संस्कृति के बंधन, गठबंधन और बाँध

हम एक ऐसे समाज को विस्थापित कर रहे हैं जिसमें स्वयं के देवता को रचने की क्षमता है। हमने तो उन्हीं के देवता उधार लिए हैं। जंगलों और लोक में रहने वाले समुदाय को जब देवताओं की कमी पड़ती है, तो वह स्थानीय परिवेश के अनुरूप नए देवता का सृजन कर लेता है। - डा. कपिल तिवारी

वडोदरा (बड़ौदा) से 90 किलोमीटर दूर स्थित केवाड़िया और अन्य पाँच छोटे गाँवों की नींद बहुत बरस पहले सन 1961 की सदियों में अजीब सी कर्कश आवाज से टूटी। नया साल प्रारम्भ हुए अभी अधिक दिन नहीं बीते थे। कोठी गाँव में एक बुल्डोजर आया और उसने खड़ी फसल को रौंदकर खेत को समतल बना दिया। हतप्रभ ग्रामीणों को बताया गया कि हेलीपेड के निर्माण के लिए कुछ भूमि की आवश्यकता है। वैसे ग्रामीणों के लिए तो यह सूचना ही अपने आप में एक अजूबा थी। उनसे कुछ दस्तावेजों पर हस्ताक्षर कराए गए और सम्भवतः उनकी फसल के नुकसान की भरपाई हेतु उन्हें थोड़ा बहुत भुगतान करा भी गया। उसके बाद 15 जनवरी 1961 को हेलीकॉप्टर नाम की बड़ी सी चिड़िया जिसे स्थानीय लोग चील गाड़ी के नाम से पुकारते हैं, में भारत के प्रथम प्रधानमन्त्री जवाहर लाल नेहरू का आगमन हुआ। उन्होंने भाषण दिया एवं बटन दबाकर नदी की दूसरी ओर विस्फोट किया। इसके बाद वे वापस लौट गए। परन्तु तब भी बहुत कम लोगों को पता चल पाया था कि ‘सरदार सरोवर परियोजना’ (तब नवागाम बाँध) का उद्घाटन हो गया है।

उदघाटन के तत्काल बाद गुजरात सरकार ने केवड़िया, वाघोड़िया, कोठी, लिमड़ी नवागाम और गोरा के 397 परिवारों की 1777 एकड़ भूमि का अधिग्रहण कर लिया। ये सभी परिवार तड़वी आदिवासी समुदाय के थे। इन्हें सार्वजनिक उद्देश्य यानि वर्तमान सरदार सरोवर बाँध के निर्माण हेतु अधिग्रहण के नोटिस दिए गए थे। इसी के साथ उनसे यह भी कहा गया था कि उन्हें इस हेतु नकद मुआवजे के अलग बाँध र्निमाण स्थल पर रोजगार भी दिया जाएगा। सन 1961 और 63 के मध्य परियोजना के शुरूआती दौर में ही उनके घरों और भूमि को ‘परियोजना कॉलोनी’ के लिए मात्र 80 से 250 रु. प्रति एकड़ के मूल्य पर अधिग्रहित कर लिया गया। इस पर चालाकी यह कि गयी उन्हें जलाशय के परियोजना प्रभावितों के समकक्ष की मान्यता कभी भी प्राप्त नहीं हुई। वैसे समय के साथ यह फेहरिस्त बढती गई। इसमें मध्य प्रदेश, गुजरात व महाराष्ट्र के सैकड़ों गाँवों के डेढ लाख से ज्यादा परिवार प्रभावित हो गए। इनके साथ बहुत कुछ पानी में समाता गया और लाखों-लाख वर्षों का इतिहास मानव निर्मित झील में समा गया।

वहीं दूसरी ओर दुनिया के अनेक बुद्धिजीवियों का मानना है कि भारत का कोई इतिहास नहीं है। उनकी यह बात मानने में हमें कोई कष्ट भी नहीं होना चाहिये। क्योंकि भारतीय संस्कृति की निरन्तरता ने कभी उसे इतिहास बनने ही नहीं दिया। इसे दुनिया का महानतम आश्चर्य भी माना जा सकता है। इसे समझने की प्रक्रिया में तीन अन्य संस्कृतियाँ हमारे सामने आती है, मिस्र, मेसापोटेमिया और युन्नानी या चीनी संस्कृति। इन तीनों के इतिहास तो आज जरूर मौजूद है। लेकिन भारतीय संस्कृति तो आज भी अपने पुरे विस्तार के साथ मौजूद है।

