जल को जीवन का स्रोत माना जाता है मगर मानव इतिहास इस बात का साक्षी है कि मानव संस्कृतियों का मूल स्रोत भी जल ही रहा है। वैज्ञानिक अनुसन्धानों से पता चला है कि विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं का विकास जलस्रोतों के समीप हुआ तथा जलस्रोत के नष्ट होने के साथ-साथ सभ्यताओं का बिखराव भी हो गया। नवीनतम साक्ष्य संकेत करते हैं कि वैदिक संस्कृति के विकास व सरस्वती नदी में उपलब्ध जलराशि में समानुपातिक सम्बन्ध रहा है। नदी में बढ़ते जल के साथ वैदिक संस्कृति तेजी से विकसित हुई तथा सरस्वती में जल कम होने के साथ इस संस्कृति का बिखराव प्रारम्भ हो गया।
वैज्ञानिकों ने सरस्वती नदी क्षेत्र का काल्पनिक सृजन कर यह जाना है कि हड़प्पा क्षेत्र में संस्कृति का उदय 5,200 वर्ष पूर्व हुआ, विकसित होकर शहरों को बसाया गया था तथा यह संस्कृति 3900 से 3000 ई. पूर्व बिखर गई थी। वैज्ञानिकों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन से मानसून में आई कमी के कारण नदी तंत्र कमजोर हो गया तथा जल की उपलब्धता कम होती चली गई। पानी के अभाव से परेशान लोग घरबार छोड़ कर चले गए। वहाँ के शहर वीरान होते चले गए। ऐसा सन्नाटा छाया कि हजारों वर्ष तक उधर किसी ने झाँका तक नहीं। जब इतिहास से सीखा नहीं जाता है तो वह इतिहास भविष्य बन कर सामने आता है। शायद इसीलिये एक कहावत बनी कि इतिहास अपने को दोहराता है। आज हम फिर एक जलवायु परिवर्तन के दौर से गुजर रहे हैं। मानसून के एक बार पुनः रुठने के संकेत मिल रहे हैं। विज्ञान व प्रौद्योगिकी के विकास के कारण आज हम हड़प्पा युग के मानव की तुलना में बहुत सक्षम हैं। यदि सम्भल गए तो अपनी संस्कृति को बिखराव से बचा सकेंगे। नहीं चेते तो हमारा हाल हड़प्पा क्षेत्र के प्राचीन लोगों से अधिक बुरा होगा क्योंकि हमारी प्रति व्यक्ति जल की माँग उस युग के लोगों से बहुत अधिक है।
नदी बन गई देवी
प्राचीन वैदिक सभ्यता भारत में ऐतिहासिक सरस्वती नदी के किनारे विकसित हुई थी। 1921 ईस्वी में रावी नदी के किनारे हड़प्पा के पास खुदाई हुई। वहाँ प्राप्त सभ्यता अवशेषों कोे हड़प्पा सभ्यता कहा गया। बाद में सिन्धु नदी के किनारे खुदाई हुई और प्राप्त अवशेषों को सिन्धु घाटी सभ्यता नाम दिया गया। 1980 तक ऐसे 1400 स्थानों पर खुदाई की और पाया गया कि बहावलपुर पाकिस्तान से राजस्थान, हरियाणा व उत्तर प्रदेश तक वैदिक सभ्यता के अवशेष बिखरे पड़े हैं। वैदिक साहित्य में सरस्वती नदी का उल्लेख बारम्बार हुआ है मगर भूमि पर वह दिखाई नहीं देती। प्राचीन साहित्य एवं नवीन वैज्ञानिक प्रमाणों के बल पर वैज्ञानिकों ने सरस्वती नदी के बहाव के मार्ग की जो कल्पना की उससे लगता है कि वैदिक सभ्यता का विकास प्राचीन सरस्वती नदी के किनारे पर हुआ।
