संस्थाएं नारायण-परायण बनें


समाज के कामों में लगी संस्थाओं को, हम लोगों को विनोबा की एक विशिष्ट रचना, सर्वोदय समाज की कल्पना को समझने की कोशिश करनी चाहिए। अपनी इस रचना को सामने रखते हुए वे संस्था, उसके संचालन, उसके लक्ष्य, उसके कोष, पैसे, धेले- सब बातों को सहज ही समेटे ले रहे हैं।

मैं जरा एकांत में रहने वाला मनुष्य हूं। लेकिन जेल में तो समाज में ही रहना हुआ, और उससे सोचने का काफी मसाला मिल गया। वहां सब तरह के लोगों से संपर्क हुआ। उनमें कांग्रेस वाले थे, समाजवादी थे, फॉर्वर्ड ब्लॉक वाले और दूसरे भी थे। देखा कि ऐसा कोई खास दल नहीं, जिसमें दूसरे दलों की तुलना में अधिक सज्जनता दिखाई देती हो। जो सज्जनता गांधीवालों में दिखाई देती है, वही दूसरों में भी दिखाई देती है, और जो दुर्जनता दूसरों में पाई जाती है, वह इनमें भी पाई जाती है। जब मैंने देखा कि सज्जनता किसी एक पक्ष की चीज नहीं, तब सोचने पर इस निर्णय पर पहुंचा कि किसी खास पक्ष या संस्था में रहकर मेरा काम नहीं चलेगा। सबसे अलग रहकर सज्जनता की ही सेवा मुझे करनी चाहिए।

जेल से छूटने के बाद यह विचार मैंने गांधीजी के सामने रखा। उन्होंने अपनी भाषा में कहा- “तेरा अभिप्राय मैं समझ गया। तू सेवा करेगा, लेकिन अधिकार नहीं रखेगा। यह ठीक ही है।” इसके बाद जिन-जिन संस्थाओं में मैं था, उनसे इस्तीफा देकर अलग हो गया। वे संस्थाएं मुझे प्राण-समान थीं। उनके उद्देश्यों और कार्यक्रमों को अमल में लाने की कोशिश बरसों से मैं करता आया था। उनसे अलग होते समय दुख जरूर हुआ, लेकिन आनंद का भी अनुभव किया, क्योंकि उन संस्थाओं की मदद तो मैं करने वाला ही था।

गांधीजी की मृत्यु के बाद सेवाग्राम में हुई सभा में हमने तय किया कि अपनी संस्था को किसी व्यक्ति का नाम देना ठीक नहीं होगा। इसलिए ‘गांधी-संघ’ जैसे नामों के बदले ‘सर्वोदय-समाज’ ही नाम रखा गया। ‘संघ’ न कहते हुए जो ‘समाज’ शब्द रखा है, वह साहित्यिक दृष्टि से नहीं, बल्कि इसके पीछे एक विचार है। ‘संघ’ शब्द में विशिष्ट अर्थ है। उसमें व्यापकता की कमी है। इसके विपरीत ‘समाज’ व्यापक है और ‘सर्वोदय’ शब्द के कारण उसकी व्यापकता परिपूर्ण हो जाती है। अगर ‘संघ’ नाम रखा जाता तो वह छोटी-सी संस्था बन जाती। फिर उसमें कोई लिया जाता, तो कोई न भी लिया जाता। उसके नियम बनते, अनुशासन रखा जाता और उसे न मानने वालों के विरुद्ध अनुशासन-भंग की कार्रवाइयां होतीं। संघ तो एक ऐसी संस्था है, जिसमें विशिष्ट व्यक्तियों को ही अवसर मिलता है। उसमें वह व्यापकता और स्वतंत्रता नहीं होती, जो मनुष्य के विकास के लिए जरूरी है।

कुछ लोग हमारे सर्वोदय-समाज की योजना की रचना को ‘लूज ऑर्गनाइजेशन’ यानी शिथिल रचना कहते हैं। रचना को अगर हम शिथिल करें तो कोई काम नहीं बनेगा। इसलिए रचना शिथिल नहीं होनी चाहिए। पर यह शिथिल रचना न होते हुए ‘अ-रचना’ है, यानी केवल विचार के आधार पर हम खड़े रहना चाहते हैं। हम किसी को आदेश नहीं देते जिसे वे बिना समझे-बूझे ही अमल में लाएं। साथ ही हम किसी का आदेश कबूल भी नहीं करते, जिस पर बिना सोचे और बिना पसंद किए हम अमल करते जाएं। बल्कि हम तो सलाह-मशविरा करते हैं।

मैं अपनी इस रचना में जितनी ताकत देखता हूं, उतनी और किसी कुशल, स्पष्ट और अनुशासनबद्ध रचना में नहीं देखता। अनुशासनबद्ध दंडयुक्त रचना में शक्ति नहीं होती, यह बात नहीं। लेकिन वह शक्ति नहीं होती, जो शिवशक्ति है।