हम सब भारतीय एक अजीब बेमेल से लेकिन आश्चर्यजनक विविधता वाले भूगोल में निवास करते हैं। यहाँ वेशभूषा, नाक नक्श, भाषा, लिपि, रीति रिवाज, तीज त्योहार, भोजन, जलवायु और भौगोलिक विभिन्नताएँ विद्यमान हैं। इस देश की कभी कोई एक राष्ट्रभाषा नहीं रही। उत्तर भारतीय की भोजन प्रणाली दक्षिण भारतीय से और पूर्वी भारत के निवासी की पश्चिम भारतीय से एकदम अलग है। एक ओर की सीमा हिमालय और दुनिया की सबसे ठंडी जगहों में से एक कारगिल से शुरू होती है तो दूसरी ओर पश्चिमी भारत की रेगिस्तानी एवं अत्यन्त गर्म इलाकों से शुरू होती है। पूर्वोत्तर का इलाका घने ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों से भरा है तो दक्षिण की सीमा गहरे अथाह समुद्र पर समाप्त होती है।

दो हजार बरस पहले सिंकदर यहाँ अपने साथ यवन संस्कृति लाया। शक आए, हूण आए, इसके बाद मुस्लिम आए और मुगल भी आए अन्त में अंग्रेज भी आए सबने यहाँ आकर अपने को पानी जैसा बना लिया (सिर्फ अंग्रेजों को छोड़कर) और भारतीय संस्कृति के बहुमूल्य घड़े में आकार ले लिया। पुरातन ग्रीस से पुरातन चीन तक का इतिहास और उनकी तत्कालीन संस्कृति हमें अत्यंत आकर्षित करती है। और हम उनकी असाधारणता को देखकर भौचक रह जाते हैं। वस्तुतः भारत तब भी उतना ही परिपक्व था और उसने अपनी संस्कृति को कभी अतीत नहीं बनने दिया। राजाओं की वंशावली शायद उतनी शिद्दत से हमारे यहाँ दोहरायी नहीं जाती। भारतीय पुरा साहित्य के रचनाकारों के नाम बहुत स्पष्ट नहीं है। यहाँ चली लम्बी लडाइयाँ हमारी स्मृति में नहीं है। और तो और सन 1757 और सन 1857 के स्वतंत्रता संग्रामों की गाथाएँ भी याद दिलाने पर ही हमारे सामने आती है। दुनिया के तकरीबन प्रत्येक धर्म का अनुयायी इस देश में मौजूद हैं। आश्चर्य का विषय है कि आधुनिक बुद्धिजीवियों की किसी भी कसौटी पर खरा न उतरने वाला हमारा समाज आखिर कैसे आज भी एक सूत्र में बँधा है? इसका एकमात्र उत्तर हो सकता है भारतीय ‘संस्कृति’। तो आखिर ये संस्कृति क्या है? क्या इसे किसी परिभाषा में बाँधा जा सकता है? क्या इसे अधिक मानवीय परिभाषा दी जा सकती है? कुछ लोगों की निगाह में संस्कृति यानि धर्म, दर्शन, कानून व्यवस्था, जीवनशैली, साहित्य, कला, संगीत का गठबंधन है। वैसे यह हमारे ऊपर है कि हम इस सूची में नए-नए तत्व शामिल करते जाएँ। गौरतलब है धर्म अक्सर विशिष्ट ही होता है और एक खास वर्ग इसमें शामिल रहता है। लेकिन संस्कृति के साथ ऐसा नहीं है। संस्कृति तो हमेशा समावेशी ही होती है। यह पथ, मत और विचारधारा तीनों से ही मुक्त होती है। ऐसा माना जाता है कि कोई भी महान संस्कृति धर्म के बिना पूर्ण नहीं है। परन्तु धर्म को प्रभुत्वशाली भूमिका दे देने से वह यह प्रयास करेगा कि कई अन्य तत्व फिर वह चाहे जितने महत्त्वपूर्ण क्यों न हो, उन्हें संस्कृति से बाहर रखा जाए। वहीं दूसरी ओर एक और वर्ग है जो कहता है कि हिन्दू संस्कृति उस धार्मिक संप्रदाय जो कि हिन्दू कहलाता है और न ही वह नस्ल जो कि आर्य कहलाती है, की संस्कृति है बल्कि यह भारत या हिंद कहलाने वाले देश की संस्कृति है। मगर इन तमाम तरह से भारतीय संस्कृति को समझाने वालों की निगाह में लोक संस्कृति का महत्व महज अलंकारिक है और आदिवासियों की संस्कृति तो उनके लिए शायद अस्तित्व में ही नहीं है या उनकी परिभाषा में इसे सहेजने की कोई गुंजाईश ही नहीं है। वैसे संस्कृति एक अमूर्त स्थिति है, जो हमेशा हमारे साथ मौजूद रहती है। एक प्रसिद्ध लेखक की भारतीय संस्कृति से सम्बन्धित पुस्तक का पहला पन्ना खोलते ही जो बात सामने आई वह हतप्रभ सी करने वाली थी। इसमें कहा गया था कि किसी वैज्ञानिक विमर्श में सर्वाधिक कठिन कार्य किसी अमूर्त को व्याख्यायित करना है। उनके अनुसार किसी वस्तु के असंख्य हिस्सों को गूंथ पाने का सामान्य विचार उन अधिकांश लोगों के द्वारा पसंद नहीं किया जाता जो कि अपनी हिस्सेदारी का कारण नहीं समझ पाते। एथेंस के पुराने बाशिंदे सुकरात को इसलिए सहन नहीं कर पाए क्योंकि उसने प्रत्येक को मजबूर किया कि वह न्याय, आत्मसंयम, प्रेम आदि अमूर्त स्थितियों को परिभाषित करे और उन्हें चिढ़ाने के लिए वे लोग जो भी परिभाषा गढ़ते सुकरात उस परिभाषा की चिन्दे-चिन्दे कर देते।

