परिचितों की रचनायें पढ़ी तो उनका उत्साह बढ़ने लगा। वे समीर जी कैसे कर्मठ तपस्वी के मार्गनिर्देशन में धीरे-धीरे साहित्य रचना में प्रवृत्त होने लगे। धीरे-धीरे ही सही, संथाली साहित्य का भंडार समृद्ध होने लगा। समीर जी ने भगीरथ की तरह संथाली भाषा और साहित्य की गंगा को संथाली भाषी लोगों के घर-घर तक पहुंचाया। आज के संथाली साहित्य का रूप देखकर हम तो इसके अतीत का अनुमान हो नहीं कर सकते। आज संथाली प्राथमिक विद्यालयों से लेकर बिहार तथा झारखण्ड के कतिपय विश्वविद्यालयों में स्नातकोत्तर स्तर तक पढ़ायी जा रही है। इतना ही नहीं, समस्त भारतीय भाषाओं के बीच संथाली ने अपनी एक खास पहचान भी बना ली है। भारत के ही नहीं, अपितु विदेश के भी अनेक विद्वान संथाली भाषा और साहित्य में खासी रुचि दिखाने लगे हैं। यह सब समीर जी जैसे कर्मठ व्यक्ति के अथक परिश्रम का चमत्कार है।
जीवन-यापन के लिये कार्यरत रहते हुए भी समीर जी ने अध्ययन और ज्ञानार्जन की अदम्य पिपासा के फलस्वरूप एक स्वतंत्र छात्र के रूप में धीरे-धीरे आई.ए, बी.ए (आनर्स), बी.एल तथा एम.ए की परीक्षायें उत्तीर्ण कीं। इन्होंने संथाली भाषा और साहित्य पर महत्वपूर्ण शोध प्रबंध प्रस्तुत करके डी-लिट की उपाधि भी प्राप्त की। विशारद की उपाधि तो वे काफी पहले ही प्राप्त कर चुके थे। कतिपय संस्थाओं ने इनकी इस अनोखी सेवा के लिये इन्हें मानद उपाधियों से भी सम्मानित किया। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, डा. समीर हिन्दी और संथाली दोनों भाषाओं के सिद्धहस्त लेखक तथा कवि थे। इनकी हिन्दी रचनायें 1940 से ही सरस्वती, माधुरी, विशाल भारत, नया समाज, बिहार, नयी धारा, पाटला, अवंतिका, प्रकाश, आर्यावर्त्त (दैनिक), प्रदीप (दैनिक), ज्ञानोदय, समाज, संसार, आजकल, कल्पना, साहित्य परिषद पत्रिका, हिन्दुस्तान (दैनिक), नवभारत टाइम्स (दैनिक) आदि अनेक पत्र-पत्रिकाओं तथा मुंशी अभिनन्दन ग्रन्थ, अनुग्रह अभिनन्दन ग्रन्थ, कांग्रेस अभिज्ञान ग्रन्थ, पंचदश, बिहार के आदिवासी जैसे ग्रन्थों में सम्मान सहित प्रकाशित होती रही हैं।
इनकी प्रकाशित पुस्तकों में हिन्दी में संथाली भाषा (दो भाग में), संथाली प्रकाशिका, राष्ट्रपिता तथा संथाली में दिसाम बाबा, गिदरा को रासकाक् पुथी, सेदाय गाते, आखीर आरोम, आकिल मारसाल (तीन भाग), बुल मुण्डा, महात्मा गाँधी, गाँधी बाबा, आकिल हार, पारसी नांई, संथाली साहित्य, माताल सेताक आदि हैं। इनके अलावे इन्होंने हिन्दी-संथाली शब्दकोश सहित अनेक पुस्तकों का संपादन भी किया था। इनकी अनेक पुस्तकें अर्थाभाव के कारण अभी भी अप्रकाशित हैं, जिनमें हिन्दी और संथाली भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन, संथाली व्याकरण, संथाली-पारसी (संथाली भाषा विज्ञान) तथा स्वतंत्रता के लिये संथालों की सशस्त्र क्रांति सर्वाधिक महत्वपूर्ण हैं।
पिछले दिनों भारतीय संसद ने मैथिली, डोगरी तथा बोडो के साथ-साथ संथाली को भी संविधान की अष्टम अनुसूची में सम्मिलित किये जानेवाले संविधान संशोधन विधेयक को सर्वसम्मति से पारित कर दिया। संथाली भाषा को आज भारतीय संविधान में जो गौरवपूर्ण स्थान मिला है, वह डा. समीर की दीर्घकालीन साधना तथा एकनिष्ठ तपस्या का ही प्रतिफल है।
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