जब मैं इस दृष्टि से सोचता हूं तो बुद्ध भगवान ने भिक्षु-संघ क्यों बनाए, और शंकराचार्य ने यति-संघ क्यों बनाए- इसका रहस्य खुल जाता है। फिर भी उन संघों के जो अनुभव आए हैं, उनके गुण-दोषों की तुलना कर मैंने अपने मन में यह निर्णय लिया है कि हम ऐसे संघ नहीं बनाएंगे; क्योंकि उनमें उनके गुणों से उनके दोष अधिक होते हैं।

लोग आक्षेप करते हैं कि ऐसे ढीले-ढाले संगठन से क्या होगा? मेरे खयाल से वह आक्षेप सही भी है। अगर हम कोई यंत्र चलाना चाहें, तो उसे कसा हुआ होना चाहिए। यदि घर्षण के डर से हम उसे ढीला रखें तो वह यंत्र काम नहीं देगा। इसलिए यदि यंत्र चलाना है तो उसे चुस्त रखा जाए और यह ध्यान रखकर कि उसमें घर्षण होगा, उसमें स्नेहन के लिए तेल डाला जाए।

सर्वोदय समाज के लिए किसी तरह की संघटना की कल्पना नहीं है, इसलिए यह अर्थ नहीं कि हमारा काम बिखरा हुआ होना चाहिए। हमारे पास जो संस्थाएं हैं और जो अलग-अलग काम करती हैं, उन सबका संगठन हम करने जा रहे हैं। उसी में से ‘सर्व-सेवा-संघ’ पैदा हो रहा है। हम चाहते हैं कि वही हमारे कार्य का यंत्र हो, और यह ‘सर्वोदय-समाज’ सहविचार, सहचिंतन, तत्त्व-संकीर्तन और नाम जप का साधन बने। यह यंत्र है ही नहीं। यह अनियंत्रित विचार है। इसे हम विश्व में फैलाना चाहते हैं। जिसे सारे विश्व में फैलना होता है, वह सदेह नहीं विदेह ही हो सकता है। इसीलिए हम उसकी देह नहीं बना रहे हैं। अगर हम उसे सदेह बनाएं तो काम जरूर होगा; लेकिन वह विश्वव्यापी नहीं होगा।

लोग मुझसे पूछते हैं कि आप किस प्रकार इस सर्वोदय-समाज का संगठन करने जा रहे हैं? मैं जवाब देता हूं कि देश में आज कई संस्थाएं हैं। उनमें और एक संस्था बढ़ाना मेरा लक्ष्य नहीं है। मैं यही चाहता हूं कि जीवन को दिशा देने वाला एक विचार अपने जीवन में दाखिल करें और दूसरे भाई-बहनों को वह समझाएं। यदि हर व्यक्ति के जीवन में वह विचार दाखिल होगा तो सहज ही आग जैसा फैल जाएगा। उसके बदले यदि संस्था खड़ी की जाए तो उसमें स्पर्धा अभिनिवेश आदि का प्रवेश हो सकता है। मैं यह नहीं चाहता। समाज अच्छी तरह संगठित होना चाहिए। परिवार में भी एक समाज रहता है और वह सहज बना होता है। वैसा ही होना चाहिए। फिर भी परिवार में सिर्फ परिवार तक का सोचने की वृत्ति रहती है, इसलिए उसमें संकुचितता आ जाती है। वह बात छोड़ दें, सहजता की बात ही लें तो मेरी कल्पना समझ में आ सकती है।

मैं मानता हूं कि जब लोग पांथिक बंधनों के कारण एक जगह आते हैं तो उनकी कल्याण करने की शक्ति नहीं बढ़ती। जब वे सहज बंधु-भावना से एकत्र होते हैं, स्थूल संबंधों को गौण मानते हैं, मत की अपेक्षा मनुष्य को अधिक महत्त्व देते हैं, बाह्य कर्म की अपेक्षा अंतरवृत्ति को महत्व देते हैं, मनुष्य को मनुष्य के नाते पहचानते हैं, तब कल्याण करने की शक्ति बढ़ती है।

मैंने ऐसी कई संस्थाएं देखी हैं, जिनका आरंभ तो अच्छे उद्देश्य से हुआ, लेकिन आगे उनके कार्यों से ही दोष उत्पन्न होने लगे। फिर उन दोषों का बचाव किया जाता है। वे छिपाकर भी रखे जाते हैं। फिर वृत्ति बदल जाती है और टुकड़े होने लगते हैं। मुझे टुकड़े नहीं चाहिए, अखंड आनंद का अनुभव मुझे लेना है।

मेरा जितना विश्वास सत्य का जप करने में है, उतना संगठन में नहीं। यह नहीं कि संगठन की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। परंतु मनुष्य शुभ विचार जपता और रटता चला जाए तो उसके साथ जरूरी संगठन ऐसे ही पैदा हो जाता है। अगर मैं संगठन बनाता तो मैं संकुचित बन जाता। किंतु मेरा संगठन नहीं है, इसीलिए मैं व्यापक हूं, दुनिया का अंश हूं। दुनिया में और अपने में मैं किसी तरह का भेद ही नहीं मानता। जो अपने अलग-अलग घर और अलग-अलग संस्था बना कर बैठे हैं, उनसे मैं कहता हूं कि आपके घर में और संस्था में मेरी हवा का प्रवेश होने दो तो आपका घर शुद्ध होगा।