हतप्रभ होने की वजह यह थी कि भारतीय संस्कृति पर बातचीत का आधार क्या एथेंस और सुकरात होंगे? क्या किसी को अपनी संस्कृति को व्याख्यायित करने के लिए किसी अन्य संस्कृति का सहारा लेना होगा? इसी उहापोह में हमने भी संस्कृति की अनेक परिभाषाएँ खोज डालीं। एक परिभाषा के अनुसार ‘संस्कृति किन्हीं खास समूह के लोगों की विशिष्टता होती है जिसे भाषा, धर्म, खान-पान सामाजिक रीतियों, संगीत और कला सभी के द्वारा परिभाषित किया जाता है।’ एक अन्य परिभाषा में इसे और विस्तार दिया गया था ‘संस्कृति का आशय है ज्ञान, अनुभवों, आस्था, मूल्यों, आचार-व्यवहार, अभिप्राय, वंशानुक्रम, धर्म, काल की धारणा, भूमिका, स्थानिक सम्बन्धों, ब्रह्मांड का विचार और भौतिक वस्तुओं का संचयित भंडारण जिसे लोगों के एक समुह द्वारा पीढ़ी दर पीढ़ी व्यक्तिगत प्रयत्नों का सामूहिक भावना से प्राप्त किया गया हो।’ इस बीच संस्कृति की एक और अनूठी परिभाषा सामने आई। इसमें कहा गया था ‘पश्चिम की ही तरह विकास के शुरुआती दौर में पूर्वी संस्कृति भी धर्म से जबरदस्त प्रभावित था। सामान्य तौर पर कहें तो पूर्वी संस्कृति में पश्चिम की संस्कृति की बनिस्बत धर्मनिरपेक्ष समाज और धार्मिक दर्शन के मध्य बहुत कम अंतर है।’ अंत में एक और परिभाषा पर गौर कर लेते हैं, इसके अनुसार ‘संस्कृति का अर्थ है पारम्परिक व्यवहार की पूर्व जटिलता जिसे मानव नस्ल ने विकसित किया और इसे पीढ़ी दर पीढ़ी प्रत्येक पीढ़ी ने सीखा संस्कृति बहुत संकीर्ण नहीं है। इसका अर्थ पारम्परिक व्यवहार के स्वरूप से भी निकाला जा सकता है जो कि दिए गए किसी समाज या समाजों के समूह, विशिष्ट नस्ल, विशिष्ट क्षेत्र या किसी विशिष्ट समय विशेष की विशिष्टता लिए हुए हो।’

सुकरात के जिक्र से शुरू हुई संस्कृति की परिभाषाओं की श्रृंखला में हमें अपनी परिभाषा ढूँढनी थी, जिसके आधार पर हम नर्मदा घाटी में सरदार सरोवर बाँध के जलाशय से भरे पानी से विस्थापित होने वाले समुदाय की सांस्कृतिक हानि को समझ सकें। वैसे अमूर्तता पश्चिमी संस्कृति के लिए शायद कोई नवाचार हो सकता है, लेकिन भारत में तो केकड़ को शंकर बना देने की हिम्मत सहस्त्राब्दियों में मौजूद है और शिवलिंग की पूजा आदिम समुदाय से लेकर आईटी के क्षेत्र में काम कर रहा आधुनिकतम भारतीय भी कर रहा है। इतना ही नहीं इसी नर्मदा नदी में सर्वाधिक सुन्दर और चिकने शिवलिंग मिलते हैं। ऐसा क्यों होता है, यह भी इस पुस्तक में आगे आयी एक आदिवासी गाथा अपने ढंग से समझा देती है। हमारा अधिक ध्यान आदिवासी संस्कृति पर होने की वजह यह है कि अभी यही वर्ग डूब की सर्वाधिक जद में आया है और प्रभावित भी हुआ है।

