तथ्य व जानकारियाँ
सन् 1998 से ही गंगा में अवैध खनन व क्रशिंग गतिविधियों के विरुद्ध मातृसदन का संघर्ष जारी रहा है, जिसके परिणामस्वरूप हरिद्वार कुंभ क्षेत्र से अधिकांश स्टोन क्रेशर व खनन गतिविधियाँ प्रतिबंधित हुईं। सरकार, प्रशासन व खनन तंत्र को मातृसदन के सत्याग्रह के समक्ष निरुत्तर होना पड़ा, केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय व स्थानीय शोध आख्या ने भी खनन को अनुचित व विनाशकारी करार देते हुए इसे बंद करने की सिफारिशें की थीं। हर तरफ से गिरते इस अवैध विनाशकारी व्यापार के पोषण हेतु तब खनन तंत्र ने न्यायपालिका को हथियार बनाना चाहा और सरकार व प्रशासन का न्यायालय में मौन साधना पुनः एक बार खनन तंत्र के लिए जीवनदायी साबित हुआ एवं 10 दिसंबर 2010 के खनन व क्रशिंग को प्रतिबंधित करने के सरकारी शासनादेश पर पुनः उच्च न्यायालय ने रोक लगा दी।
इस प्रकार लोकतंत्र के प्रत्येक स्तंभ को घोर तमस से आच्छादित करते जा रहे और अब न्यायपालिका तक पहुँच चुके इस भ्रष्ट अर्थतंत्र को विच्छिन्न करने व सत्य को उजागर करने हेतु प्रारंभ हुआ स्वामी निगमानंद जी का यह अंतिम निर्णायक सत्याग्रह, ज्ञात हो कि 28 जनवरी से 19 फरवरी तक यह अनशन स्वामी निगमानंद जी के छोटे गुरुभाई स्वामी यजनानंद जी कर रहे थे, विषय की गंभीरता व जटिलता को देखते हुए स्वामी निगमानंद उनसे उपवास त्याग करने का आग्रह करते हुए स्वयं 19 फरवरी से यह अनशन धारण करते हैं, जो कि उनके 19 फरवरी को उच्च व सर्वोच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों को लिखित पत्र में साफ देखा जा सकता है। इस प्रकार उनको अनशन के लिए उकसाने वाली बातें व आरोप अनर्गल व आधारहीन साबित होते हैं। अधिक स्पष्ट रूप से इसका एक और प्रमाण उन्हीं के द्वारा 2002 में गृहमंत्रालय को लिखा गया पत्र है, जिसमें वे अपना पूर्ण समर्पण अपने गुरु के प्रति विस्तार से दर्शाते हुए अपने गुरु व मातृसदन की छवि धूमिल करने के षड़यंत्रों के बारे में अवगत कराते हैं और अपने माता-पिता को भी ऐसे ही षड़यंत्र का हिस्सा बताते हुए उनसे संबंध विच्छेद की घोषणा करते हैं।
वर्ष 2008 में भी अवैध खनन के विरुद्ध 73 दिन का अनशन कर चुके स्वामी निगमानंद जी का एक बार पुनः भ्रष्ट न्यायिक प्रक्रिया के तहत अवैध खनन तंत्र को प्रश्रय देने के लिए उच्च न्यायालय के दो माननीय न्यायाधीशों के भ्रष्टाचार के विरुद्ध 19/02/2011 से मातृ सदन में अपना उपवास धारण करते हैं, जिससे जुड़े कुछ तथ्य व जानकारियाँ निम्नवत हैं।