ऋग्वेद को विश्व की प्राचीनतम पुस्तक स्वीकार किया गया है। इस दृष्टि से वैदिक साहित्य सरस्वती नदी के किनारे रचा गया था। सरस्वती नदी से वैदिक संस्कृति के साहित्यकार इतने अभिभूत थे कि मुक्त कण्ठ से सरस्वती नदी की महिमा गाने लगे थे। यह जानकर आश्चर्य होगा कि सरस्वती नदी ही आगे जाकर संस्कृति व विद्या की देवी सरस्वती हो गई। हम जिस सरस्वती देवी की पूजा करते हैं वह वास्तव में वैदिककाल में स्वच्छ जल का अथाह स्रोत रही सरस्वती नदी का मानवीय चेहरा है। इसके तट पर बैठ कर ही ऋषियों ने अपने ज्ञान का विस्तार कर वेदों की ऋचाओं की रचना की थी। इस कारण नदी सरस्वती को ज्ञान की देवी के रूप में पूजा जाने लगा था। ऋग्वेद के नदी सूक्त में कहा गया है कि -
‘इमं मे गंगे यमुने सरस्वती शुतुद्रि स्तोमं सचता परूष्ण्या
असिक्न्या मरूद्वधे वितस्तयार्जीकीये श्रृणुह्या सुषोमया’
ऋग्वेद में सरस्वती का महिमा मण्डन नदी के रूप में ही है मगर ब्राह्मण ग्रंथों में इसे वाणी की देवी के रूप में वर्णित किया गया है। कहते हैं कि ब्राह्मण ग्रंथों की रचना होने तक सरस्वती का नदी के रूप में लोप हो चुका था मगर इसकी महिमा बनी हुई थी और ज्ञान के विस्तार के साथ-साथ सरस्वती की महिमा बढ़ती ही गई। सरस्वती को वाणी, विद्या आदि की देवी के रूप में प्रतिष्ठित कर दिया गया। महाभारत, वायुपुराण आदि में कुछ और मिथक सरस्वती के साथ जुड़ गए। बाद के कवियों जैसे वाणभट्ट, अश्वघोष, राजशेखर आदि ने अपनी कल्पना से सरस्वती के चित्र में कुछ और रंग भरे। यह क्रम आज भी जारी है। साहित्यिक सांस्कृतिक कार्यक्रम का प्रारम्भ सरस्वती वन्दना से होता है।
अनुसन्धानकर्ताओं का मानना है कि भूगर्भीय घटनाओं के कारण सरस्वती नदी का अस्तित्त्व धरा पर अब नहीं रहा मगर प्राचीनकाल में सरस्वती एक प्रमुख नदी थी। एक मान्यता यह है कि सरस्वती नदी पश्चिमी गढ़वाल में नैवर के पास रुपिन हिमनद से प्रारभ्म होकर आदिबदरी, भवानीपुर, बल्चापुर होकर धीरे-धीरे नीचे उतरती थी। नीचे आने के बाद यह दक्षिण की ओर वर्तमान पंजाब, हरियाणा, राजस्थान व गुजरात में बहती हुई कच्छ के रण में अरब सागर में मिल जाती थी। सतलज, दृष्टावदी व यमुना इसकी सहायक नदियाँ थी। कई अनुसन्धानकर्ता मानते हैं कि सरस्वती नदी लुप्त नहीं हुई है, आज भी भूमि के नीचे बह रही है।
सरस्वती का ऋग्वेद में वर्णन विशाल नदी के रूप में हुआ है। सरस्वती पहाड़ों को चीरती हुई निकलती थी तथा मैदानों में बहकर अरब सागर में विलीन होती थी। मान्यता है कि ऋग्वैदिक काल में सरस्वती नदी में हर समय अथाह पानी रहता था। सरस्वती गंगा के समान ही विशालकाय थी। वैदिक काल के समाप्त होते-होते सरस्वती नदी बहुत कुछ सूख चुकी थी। ऐसा भूकम्प जैसी भूगर्भीय घटनाओं के कारण हुआ होगा। विशेषज्ञों का मानना है कि सरस्वती का पानी यमुना में गिर गया। यमुना में सरस्वती का प्रवाह मानकर इलाहबाद को त्रिवेणी संगम कहा गया। प्रत्यक्षतः तीन नदियों का मिलन इलाहाबाद में नहीं होता।