विस्थापन की वजह से होने वाले सांस्कृतिक प्लावन को समझना इतना आसान नहीं था। अपनी इस उलझन के लिए हम पहुँचे डाक्टर कपिल तिवारी के पास। डॉ तिवारी पिछले करीब 35 वर्षों से लोक व आदिवासी संस्कृति के अध्येता हैं और बातों को समझाने की उनकी शैली ही अनूठी नहीं है बल्कि लोक व आदिवासी जीवन को लेकर उनकी स्थापनाएँ भी मौलिक, अनूठी और अकाट्य हैं। विस्थापन और संस्कृति पर उनकी शुरुआती टिप्पणी थी, ‘जब मनुष्य का प्राकृतिक वातावरण बदलता है, तब वह अभूतपूर्व संकट में पड़ जाता है। उसका साथ उन सब वस्तुओं, स्थितियों और परिस्थितियों से छूट जाता है, जिसके साथ उसके शताब्दियों से रिश्ते बने हुए थे। वन से बाहर आकर वह जिस असहजता का अनुभव करता है, उसकी भाषा में अभिव्यक्ति मात्र कठिन नहीं बल्कि कुछ हद तक असम्भव भी है। वहाँ पूरा वन उसका घर था। लेकिन यहाँ वह एक चहारदीवारी में सिमट जाता है। हम शहरी अपने रहवास या घर को कुछ फीट, मीटर या एकड़ ने माप कर किसी नतीजे पर पहुँच सकते हैं। लेकिन किसी वनवासी या कूछ हद तक किसान के लिए भी ऐसा कर पाना सम्भव नहीं होता। अपने पर्यावरण से बिछुड़ना, उसे किसी गहरे तल पर सांस्कृतिक बिखराव की ओर धकेल देता है। इस परिप्रेक्ष्य ने निश्चित तौर पर कहा जा सकता है कि पिछली दो शताब्दियों में लिखा गया समाजशास्त्र रद्दी है बेकार है।’

डॉ. तिवारी की इसी बात को सरदार सरोवर बाँध की डूब में आए जलसिंधी के बाबा महारिया कूछ इस तरह से कहते हैं ‘पीढ़ियों’ से हम जंगलों में रहते आए हैं। जंगल ही हमारा साहूकार और बैंक है। संकट के दिनों में हम उसी के पास जाते हैं। जंगल और बाँस से हम अपना घर बाँधते हैं। निगोड़ी और हियाली की झाड़ियों से हम अपने घर की दीवारों को बुनते हैं। (गौर करिए वे अपने घर की दीवार चुनते या खड़ी नहीं करते बल्कि बुनते हैं) जंगल से ही हमारे घरों की टोकनी, खाट, हल, बक्खर और हर एक सामान बनाते हैं। जंगल पहाड़ से चारा मिलता है, जिससे हमारे जानवर पुसते है। तरह-तरह का चारा मिलता है। गर्मी में घास सूख जाती है पर झाड़ की पत्तियाँ तो रहती हैं। ‘अपनी बात को समझाते हुए है कहते हैं ‘हमारा जंगल तो हमारी गोदड़ी (रजाई) कहलाता है। उसकी लकड़ी से रोटी रांधना, उसकी लकड़ी से उजाला करना और उसी की लकड़ी से जाड़े की रातों में तापते हुए सो जाना। ठंड लगती है तो रात में उठकर फिर से आग जला लेते हैं। जंगल हमें पालता पोसता है, तो हम भी उसे संभालते हैं। बरसात ने घास और फसल जब घुटने-घुटने हो जाती है तो हम नीलपी पूजते हैं। तब तक हम हंसिया से घास नहीं काट सकते, घास का पूला नहीं बाध सकते, सागौन के कोमल पत्ते नहीं तोड़ सकते यहँ तक नई घास को खाने वाले जानवरों का दूध तक नहीं पी सकते’