सत्यनिष्ठा सर्वोदय की बुनियाद है। कुछ लोग कहते हैं कि इससे सर्वोदय-समाज में अधिक लोग नहीं आएंगे। मैं कहता हूं कि ऐसा कहने वाला भगवान की जगह लेना चाहता है पर मैं नहीं ले सकता। आखिर सभी मनुष्यों में शुभ प्रेरणा क्यों पैदा नहीं होगी? होगी, ऐसी ही मैं आशा रखूंगा। लेकिन मान लीजिए कि ऐसी प्रेरणा किसी को भी न हुई और सर्वोदय-समाज हवा में ही रह गया, तब भी यह अव्यक्त कल्पना विश्व-कल्याण करेगी। इससे विपरीत, सत्यनिष्ठा-विहीन बहुत बड़ी संख्या किसी समाज में शामिल हुई तो भी विश्व-कल्याण की दृष्टि से उसका तनिक भी उपयोग नहीं होगा।

सर्वोदय-समाज का प्रत्येक सेवक सर्व-तंत्र-स्वतंत्र है। उसे किसी प्रकार का बंधन नहीं। अपनी जगह बैठ कर वह अकेला काम कर सकता है। आवश्यक हुआ तो संगठन बनाकर भी काम कर सकता है।

सर्वोदय-समाज एक वैचारिक मंडल है, तो सर्व-सेवा-संघ विशेषज्ञों की आयोजक और कार्यकारी अखिल भारतीय संस्था है। सर्वोदय-समाज का प्रत्येक व्यक्ति एक ‘सर्वाधिकारी सेवक’ है। जहां सर्वाधिकार और सेवकत्व दोनों का संगम होता है, वहां अपने-आप सभी दोषों का निरसन और सभी गुणों का आवाहन हो जाता है।

सर्वोदय-विचार की यही खूबी है कि इसमें स्वतंत्र और विभिन्न विचारों का पूरा-पूरा अवसर है। वह विशिष्ट व्यवस्था या विशिष्ट बाह्य आकार का आग्रह नहीं रखता। वह संगठन को ही शक्ति मान नहीं बैठता, पर सत्य की शक्ति पहचानता है। वह इस भ्रम में नहीं पड़ता कि अशक्ति संगठित होते ही शक्ति बन जाती है। आलसी लोगों ने शक्तिशाली बनने का यह सरल तरीका खोज निकाला है। यदि रोगों का संग्रह करने से ही स्वास्थ्य बनता तो न वैद्यों की जरूरत पड़ती, न औषधों की और न पौष्टिक अन्न की ही! पर हिंसा में यह सब खप जाता है। दस लाख की फौज खड़ी करते ही राष्ट्र बलवान बन जाता है। कहा जाता है कि सिपाही जीत गए तो राष्ट्र भी जीत गया! पर यह नहीं कहा जा सकता कि सिपाही को भोजन मिलते ही राष्ट्र को भी भोजन मिल गया!

सर्वोदय संगठन के पीछे नहीं पड़ता। इसमें भी उसकी अपनी एक दृष्टि है। सर्वोदय का सेवक आवश्यक प्रतीत होने पर स्थानिक संगठन बना सकता है। वह संगठन विचारनिष्ठ ही होगा। उसमें प्रत्येक व्यक्ति का दूसरे व्यक्ति से पूर्ण परिचय रहेगा। दंभ के लिए अवसर ही नहीं रहेगा। उसमें अभिमान घुस ही न पाएगा। जब छोटे पैमाने पर कोई चीज बनती है, तो उस समय इन दोषों से बचना सुकर हुआ करता है। किंतु दंभ और अभिमान इतने सूक्ष्म दोष हैं कि चाहे जहां प्रवेश कर सकते हैं। यदि सेवक को दिखाई पड़े कि उसके छोटे से संगठन में भी ये दोष घुसने लगे हैं तो वह उस संगठन को तोड़ भी डालेगा। वैसे तो वह ऐसा प्रसंग आने ही न देगा। किंतु जो भी कुछ वह करेगा, उसका सारा उत्तरदायित्व उसी पर रहेगा।

आजकल जो उठता है, वह अपना अखिल भारतीय संगठन करना चाहता है। फिर विभिन्न प्रांतों में उसकी दस-पांच प्रांतीय शाखाएं खोल दी जाती हैं। फिर दस की सौ जिला शाखाएं हो जाती हैं। लेकिन पत्थर के कितने भी टुकड़े किए जाएं तो भी उसमें से आटा थोड़े ही मिलेगा? जहां शाखा खोलने का संगठन चलता है, वहां सेवा का नाम तक नहीं रहता।

अगर सर्वोदय-समाज की स्थापना करनी हो तो खुद से ही आरंभ करना चाहिए। हममें अगर द्वेष या मत्सर हो तो हमें उसे दूर करना चाहिए। जिसके प्रति द्वेष-मत्सर हो, उसके पास जाकर उससे दोस्ती कर लेनी चाहिए। इस तरह सर्वोदय-समाज का काम व्यक्तिगत तौर पर शुरू हो जाता है। फिर धीरे-धीरे दो-चार मित्र तैयार हो जाते हैं और आगे समूचा गांव तैयार हो जाता है। ऐसे दो-चार गांव मिल जाएं, तो काम बढ़ा सकते हैं। धीरे-धीरे सारा विश्व और सारा ब्रह्मांड भी संगठित हो सकता है। तभी वह संगठन मूल से, अंतःप्रेरणा से और स्वाभाविक रूप से हुआ समझा जाएगा।