1. 19 फरवरी से स्वामी निगमानंद के चल रहे उपवास के दौरान उच्च न्यायालय में यह मुकदमा मुख्य न्यायाधीश की बेंच से सुना जाने लगा था। शासनादेश स्थगित कर दिए जाने के कारण खनन खुलेआम चल रहा था तथा न्यायालय में अनावश्यक लंबित इस प्रकरण को इस प्रकार लगभग चार माह और निगमानंद जी के अनशन को 67 दिन गुजर गए, जिसके बीच मातृसदन की ओर से कई बार पत्र प्रेषित करने के उपरान्त भी उच्च अथवा सर्वोच्च न्यायालय से कोई संवाद अथवा अन्य कोई औपचारिक प्रक्रिया नहीं साधी गयी।
2. अनशन के 68वें दिन मातृसदन आश्रम की ओर से प्रशासन को निगमानंद जी की गिरती सेहत के बारे में सूचित किया गया। ज्ञात हो कि 67 दिन तक उपवास के दौरान उनमें शारीरिक दुर्बलता आ गयी थी फिर भी वे इतने स्वस्थ थे कि स्वयं 67वें दिन तक नियमित यज्ञ करते रहे। 68वें दिन 27/04/2011 को भी जिला चिकित्सालय हरिद्वार में भर्ती के दौरान वे पूर्णतः जाग्रत व चेतन अवस्था में थे। जिला अस्पताल में उन्हें ग्लुकोज व अगले दिन 28/04/2011 से नाक से नली द्वारा फलों का रस व दूध भी दिया जाने लगा। 30/04/2011 की प्रातः तक वे इतने स्वस्थ थे कि उन्होंने स्वयं स्नान कर दीवार के सहारे से अपने कपड़े स्वयं बदले।
3. मातृसदन द्वारा हरिद्वार कोतवाली में दर्ज शिकायत के अनुसार 30/04/2011 की दोपहर एक अज्ञात नर्स ने उन्हें संदेहास्पद रूप में एक इंजेक्शन दिया जिसके बाद इसी रात्रि से उनके हाथ पैरों में अजीब सी हरकत शुरू हो गयी और यह अगले दिन की रात्रि तक बहुत बढ़ गयी थी। 02/05/2011 की सुबह तक निगमानंद डीप कोमा में चले गए जिसे अस्पताल के CMS ने नींद होना बता कर इनके निकटजनों को गुमराह किया। डीप कोमा की स्थिति का पता चलने पर आनन फानन में इन्हें देहरादून स्थित दून अस्पताल रेफर किया गया, जिसके दौरान भी CMS ने इनके सहयोगी कौशलेन्द्र झा को इनके साथ अम्बुलेंस में जाने से रोक दिया।
4. देहरादून स्थित दून चिकित्सालय में इनके मुख से झाग निकलता देख इनके निकटजन बहुत घबरा गए, वहाँ इनका शुगर लेवल 560 मापा गया, ज्ञात हो कि हरिद्वार जिला चिकित्सालय में इनके शुगर लेवल को मापने का कोई इंतजाम नहीं किया गया था।
5. दून अस्पताल में तत्काल की गयी जीवन रक्षक चिकित्सा एवं इसके बाद वेंटिलेटर पर इन्हें 02/05/2011 की सायं को ही हिमालयन हॉस्पिटल जौलीग्रांट भेज दिया गया। किसी प्रशासनिक दायित्व एवं पूर्व चिकित्सा ब्योरे के बिना ही दून अस्पताल से हिमालयन अस्पताल में इन्हें भेजा गया था। इस संदेहपूर्ण व्यवहार की तत्काल शिकायत भी हिमालयन अस्पताल द्वारा निकटवर्ती थाने में दर्ज कराई गयी।
6. हिमालयन अस्पताल में इनकी प्रारंभिक जांच के दौरान इनको अज्ञात विष देने की संभावना प्रथमतः दर्ज हुई। निगमानंद जी के गुरु स्वामी शिवानंद जी को यह संभावना व्यक्तिगत रूप से इनका उपचार कर रही चिकित्सक द्वारा तभी बता दी गयी थी। इसके बाद इनके रक्त-सीरम का नमूना दिल्ली स्थित डॉ. लाल पैथ प्रयोगशाला भेजा गया, जहां जांच में इनके cholinesterase सीरम की मात्रा 1.98 पायी गयी। ज्ञात हो कि इस मात्रा का इतना कम स्तर शरीर में ऑर्गेनोफॉस्फेट जहर का गंभीर मात्रा में होना पुष्ट करता है।