इन सबको समेटती हुई संस्कृति श्री श्यामाचरण दुबे की व्याख्या संभवतः उपसंहार का कार्य करती है “संस्कृति को दो व्याख्याएँ सम्भव हैं, - व्यापक और असीमित। मानव विज्ञान सीखे हुए व्यवहार प्रकारों की समग्रता को संस्कृति की संज्ञा देता है। इसकी परिधि ने मानव और प्रकृति, मानव और समाज तथा मानव और अदृश्य जगत की शक्तियों के सभी अंतर्सबंध आते हैं। मानव का अंतर्गत विचार, विवेक, व्यक्तिगत’’ मूल्य, ऊर्जा की अभिव्यक्ति भी संस्कृति का अंग होता है। सुविधा के लिए संस्कृति को अवयवों और पक्षों में विभाजित किया जा सकता है, पर उसके घटक सावयवी रूप से जुडे होते हैं। उनका अन्तरावलंबन संस्कृति को सम्पूर्णता देता है। संस्कृति के भौतिक पक्ष को उसके विचार पक्ष और क्रिया पक्ष से अलग नहीं किया जा सकता। इसके विपरीत संस्कृति की सीमित व्याख्या उसे ध्याकर्षी और विशिष्ट उपलब्धियों से जोड़ती है। इन व्याख्याओं में दार्शनिक चिन्तन, वैचारिक उत्कर्ष और कलात्मक अवदानों को प्राथमिकता दी जाती है, दैनिक जीवन से जुडे संस्कृति के अन्य पक्ष गौण माने जाते हैं। चिन्तन विचार और सृजन अपने आप में महत्त्वपूर्ण है, किन्तु उन्हें जीवन और संस्कृति के व्यापक सन्दर्भों से काटा नहीं जा सकता। इस विराट पृष्ठभूमि में ही वे संपोषण व अर्थ पाये जाते हैं।

प्रकृति और मनुष्य के आपसी सामंजस्य की इससे सुंदर संस्कृति की क्या कोई कल्पना की जा सकती है? लेटिन अमेरिका के अनेक राष्ट्र आज अपने संविधान में परिवर्तन कर प्रकृति को एक जीवित इकाई के रूप में स्थापित कर रहे हैं। वे मानते हैं कि प्रकृति को भी मनुष्य की तरह विकसित और फलने-फूलने का अधिकार है। पश्चिमी मध्यप्रदेश, गुजरात व राजस्थान में निवास करने वाली भील जनजाति तो इसे अपने जीवन में उतार चुकी है। ऐतिहासिक परिपेक्ष्य में देखें तो यह कहा जा सकता है कि भील भारत में आर्यों के आगमन के पूर्व आकर बस गए थे। कुछ इन्हें द्राविड़ नहीं मानते वहीं कूछ इन्हें द्राविड़ नहीं मानते हैं और इन्हें आदिवासियों के आस्ट्रालोइड समूह से जोड़ते हैं। वैसे रसल और हीरालाल का मानना है कि भील राजपुताना और गुजरात के प्राचीनतम निवासी हैं। (पश्चिमी मध्यप्रदेश के गुजरात व राजस्थान से सटे जिलों में इनकी बहुतायत है) एक समय जब झाबुआ जिले का विभाजन नहीं हुआथा तब जिले की कुल जनसंख्या में इनका प्रतिशत 84.78 था। इसी तरह ये क्रमशः खरगोन, (पश्चिम निमाड़, बड़वानी सहित) में 39.05 प्रतिशत, धार में 53.38 प्रतिशत व रतलाम में 12.52 प्रतिशत थे। उन्हें प्रायः गुजरात के कोली आदिवासियों के साथ भी शामिल किया जाता है। वैसे कोल मूलतः बिहार (अब झारखंड) के छोटा नागपुर की एक जनजाति है। बैतूल, होशंगाबाद और पूर्व निमाड़ के कोरकू भी वास्तव में कोल (मुण्डा) ही है, जिनका आव्रजन छोटा नागपुर से हुआ है। वैसे भील अपनी मूल भाषा भूल चुके हैं, इसलिए निश्चित तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि भील कोलीय जनजाति है या द्राविड़।

आदिवासी एवं कृषक समुदाय की जीवनशैली और संस्कृति कोई अलग-अलग वस्तुएँ नहीं है। उनके, तीज-त्यौहार, उनकी परम्पराए, उनका खान-पान, सभी कूछ एक दूसरे से गुथा हुआ है आदिवासी के देवता हमेशा उनके साथ रहते हैं। उनके पूर्वज हमेशा उनकी मदद को तैयार रहते हैं उनका पड़ोसी हमेशा उन्हें सम्भालते रहता है। उनकी स्वतंत्रता कभी उन्हें स्वछंद नहीं होने देती। क्योंकि वे स्वतंत्रता के मायने समझते हैं। यह स्वतंत्रता उन्होंने स्वअर्जित की है ओर कभी किसी को इसे छीनने का मौका नहीं दिया।