यदि हम केवल विचार देने के बजाय संगठन करने बैठें तो हमारे संगठन में शरीक होने वाले ही हमारे रहेंगे। पर मुझे ऐसा नहीं चाहिए। जो खद्दर पहनता है और नहीं भी पहनता, जो शराब पीता और नहीं भी पीता, वे सभी मेरे हैं और मैं उनका हूं। उनके साथ एकरूप होना चाहता हूं। संगठन से यह संभव नहीं।

इसका यह अर्थ नहीं कि संस्था बनानी ही नहीं चाहिए। जरूरत पड़ने पर सर्वोदय-समाज के लोग छोटी-सी संस्था बना सकते हैं। लेकिन ऐसी संस्था संगठन नहीं, बल्कि एक व्यवस्था भर होगी, जैसे किसी परिवार में होती है। वैसी संस्था में चार-छह कार्यकर्ता साथ रह कर काम कर सकते हैं। आपस में मिलकर काम करने के लिए किसी एक सूत्रा की आवश्यकता पड़ती है, और वह सूत्रा है- सत्य और अहिंसा।

संगठना अहिंसा की भी होती है। लेकिन उसका अपना एक ढंग है। और वह ढंग इतना न्यारा है कि उसको संगठना नाम देना भी उचित नहीं होगा। अहिंसा की जो संगठना होती है उसमें यह खूबी होती है कि सलाहकार सलाह देते हैं, जिनको वह सलाह जंचती है, वे उस पर अमल करते हैं। और क्योंकि वह सलाह उनको जंचती है, इसलिए बहुत निष्ठापूर्वक वे उस पर चलते हैं। इस तरह यह एक उत्तम और मजबूत संगठना होती है। दूसरी संगठनाओं में यह होता है कि ऊपर से सलाह नहीं, आज्ञा आती है। उस आज्ञा का पालन अगर कोई करता है तो यह नहीं कह सकते कि पूर्ण श्रद्धा से वह करता है।

संगठन दो प्रकार के होते हैं। एक शक्ति से, अनुशासन लाद करके; और दूसरा प्रेम से। प्रेम से संगठन ‘होते’ हैं, शक्ति से संगठन ‘किए जाते’ हैं। अब सवाल यह है कि जैसे शक्ति सामूहिक तौर पर काम कर रही है, वैसे सामूहिक तौर पर प्रेम काम कर सकता है क्या? इसमें प्रेम की कसौटी है। अहिंसा में शिथिलता नहीं होगी। उसमें सहज-संगठन होगा। और वह ‘किया’ नहीं जाएगा, बल्कि ‘होगा’; और इतना मजबूत होगा कि उस संगठन की बराबरी हिंसा नहीं कर सकेगी। हिंसा में संगठन लादा जाता है; अहिंसा में वह अनायास हो जाता है। इसलिए वह मजबूत बनता है।

किसी हुक्म के ताबेदार होकर नहीं, लेकिन हम हिल-मिलकर, एकत्रा होकर बैठें, चर्चा करें और तब जो निर्णय हो, वह हमें आज्ञा से भी अधिक शिरोधार्य होना चाहिए। यह कैसे संभव है, इसका विचार करता हूं तो मुझे ईसा का वचन याद आता है- ऍग्री विथ् दाइन ऍडवर्सरी क्विकली- ‘जिसका तेरे साथ मतभेद है, उसके साथ तू जल्दी-से-जल्दी सहमत हो जा।’ इसमें सामने वाले के साथ जुड़ जाने की, मेल साधने की जो कुशलता है, वह अहिंसा में आनी चाहिए।

मुझे जो महत्त्व की बात लगती है, वह यह है कि आज व्यूहरचना और समूहशक्ति, ये जो प्रमुख शक्तिसाधन माने जाते हैं- उससे मैं सहमत नहीं हूं। अहिंसा इन दोनों पर निर्भर नहीं करती। वह तो आत्मशुद्धि पर निर्भर रहती है।

आप स्थानिक संस्थाएं खड़ी कर सकते हैं। लेकिन जहां अखिल भारतीय संस्था खड़ी करने की बात आती है, वहां अनुशासन आता है और फिर सारा मामला ‘बोगस’ हो जाता है। हम इससे मुक्त रहना चाहते हैं। जब व्यापक संस्था निकम्मी होती है तो उसका नाहक अभिमान ही पैदा होता है और काम नहीं होता। हर कोई अपना अलग-अलग पंथ बनाते हैं। यानी सारी दुनिया से अलग रहते हैं। अगर हम कोई खास संस्था बनाते तो आज हमें जो सहयोग मिल रहा है, वह न मिलता।