अमेरिका के समुद्रविज्ञान संस्थान के भूवैज्ञानिक वुड्स होले द्वारा सिन्धु नदी क्षेत्र का नवीनतम पुरातात्विक आँकड़ों व भूविज्ञान तकनीकों की सहायता से सजीव चित्रण सृजित करने से पता चला है कि सरस्वती हिमनद से नहीं निकलकर सदा बहने वाली मानसूनी नदी थी। अध्ययन अमेरिका की राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी की प्रोसिडिंग्स में प्रकाशित हुआ था। ऋग्वेद की एक ऋचा में भी सरस्वती को गिरियों से निकलता बताया गया है -
एका चेतत् सरस्वती नदी नाम् शुचिर्यती गिरिभ्य आसमुदात।
रायश्चेतन्ती भुवनस्य भूरे घृतं यदोदुदुहे नाहुघाय।।
मानसूनी वर्षा तंत्र की वैदिक सभ्यता के विकास तथा उसके उजड़ने में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही है। प्रारम्भ में मानसून की अधिकता के कारण नदी में बाढ़ की स्थिति रहती थी। इसी कारण बहुत अधिक मात्रा में उपजाऊ मिट्टी इस क्षेत्र में पहुँची थी। उपजाऊ मिट्टी और पर्याप्त पानी के कारण प्राचीनकाल में हड़प्पा क्षेत्र के लोगों के अन्न भण्डार सदा भरे रहते थे। लोग अपने परिवार के अतिरिक्त कई लोगों का पालन करने की स्थिति में थे। इसी के कारण शहरों का विकास सम्भव हुआ। सम्पन्नता के कारण ही शिक्षा, साहित्य, कलाओं आदि का विकास सम्भव हुआ।
कृषि के विस्तार से हड़प्पा क्षेत्री सभ्यता फली-फूली व मानसूनी वर्षा तंत्र के कमजोर हो जाने पर उजड़ गई। अन्तरराष्ट्रीय अनुसन्धान दल के द्वारा किये अध्ययन में उपग्रह से प्राप्त चित्रों, स्थालाकृतिक आँकड़ों, डिजिटल मानचित्रों, सिन्धु व समीपवर्ती नदियों की खुदाई से प्राप्त मिट्टी का अध्ययन का उपयोग कर यह परिणाम निकाला गया है कि मिट्टी वहाँ नदी के जल के बहाव से आई है, हवा के बहाव से नहीं पहुँची। अवसाद के रूप में जमे पदार्थों की उम्र तथा इतिहास के साथ क्षेत्र की स्थलाकृति में हुए परिवर्तनों से यह निष्कर्ष निकाला गया कि 5200 वर्ष पूर्व हड़प्पा संस्कृति का विकास प्रारम्भ हुआ, उन्होंने अपने नगर बसाए और 3900 से 3000 वर्ष पूर्व उजड़ गए। अध्ययन दल के प्रमुख, अमेरिका के समुद्र विज्ञान संस्थान के भूवैज्ञानिक, लिवियू गिओसन के अनुसार मानसून वर्ष-दर-वर्ष कमजोर होते जाने के कारण सरस्वती नदी में जल की कमी होती गई और हड़प्पा संस्कृति की बस्तियाँ उजड़ती गई।
वर्ष 2003 से 2008 के मध्य किये गए इस अध्ययन के लेखक का कहना है सूखा पड़ने पर सरस्वती में पानी कम होता गया। वहाँ के निवासी धीरे-धीरे पूर्व की ओर गंगा के मैदान में खिसकते गए। गंगा के मैदान क्षेत्र में मानसून सक्रिय बना रहा था। अकृषि कार्यों जैसे लेखन, चित्रांकन, संगीत आदि में लगे शहरी लोगों पर मानसून की बेरुखी का कुप्रभाव पहले पड़ा। इससे शहर सूने होने लगे। खेतों में रहकर कार्य करने वाली आबादी अपना निर्वाह करने में सफल रही। अतः शहरी प्रभाव वाली आबादी ग्रामीण प्रभुत्व में बदलती गई।