7. विभिन्न वैज्ञानिक एवं प्रामाणिक श्रोतों से प्राप्त जानकारी के अनुसार यह ऑर्गेनोफॉस्फेट शरीर में डाले जाने के 10-12 घंटे बाद अपना प्रभाव शुरु करता है। शुरुआत में मांसपेशियों में मचलन आदि के साथ ही इसकी अधिक मात्रा व्यक्ति के श्वसनतंत्र को निष्क्रिय कर डीप कोमा में व्यक्ति को ले जाती है। विश्व भर में हुए शोध दर्शाते हैं कि इस प्रकार के विष प्रभावित लोगों में प्रायः वे ही जीवित रह पाए जिनको विष दिए जाने के 40 घंटों के भीतर इसकी विष निरोधी दवा देकर जीवन रक्षक प्रणाली के उपचार पर रखा गया। 30/04/2011 की रात्रि से निगमानंद जी के शरीर में देखे गए सारे लक्षण इस प्रकार ऑर्गेनोफॉस्फेट की घातक मात्रा के लक्षणों से पूर्णतः मिलते हैं।
8. हमारे द्वारा तमाम शोध और अध्ययनों के विश्लेषण पर भूख से मरने के लक्षणों में कोमा में जाना नहीं देखा गया और न ही इतनी कम cholinesterase सीरम की मात्रा भूखे रहने के दौरान कहीं दर्ज हुई है। वैसे भी निगमानंद जी को 27 अप्रैल से 30 अप्रैल तक फलों का रस व दूध दिया जा चुका था जिसके चलते उनके शरीर में लगातार सुधार भी दर्ज हुआ। अतः 68 दिनों के उपवास के बाद अस्पताल में स्वास्थ्य लाभ करते हुए अचानक प्राणघातक कोमा की स्थिति में पहुँच जाना सहज स्वीकार्य नहीं होता।
9. हिमालयन अस्पताल में उनकी चिकित्सा के दौरान Atropine नामक औषधि दी जाती रही जो कि ऑर्गेनोफॉस्फेट विष के दुष्प्रभाव के विरुद्ध कार्य करती है, चिकित्सा के दौरान ही इनके चिकित्सकों से कई बार इनके स्वास्थ्य लाभ एवं चिकित्सा को लेकर हुई व्यक्तिगत चर्चा के दौरान चिकित्सक इनके शरीर में विष दिए जाने की बात स्वीकारते रहे हैं किन्तु दूसरी ओर हिमालयन अस्पताल प्रशासन के CMS का नजरिया इस केस के बारे में असहज व छिपाने वाला रहा। सदन द्वारा कई बार इनका चिकित्सकीय विवरण मांगे जाने पर भी प्रशासन इसे टालता रहा। इस बीच 3 बार अज्ञात जनों का ICU में निगमानंद जी के निकट तक जाने का प्रयास असफल हुआ, इनमें से एक व्यक्ति तो भीड़ की आड़ लेकर भाग गया, अन्य दो भी प्रशासनिक ढिलाई के चलते जांच कार्यवाई से बच गए।
10. प्रयोगशाला रिपोर्ट में विष दिए जाने के संदेह की पुष्टि के उपरान्त अपने तमाम तथ्यपरक संदेहों के साथ 11/05/2011 को कोतवाली हरिद्वार में मातृसदन द्वारा तहरीर दिए जाने के उपरान्त भी कोतवाल द्वारा इसे स्वीकार किये जाने तक में आना-कानी कर असहमति जताई गयी। तब वहाँ उपस्थिति जनों द्वारा कोतवाल के इस आश्चर्यजनक व गैरजिम्मेदाराना रवैये पर हो-हल्ला कर यह तहरीर स्वीकार मात्र की गयी लेकिन 1 माह बाद निगमानंद जी की मृत्यु के उपरान्त भी कोई केस दर्ज नहीं हुआ है।