वहीं दूसरी ओर पुरातत्ववेत्ता दामोदर धर्मानंद कोसंबी का मानना है कि ‘ये लोग अब अर्ध कबीलाई किसान बन गए हैं, अनुर्वर भूमि पर खेती करते हैं, परन्तु अच्छे धनुर्धारी, शिकारी, धीवर तथा अन्न संकलनकर्ता के रूप में भी प्रसिद्ध हैं। किसी मध्यवर्ती अवस्था में ये लोग पशुपालक बन गए थे और खेतीहर तो ये आधुनिक काल में ही बने हैं। फलतः भील भाषा अब गुजराती की एक बोली है, जो उन गूजरों की बोली के समीप है, जिनसे इन्होंने पशुपालन के दौरान सीखा था। यह एक स्वाभाविक परिणाम है। जब दो संस्कृतियों का मिलन होता है तो जिस संस्कृति की उत्पादन प्रणाली बेहतर होती है, उसकी भाषा अक्सर दूसरे पर हावी हो जाती है। माना जाता है कि भीलों के आश्रित नहाल कबीले के लोगों पर जिनकी किसी समय अपनी स्वतंत्र भाषा थी, ऐसा ही प्रभाव पड़ा है। कबीलाई भीलों की एक खास विशेषता यह रही है कि इन्होंने आवश्यकता पड़ने पर पूरे ऐतिहासिक युग में लड़ाईयाँ लड़ी हैं, यद्यपि ये योद्धाओं के रूप में संगठित कभी नहीं रहे। जान पड़ता है कि कूछ भील ईसा पूर्व पहली सदी में मालवा के आस-पास राजा भी बन गए थे, परन्तु इनका राजवंश जल्दी ही नष्ट हो गया।’

भील केवल पश्चिमी या मध्यभारत तक ही सीमित नहीं रहे। ये मध्य भारत खासकर बिहार एवं मध्यप्रदेश से पलायन कर सुदूर पूर्व त्रिपुरा तक पहुँचे। सन 2001 की जनगणना के अनुसार वहाँ उनकी आबादी 2336 थी और वे वहाँ चाय बागानों, ईंट के भट्टों और खेती में काम कर रहे थे। त्रिपुरा में उनका वहाँ निवास मुख्यतया बेलोनिया के अकिनपुर और खोवाल उपसंभाग के बागान बाजार में है। इन्हें उस्तरी त्रिपुरा के चाय बागानों में भी कार्य करते देखा जा सकता है। एक अन्य तथ्य पर भी गौर करना चाहिए कि त्रिपुरा की सन 1951 की जनगणना में इनकी संख्या मात्र 41थी एवं सन 1961 में 69 थी तो पिछले 50 वर्षों में इनकी संख्या में 40 गुना की वृद्धि किस प्रकार हुई? बहरहाल यह तो मानना ही होगा कि यह अत्यन्त परिश्रमी एवं ईमानदार समुदाय है।

‘भील’ समुदाय को लेकर अनेक मत प्रचलित रहे हैं। सामान्य तौर पर यह माना जाता है कि भील वृहद हिन्दू समाज का हिस्सा रहे हैं। वनवासी होने के कारण वे विकास के अवसरों से वंचित रहे। इसलिए उनमें और शेष हिन्दुओं में अन्तर दिखाई देने लगा। वैदिक साहित्य में इनका उल्लेख पंचम वर्ण के रूप में हुआ है। इन्हें निषाद कहकर भी सम्बोधित किया गया है। इसकी वजह इनकी धनुर्विद्या में अत्यन्त निपुणता है। ऐसा माना जाता है कि भील जनजाति में अतीत में अनेक महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हुए हैं। मान्यता है कि ऋषि वाल्मिकी स्वयं भील थे और उनका मूल नाम वालिया था। एकलव्य का प्रसंग हम सबको ज्ञात ही है। शबरी को भी भील माना जाता है। यह कथा भी प्रचलित है कि भगवान कृष्ण का वध भी एक भील के बाण से ही हुआ था।

भील नाम की उत्पत्ति-ऐसा अनुमान है कि इस शब्द की उत्पत्ति उच्चारण सम्बन्धी भेद के कारण संस्कृत के मूल शब्द ‘भिद’ से हुई है। भिद का भावार्थ है, विंधना, भेदना, वेघना (लक्ष्य को वेघना)। उच्चारणा सम्बन्धी विविधताओं के चलते भिद अंततः भील शब्द में रूपांतरित हुआ। वहीं आरवीरसल और हीरालाल का कहना है कि द्राविड़ भाषा ने धनुष के लिए ‘बील’ शब्द प्रयुक्त होता है और धीरे-धीरे यह रूपांतरित होकर ‘भील’ बन गया। इससे यह भी लगता है कि रसल एवं हीरालाल की यह मान्यता उचित ही है कि ‘भील’ द्राविड़ हैं न कि मुण्डा। इस प्रकार भीलों के पूर्वजों और उत्पत्ति को लेकर अनेक गाथाएँ हमारे सामने मौजूद है। यह शोध का विषय है कि अंततः भीलों को पूर्ण वनवासी मानने को लेकर मतैक्य क्यों नहीं है। लेकिन भीलों को लेकर प्राप्त कुछ ऐतिहासिक तथ्यों पर भी निगाह डालना आवश्यकहै।