जब कोई अभिमानी संगठन पैदा होता है तो वह हिंसक शक्ति का आह्नान करता है। उसकी प्रतिध्वनि दूसरी ओर गूंज उठती है। इस प्रकार अगर दुनिया में अनेक हिंसक शक्तियां या अभिमानी संगठन पैदा होते हैं तो शक्ति का योग नहीं घटाव ही होता है। हिंसक और अभिमानी संगठन एक दूसरे का क्षय करते रहते हैं, एक दूसरे को पुष्ट नहीं करते। जो संगठन अभिमान पर खड़े होते हैं वे कुल मिलाकर दुनिया की शक्ति का क्षय ही करते हैं, दुनिया को उन्नत नहीं करते।

बाबा कहता है कि व्यक्ति पर उसका विश्वास है, संगठन पर नहीं। कारण व्यक्ति चैतन्यमय है, संगठन नहीं। संस्थाओं की मर्यादा होती है। व्यक्ति में जो प्रेरक शक्ति होती है, वह संस्था में नहीं होती। हम कभी-कभी कहते हैं कि संस्थाओं को ‘पावर हाऊस’ जैसा होना चाहिए। लेकिन ‘करंट’ ही नहीं होगा तो ‘पावर हाऊस’ किस काम का? संस्थाओं में ऐसी शक्ति भरने का काम व्यक्ति कर सकता है। सूर्य कभी हमारे घर में नहीं रहता है। फिर भी अपनी किरणें हम सबके घरों के भीतर पैठाता है। ऐसे सूर्यवत् व्यक्ति संस्था के बाहर रहें और उसका मार्गदर्शन करें।

विधानबद्ध संस्थाएं विचारक्रांति का काम करेंगी, यह अपेक्षा ही गलत है। विचारक्रांति मनुष्यों द्वारा होती है। संस्थाओं में मनुष्य नहीं, ‘मैंबर’ होते हैं। एक होता है चंदा देने वाला मैंबर। वह पैसा देकर छुट्टी पाता है। काम के साथ बंधा हुआ होता ही नहीं है। दूसरा होता है कार्यकारी मैंबर। वह चंदा देने वाले मैंबर बनाकर कृतकार्य होता है। तीसरा होता है कामकाजी मैंबर। वह दफ्तर संभालता है, पत्र लिखता है, पत्रक निकालता है, ऊपर से आए हुए हुक्म का बंदा होता है। और हुक्म देने वाला होता है, पार्टी के अनुशासन का कार्यवाहक। विचार करने की जिम्मेवारी किसी की नहीं है। किसी को विचार करने की फुर्सत नहीं है और किसी को नए विचार की छूट भी नहीं है। ऐसे पक्के बंदोबस्त में विचारक्रांति की जो अपेक्षा करेगा, वह बहुत करके पढ़ा-लिखा आदमी होगा! इसलिए उसे समर्थ रामदास की भाषा में ‘पढ़तमूर्ख’ कहना चाहिए।

मैं निधि मुक्ति को बहुत ज्यादा महत्त्व नहीं देता। मुख्य बात हमारा तंत्र तोड़ना है। हमारा विश्वास है कि इस शरीर को, इस ढांचे को, तंत्र को कायम रखते तो काम तो जरूर होता; पर वह सीमित होता। वह अनंत-अपार न फैलता। इसीलिए हमने उस तंत्र को तोड़ा। जैसे पौधे के आसपास बाड़ लगाते हैं, पर पौधा बढ़ने पर उसे निकाल देते हैं, वैसे ही हमने यह किया है। गांधी-विचार कोई एकांगी विचार तो नहीं, एक समग्र विचार है। इसके लिए अलग संगठन की कोई जरूरत नहीं।

संस्था और आंदोलन दोनों की कल्पना विचार को मूर्तरूप देने के लिए की गई है। फिर भी दोनों में एक मूलभूत फर्क है। आंदोलन अगर ठीक ढंग से चलाया जाए तो वह विचार को मूर्तरूप दे सकता है। संस्था विचार को मूर्तिरूप देती है। दोनों का फर्क थोड़े में मैं इस तरह बतलाऊंगाः आंदोलन भी अगर ठीक ढंग से न चलाया जाए तो विचार को विकृतरूप दे सकता है। संस्था अच्छी तरह चलाए जाने पर भी केवल यम-प्रधान नहीं रह सकती; नियम प्रधान बन जाती है। इसलिए मूर्ति से नहीं बच सकती। मूर्ति बुरी ही होगी, ऐसी बात नहीं। अच्छी भी हो सकती है। परंतु अच्छा गृहस्थाश्रम भी जिस प्रकार संन्यास से ही कृतार्थ होता है, उसी प्रकार अच्छी मूर्ति-उपासना भी विसर्जन से ही पूर्ण होती है।

प्रयोजनवश स्थानिक संस्थाएं बनाने में मेरा विरोध नहीं है क्योंकि आवश्यकता पूर्ण होने पर उनका विसर्जन किया जा सकता है। जिसका विसर्जन कठिन मालूम होता हो, उसका आवाहन करने की झंझट में नहीं पड़ना चाहिए।