कई अन्य अध्ययन भी उपरोक्त परिकल्पना का समर्थन करते हैं। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के शोधकर्ता द्वारा मेघालय, ओमान तथा अरब सागर से जुटाए तथ्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है कि उत्तर-पश्चिम की सिन्धु घाटी के हड़प्पा क्षेत्र की संस्कृति जलवायु परिवर्तन के कारण मानसून में हुई कमी के कारण 4100 वर्ष पूर्व नष्ट हुई थी। इस अध्ययन का भी मानना है कि मानसून की असफलता के कारण हुई पानी की कमी की मार को वह शहरी सभ्यता नहीं झेल पाई और बिखर गई। कैम्ब्रिज तथा बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के संयुक्त अध्ययन में पुरातत्व तथा भूमिविज्ञान का उपयोग किया गया था। मानव व उसके पर्यावरण में सम्बन्ध खोजने की इस बहुविषयी परियोजना में इम्पीरियल काॅलेज, आॅक्सफोर्ड विश्वविद्यालय, भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान कानपुर आदि का भी सहयोग रहा था।
ब्रिटिश अनुसन्धानकर्ताओं ने हरियाणा की पुरानी झील के पेंदे में जमे अवसाद में उपस्थित मोलस्का खोलों को अपने अध्ययन का आधार बनाया। सीप-घोंघों के खोल में उपस्थित आॅक्सीजन के समस्थानिकों की अनुपातिक उपस्थिति के आधार पर कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के भूवैज्ञानिक डेविड होडेल, पुरातत्वज्ञ केमेरोन पेट्री तथा गेट शोधकर्ता यमा दीक्षित ने निष्कर्ष निकाला कि हजारों वर्ष पूर्व झील में जल आपूर्ति कम तथा जल का वाष्पीकरण अधिक होता रहा होगा। इस कारण झील में जल की निरन्तर कमी होती गई? वैज्ञानिकों को इस बात के प्रमाण भी मिले हैं कि उस अवधि में झील जल में जीवों की संख्या भी कम होती गई थी। शोधकर्ताओं ने पाया कि 4100 वर्ष पूर्व बने मोलस्क खोलों में आॅक्सीजन-18 की मात्रा सामान्य से अधिक थी। यह इस बात का प्रमाण है कि उन वर्षों में झील के भराव क्षेत्र में वर्षा की कमी के कारण झील में जल की कमी होती गई थी। जल का वाष्पीकरण होने पर, आॅक्सीजन-16 युक्त जल-अणु (हल्का होने के कारण) तेजी से उड़ने लगे होंगे और झील के जल में आॅक्सीजन-18 युक्त जल अणुओं का अनुपात बढ़ता गया होगा। इसके कारण उस समय झील में रहने वाले जीवों के शरीर में आॅक्सीजन-18 युक्त जल अणुओं का अनुपात बढ़ने लगा था। इस तथ्य का उपयोग वैज्ञानिकों ने क्षेत्र में निरन्तर कम वर्षा होने के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया है।
हड़प्पा क्षेत्र की प्राचीन संस्कृति को वास्तव में क्या हुआ इसके प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मिले हैं। प्रत्यक्ष प्रमाण की अनुपस्थिति में अप्रत्यक्ष प्रमाण भी विश्वसनीय संकेत दे देते हैं। अतः वैज्ञानिकों का मानना है कि हड़प्पा क्षेत्र की संस्कृति का लोप जलवायु परिवर्तन के कारण हुई जल की कमी ही थी। विश्व के अन्य भागों में हुए अनुसन्धान बताते हैं कि कई अन्य प्राचीन संस्कृतियाँ जैसे मिश्र, ग्रीस व मेसोपोटामियाँ आदि भी जलवायु परिवर्तन की शिकार हुई थी।
जलवायु परिवर्तन के प्रभाव
संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जलवायु परिवर्तन पर गठित अन्तर शासकीय दल की रिपोर्ट का कहना है कि एशिया, पीने के पानी की, कमी से जूझ रहा है। इक्कीसवीं सदी के आने वाले वर्षों में पानी व अन्न की कमी से उत्पन्न तनाव के कारण भारत, पाकिस्तान, बंगलादेश, चीन, श्रीलंका आदि पड़ोसी मुल्कों में इन्हीं बातों पर सशस्त्र युद्ध भी हो सकता है। यदि कुछ विशिष्ट कदम नहीं उठाए गए तो अन्य विकासमान आर्थिक शक्तियों की तरह, भारत में भी, वैश्विक ऊष्मायन के कारण सकल राष्ट्रीय उत्पादन में 3 प्रतिशत तक की कमी आ सकती है।
जलवायु परिवर्तन के कारण असमय होने वाली भीषण वर्षा, चक्रवात, बादल फटना, बाढ़, सूखा आदि उत्पादन कम करने के साथ ही जानमाल की हानि का कारण बनेंगे। रिपोर्ट के अनुसार वैसे तो विश्व में मौसम की मार से कोई भी बच नहीं पाएगा मगर सर्वाधिक प्रभावित होने वाले देशों में भारत भी है। भारत के 120 करोड़ लोगों का जीवन इससे बुरी तरह प्रभावित होगा।
भारत के समुद्री किनारे अधिक प्रभावित होंगे, जिसका विपरीत प्रभाव गोवा, केरल आदि में पर्यटन व्यवसाय पर होगा। समुद्र की हलचल से किनारे के रिसॉर्ट नष्ट होने के साथ ही गर्मी के कारण लोग समुद्र किनारे की बजाय ठण्डे स्थानों पर जाना पसन्द करेंगे। रिपोर्ट में विभिन्न देशों को व्यक्तिगत स्तर पर होने वाली हानि का उल्लेख तो नहीं किया है मगर क्षेत्रीय स्तर पर होने वाले प्रभाव में भारत के लिये चिन्ताजनक स्थिति उभरती है।
भारत के सिन्धु-गंगा मैदान पर अधिक बुरा प्रभाव होने का अर्थ है कि यहाँ की गरीब जनता के कष्ट और बढ़ जाएँगे। सिन्धु व ब्रह्मपुत्र नदियों के संग्रहण क्षेत्र में हो रहे परिवर्तनों के कारण अब तब बाढ़ के प्रकोप से परेशान रहा यह क्षेत्र आगामी समय में सूखे के सन्नाटे का शिकार हो सकता है। मौसम परिवर्तनों का विपरीत प्रभाव सुरक्षा व्यवस्था पर भी होगा। मुम्बई व कोलकता जैसे महानगर समुद्री सतह के ऊपर उठने से परेशान होंगे। 2050 तक मछली उत्पादन बहुत गिर जाने के कारण भारतीय आबादी के एक बड़े भाग की परेशानी बहुत बढ़ जाने का अनुमान है। ग्लेशियरों के तेजी से पिघलने के कारण देश के जलतंत्र पर विपरीत प्रभाव होगा और खेती के साथ पीने के पानी का संकट उत्पन्न होगा। बढ़ता तापक्रम मानव स्वास्थ्य पर भी विपरीत प्रभाव डालेगा। मूलभूत सुविधाओं जैसे सड़क, बन्दरगाह, हवाई अड्डों के नष्ट होने के कारण भी लोगों के जीवन पर विपरीत प्रभाव पड़ेगा। मंहगाई अनियंत्रित हो जाएगी। गरीब लोग सबसे अधिक प्रभावित होंगे। स्पष्ट है कि भारत की सनातन संस्कृति को बचाना है तो हमें जल बचाना होगा क्योंंकि जल ही संस्कृति का मूलाधार है।
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विष्णुप्रसाद चतुर्वेदी, पूर्व प्रधानाचार्य, 2, तिलक नगर पाली, राजस्थान - 306401
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