11. 26 मई 2011 को उच्च न्यायालय ने भी अंततः मातृसदन के पक्ष में फैसला सुनाते हुए न केवल कुम्भ क्षेत्र में आ रहे हिमालय स्टोन क्रेशर को तत्काल हटाने का आदेश दिया, अपितु अपने 20 पेज के निर्णय में खनन व क्रशिंग गतिविधियों द्वारा कुंभ क्षेत्र में की जा रही विनाशलीला को भी सविस्तार दर्शाया है। मुख्य न्यायाधीश की पीठ से आये इस निर्णय में क्रेशर मालिक द्वारा अपने बाहुबल/धनबल आधारित प्रभाव से सरकारी व प्रशासनिक महकमों को प्रभावित करने तक की बात का खुलासा है, जो कि क्रेशर मालिक की माफिया प्रवृत्ति को और अधिक स्पष्ट रूप से उजागर कर देता है।
दुर्भाग्यपूर्ण रूप से इस निर्णय को आने में थोड़ा विलम्ब हो गया क्योंकि निगमानंद जी तब तक मरणासन्न स्थिति में जा चुके थे, किन्तु आश्चर्यजनक रूप से इसके उपरान्त भी क्रेशर मालिक पर कोई कार्यवाई तो दूर यहाँ तक की प्राथमिकी भी दर्ज नहीं हुई है।
12. 13/06/2011 को इनकी मृत्यु के उपरान्त मातृसदन की आपत्ति के बावजूद इनके निकटजनों को भ्रम में रख आधी रात्री को इनके शरीर का देहरादून के किसी अज्ञात स्थान पर पोस्टमोर्टम करवा दिया गया, जिससे इनके विसरा का नमूना बदल दिए जाने की संभावना उत्पन्न हो गयी, इसीलिए मातृसदन ने पुनः इनके पोस्टमार्टम की मांग रखी, जिसे इनकी भू-समाधि तक सरकार टालती रही, किन्तु समाधि के ठीक समय पर बने भारी जन व साधुओं के दबाव के कारण दुबारा पोस्टमार्टम करवाना पड़ा।
ज्ञात हो कि पूर्व में भी मातृसदन के साधुओं के प्रति ऐसे गंभीर अपराध दर्ज हैं, जिनमें सन 2000 में स्वामी शिवानंद जी को जेल में आर्सेनिक जहर दिया जाना जिसकी CBCID जांच अभी तक चल रही है। 2004 में स्वामी गोकुलानंद की एस्कोलिन जहर देकर हत्या जिसका प्रमाण उनकी पोस्टमार्टम रिपोर्ट में दर्ज है। आश्रम के ऊपर कई फर्जी मुकदमें, साधुओं पर प्राणघातक हमले, आश्रम की भूमि पर अवैध कब्जा आदि के द्वारा सदन को विचलित व नष्ट करने के प्रयास लगातार होते रहे हैं। इसी क्रम में आज आश्रम का एक तपस्वी साधू गंगा के लिए बलिदान हो गया। जहां देश व समाज के लिए यह एक अपूरणीय क्षति है वहीं उनके बलिदान को न्याय दिलवाने हेतु सभी के लिए एक चुनौती व उत्तरदायित्व भी आन खड़ा हुआ है, तभी सच्चे अर्थों में हम सभी की श्रद्धांजलि स्वामी निगमानंद जी को अर्पित हो पायेगी।
अतः उच्च न्यायालय के आदेशानुसार तत्काल समस्त कुंभ क्षेत्र व अन्यत्र स्थानों पर भी गंगा में अवैध खनन व क्रशिंग गतिविधियां प्रतिबंधित की जाएँ, तथा निगमानंद जी के पूरे प्रकरण की शीघ्र ही CBI जांच कराकर दोषियों के प्रति कड़ी दंडात्मक कार्यवाई सुनिश्चित हो।
निवेदक
“गंगा-आह्वान”
(गंगा के नैसर्गिक एवं सांस्कृतिक प्रवाह हेतु एक जनांदोलन)
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