ईश्वर और उसके कार्य के बीच अगर कोई संगठन खड़ा होता है तो कभी-कभी वह बाधक भी हो जाता है। मेरा अपना बुनियादी विचार है कि सद्विचार हवा में फैला देना अच्छा है। उसे जमीन में बोने से उसका वृक्ष बनता है। किंतु उसके नीचे चंद लोग ही आकर बैठ सकते हैं; वह सीमित हो जाता है। इसके विपरीत जो विचार हवा में फैलता है, वह हरेक के हृदय को छूता है और कहीं-का-कहीं, दूर-दूर तक चला जाता है। इसके बिना शांतिमय क्रांति नहीं हो सकती।

अभी महाराष्ट्र की कुछ संस्थाओं के संचालक मुझसे मिले थे। उनसे चर्चा हुई। उसमें एक महत्त्व का सवाल यह उठा कि महाराष्ट्र में और पूरे देश में ही खादी, ग्रामोद्योग, नई तालीम, अस्पृश्यता-निवारण, महिला-सेवा आदि रचनात्मक कार्य कई सालों से चल रहे हैं और उन्हें अब सरकारी मदद भी मिलने लगी है। लोगों को उनसे कुछ लाभ भी मिला है। लेकिन वे कार्य प्राणवान नहीं लगते। ऐसा क्यों होता है और इस का उपाय क्या है?

इस संबंध में मेरा चिंतन सतत् चलता रहता है। कई संस्थाएं मैंने देखी हैं। कई संस्थाओं का अनुभव मैंने लिया है। संस्थाओं का काम कैसे चलता है, इसका निरीक्षण करके मैं कुछ निश्चित विचार पर पहुंचा हूं। हमारी संस्थाएं प्राणवान क्यों नहीं दीखतीं, वे ज्यादा समय क्यों नहीं चलतीं, उनमें स्थैर्य क्यों नहीं रहता, इस बारे में मेरे विचार स्पष्ट हैं।

हम संस्था खड़ी करते हैं। वह हमारी आंखों के सामने ही निस्तेज हो जाती है। उसका जीवन-रस सूख जाता है। ऐसा क्यों? नित्य नया जीवन-रस उन्हें क्यों नहीं मिलता रहता? इसके कारणों की खोजबीन करता हूं तो दीखता है अंगुष्ठोदकमात्रोण शफरी फर्फरायते- अंगूठे जितने गहरे पानी में हम खेलते रहते हैं। हमारे दर्शन में गहराई नहीं रहती। इसलिए हमारा सार्वजनिक कार्य देखते-देखते घर-संसार जैसा बन जाता है। सार्वजनिक कार्य करने वाले गहराई से नहीं सोचते। दुखमूल खोजने की गहराई में नहीं जाते।

हमारी संस्थाओं का जीवन-रस शीघ्र ही सूख जाता है। इसका एक कारण यह है कि हम कर्मयोग में पड़े हैं। कर्मयोग में लाभ के साथ उसकी हानियां भी आती हैं। गो सेवा करनी है तो गायों के लिए खेत चाहिए, फिर उसके साथ चर्मालय भी चाहिए। यह होने से तेलघानी, ग्रामोद्योग, खादी आदि को भी हम खड़ा कर सकते हैं। उसके वास्ते 5-50 आदमियों की जरूरत होती है। इस तरह कर्म की अधिकता के कारण हमारा विचार और तत्त्वनिष्ठा कम पड़ती जाती है। शंकराचार्य, रामानुजाचार्य, बुद्ध, महावीर आदि के अनुयायियों में जो कई दोष थे, वे हमने सुधारे जरूर हैं, परंतु वे लोग आत्मज्ञान की जिन गहराईयों तक जाते थे, वहां हमारी पहुंच नहीं है। इसीलिए आज हमारा काम ऊपर से भारी बन जाता है, परंतु उसका मुख्य तत्त्व गायब हो जाता है। मनुष्य चला जाता है तो केवल संस्था रहती है, जो निस्तेज बनती जाती है। परिणामतः हम बहुत ही ऊपर से देखने लग जाते हैं।

हम यह मान लेते हैं कि खुद के लिए हम परिग्रह न करें, लेकिन संस्थाओं के लिए कर सकते हैं। हिंसावादी भी एक व्यक्ति के लिए हिंसा करना उचित नहीं मानता, लेकिन समाज और राष्ट्र के लिए हिंसा करने में पाप भी नहीं समझता। हम भी संस्था के लिए परिग्रह क्षम्य मानते हैं।

बापूजी के जाने के बाद यह बात मेरे ध्यान में आई कि आज तक हमारी संस्थाएं पैसे के आधार पर चलती रहीं, लेकिन वह जमाना गया कि संस्थाएं पैसे के आधार पर चलाई जाएं। अब नया जमाना आया है। इसलिए जहां तक हो सके, वहां तक हमें अपनी इन संस्थाओं को पैसे से मुक्त रखना चाहिए। तभी नया चैतन्य आ सकेगा। तभी सारे गांव का उद्धार हो सकेगा। इसका परिणाम सरकार पर भी पड़ेगा।