840 ई. पूर्व में धन्ना भील मालवा साम्राज्य का शासक था। ऐसा माना जाता है कि वह एक संवेदनशील, कुशल एवं शक्तिशाली राजा था। इस वंश के शासकों का शासन 570 ई. पूर्व तक लगातार चलता रहा और इस दौरान भील संस्कृति का काफी विकास भी हुआ। भीलों के शासन का एक और प्रमाण इदर राज्य जिसे पाण्डालिका के नाम से सम्बोधित किया जाता था, के रूप में सामने आता है। यहाँ छठी शताब्दी ई. तक भील शासकों का शासन था। बाद में राजपूतों ने आक्रमण कर इसे अपने आधिपत्य में ले लिया। कुछ समय पश्चात इस राज्य पर गुहलोत, गुहिल या गहलोत नाम के राजा राज्य करने लगे। लेकिन आक्रांताओं से पराजित होकर वे अपना राज्य छोड़ जंगल में भाग गए। जहाँ भीलों ने उन्हें पूर्ण संरक्षण व सहयोग प्रदान किया। भीलों को उनमें राजाओं के गुण दिखे और उन्होंने इसे राजा मान लिया। इसके फलस्वरुप भीलों के सरदारों में राजतिलक की रस्म मुखिया के अँगूठे को काटकर पूरी की। इतिहासकार कर्नल जेम्स राड ने अपनी पुस्तक ‘एनल्स एण्ड एन्टीक्यूटीज ऑफ राजस्थान’ में अबुल फजल की आईने-ए-अकबरी के हवाले से इसकी पुष्टि भी की है कि ‘गुहा या गोहा अधिकतर भीलों के साथ जंगल में निवास करते थे। निडरता की बात ब्राम्हणों के बजाए भीलों में अधिक पाई जाती है इसीलिए ये राजपूतों के प्रिय बने।’ भील अपना राजा चुनना चाहते थे। इस पर भीलों ने इन्हें उपयुक्त एवं योग्य समझकर इन भीलों में से एक ने अपना अँगूठा काटकर गुहा को राजा मानकर उसके मस्तक पर रक्त से राजतिलक किया। इसका अनुमोदन बाद में समाज के अन्य वयोवृद्ध पुरुषों ने किया। कालान्तर में यह गुहलोत। या गहलोत कहलाए। आगे चलकर इस घटना ने रस्म का रूप ले लिया। राजतिलक व अन्य अवसरों पर इन्हें जागीरें व भूमि का पट्टा दिया जाने लगा था।

कुछ शताब्दियों तक यह उतार चढ़ाव भरा संघर्ष चलता रहा। सन 1300 ई. में शुक नामक भील शासक ने झाबुआ का राज्य अपने आधीन किया। इसके घोलता के राजपूत सरदारों से तो मधुर सम्बन्ध थे लेकिन गुजरात के शासक से दुश्मनी थी। गुजरात का शासक दिल्ली के शासक के साथ मिलकर शुक के राज्य को छीनना चाहता था। भील राजा ने वीरता के साथ बेहतर कूटनीतिक सोच का परिचय दिया और घोलता के राजपूतों से सन्धि कर उनकी सहायता से गुजरात के राज्य को परास्त कर दिया। लेकिन गुजरात के शासक का दिल्ली सल्तनत से सीधा सम्पर्क था। उसने सल्तनत के सहयोग से भील राज्य पर आक्रमण कर दिया। युद्ध में भील शासक मारा गया तथा इसके सहयोगी घोलता राजपूत सरदारों को गिरफ्तार कर लिया गया।

कालान्तर में भी भीलों के संघर्ष चलते रहे लेकिन है धीरे-धीरे भीतरी वनों में सिमटते चले गए। 18वीं शताब्दी के शुरुआत में मराठों के आक्रमण व लूटमार का सर्वाधिक शिकार भील समुदाय ही हुआ। अंग्रेजों का शासन आने के बाद भील पलटन आदि तो बनी लेकिन इससे समुदाय को अधिक लाभ नहीं मिला। धीरे-धीरे ये बाहरी दुनिया से कटते गए और अन्ततः पुनः पूरी तरह जंगलों पर आश्रित हो गए। आजादी के बाद सरकार सरोवर बाँध एक बार पुनः उनपर आक्रमण की तरह प्रकट हुआ। फर्क इतना है कि पहले के आक्रमण उन्हें जंगल के भीतर खदेड़ रहे थे और कम से कम ये लोग जीवन जी पा तो रहे थे। लेकिन ये नया आक्रमण उन्हें जंगलों से बाहर खदेड़ कर ऐसे अंजान सफर पर भेज रहा है, जिसके बारे में इन्हें को अंदाजा ही नहीं है। यह भीलों की अपनी एक यात्रा थी।

वेरिएल एल्विन ने काफी विषादग्रस्त होकर और दूरदर्शिता का परिचय देते हुए कहा था ‘विश्व भर के साधारण व साक्षरतापूर्ण (Pre-Literate) की स्थिति में रहने वाले ज्ञानवान व्यक्तियों के लिए यह कठिन समय है। भारत में वनवासियों के लिए अब आवश्यक हो गया है कि वे इस स्वतंत्र और तेजी से विकास को उन्मुख देश के जीवन में अपना स्थान बनाए। परन्तु इसमें एक खतरा है। अफ्रीका और प्रशान्त क्षेत्र के त्रासदायी उदाहरण दर्शाते हैं कि बाहरी एजेंसियों द्वारा किए गए तीव्र एवं अति उत्साही परिवर्तनों के लोगों की कलाओं पर विध्वंसात्मक प्रभाव पड़ सकते हैं। आदिवासी भारत को हजारों छोटे विद्यालयों से पाट दिया जाएगा। लड़के और लड़कियों की चमकदार आँखों को इस बात के लिए प्रशिक्षित किया जाएगा जिससे कि वे अपनी भाषा के अतिरिक्त किसी अन्य भाषा में अर्थ निकाल पाएँ। इससे खतरा यह है कि सम्भवतः उन्हें प्यार सुंदरता को पहचानना नहीं सिखाया जाएगा। उनके दिमाग को कुछ इस तर संकुचित किया जाएगा कि वे विश्वास करने लगें कि वह सब कुछ जो प्रकृति, और सामान्य है, किसी न किसी रूप में खराब है। उनके हाथों को घटिया धागा बनाने के लिए प्रशिक्षित किया जाएगा जिससे कि वे अपने शरीर के लवण को ढक सकें। लेकिन वे ऐसी कोई सुन्दर वस्तुएँ न बना पाएँ जोकि उनके बालों, गले और बाजुओं को अलंकृत करती हो। इस बात का भी खतरा है कि उन्हें पूराने जीवन को अस्वीकृत करने को प्रेरित किया जाएगा और इसके बदले में उन्हें बहुत कम सीख दी जाएगी कि वे जीवन में लय और तेजस्विता, उल्लास एवं आनंद से कैसे लगाव स्थापित कर पाएँ।’

सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक स्थितियों में पाए परिवर्तन के विपरीत प्रभाव धीरे-धीरे सामने आते हैं और वे संस्कृति को अपने अनुकूल बनाने का प्रयास करते हैं। वेरियर एल्विन इन्हीं सबको लेकर चिन्तित नजर आते हैं। लेकिन विस्थापन से सबकुछ इतनी फुर्ती से होता है कि अवाक रह जाना पड़ता है। आदिवासी एवं कृषक समुदाय की जीवनशैली और संस्कृति कोई अलग-अलग वस्तुएँ नहीं है। उनके, तीज-त्यौहार, उनकी परम्पराए, उनका खान-पान, सभी कूछ एक दूसरे से गुथा हुआ है आदिवासी के देवता हमेशा उनके साथ रहते हैं। उनके पूर्वज हमेशा उनकी मदद को तैयार रहते हैं उनका पड़ोसी हमेशा उन्हें सम्भालते रहता है। उनकी स्वतंत्रता कभी उन्हें स्वछंद नहीं होने देती। क्योंकि वे स्वतंत्रता के मायने समझते हैं। यह स्वतंत्रता उन्होंने स्वअर्जित की है ओर कभी किसी को इसे छीनने का मौका नहीं दिया। या दूसरे शब्दों में कहे तो आजादी के पहले के किसी शासक में में इतना साहस नहीं था जो इनकी संस्कृति में हस्तक्षेप कर सके। लेकिन लोकतंत्र की लुभावनी छवि मे संभवतः इस समुदाय को पहली बार किसी पर आश्रित कर दिया। गौर करना होगा कि यह हार लोकतंत्र की है। हमारी सोच की। बरहाल अपने निवास में विस्थापन की वजह से आए परिवर्तन के सांस्कृतिक प्रभाव को समझने के लिए आवश्यक है कि इन समुदायों के जीवन को समग्रता में समझा जाए।

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