मैं मानता हूं कि हमारी संस्थाएं नारायण-परायण होनी चाहिए। वैसे आज भी उनकी आजीविका लोगों के आश्रय पर ही निर्भर है। स्वराज्य के बाद कई संस्थाएं सरकार से मदद लेती हैं। सरकार की मदद हम दूसरे-तीसरे काम में भले ही लें, परंतु कार्यकर्ताओं की आजीविका का भार सरकार की मदद पर रहेगा तो उससे नारायण-परायणता नहीं आएगी। संस्थाएं निधि पर, संचित निधि पर रहेंगी तो साक्षात् जनतारूप नारायण का आधार नहीं होगा। इसलिए दूसरे कामों में भले ही सरकार की या निधि की मदद लें, किंतु कार्यकर्ताओं के भरण-पोषण का आधार उन पर नहीं रहेगा, तब अपनी संस्थाओं में प्राणतत्त्व दाखिल होगा।

कुछ थोड़ी संस्थाएं ऐसी हैं, जो आत्मनिर्भर हैं। कुछ संस्थाएं कुछ उद्योग करती हैं और उससे जो मिलता है, उस पर उसके कार्यकर्ता निर्भर रहते हैं। इस तरह जिनका आधार श्रम अथवा उद्योग पर रहता है, उनमें परावलंबन का अवगुण तो नहीं आता, परंतु मुझे यह भी गौण मालूम होता है। ऐसी संस्थाएं स्वावलंबी हों तो भी नारायणावलंबी नहीं होतीं। इनमें काम करने वाले आलसी नहीं होते, दिनभर काम करते हैं, परंतु वे अपने ही काम में मशगूल रहते हैं। जनता की परवाह करने की कोई जरूरत उन्हें महसूस नहीं होती है। इसलिए मैं चाहता हूं कि हमारे सेवक साक्षात् लोकसम्मति पर ही अपना आधार रखें और नारायण पर ही उनका जीवन निर्भर रहे।

सरकार पर या निधि पर अवलंबन मैं पसंद नहीं करता। इन दोनों से स्वावलंबन का स्थान ऊंचा है, परंतु वह भी संकुचित विचार है। गीता कहती है कि जो अपने खुद के लिए रसोई बनाकर खाता है, वह पाप खाता है। इसका अर्थ मैं यह समझा हूं कि सेवक अपना सब कुछ समाज को समर्पण करे और समाज की तरफ से जो मिले, उसे प्रसाद समझकर ग्रहण करे। इस वृत्ति से कार्यकर्ता और संस्थाएं अपना काम चलाएंगी, तो उस कार्य में जान आएगी।

यदि गांव की संस्थाएं अपने लिए खास सुविधाएं प्राप्त करें और गांव से अलग जैसी दिखने लगें, तो संन्यासियों की तरह समाज से बिल्कुल अलग, खतरे के सिग्नल जैसी ही दिखेंगी! सेवकों को तो लोकजीवन में एकदम घुल-मिल जाना चाहिए।

जिस तरह शरीर में आत्मा होती है, उसी तरह संस्थाओं में भी एक शरीर और एक आत्मतत्त्व हुआ करता है। जिन विचारों को लेकर कोई संस्था खड़ी होती है, वही उसका आत्मतत्त्व है। वह दिन-प्रतिदिन विकसित होते रहना चाहिए। यह ध्यान में रखने की बात है। शरीर और संस्था दोनों साधक भी हो सकते हैं, बाधक भी। उनको साधक बनाना अपनी कला है। संस्था का जो तंत्र है, वह उसकी देह है और उसका जो मूल मंत्र है, वह उसकी आत्मा है। तंत्र में अपना आग्रह नहीं रखना, मंत्र छोड़ना नहीं और मंत्र के मुताबिक काम करते जाना- नियमित, परिमित, सतत्।

हमारा काम है, समाज में एक विशिष्ट विचार प्रचलित करना, उसके अनुसार जीवन बनाना। इसलिए उसका मूल स्रोत अत्यंत निर्मल होना चाहिए गंगोत्री में पानी अत्यंत निर्मल होता है। फिर आगे चलकर जो होना है, सो होने दो। व्यापक काम में आगे कुछ भी हो सकता है, परंतु मूल में स्रोत शुद्ध और स्वच्छ होना चाहिए। सर्व-सेवा-संघ मूल स्रोत है, यद्यपि वह एक व्यापक संस्था है। मूल स्रोत में हम अत्यंत निर्मल हों। उस दृष्टि से हम विधान कायम रखें और संकेत (परिपाठी) बदलें। या संकेत भी बदलें और विधान भी बदलें। दोनों बातें ठीक हैं। परंतु शासनमुक्त समाज की बात हम करते हैं तो फिर विधान ही उड़ जाता है। तिस पर यह भी होता है कि संस्था भी उड़ जाती है। फिर भी आज हम संस्था चलाते हैं, तो ऐसी चलाएं कि दुनिया में संस्था के जो दोष माने जाते हैं, वे उसमें न रहें। दुनिया में संस्था के जो माने हुए दोष हैं, उनमें बहुमत और अल्पमत का भी दोष है। यह तो हममें होना ही नहीं चाहिए।

अंतिम हालत में तो वह नहीं ही होना चाहिए। परंतु हमने कहा था कि बीच के काल के लिए कई सीढ़ियां हो सकती हैं। हम अपनी सारी परिस्थिति देखकर ही सीढ़ियां तय करें। परंतु मूल में विचार यह है कि विधान और संकेत में हम फर्क ही क्यों करें? इस तरह फर्क करके एक परम आश्रय और एक साधारण आश्रय, ऐसा क्यों माना जाए? हम इच्छा करते हैं कि अधिक-से-अधिक एकमत से काम हो। फिर उसमें विधान और संकेत का भेद न हो।

बिलकुल वैदिक जमाने में भी भगवान का वर्णन किया- गणानां त्वा गणपतिं हवामहे- हे भगवान्, तू गण-पति है और हमारा यह गण है। मतलब, हमारे गण में कोई मनुष्य गण-पति नहीं, भगवान गण-पति है। गायत्री मंत्र में भगवान से प्रार्थना की तो ‘मेरी बुद्धि को प्रेरणा दे’ नहीं कहा, ‘हमारी बुद्धि को प्रेरणा दें’ कहा। तो उस जमाने में गणसेवकत्व था। यानी उसका विचार था। फिर बुद्ध और महावीर ने गणसेवकत्व स्थापित किया। उसके बाद शैव और वैष्णवों ने कुल भारत में जो काम किया, वह नेतृत्व के आधार पर नहीं, गणसेवकत्व के आधार पर किया।

‘गणसेवकत्व’ का अर्थ कुछ लोग ‘मास लीडरशिप’ समझते हैं। कुछ लोग गण यानी जनता की सेवा का कर्तव्य-भावना से अपना अभिक्रम लेने की बात समझते हैं। कुछ लोग अधिकार-भावना तथा बदले की अपेक्षा से रहित सेवा करना आदि समझते हैं। अतः इसमें कुछ अधिक स्पष्टता की जरूरत है।

इसमें लीडरशिप है ही नहीं। हम सारे सह-विचारक हैं। यह जरूरी नहीं कि आपका और मेरा विचार एक ही हो। हम सह-विचारक हैं, बैठकर विचार करते हैं, अपनी राय भी जाहिर करते हैं, सर्वानुमति देखते हैं और उसके अनुकूल हो जाते हैं। फिर काम में पूरा सहयोग देते हैं। एक बार पहले अपना मत जाहिर कर दिया था, अब काम में कोई विरोध नहीं करते, यह है गणसेवकत्व। इसकी उत्तम मिसाल है, अपना शरीर। उसमें अन्योन्य सहयोग चलता है। एक दूसरे के लिए त्याग की भावना होती है। महत्त्व सबका है, लेकिन फिर भी सब जानते हैं कि अपना बचाव किसमें है। इसलिए सिर पर प्रहार होता है तो हाथ अपने आप सामने आ जाता है। वह जानता है कि शरीर को मेरी आवश्यकता सिर की अपेक्षा कम है। इसलिए वह सामने आता है। अगर यह न जाना जाए तो विवेक ही नहीं है, ऐसा कहा जाएगा। गणसेवकत्व में भी यह बात रहेगी। अपनी-अपनी शक्ति क्या है, इसकी समझ सबको है, अहंकार नहीं है। पहचान है कि मेरा क्या स्थान है, नम्रता है; हर कोई जानता है कि मेरा क्या उपयोग है। यह है गणसेवकत्व का लक्षण। गणसेवकत्व में मुख्य आधार प्रेम का रहेगा। और इसलिए नेतृत्व की अपेक्षा बहुत ज्यादा शक्ति इसमें आएगी। और वह भारत की अपनी शक्ति है।

हर आंदोलन में नेताओं की आवश्यकता रहती है। लेकिन अहिंसक आंदोलन केवल नेताओं पर निर्भर नहीं रह सकता, नहीं रहना चाहिए। न वह संस्थाओं पर निर्भर रहना चाहिए। विचार के नेतृत्व में परस्पर अनुराग से संलग्न कार्यकर्ता मुक्तभाव से सतत काम करते चले जाएं तो उससे अहिंसक क्रांति का दर्शन हो सकता है। अहिंसक क्रांति के काम मंन नेतृत्व या प्रभुत्व नहीं, गणसेवकत्व ही हो सकता है।

आगे का युग नेतृत्व का नहीं, गणसेवकत्व का युग है। सारे समाज का चित्त ऊंचा उठाना होगा। भले वह उतना ऊपर न उठे, जितना किसी व्यक्ति का उठ सकता है; फिर भी उसकी शक्ति ज्यादा होगी।

 

 

 

 

 

अज्ञान भी ज्ञान है

(इस पुस्तक के अध्यायों को पढ़ने के लिये कृपया आलेख के लिंक पर क्लिक करें)

क्रम

अध्याय

1

अज्ञान भी ज्ञान है

2

मेंढा गांव की गल्ली सरकार

3

धर्म की देहरी और समय देवता

4

आने वाली पीढ़ियों से कुछ सवाल

5

शिक्षा के कठिन दौर में एक सरल स्कूल

6

चुटकी भर नमकः पसेरी भर अन्याय

7

दुर्योधन का दरबार

8

जल का भंडारा

9

उर्वरता की हिंसक भूमि

10

एक निर्मल कथा

11

संस्थाएं नारायण-परायण बनें

12

दिव्य प्रवाह से अनंत तक

13

जब ईंधन नहीं रहेगा

 

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